वंशीधर शुक्ल की ‘पैरोडी’/ सुरंगमा यादव
आधुनिक अवधी भाषा के शीर्षस्थ कवि, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी तथा प्रखर राजनेता पंडित वंशीधर शुक्ल की समग्र रचनाओं का संकलन उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा 'वंशीधर शुक्ल रचनावली' शीर्ष से प्रकाशित किया गया है। शुक्ल जी ने अपनी रचनाओं में ग्राम्य-जीवन, ग्राम्य-संस्कृति और ग्राम्य-प्रकृति का यथार्थ चित्रण किया है। पंडित वंशीधर शुक्ल के काव्य में उच्चस्तरीय हास्य-व्यंग्य का स्वर भी मिलता है। अपनी विशिष्ट हास्य-व्यंग्य पूर्ण शैली में उन्होंने समाज की विषमताओं, दुर्बलताओं तथा विसंगतियों आदि पर गहरी चोट की है। इस प्रकार की कविताएँ हास्य से उत्पन्न होकर आनंद की अनुभूति कराते हुए एकाएक यथार्थ का ऐसा कड़वा घूँट पिलाती हैं कि व्यक्ति की अंतरात्मा कचोटने लगती है। समाज के विभिन्न वर्गों पर व्यंग्य-बाण चलाते हुए शुक्ल जी ने अपनी क्रांतिधर्मिता का परिचय दिया है। कभी-कभी गंभीर शब्दों में कही गई बात उतना प्रभाव नहीं डालती, जितना हल्के-फुल्के शब्दों में कही बात प्रभाव उत्पन्न करती है। शुक्ल जी ने एक युग-दृष्टा की भाँति समाज का अवलोकन किया तथा कुशल स्रष्टा की भाँति सामाजिक बुराइयों पर हास्य युक्त तीखे व्यंग्य करके उनके दुष्प्रभावों से समाज को सचेत किया। उनकी हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण रचनाएँ समाज के अलग-अलग वर्गों की विसंगतियों पर करारे व्यंग्य करती हैं। शुक्लजी ने अपनी कविताओं में पश्चिमी अंधानुकरण, नेताओं की चरित्रहीनता और अवसरवादिता, कवि और कलाकारों की पेशेवर मनोवृत्ति तथा शहरी जीवन पर ऐसे-ऐसे व्यंग्य किये हैं जो सुनने वालों को आकर्षक बाह्य आवरण के भीतर छिपी कुरूपता दिखाकर गंभीर चिंतन के लिए बाध्य कर देते हैं। वास्तव में व्यंग्य-कर्ता की सफलता भी इसी में निहित है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार "व्यंग्य वह है जहाँ कहने वाला अधरोष्ठ में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता है। ʼʼ वास्तव में व्यंग्य एक ऐसा तीर है जिसके लगने पर पीड़ित व्यक्ति कराह भी नहीं सकता और मारने वाले को अपशब्द भी नहीं कह सकता, बुद्धिमत्ता इसी में है कि व्यक्ति उस तीर को चलाने वाले का निहितार्थ समझे। वंशीधर शुक्ल ने हास्य के आवरण में लिपटे ऐसे व्यंग्य किये हैं जो कटु होते हुए भी मृदु लगते हैं। व्यंग्य विवेचकों द्वारा व्यंग्य के विविध प्रकार बताये गए हैं, उन्हीं में एक 'पैरोडी' भी है। पाश्चात्य समीक्षकों ने 'पैरोडी' को हास्य के एक भेद के रूप में स्वीकार किया है। 'पैरोडी' अंग्रेज़ी शब्द है जो हिन्दी साहित्य में भी इसी नाम से स्वीकृत हुआ है। 'पैरोडी' या अनुकृति काव्य एक ऐसी हास्यपूर्ण रचना है जो किसी अन्य की रचना के अनुसरण पर लिखी गयी हो तथा हास्यपूर्ण हो। डॉ0 बरसाने लाल चतुर्वेदी के अनुसार-" पैरोडी में किसी भी विशिष्ट शैली या लेखक की ऐसी हास्यपरक अनुकृति होती है कि वह गंभीर भावों को परिहास में परिणत कर देती हैʼʼ 'पैरोडी' पढ़ते ही मूल रचना का स्मरण हो आता है। पाठक को सहज ही यह ज्ञात हो जाता है कि ये किस रचना की 'पैरोडी' है। 