वंदन-अभिनन्दन शरद । / ज्योत्स्ना शर्मा
वंदन-अभिनन्दन शरद । स्नान-पर्व में सद्यस्नाता , धुली-निखरी प्रकृति को निहारते तुम आ ही गए । लो विराजो । उसने तुम्हारे स्वागत में धवल-कषाय हरसिंगार के फूलों का आसन बिछा दिया है । बरखा के मुक्ताहार से गिरे जिन मोतियों को समेटकर मार्ग के दोनों ओर भर दिया था , उन्हीं से झाँकती रातभर जागी कुमुदिनियाँ स्वागत-गीत गा-गाकर थक गई हैं और निद्रोत्सव मनाकर उठे प्रफुल्लित कमल मुस्कुरा रहे हैं । हरी-हरी टेकरियों पर सजे-धजे वृक्ष पवन और पत्तियों की ताल पर झूम रहे हैं , मानो तुम्हारे आगमन का उत्सव मना रहे हों । पके धान की स्वर्णाभ बालियाँ लोक-कल्याणार्थ सर्वस्व त्याग को तत्पर हैं । निर्मल आकाश में दौड़-धूप करते धौले बादल न जाने किस व्यवस्था में लगे हैं । कभी कहीं छिड़काव करते हैं तो कभी जल से सेवल करते हैं । यूँ ही तो नहीं महाकवि वाल्मीकि , कालिदास ने तुम्हें अपनी कविताओं में उतार दिया । तुलसी दास भी तुम्हारी मनोहर छटा पर मुग्ध हैं – ‘बरषा बिगत सरद रितु आई , लछिमन देखहूँ परम सुहाई’ ।
हे उत्सवधर्मी । तुम्हारा आगमन स्वयं एक उत्सव है । तुम्हारे आने की आहट से ही मेरे भारत की माटी का कण-कण पुलकित हो उठता है । समाज को परम्पराओं से जोड़ते हुए तुम कितनी चतुरता से समरसता का संचार करते हो । तिलक द्वारा प्रारम्भ किए गणेशोत्सव में उमड़े जन-ज्वार के आरती , संध्या-वंदन से गुंजित गगन धूप-दीप से सुवासित हो जाता है । गरबे की धुन पर थिरकते पाँव और रामलीलाओं में गूँजती चौपाइयाँ वाले गाँव तुम्हारे सामाजिक प्रबंधन-चातुर्य को कहते हैं । ‘विजय-पर्व’ में दशानन की पराजय अहंकार-अत्याचार पर सरलता, सौम्यता और सदाचार की विजय का घोष है ।
प्रिय शरद । पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते तुम आराधना भरे भावों के वाहक हो । वासना से दूर विशुद्ध उपासना ,प्रेम और सौहार्द के पोषक । शारदीय नवरात्रों में धरा पर साक्षात देवी दुर्गा का जागरण-अवतरण होता है ,निश्चय ही स्त्री-शक्ति का पुण्य-स्मरण । तुम्हारा ही प्रताप है कि पीयूषवर्षी चन्द्र धरा को क्षीरसागर बना देता है । ‘कोजागरी’ देवी लक्ष्मी की अभ्यर्थना के साथ-साथ गर्वोन्मत्त कन्दर्प के मान-मर्दन का पर्व भी है । हे रसवर्षी सखा । अद्भुत है तुम्हारा समरसता का व्यवहार । न पंखे की चिंता न कम्बल की पुकार , धन्य हो तुम । धन्य है तुम्हारा सर्वहारा से प्यार ।