लौट आओ दीपशिखा / भाग 9 / संतोष श्रीवास्तव
शाम लौटते परिंदों की चहचहाहट लिए हाजीअली के समँदर को सिंदूरी कर रही थी। कुछपरिंदे लहरों पर छोटी-छोटी काग़ज़की नावों सरीखेडोल रहे थे। जैसी वह बचपन में बनाती थी। वह और शेफ़ाली... और बरसते पानी के जमाव पर तैराती थीं।
"तू गंगा कि मौज मैं जमुना कि धारा..." दोनों भीग-भीग कर नाचतीं, कपड़े तरबतर और माली काका कि प्यार भरी डाँट... "चलो बच्चियों... क्या बीमार पड़ना है।"
दीपशिखा मुस्कुराई।
"क्या हुआ?" शेफ़ाली ने उसकी ओर ग़ौर से देखा-"ये तेरा बेमतलब मुस्कुराना... कहीं..."
"फिर वही... मैं तो तेरे साथ बिताए बचपन के दिन याद कर रही थी। कितना कुछ बदल गया। तब हम कागज़ की नावें बनाते थे। पानी पर हमारे जहाजचलते थे, बचपन कितना मालामाल था।"
"और आज रंगों से खेल रहे हैं। खेल तब भी था, आज भी है। फ़र्क़ बस हमारी उम्र और नज़रिये का है।" जाने कहाँ से हवा में तैरताभूखा पत्ता आया और दीपशिखा कि सैंडिल में उलझ गया। वह उसे निकालने को झुकी ही थी कि कार के ब्रेक ने उसे चौंका दिया। सामने नीलकांत अपनी लम्बी खूबसूरत गाड़ी में था। काले काँच की खिड़की से भी वह उसे देख पा रही थी। दरवाज़ा खुला। नीलकांत ने सिर बाहर निकाला।
"हाऽऽय... कमइन।"
"मेरी सखी से मिलिए... शेफ़ाली... ग्रेट पेंटर।"
नीलकांत कार से बाहर आया। शेफ़ाली ने नमस्कार करते हुए कहा-"नीलकांतजी?"
"ओ... आप मुझे जानती हैं?"
"आप भूल गये। हम भोपाल में आर्ट गैलरी में मिले थे जहाँ आपने दीपशिखा के सारे चित्र ख़रीदे थे।"
"ओ.के. ... याद आया। अच्छा लगा आपसे मिलकर और यह जानकर किआप दीपशिखा कि बेस्ट फ्रेंड हैं। चलिए एक-एक कप कॉफ़ी।"
शेफ़ाली का मन तो था पर वह दीपशिखा को नीलकांत के साथ का मौका देना चाहती थी। अपनी टूटे दिल की सखी को जीने का हौसला देना चाहती थी। चाहती थी उसे कोई ऐसा साथी मिल जाए जिससे वह अपने जज़्बातों को, एहसासों को शेयर कर सके।
"थैंक्स... पर मैं घर जाऊँगी। इस वक़्त मुझे पेरिस को फोकस करना है। मैंने कठिन थीम चुनी है।"
दीपशिखा समझ गई। बेहद लाड़ से उसने शेफ़ाली की ओर देखा और कार में नीलकांत की बगल वाली सीट पर बैठ गई।
"अच्छी है तुम्हारी सखी... अल्हड़ सी, मासूम।"
"कहीं आप उसे लेकर फ़िल्म इल्म बनाने का तो नहीं सोच रहेहैं?"
"क्यों? बुरा क्या है? हम फ़िल्म वाले अब इतने भी बेकार नहीं होते।"
"नहीं, मेरा मतलब वह नहीं था। वह चित्रकार है न..."
"तुमभी तो चित्रकार हो... पर मेरे दिल की स्टोरी में हीरोइन के लिए मैंने तुम्हें साइन कर लिया है।"
दीपशिखा अव्वल तो समझी नहीं... जब समझी तो उसके गाल दहक उठे... वह नज़रें घुमाकर सड़क की ओर देखने लगी। नीलकांत मुस्कुराता रहा, गुनगुनाता रहा। गेटवे ऑफ़ इंडिया में... समँदर अब काला दिख रहा था। लहरें ऊँची-ऊँची उठ रही थीं...रेलिंग पर भीड़ ही भीड़...
