लौट आओ दीपशिखा / भाग 8 / संतोष श्रीवास्तव
फ़िल्म के शॉट्स रेडी थे। धूप में चौकोर बोर्ड सरीखे कैमरे चौंधियाई रोशनी में पलकें बंद कर लेने को मजबूर कर रहे थे। हीरो हीरोइन पर एक गाना फ़िल्माया गया। गाने के तीन अंतरे में से एक ही अंतरा शूट हो पाया कि लंच टाइम हो गया। सबके लिए पैक्ड लंच था। वह नीलकांत और हीरो हीरोइन के साथ बैठकर लंच लेने लगी। सैनिकों ने उनके लिए टैंट की व्यवस्था कर दी थी और पूरी टीम के लिए फौजकी तरफ़ से कॉफ़ी बन रही थी।
"बोर तो नहीं हो रही हैं दीपशिखा जी?" नीलकांत के सवाल पर दीपशिखा ने चौंकते हुए कहा-"क्याऽऽ इतने खूबसूरत इलाके में कोई बोर हो सकता है भला।"
"नहीं, मैं शूटिंग में बिज़ी हूँ और आप अकेली, इसलिए पूछा।"
"चित्रकार को अकेलापन वरदान लगता है। काशमैं कैनवास ले आती तो बात ही और थी।"
"अरे, लेआतीं न।"
वह कॉफ़ी की चुस्कियाँ भरती रही।
आधे घंटे बाद शूटिंग फिर शुरू हो गई। वह अपनी स्केच बुक को लेकर रंग बिरंगे पर्वतों और झील के सौंदर्य में डूबगई।
सूर्यास्त के पहले नीचे उतर जाना है। नामग्याल जल्दी मचा रहा था। बहरहाल पैकअप करते-करते धूप ढलने लगी थी।
डिनर के लिए फिर नीलकांत का ऑफर... दीपशिखा क्यों इतनी मजबूर थी उसके सामने कि उसके हर प्रस्ताव पर रज़ामंदी की मोहर लगा देती। कहीं उसके चोट खाए दिल पर नीलकांत मलहम बनकर तो नहीं आ गया था?
हफ़्ते भर के लिए आई थी दीपशिखा लेकिन नीलकांत के साथ दस दिन कहाँ चले गये पता ही नहीं चला। हर बार शूटिंग में दीपशिखा नीलकांत के संग होती, जब लौटती तो स्केच बुक चित्रों से भरी होती। प्रकृति को उसने बहुत नज़दीक से महसूस किया यहाँ। रंग-बिरंगे पर्वतों के ईश्वर द्वारा बनाए लैंडस्केप को उतनी ही खूबसूरती से उतारना... बर्फ़ की कठोरता के संग कोमलता भी महसूस करना... अद्भुत दरख़्तों से बतियाना... बौद्ध मठों में लामाओं का कठोर जीवन... बौद्ध धर्मावलम्बियों की बौद्ध धर्म में इतनी आस्था है कि वे दस वर्ष की उम्रमें ही अपने पुत्र को मठ को सौंप देते हैं। उन्हें पता है कि उसका बचपन छिन रहा है और वह सांसारिक सुखों से वंचित किया जा रहा है। अब उसे सारा जीवन वरिष्ठ लामा कि देखभाल में बितानाहै और बौद्ध भिक्षु बनना है जिसमें कहीं भी उसकी मर्ज़ी को स्थान नहीं है। बौद्धधर्मावलम्बीनिर्वाण धम्मचक्र घुमाते हैं और यह मान लेते हैं कि उन्हेंजीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल गई। अगर सभी ऐसा मान लें तो एक दिन तो यह संसार मनुष्यविहीन होजाएगा। तब क्याहोगा? घबरा गई दीपशिखा।
एयरपोर्ट पर नीलकांत की टीम का वह भी एक हिस्सा बनकर जब हवाई जहाज में बैठी तो अपने बाजू वाली सीट पर नीलकांत को ही पाया। नीलकांतअपना कार्ड उसे दे रहा था-"पहुँचकरशायद वक़्त न मिले। हमें कार्गोबेल्ट में सामान के लिए काफ़ी देर रुकना पड़ता है। बॉम्बे पहुँचकर संपर्क में ज़रूर रहना। मेरेलिये ये दस दिन बहुत कीमती थे।"
"जी... "
