लौट आओ दीपशिखा / भाग 7 / संतोष श्रीवास्तव
नीमा काफी अच्छी हिन्दी बोल रहा था। बताने लगा-मैमशाब, आपको पता है लद्दाख़ जम्मू कश्मीर का ही एक हिस्सा है। उधर तो बहुत आतंकवादी हैं... पर लद्दाख़ में हम सुरक्षित हैं क्योंकि हमें फौज़ से बहुत हेल्प मिलती है। फौज हमसे खुश है क्योंकि जब भी सरहद पार से ख़तरा आताहै हम सब लद्दाख़ी फौज की मदद के लिए आगे आ जाते हैं। " दीपशिखाको नीमा कि बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो प्राकृतिक दृश्यों में खोई हुई थी। खूबानियों से लदे पेड़ और खेतों में लहलहाती गेहूँ की फसल देख न जाने कितने चित्र वह मन के कैनवास पर उकेरने लगी। तीखीतेज़धूप में पहाड़ शीशे से चमक रहे थे। रास्ते के दोनों ओर सुनहले पत्तों से भरे यूलक के पेड़ बेहद खूबसूरत लग रहे थे।
लेह के सबसे बड़े बौद्ध मठ हेमिस में दीपशिखा कि मुलाकात बौद्ध लामाओं से हुई। बच्चों से लेकर बड़ों तक जितने भी लामा थे सबके सिर घुटे हुए... शरीरपर एक भी गरमकपड़ा नहीं... गलेसे पैर तक कत्थई परिधान में उनके गोरे चमकते चेहरे दीपशिखा देर तक देखती रही। लामाबाल्यावस्था में ही बौद्ध धर्म में दीक्षित हो जाते हैं, शादी ब्याह का तो सोचते तक नहीं, घर-घर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करने और गरीबों की मदद करने का ये संकल्प लेते हैं।
उसने सीढ़ियों पर बैठकर मठ का और लामाओं का स्कैच बनाया।
नीमा ने सूर्यास्त तक दीपशिखा को ठिक्से मठ, शांति स्तूप आदि दर्शनीय स्थल घुमा दिये। जिनजिन रास्तों से जीप गुज़री सड़क के संग-संग सिंधु नदी उसकी हमसफ़र बनी रही... स्वच्छ पारदर्शी पानी में से तलहटीके गोल-गोल सफ़ेद पत्थर दीपशिखा के मन में नये-नये चित्ररचते गये। कविताइस बार सूझ नहीं रही थी। दो चार लाइनें दिमाग़ में आती भी तो उनमें मुकेश होता... तो क्या उसकी काव्य प्रतिभा मुकेश के समान ही पहुँच के बाहर हो गई? मुकेश फिर मन में फाँस-सा रड़कने लगा। वह होली फिश पाँड के किनारे खड़ी सुनहले धाननुमा पौधों के बीच काली सफ़ेद बत्तख़ों को निहार रही थी। क्वैं-क्वैं की आवाज़ करती वे उसके नज़दीक आ गई थीं। मुकेश ने उसका वहाँ खड़ा रहना दूभर कर दिया... वह तेज़ी से आकर जीप में बैठ गई-"होटल चलो नीमा।"
नीमा ने मैमशाब का मुरझाया चेहरा देखा और उन्हें खुश करने के लिहाज़ से डंडीदारसुगंधित सफेद फूल उसकी ओर बढ़ाया-"आपके लिए।"
दीपशिखा ने पलभर नीमा कि ओर देखा... फिर फूल लेकर गाल से सटाया और आँखें मूँद लीं।
जीप शाम के सुरमई रास्तों पर चल पड़ी। रात भर बर्फ़ीली हवाएँ चलती रहीं। कमरा हीटर और बिस्तर की गर्म पानी की थैलियों से एकदम नॉर्मल टेम्प्रेचर पर था फिर भी टूटे दिल की चिन्गारियाँ दीपशिखाको होठों के ऊपर और माथे पर पसीने की बूँदों से बेचैन किये थीं। मुकेश की स्मृतियों के हमले से वह लड़खड़ा उठी थी... दर्द की लहर उसकी पसलियों को चीरते हुए माथे के पठार पर रुकी फिर पाँवों केसमँदर में छलाँगलगाकर तैरने लगी।
"यह दर्द तुमने खुद चुना है दीपशिखा... अबशिकायतकरोगी भी तो किससे?"