"देर कर दी हमने, बोटिंग का वक़्त तो अब नहीं रहा। चलो ताज चलते हैं।"
मुग़लई सजावट वाले केबिन में बैठते हुए नीलकांत एकदम फ्री अंदाज़ में उतर आया-"हाँ तो मोहतरमा, साइनिंगअमाउंट दूँ क्या?"
दीपशिखा भोलीभाली, एकदम मासूम सी, मोहक अंदाज़ में मुस्कुराई-"हमें मंजूर नहीं। पहले हम फ़िल्म की कहानी सुनेंगे।"
"अच्छाऽऽ..." वेटर को कॉफ़ी, नाश्ते का ऑर्डर देकर उसने सामने रखे गुलदान में से गुलाब की एक पँखुड़ी तोड़ कर उसकी ओर बढ़ाई... "तो शुरुआत करें? यह कहानी शुरू होती है लद्दाख़ की इठलाती, बलखाती नदी सिंधु के तट से... कैमरा ज़ूम... फोकस... हीरोइन नदी के पानी में पाँव डुबोए छप-छप कर रही है। पानी की छप-छप में उसके पैरों में पहनी पाजेब की छुन-छुन भी शामिल है।"
"कट्" दीपशिखा ने कहा और हथेली में दबी पँखुड़ी गालों से सहलाई-"हीरो कहाँ है?"
"उसका अक्स तुम्हारी आँखों में है... मुझे साफ़ दिख रहा है।"
दीपशिखा कि काली आँखों में नीलकांत का चेहरा था।
"चलिए... फ़िल्म पक्की... साइनिंग अमाउंट तो आप ऑर्डर कर ही चुके हैं। नाश्ता और कॉफ़ी।"
"बऽऽस... इतना ही, हम तो सॉलिड अमाउंट देंगे।" कहते हुए नीलकांत ने उसकी हथेली चूम ली जिसमें अभी-अभी उसकी दी गुलाब की पँखुड़ी दबी थी और जिसकी खुशबू दोनों के दिलों में महक रही थी।
कॉफ़ी पीते हुए दीपशिखा ने पूछा-"घर में अकेले हैं आप?"
"नहीं" नीलकांतगंभीर हो गया।
"बीवी थी... लेकिन हमारे बीच अंडरस्टैंडिंग निल... अब वह अलग रहती है। दो बेटियाँ हैं जिन्हें मैं शनिवार, इतवार को घर ले आता हूँ। कोर्ट ने बस इतनी ही परमीशन दी है। माँ हैं और छोटी बहन... वह फैशन डिज़ाइनर का कोर्स कर रही है।"
"उसे फ़िल्मों में नहीं आना है क्या?"