"ऑफ़कोर्स... फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो जाना एक वजह थी और एक वजह आप। इस चंद्रप्रदेश में मैं ऐसे चाँद की उम्मीद से तो नहीं आया था न।"
कहते हुए उसने लाड़ से देखा उसे। वह भीतर ही भीतर पिघलने लगी।
पीपलवाली कोठी के अपने कमरे में जब वह तरोताज़ा होकर सुलोचना के हाथ के बने गर्मागर्म भजिए खा रही थी तो सुलोचना ने उसके चहरे को ग़ौर से देखा, अब वहाँ पहले वाली उदासी-अवसाद न था बल्कि एक चमक थी जो अक़्सर पतझड़ के बाद बहार आने पर पेड़ों के पत्तों में होती है। नई कोंपलों पर जब धूप की किरनें पड़ती हैं तो पूरा जंगल चमक उठता है। सुलोचना जाने को मुड़ीं... कहीं उनकी ही नज़र न लग जाए उनकी बिटिया पर-
"बैठो न माँ... इतने दिनों बाद लौटी हूँ मैं। वहाँ की बातें तो रात को सोते समय बताऊँगी। अभी चित्र तो देख लो। फ्रांस में एग्ज़िवीशन की पूरी तैयारी कर ली है मैंने।"
सुलोचनादीपशिखा के पंखों का वजन तौलने लगीं। सोचने लगीं जब ये पेट में थी तो वे किन ख़यालों में डूबी रहती थीं... चित्रकार के तो नहीं ही।
नीलकांतमुम्बई पहुँच चुका था क्योंकि सुबह-सुबह उसी का फोन था-"कैसी हैं दीपशिखा जी?"
"जी, आप कैसे हैं?"
"एकदम रिलैक्स मूड में। अगले महीने शूटिंग के लिए पेरिस जाना है। वहीं के लिए ऊर्जा जुटा रहा हूँ।"
"क्याऽऽ पेरिस! आप पेरिस जा रहे हैं?"
"हाँऽऽ... उसमें इतना आश्चर्य क्यों? फ़िल्म के अंतिम शॉट्स वहीं के तो लेने हैं।"
"ओह... अगले महीने शायद मैं भी पेरिस..."
"क्याऽऽ फिर वही इत्तिफ़ाक़... भई वाह, कमाल हो गया।"
"जी हाँ नीलकांत जी। हमारा ग्रुप तो कब से पेरिस में एग्ज़ीवीशन प्लान किये हुए है। मैं कल ही मुम्बई लौट कर इसे अंतिम रूप दूँगी और वीज़ा के लिए एप्लाई करूँगी।"
"इस जद्दोजहद में मत पड़िए। आपकी पूरी टीम को वीज़ा दिलाने का ज़िम्मा मेरा। आप मुम्बई आईये फिर मिलते हैं।"
एक सनसनी-सी फैल गई दीपशिखा के तनबदन में। उसका ख़्वाब इतनी जल्दी साकार होगा सोचा न था उसने। वह खुशी में भरकर सुलोचना से लिपट गई-"माँ, फ्रांस में एग्ज़ीवीशनका पक्का हो गया। मुझे कल ही मुम्बई लौटना होगा।"
सुलोचना के चेहरे पर बनावटी गुस्सा था-"यह क्या दीपू, अभी आईं, अभी चल दीं।"
"माँ, इस वक़्त मत रोको मुझे... अगर मौक़ा हाथ से गया तो क्या पता दोबारा चांस न मिले। माँ प्लीज़।"
जो सपना उसकी आँखों में पल रहा था उसके रेशमी सिरों ने पूरा आसमान थाम रखा था। मानो आसमान नहीं कैनवास हो। फ्रांस के चित्रकारों की नक़ल की एक प्रदर्शनी उसने मुम्बई में फ्रेंच दूतावास में देखी थी। उन्हें देखकर मूल चित्रों को देखने की मन में जो लालसाजागी तभी से उसका पूरा ग्रुप फ्रांस जाने और अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाने की धुन में लगा है। 'अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट' बड़ी सक्रियता से काम कर रहा है।