'पैरोडी' रचयिता गंभीर भाव को हास्य से आवृत्त व्यंग्य द्वारा व्यक्त करता है। डॉ0 शेरजंग गर्ग के अनुसार " पैरोडी हास्य युक्त व्यंग्य के साथ जुड़ी रहती है। इसका प्रयोजन क्योंकि हास्य की सृष्टि करते हुए विडंबनाओं को उभारना और मूलत उन पर व्यंग्य करना होता है इसलिए पैरोडी व्यंग्य की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन सकती है। जहाँ पैरोडी मात्र हास्य की सृष्टि करती है, वहाँ वह हास्य के निकट होती है और वहाँ उसे सामाजिक, राजनीतिक, वैयक्तिक विसंगतियों को उजागर करने के लिए काम में लाया जाता है। ʼʼ पैरोडी कोरा हास्य नहीं है, न ही मात्र मनोरंजन करना उसका उद्देश्य है। किसी प्रसिद्ध कवि की रचना की पैरोडी उस कवि का स्मरण भी कराती है और अपनी विषिष्ट व्यंग्य शैली के कारण कटु यथार्थ का बोध भी कराती है।
शुक्लजी ने सूरदास के पदों की पैरोडी लिखी है, जिसमें उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक पार्टियों, नेताओं मंत्रियों तथा रिश्वतखोरों पर व्यंग्य किए हैं। शुक्ल जी समाज में नैतिक मूल्यों के पतन, धराशायी होते आदर्शों तथा कथनी और करनी में बढ़ते बैर से आहत थे। खोखले होते चरित्र तथा बढ़ती स्वार्थपरता से उनका मन व्यथित हो उठा था। उन्होंने पराधीन भारत की दीन-हीन दशा देखी थी, अंग्रेजों की दमनकारी नीति के वे भुक्तभोगी थे। उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष अपनी आँखों से न केवल देखा बल्कि वे स्वाधीनता की लड़ाई में सक्रिय सेनानी रहे। स्वतंत्रता उनके लिए अमूल्य थी। लंबी दासता और कड़े संघर्ष के बाद देश को आज़ादी मिली। परन्तु जिस भारत की कल्पना करके देश वीरों ने आत्म बलिदान किया, क्या वह साकार हुई? बलिदानियों के बलिदान, अवसरवादियों और दबंगों के सुख भोग का साधन बन कर रह गये। आम आदमी मुट्ठीभर वर्चस्ववादियों के कृत्यों को झेलने के लिए विवश है। झूठ ने सच का आवरण ऐसे ओढ़ रखा है कि असली नकली की पहचान कठिन हो गयी है। अपना स्वार्थ साधने के लिए समाज के कथित ज़िम्मेदार नेता, मंत्री आदि कैसे-कैसे भोली-भाली जनता को मूर्ख बनाते हैं। राजनीति में लोग क्षण-क्षण रंग बदलते हैं। नेताजी चुनाव के समय जनता के सेवक बनकर वोट मांगने जाते हैं, बड़े-बड़े वादे करते हैं, प्रलोभन देते हैं और चुनाव जीतने के बाद काम कराना तो दूर उनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। वंशीधर शुक्ल ने नेताओं के इसी चरित्र और पद-लिप्सा पर तीखा व्यंग्य किया है। मतदाताओं की नासमझी से नेतागण सत्ता प्राप्त करके निज स्वार्थ को सिद्ध करने में लग जाते हैं। शुक्ल जी पैरोडी के माध्यम से कहते हैं-
तजो रे मन, इन नेतन को संग,
जिनके संग कुमति उपजति, परति भजन माँ भंग।
खर करि रहे अरगजा लेपन, मरकट भूषन अंग,
कागा करति कपूरन की कै, स्वान नहावति गंग।
बैठि बैठि कायर कुर्सिन पर, करति भलेन को तंग