"नहीं... उसे फ़िल्मी दुनिया से एलर्जी है। बेटियाँ रिया और दिया एक्टिंग की दीवानी हैं। अभी तो पाँच और सात साल की हैं।"
दीपशिखा को नीलकांत की कुछ इसी तरह की ज़िन्दग़ी का भास-सा हो गया था इसलिए वह नॉर्मल बनी रही। ताज से निकलकर नीलकांत ने उसे घर तक छोड़ा, कल मिलने के वादे पर... "कल सबके पासपोर्ट चाहिए होंगे... वीज़ा के लिए एप्लाई कर देना है... टिकटें तो बुक करा ही लेते हैं... नहीं तो मुश्किल हो जाएगी।"
"हाँ ठीक है... कल उसी जगह पर पासपोर्ट सहित मैं मिलूँगी।"
"ओ.के. गुडनाइट... शब-ब-ख़ैर डियर।"
वह मीठी-मीठी गुनगुनाहट लिए लिफ़्ट में आ गई।
सप्ताह बीतते-बीतते जहाँ दीपशिखा के दिल की ओर नीलकांत ने तेज़ी से क़दम बढ़ाए थे वहीं सबको वीज़ा भी मिल गया, टिकटें भी आ गईं अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट्स अपने लक्ष्य को पाने में कमर कस करजुटगया। उनके लिए दीपशिखा मेन पॉवर थी। मुम्बई, भोपाल और अब पेरिस में प्रदर्शनी उसी की वजह से हो पा रही थी हालाँकि सबका यह भी मानना था कि दीपशिखा को फूल की तरह इसलिए सहेज कर रखना है क्योंकि वह मुकेश को लेकर एक बड़े छल से गुज़री थी। वह कोमल हृदय की छुई-मुई-सी दीपशिखा भीतर ही भीतर कोई रोग न पाल ले इस बात को लेकर सब सतर्क थे। शायद दीपशिखा भी, वह नीलकांत के हर उठे क़दम पर ब्रेक लगा देती।
"क्यों? दीप... क्यों?"
"तुम मुझे दीप कहते हो नील तो मैं डर जाती हूँ... इस दीप के अक्षरों ने मुझे खुरच-खुरच कर मिटाया है। लगता है जैसे बहुत क़रीब होना खो देना है और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती।"
नीलकांत ने ग़ौर से दीपशिखा को देखा था... उन आँखों की झील में उसे कुछ कमल खिले तो कुछ मुरझाये नज़र आये थे। वह मुरझाए कमलों को खिला देगा, वह दीपशिखा का होकर रहेगा।
दो महीने तक की किसी भी तारीख़ पर पेरिस में आर्ट गैलरी उपलब्ध नहीं थी। लेकिन नीलकांत की शूटिंग पोस्टपोन नहीं हो सकती थी। करोड़ों दाँव पर लगे थे। तय हुआ बाकी चित्रकार सोलह जुलाई की फ़्लाइट लेंगे और दीपशिखा नीलकांत के साथ ही फ्रांस जाएगी ताकि वहाँ का इंतज़ाम अपनी नज़रों के सामने करपाये।
प्रदर्शनी की तैयारी की वजह से वह पीपल वाली कोठी भी नहीं जा पाई। सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान को ही उसे-सी ऑफ़ करने मुम्बई आना पड़ा। जाने से दो दिन पहले वह शेफ़ाली को लेकर नीलकांत के संग हीरा पन्ना में शॉपिंग करती रही। सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान भी एक बड़ा सूटकेस भर कर कपड़े ले आये।
"उधर ज़रुरत पड़ेगी। महीनेभर रुकोगी न तुम?"
"वो तो ठीक है माँ पर शॉपिंग तो मैंने भी कर ली है।"
"तो क्या हुआ, सिलेक्टकर लेते हैं।"
सुलोचना ने दाई माँ को आवाज़ दी-"दोनों सूटकेस के कपड़े पलँग पर निकाल कर रखो और इस बड़े वाले सूटकेस पर यह स्लिप चिपका दो।"
दीपशिखा के नाम वाली स्लिप सूटकेस परचिपकाई गई। कपड़े सुलोचना ने ही सिलेक्ट किये। दीपशिखा देखती रही... 'बेशक़, माँ की पसंद लाजवाब है, हर एक ड्रेस के साथ मैचिंग जूलरी, वह भी सिम्पल मगर रिच लुक वाली...' गरम कपड़ों का अलग सूटकेस तैयार हुआ। बेटी पहली बार विदेश जा रही है, वह भी अकेले। रात दो बजे तक समझाती रहीं... हिदायतों की लिस्ट लम्बी थी। दीपशिखा ऊँघती रही।
मध्यरात्रि तीन बजे की फ़्लाइट थी।
"गाड़ी भेजूँ?" नीलकांत ने पूछा।
"नही, माँ, पापापूरा फ्रेंड सर्किल-सी ऑफ़ करने आ रहा है एयरपोर्ट।"
"ग्यारह, साढ़े ग्यारह तक हर हाल मेंपहुँच जाना। हमें कस्टम में ज़्यादा समय लगेगा... लगेज तुम्हारा भी बहुत होगा।"
"हाँ... पेंटिंग का सारा सामान भी तो है।"
उसके दोस्तों के हाथों में पीले फूलों से भरी डंडियाँ थीं। ये पीला रंग उसका पीछा क्यों नहीं छोड़ता? क्यों ज़िन्दग़ी के हर खूबसूरत मोड़ पर धमक आता है और वह बिखर जाती है। वह जो स्वयं को नकारते हुए बस वही नहीं रह जाती है जोवह है। वह अतीत को दफ़न कर देना चाहती है... अतीत सब कुछ भराहोने के बावजूद उसे ख़ाली कर देता है अक़्सर।
"क्या शेफ़ाली... और किसी रंग के फूल नहीं थे फ्लोरिस्ट के पास?"
