वंडर वुमन, मॉडेस्टी ब्लेज़ और नाडिया / जयप्रकाश चौकसे

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वंडर वुमन, मॉडेस्टी ब्लेज़ और नाडिया
प्रकाशन तिथि :15 दिसम्बर 2016

अखबारों में कॉमिक्स का शुमार अनेक दशकों से हो रहा है। कॉमिक्स से प्रेरित फिल्में भी बनती रही हैं। मॉडेस्टी ब्लैज शृंखला लंबे समय तक लोगों का मनोरंजन करती रही है। इसी तरह 'ब्रिंगिंग अप फादर' 87 साल जारी रही। इस तरह की शृंखलाओं के जनक के मरने के बाद भी अन्य लोगों से उसे बनवाया जाता है परंतु मूल-भावना को अक्षुण्ण रखा जाता है। इसके पात्र सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाते हैं जैसे डगवुड और आर्ची। आबिद सूरती ने लंबे समय तक धर्मयुग में ढब्बूजी का पात्र जीवंत रखा। यह विधा कर्टून से अलग है, क्योंकि कार्टून में मात्र एक चित्र होता है। टाइम्स के लिए आरके लक्ष्मण ने लंबे समय तक चित्र बनाए, जो कमोबेश मुखपृष्ठ पर प्रकाशित संपादकीय की तरह सार्थक होते थे। इस विधा के भीष्म पितामह आरके लक्ष्मण रहे। ज्ञातव्य है कि इन्हीं आरके लक्ष्मण के सगे भाई अारके नारायण के उपन्यास 'गाइड' पर विजय आनंद ने महान फिल्म की रचना की थी। वर्ष 1941 में जब दूसरा विश्वयुद्ध अपने चरम पर था, तब कार्टून शृंखला 'वंडर वुमन' का प्रारंभ हुआ, जिसकी काल्पनिक नायिका बुराई की शक्तियों के विरुद्ध लड़ती है और साधनहीन लोगों को न्याय दिलाती है। आम आदमी के लिए संघर्ष करने वाले समाजवादी पात्र पूंजीवादी अमेरिका में बहुत गढ़े गए हैं। जुदा राजनीतिक दर्शन के बावजूद तमाम राजनेताओं की लोकप्रियता का आधार तो आम जनता है, जिसे हर बार नए-नए वादों से ठगा जाता है परंतु 'भूख ने जिसे प्यार से पाला हो' उसकी सहनशक्ति लगभग धरती के समान ही हो जाती है और वह अपने बिरजू से बिगड़ैल लड़के को गोली मारना भी जानती है परंतु प्राय: आशीर्वाद ही दे पाती हैं। आम आदमी की तरह मजबूत शॉक एब्जॉर्बर अभी तक किसी मशीन अथवा वाहन के लिए नहीं बन पाए हैं। गौरतलब है कि संहार करने वाले विश्वयुद्ध के समय 'वंडर वुमन' जैसा पात्र रचा गया। पहले विश्वयुद्ध के सिनेमा माध्यम के पहले कवि चार्ली चैपलिन ने महान फिल्में रची, जो मानवीय करुणा का दस्तावेज मानी जाती है।

राज कपूर ने 'आर्ची' कॉमिक्स में देखा कि एक पिता अपने किशोरवय के सुपुत्र से कहता है, 'यू आर टू यंग टू फाल इन लव' अर्थात अभी तुम्हारी प्यार की उम्र नहीं है। इस एक वाक्य की प्रेरणा से राज कपूर ने 'बॉबी' की रचना की। राज कपूर की भीतरी शक्ति देखिए कि उनके माता-पिता की मृत्यु एक ही पखवाड़े में हुई। शैलेन्द्र और जयकिशन नहीं रहे। उनकी कंपनी पर 'जोकर' की असफलता के कारण लाखों का कर्ज चढ़ गया। घनघोर अवसाद और अभाव के कालखंड में उन्होंने 'बॉबी' जैसी आनंददायक और मनोरंजक फिल्म गढ़ी। इसे कहते हैं यथार्थ जीवन का विलक्षण जीवटता वाला 'जोकर' जो आंख में अांसू आने पर भी मुस्कराता है गोयाकि 'जख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नज़र।' इस तरह देखें तो राज कपूर और शैलेन्द्र सृजन क्षेत्र के जुड़वां भाई रहे हैं। सृजन क्षेत्र में खून के रिश्ते से बड़ा होता है आपसी समझदारी का रिश्ता।

वर्षों पूर्व टेलीविजन पर युवा गायकों की प्रतिस्पर्द्धा थी और विजेता को दो गायकों में से चुना जाना था। पाकिस्तान से आए गायक ने फाइनल में अपने घराने के भारतीय गायक के खिलाफ प्रतिस्पर्द्धा करने से इनकार कर दिया था। आज भी पाकिस्तान में लता मंगेशकर को सुनने वालों की कमी नहीं आई है और भारतीय फिल्मों के लिए जबर्दस्त जुनून है तथा भारत में भी नूरजहां के गीत सुने जाते हैं और वहां बने सीरियल धड़ल्ले से दिखाए गए हैं। उनका 'धूप किनारे' अत्यंत लोकप्रिय रहा है। जीटीवी के मालिक भारतीय जनता पार्टी के बड़े हिमायती रहे हैं और उन्होंने ही अपने टेलीविजन के लिए पाकिस्तान में बने सीरियलों का आयात किया। राजनीति की सुई से इस तरह हाथी निकल जाता है परंतु प्रेम का महीन धागा अटक जाता है। हमारी पहली आवश्यकता सांस्कृतिक चेतना की धारा का सतत प्रवाह बनाए रखना है। करेंसी परिवर्तन जैसे सतही परिवर्तन से आम आदमी का जीवन कष्टमय हो जाता है। नए करेंसी की नकल एक सप्ताह में भीतर आ गई और अनगिनत पुराने नकली नोट बैंकों के मार्फत सरकार के पास पहुंच गए। सारा व्यवसाय ठप हो गया और भय का ऐसा वातावरण बनया गया है कि गले तक दलदल में फंसा आदमी भी भविष्य में होने वाले लाभ के गीत गा रहा है या यह सब प्रायोजित भी हो सकता है। सांस्कृतिक चेतना का तात्पर्य उसकी आजकल उछाली जा रही परिभाषा और दायरा नहीं है, वरन भारत की उदात्त संस्कृति है, जिसमें उदारता है और सबको जोड़कर समहित साधना है। उस वंडर वुमन को ही संस्कृति की रक्षा करना है और उसी की तर्ज पर मेरी इवांस वाडिया अभिनीत पात्र रचे थे। शांताराम की एक फिल्म में भी सताई गईं औरतें अपना दल बनाकर अन्याय से लड़ती है। जननी स्त्री ही रक्षा करती है।