शायद रात के तीन बजे नींद आई हो, सुबह जब नींद खुली तो आठ बज चुके थे। धूप खिड़की के बाहर चमक रही थी। उसने खिड़की तकपहुँच कर परदा खींचने को ज्यों ही हाथ बढ़ाया नज़रें होटल के लॉन पर जमे बर्फ़ के ढेर पर गईं। तुरंत खिड़की से इधर-उधर झाँका... बर्फ़ ही बर्फ़... तो रात को बर्फ़बारी हुई है। उसने इंटरकॉम पर चाय का ऑर्डर दिया और फ्रेश होकर सोफ़े पर बैठ गई। चाय लाने वाले लड़के से पूछा-"क्या बहुत बर्फ़ गिरी है?"
"नहीं मैम, थोड़ीसी ही है। अभी पिघल जाएगी।"
"फिर तो रास्ते में कीचड़ मिलेगी।"
"नहीं मैम... धूप तीखी तेज़ होती है न, घंटेदो घंटे में रास्ता सुखा देगी।"
अरेकमाल है, ठंड इतनी और धूप ऐसी? "
"हाँ मैम, साल के तीन सौ दिन धूप ऐसी ही तीखी तेज़ होती है और रात को बर्फीली हवाएँ चलती हैं।"
"अनोखा प्रदेश है लद्दाख।"
लड़का मुस्कुराता हुआ चला गया।
जीप में कैनवास और चित्रकारी का सामान लादा गया। पानी की बोतलें... कॉफ़ी से भरा थर्मस और बिस्किट। आज चित्रकारी का पूरा मूड था दीपशिखा का। आज नीमा उसे सिंधु दर्शन के लिए ले जा रहा है। दीपशिखा ने काला लाँग स्कर्ट, मरून टॉप और मरून स्वेटर पहना है। ऊँची एड़ी की सैंडिल पहनने का मन था लेकिन घूमने में कठिनाई होगी इसलिए जूते ही पहने। वह सिंधु नदी देखने के लिए उतावली हो रही थी। पहले सिंधु दर्शन के लिए पाकिस्तान जाना पड़ता था। सिंधु नदी हिमालय से निकलकर लद्दाख़ से बहतीहुई पाकिस्तान जाती है और वहाँ से फिर भारत लौटती है। जब लोगों को यह भूगोल समझमेंआया तो लेह में सिंधु दर्शन की परम्परा चल पड़ी। अब तो बड़े ज़ोर शोर से सिंधु महोत्सव होता है।
"अरे... यहाँ तो बड़ी भीड़ है, क्या आज ही सिंधु महोत्सव है?"
"नहीं... मैमशाब... फ़िल्म का शूटिंग चल रहा है। आज सिंधुदर्शन नहीं हो सकता... नो एंट्री है।"
दीपशिखा नेदेखा खूब लम्बे चौड़े पक्के चबूतरे पर कैमरे ही कैमरे... दौड़ते-भागते लोग... एक आदमी फ़िल्म डायरेक्टर के सिर पर धूप से बचने के लिए छतरी ताने खड़ा था... वह जीप से बाहर निकली... शूटिंगदेखने के बहाने चबूतरे पर सीमेंट से बनी गेरूरंग की छतरी के नीचे जाकर खड़ी हो गई। हीरोइन ने सिंधु जल अंजलि में भरकर होठों से लगाया और पास खड़े दस ग्यारह बरस के लड़के से कहा-"आओ बेटा... आचमन कर लो।"
कैमरे चमके और शॉट ओ.के. ... पैकअपकी घोषणा, फ़िल्म डायरेक्टर गदबदे बदन का चालीस पैंतालीस बरस का होगा। वह सिंधु नदी का जल स्पर्शकरने के लिए सीढ़ियाँ उतर ही रही थी कि कानों में सुनाई दिया- "दीपशिखाऽऽऽ"
वहपलटी... सामने फ़िल्म डायरेक्टर-"आप चित्रकार दीपशिखा ही हैं न?"
"जी... आप मुझे कैसे जा..."
"हम तो आपके मुरीद हो गये हैं। भोपाल में लगी एग्ज़ीवीशन से आपके सारे चित्र ख़रीदे हमने। वाह, आपके हाथों में जादू है।"
"आप नीलकांत ठक्कर!" वह अवाक़ थी। शूटिंग देखने आई भीड़ अब नीलकांत के साथ-साथ दीपशिखा के भी ऑटोग्राफ़ लेने लगी।
"आप कहाँ रुकी हैं?"
होटल का नाम बताने पर अब चौंकने की बारी नीलकांत की थी-"हम भी तो उसी होटल में अपनी टीम सहित रुके हैं। क्याइत्तिफ़ाक़ है।" दोनों मुस्कुराये।
"अगर कोई और प्रोग्राम न हो तो हम साथ में डिनर लें?"