क्रूर चौफुटे मंत्री बनि बनि, चाटे जाति उमंग
खद्दर केंचुलि धारि चलति नहिं, सूधी चाल भुजंग,
चढ़ति न सूर स्याम कुटिलन पर, सत्य-अहिंसा रंग
तजो रे मन इन नेतन को संग।
शुक्ल जी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, राजनीतिज्ञ थे, प्रजाहितैषी नेता थे। उन्होंने नेताओं के चरित्र को नज़दीक से देखा इसीलिए वे जानते थे कि कतिपय नेता ऐसे भी होते हैं जो श्वेत वसन व खद्दर धारण करके देशभक्ति का प्रदर्शन करते हैं। इनका जीवन विलासिता में डूबा हुआ है। रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार सहित न जाने कितने गैरकानूनी काम इनके संरक्षण में फलते-फूलते हैं। शुक्ल जी द्वारा लिखी गयी 'मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो' की पैरोडी दर्शनीय है-
मैया मोरी मैं नहिं रिश्वति खायेउ,
मैं तो मैया खदूदरधारी दग़ा सीखि पद पायेउ,
नित प्रति उठि कै रघुपति राघव राजा राम मनायेउ।
प्रात समय अण्डा, बोतल भखि मैं आफिस माँ आयेउ,
पाँच बजे लगि क़लम चलायेउ, सांझ भये कर पायेउ।
शुक्लजी ने अपनी पैरोडी में तत्कालीन नेताओं को ही व्यंग्य का केंद्र बनाया है। उनका मानना था कि नेताओं की कथनी और करनी में बड़ा अंतर होता है। जनकल्याण की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले ये नेता वास्तव में जनता के हितैषी नहीं होते। कुर्सी पाकर भोली-भाली जनता का उत्पीड़न करते हैं और अपने वादों को भूल जाते हैं सूर के पद पर आधारित उनकी पैरोडी प्रस्तुत ह-ै
हमारे बापू अवगुन चित न धरो,
यक कालिज मा जन्म गँवावति, यक सीटर तगड़ो
वह दुविधा वोटर नहिं समुझति, मेम्बर चुनति खरो,
यक तस्कर, लोफर, एक डाकू, धूर्त, कुटिल कुपढ़ो।
स्बरे मिले एक पार्टी भइ, कांग्रेस नाम परो,
...
तिगड़म, दगा, जाल, पद, लिप्सा, सब नैतिक रगड़ो,
सब गुन-गन माँ निपुन भयौ, तब नेता नाम परो।
शुक्ल जी एक सफल व्यंग्यकार हैं उनके व्यंग्य समाज की सोई आत्मा को जागृत करने की सामर्थ्य रखते हैं। उन्होंने अपने व्यंग्य बाणों से समाज की मानसिकता में व्याप्त दुर्वृत्तियों और विसंगतियों जैसे भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, धन और पद लोलुपता, अनैतिकता तथा उच्श्रृंखलता आदि को अनावृत्त किया। इस अनावरण के पीछ कवि का उद्देश्य समाज का नैतिक उत्थान करना तथा निर्बल वर्ग के प्रति संवेदनशीलता उत्पन्न करना है। उनके व्यंग्य समाज के लिए जीवन रक्षक औषधि की तरह हैं जिन्हें व्यक्ति कटु होते हुए भी ग्रहण कर लेता है। व्यंग्य रचना का उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाना नहीं होता है बल्कि सुन्दर साहित्य के निर्माण के साथ-साथ मानव जीवन को भी सुंदरतम बनाना होता है। डॉ0 श्यामसुंदर घोष के अनुसार, "यदि हम साहित्य को स्वस्थतर, सुन्दरतम और भव्यतर जीवन निर्माण का साधन मानते हैं तो साहित्य में व्यंग्य रचना का महत्त्व स्वतः सिद्ध हैं।" वंशीधर शुक्ल जी ने यद्यपि पैरोडी बहुत कम लिखीं हैं, परंतु जो लिखी हैं वे बड़ी तीक्ष्ण और सटीक हैं।
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