"इस रंग से लड़ना सीखो दीपशिखा, इसे भुलाने की कोशिश बेकार की कोशिश है। सामना करो इसका।"
दीपशिखा कि आँखों में पानी तैर आया-"सामना ही तो कर रही हूँ शेफ़ाली..."
सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान को लगा बेटी बिदाई के ग़म में भावुक हो रही है। सुलोचना ने उसे गले से लगा लिया-"गॉड ब्लेस यू... मेरी गुड़िया।"
ट्रॉली खींचती वह अकेली एयरपोर्ट के अंदर चली गई। अकेला, लम्बासफ़र जैसे दूर-दूर तक कहीं कोई नहीं, बस है तो वह... उसके क़दमों के निशान पीछे छूटते गये... अदृश्य। नीलकांत ने उसे बाहों में भरकर माथे पर चूम लिया-"अच्छी लग रही हो।"
पेरिस! दीपशिखा के सपनों का पेरिस। उसकी बलवती इच्छा को राह दी नीलकांत ने वरना यह क्या इतना सहज था? एयरपोर्ट के बाहर फ़िल्म की पूरी यूनिट तीन कोच में समा गई। नीलकांत के लिए कार थी। महँगे पाँच सितारा होटल में उनके कमरे पहले से बुक थे। एयरपोर्ट से होटल तक का रास्ता, वह खिड़की के बाहर देख ज़रूर रही थी लेकिन जैसे स्वप्नदृश्य में खोई थी। पिकासो, सेजाँ... आधुनिक चित्रकार के तीर्थ पेरिस को वह नज़रों में भरे ले रही थी। स्वप्न गलियों से गुज़रतीगलियाँ पक्की, घुमावदार, दोनों किनारों पर लगे बैंगनी और सफ़ेद फूलों से लदे दरख़्त।
"मैंने प्लान कर लिया है मैं यहाँ क्या-क्या देखूँगी।" उसने नीलकांत से कहा जो बड़ी देर से फोन पर बिज़ी था। ठंड बेतहाशा थी, कार अपेक्षाकृत गर्म थी फिर भी ठंड महसूस हो रही थी। होटल पहुँचने में काफ़ी वक्त लग रहा था।
"होटल पहुँचकर तो मैं पहले तुम्हें देखूँगा।" नीलकांत ने शरारत से कहा।
"मुझे?" उसने अपनी मासूम निगाहें नीलकांत पर टिका दीं, वह खिलखिलाकर हँसा।
"हाँऽऽऽ तुम्हें ही तो... अभी देखा कहाँ है?"
वह कुम्हला गई, नीलकांत भी क्या मुकेश की तरह बस जिस्म ही चाहता है उसका?
"क्या यार, मज़ाक कर रहा था, सीरियसली... जोकिंग। हाँ बताओ, क्या-क्या देखोगी?"
"यहाँ के म्यूज़ियम, कला के स्कूल, गैलरियाँ, कला स्टूडियो और पोंपेदू सेंटर।" उसने उत्साहित होकर कहा।
"पोंपेदूसेंटर? यह क्या बला है?"