दीपशिखा के पास इंकार करने की कोई वजह नहीं थी। उसका कद्रदान कोई मामूली इंसान तो न था। इतना बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर... हिट फ़िल्मों का नामवर आदमी...
"आई डोंट माइंड।"
नीलकांत के ड्राइवर ने कार का दरवाज़ा खोला। इस बीच नीमा को दीपशिखा ने वापिस लौट जाने को कह दिया। कार में वह नीलकांत के बाजू में बैठी। तेज़ परफ़्यूम की खुशबू कार में समाई थी। नीलकांत की उँगलियों में हीरा, नीलम, पन्ना चमक रहा था। सूरज ढल चुका था। सुरमई अँधेरा पहाड़ों कोक्षितिज के कैनवास पर चित्रित कर रखा था। नीलकांत ने सनग्लासेज़ उतार दिए। उसकी आँखें नीली थीं जो उसके गोरे चेहरे पर खूब फब रही थीं।
"मैं आपको थीम दूँगा, क्या आप उस पर पेंटिंग बनाएँगी।" नीलकांत ने ख़ामोशी तोड़ी।
"फिलहाल तो मैं फ्रांस में अपने चित्रों की एग्ज़ीवीशन प्लानकर रही हूँ।"
"ओ ग्रेट... और कहाँ-कहाँ लग चुकी है आपके चित्रों की प्रदर्शनी?"
रेस्तराँआने तक दीपशिखा ने नीलकांत के सारे सवालों के जवाब दे दिये। रेस्तरां के केबिन में दोनों बैठे तो ऐसा एकांत दीपशिखा को असहज कर गया। वह संकोच से भर उठी। न जाने क्या सूझी कि एक अजनबी के साथ यूँ डिनर पर चली आई। वह भी फ़िल्मी आदमी। इन पर भरोसा भी तो नहींकिया जा सकता? तो क्या मुकेश भरोसेमंद साबित हुआ? नहीं... नहीं, सारे मर्द एक जैसे नहीं होते।
"क्या लेंगी... ठंड बहुत ज़्यादा है थोड़ी ब्राँडी और स्टार्टर में चिकन लॉलीपॉप।"
ब्राँडी की एक छोटी बॉटल तो सुलोचना ने भी उसके बैग में रखी थी कि ठंड ज़्यादा हो तो थोड़ी-सी पी लेना, गर्मी रहेगी।
"क्या सोच रही हैं? कम ऑन... यहाँ का वैदर रात को बर्फीला हो जाता है। खुदकी सुरक्षा के लिए ब्राँडी दवा जैसी है।"
तब तक बैरा ऑर्डर की गई सामग्री रख गया था। नीलकांत के आत्मीय व्यवहार से दीपशिखा खुलती गई। इस बेहतरीन वक़्त के लिए वह किसे शुक्रिया कहे? ईश्वर को या नीलकांत को?
होटललौटतेहुए उसे बदन में गरमाहट महसूस हो रही थी। ब्रांडीवाक़ई अच्छी थी। नीलकांत उसे कमरे तक छोड़ने आया... "कल पैंगोग लेक के किनारे कुछ शॉट्स लेने हैं..." आप चलेंगी तो मुझे खुशी होगी। "
"सुबह बताऊँगी।"
"मैं इंतज़ार करूँगा, गुडनाइट।"
नीलकांत के विदा होते ही उसने दरवाज़े को अच्छी तरह बंद किया और चेंज करके गर्म बिस्तर में घुस गई। सोचाथा तुरंत सो जाएगी पर मुकेश उसे हांट करता रहा। सोचते-सोचते आधी रात हो गई तब कहीं जाकर नींद आई।
लॉनके फूलों भरे पौधे धूप में नहा रहे थे। इंटरकॉम पर नीलकांत था-"गुडमॉर्निंग... चल रही हैं?"