मुम्बई इस बार वह अकेली ही आई। सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान ने मान लिया था कि दीपशिखा अपने तरीके से अपनी ज़िन्दग़ी जीना चाहती है और अगर ज़्यादा दखलंदाज़ी की तो हो सकता है वे बेटी से ही हाथ धो बैठें।
आते ही उसने सारे मित्रो को फोन लगाए, नीलकांत को भी-"आ गई हूँ।"
"वेलकम दीपशिखा, इस वक़्त मीटिंग में हूँ। शाम को बात करेंगे।"
शाम को सारे मित्र घर आ गये। दाई माँ और महेश काका जुटे थे रसोई घर में, पावभाजीऔर गुलाब जामुन की ख़ास फरमाइश थी।
"बड़ी खुशबू आ रही है। क्या कुछ ख़ास बनाया जा रहा है?" शेफ़ाली ने दीपशिखा को बाहों में भर लिया।
"क्यों नहीं... मेरे दोस्त भी तो ख़ास हैं।"
मुकेश को छोड़कर कहना चाहा शेफ़ाली ने पर वह दीपशिखा के चेहरे की खुशी को उदासी में नहीं बदलना चाहती थी। हो जाता है ऐसा ज़िन्दग़ीमें... ज़िन्दग़ी के सफ़र में कई बार अजनबी मिल जाते हैं और सफ़र अधूरा छोड़कर बिछुड़ जाते हैं। ज़रूरी तो नहीं कि अंत तक साथ दिया जाये। जितना साथ दिया, उतनाक़ीमती लम्हों के कोष में समा जाता है। जब कभी फुरसत होगी कोष खोला जायेगा।
शेफ़ाली रसोईघर में गई और गरम-गरम गुलाब जामुन मुँह में भर लिया। दाई माँ हँसने लगीं। वह हँसी तो चाशनी होठों के इर्द गिर्द बह आई।
सभी आ चुके थे, भूखे प्यासे... सबसे पहले खाने पर टूट पड़े फिर इत्मीनान से पेरिस में लगाई जाने वाली प्रदर्शनी पर एकाग्र हुए।
"मेरी थीम तो लगभग पूरी हो चुकी है। महीने भर बाद हमें कूच करना है।" दीपशिखा उत्साह से भरी पूरी थी।
"कला के मैदान के लिए।" सना खिलखिलाई।
"बिना हार जीत की परवाह किये।" एंथनी भी मूड में आ गया। देर रात तक सबने प्रदर्शनी की फाइल फाइनल कर ली। तय हुआ कि कल स्टूडियो में सब अपने-अपने पासपोर्ट औररुपएदीपशिखा के पास जमाकर देंगे। सब चले गये शेफ़ाली को छोड़कर।
"सच बता दीपशिखा, कोईमिल गया क्या? तेरा चेहरा एक क़िताब है, जिसे मैं पढ़ सकती हूँ।"
जाने क्यों दीपशिखा का मन लड़खड़ा गया। उसका ध्यान शेफ़ाली के इस सवाल पर नीलकांत की ओर क्यों गया?
"नहीं जानती शेफ़ाली पर तेरे सवाल के साथ ही नीलकांत क्यों याद आया समझ नहीं पा रही हूँ।" और उसने लद्दाख़ में नीलकांत के साथ बिताए दिनों को शेफ़ाली के सामने ब्यौरेवार रख दिया। उसे लगा जैसे वह पंख-सी हलकी हो आसमान में तैर रही है। एक बिजली-सी ज़रूर कौंधी मुकेश की यादों की पर बिजली की तरह ही उसके धोखे के काले बादलों में समा भी गई।
"मैं मिलना चाहूँगी नीलकांत से... बस देखा भर है भोपाल के एग्ज़ीवीशन में जब वे तेरे सारे चित्रों को ख़रीद रहा था। मुझे वह कला का पारखी लगा था।"
लेकिनशेफ़ालीइसलिए भी मिलना चाहती थी कि कहीं उसकी भोली भाली सखी दोबारा न छली जाये।
"मिला दूँगी... कलाकार तो है ही वह... फ़िल्मों का निर्देशक जो ठहरा।"
शेफ़ालीदीपशिखाकेगले लग दरवाज़े की ओर बढ़ी-चलती हूँ, अपनाध्यान रखना। "
शेफ़ाली के जाते ही नीलकांत का फोन... मानो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि कब दीपशिखा अकेली हो।
"क्याकर रही हो?"