"ओ.के. ... कितनी देर में निकलेंगे। अभी तो मैं सोकर उठी हूँ।"
"एक घंटे बाद?" नीलकांत की आवाज़ की मिश्री कानों से होठों तक लरज गई।
"ओ.के." रिसीवर रखते ही क़दमों में फुर्ती आ गई। ब्रश करते-करते उसनेचाय का ऑर्डर दिया। आज वह पीली ड्रेस पहनेगी। देखती है इन हसीन वादियों में वह पीले रंग के साथ कितना काँप्रोमाइज़ कर पाती है। आज का पूरा दिन नीलकांत के साथ गुज़रेगा। क्या वे लम्हे उसे कचोटेंगे जो पीले रंग के साथ अनायास जुड़े हैं? क्या धोखे की यादों से ठसाठस भरे दिल को पैंगोंग झील के किनारे उलीच पाएगी? शायद हाँ... हाँ, वह कोशिश करेगी।
इत्तिफ़ाक़। नीलकांत ने भी नीलीजींस पर पीली टी शर्ट पहनी थी। उसे देखते ही मुस्कुराया-"व्हाट ए कोइंसिडेंट।"
अबउसे पीले रंग के साथ संघर्ष करना है। यानी कि जो सामने मौजूद है... सहज है... उसके लिए संघर्ष। आज वह कैनवास भी नहीं लाई। स्केच बुक और पेंसिल लाई है... आजउसे खुद को सीप में पिरोना है तभी तो मुक्ता रूप पकेगा।
मनाली चायना बॉर्डर रोड पर नीलकांत की टीम का काफ़िला चल पड़ा।
"नामग्यालजी... थोड़ा बताते चलिए, हमारेलिये तो यह जगह अननोन है।"
आशुतोष ने ड्राइवर से कहा तो वह अपने पीले दाँतों को निपोर कर मुस्कुराया-"जी शाब।"
"आपको पता है दीपशिखा जी, आज हम समुद्र सतह से 17586 फीट की ऊँचाई तय करने वाले हैं। वहाँ से 13900 फीट पर है पैंगोग झील।"
"जी... और वह 134 कि।मी। एरिया में फैली है। 100 कि।मी। चायना में और 34 कि।मी। भारत में।"
"अरेवाह! यानी कि आप सही मायने में टूरिस्ट हैं।" वह मुस्कुराई... नीलकांत भी।
"शाबजी, आज ड्राई डे है।" नामग्याल ने जानकारी दी।
"यानी कि आज लेह वासी शराब नहीं पिएँगे? मगर क्यों?"
"नहींशाब जी... वह वाला ड्राई डे नहीं। आज के दिन यानी हर सोमवार कोबी आर ओ के आदमी पत्थरों को डायनामाइट लगाकर तोड़ते हैं इसलिए गाड़ियों की आवाजाही रोक दी जाती हैं।"
"यारतुमहिन्दीअच्छी बोल लेते हो।"
नामग्यालगद्गद् हो गया।
चाँगथाँग वैली में झील के ऊपर कुछ काली पूँछ वाले परिंदे उड़ रहे थे। काली गर्दन वाले सारस भी थे। लद्दाख़ में इन्हें समृद्धि का प्रतीक माना जाता है और इसीलिए बौद्ध मठों की दीवारों पर इन्हें उकेरा जाता है। दीपशिखा ने चलती कार में ही इस दृश्य का स्केच बना लिया। नीलकांत उसे मुग्ध आँखों से निहारता रहा। चढ़ाईपर हवा का दबाव काफ़ी कम था। बर्फ़ानी विरल हवा में साँस भरना मुश्किल हो गया। सुलोचना ने कपूर उसके पर्स में रखते हुए कहा था-"चढ़ाई पर इसकी ज़रुरत पड़ेगी। सूँघती रहना। यह एक अच्छा ऑक्सीजनवाहक है।"
उसने पर्स में से कपूर की एक टिकिया नीलकांत को दी, दूसरी खुद सूँघने लगी। साँसें नॉर्मल हो गईं।
"कपूर मेरे पास भी है। हमें तो रात दिन की भागदौड़ यह सब सिखा देती है पर आप?"
"कुछखबरें तो हम भी रखते हैं।" दीपशिखा अब नीलकांत के संग सहज हो रही थी।
लम्बेरोमाँचक सफ़र के बाद पैंगोग झील सामने थी। मोरपंखी रंगों वाली झील... दीपशिखा ने कार से उतरते ही दूरबीन आँखों से सटा ली। नीला, हरा, बैंगनी, पीला, गाढ़ा नीला... इतनेरंगों का पानी... आश्चर्य? पीछे पर्वतों का सौंदर्य अद्भुत था। दो तीन रंग के पर्वत झील को अपनी गोद में समेटे थे। दूर चुशूल था... वह लैंड जिसके इस पार भारत और उस पार चीन है। सर्दियों मेंझील जम जाती है। पाँच फीट तक की गहराई में पानी ठोसबर्फ़ बन जाता है। तब उस पर फौजी गाड़ियाँ चलती हैं जो सीमा पर सैनिक शिविर में सामान पहुँचाती हैं। इतने ठंडे, सुनसान इलाके में सैनिक देश की रक्षा के लिए डटे रहते हैं। "