"कुछ नहीं... अभी-अभी दोस्त विदा हुए हैं। प्रदर्शनी प्लान कर ली है। कल सब अपना पासपोर्ट ले आयेंगे। मैं परसों आपको वीज़ा के लिए दे दूँगी।"
"लेकिन उससे पहले मिलोगी नहीं?"
"कब?"
"कल शामहम गेटवे ऑफ़ इंडिया चलेंगे। थोड़ी देर बोटिंग फिर ताज में डिनर।"
वह सकुचा गई। दिल के हर कोने में द्वंद्व मचने लगा। वह दिल की सुने या दिमाग़ से काम ले।
"चुप क्यों हो दीपशिखा... इतना सोचती क्यों हो? ज़िन्दग़ीजीने के लिए है और अच्छे, सच्चेदोस्त मुश्किल से मिलते हैं।"
उसकेटूटेदिल पर इन शब्दों ने मलहम का काम किया।
"मैं आऊँगी नीलकांत।"
उसने हिम्मत बटोरकर उसका नाम लिया। नीलकांत की आवाज़ भी लरज गई-"थैंक्यू... डियर, मिलते हैं फिर।"
स्टूडियो में नशा तारी था। यह नशा दीपशिखा सहित सभी चित्रकारों ने विगत दो वर्षों के साथ से अर्जित किया था। मुकेश की कमी अब खलती नहीं थी। वैसे भी कलाकार भावुक होते हैं। सोच लिया कि रही होगी कोई मजबूरी मुकेश की वरना कौन अपने उभरते करियर कोठोकर मारता है। दोपहर को एंथनी ने बीयर मँगाई थी-"आज हम एक-एक जाम मुकेश को अलविदा कहने का लेंगे और फिर काम में तल्लीनता से जुट जाएँगे।" "हाँ, मेरी स्केच बुक और दिमाग़ में फीड लद्दाख़ की प्रकृति... बस मुझे उसके साथ खुद को जोड़ देना है। वहाँ के रंग बिरंगे पर्वत, सुनहले पत्तों वाले पेड़, मोरपंखी झील, काली पूँछ वाले सारस सब उड़ते, फिसलते, लुढ़कते... नदी, झील, पहाड़, मैदान, समँदर लाँघते मेरे चित्रों मेंआ बसें... मेरे कैनवास पर फैलकर अपनी मंज़िल पा लें... यूँ लगे जैसे वे अपनी लम्बीयात्रा कि थकान उतार रहे हों, सुस्ता रहे हों..."
"ए दीपशिखा मोहतरमा... अब चित्र बनाते-बनाते कविता न करने लगना वरना सारे सपने यहीं के यहीं धरे रह जाएँगे।"
"सना बेगम... क्यातुम्हें नहीं पता कि दीपशिखा के चित्र उसके नीचे लिखी कविता कि दो पंक्तियों से ही जाने जाते हैं?"
"हाँ, उसी पर तो मर मिटा वोनीऽऽऽऽ"
"शेफ़ालीऽऽऽ" दीपशिखा ने आँखें तरेरीं।
सब उत्सुकता से दीपशिखा को छेड़ने लगे... "कौन... कौन बता न... ये नी कौन है।"
दीपशिखा के चेहरे पर बनावटी रोष था-"इसी से पूछो... ईडियट..."
शेफ़ाली ने अपने कान पकड़कर तौबा की... फिर सब हँसते खिलखिलाते बीयर की मदहोशी में डूब गये।