वंश लोचन / सिनीवाली
गाँव की कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती बोलेरो गाड़ी जिस गति से आकर बसबिट्टी के पास रुकी उसी गति से सामने वाले चाय की दुकान पर चल रहा ताश का खेल रुक गया। ताश की पत्तियाँ हाथ में लिए किसी ने गरदन घुमाकर तो किसी ने माथा उठाकर तो किसी ने आँखें गड़ाकर देखा कि ये चमचमाती गाड़ी इस गाँव में किसके घर जाएगी। गाड़ी का दरवाजा खुलने से पहले ही वहाँ बैठे लोगों के मन में एक मानचित्र उभर आया। गाँव में ऐसे कुछ ही घर हैं जहाँ ये गाड़ी जा सकती है या, ये भी हो सकता है कि आगे का रास्ता पूछने गाड़ी यहाँ रुक गई हो। लोग अनुमान की उलझी डोर सुलझा ही रहे थे कि गाड़ी से मनमोहन बाबू रोबीले अंदाज में नीचे उतरे। बीच वाले दरवाजे से दनादन तीन और लोग निकल आए. कोई एकदम झकझक उजला कुरता धोती में तो कोई पैंट शर्ट पहने थे। गाड़ी से नीचे उतर वे लोग आपस में बात करने लगे। लेकिन सबसे अधिक मुस्कान मनमोहन बाबू के चेहरे पर खिल रही थी। वह आगे-आगे बढ़ने लगे बाकी लोग उनके पीछे-पीछे चलने लगे क्योंकि आगे का रास्ता गलीनुमा था।
ताश की पत्तियाँ हाथ में लिए एक ने कहा, "अरे ये तो दिनेशवा के मामू हैं।" दूसरे ने झट से अंदाजा लगाया, "तब तो ज़रूर शादी ब्याह का मामला है——तभी इतनी तड़क-भड़क से आए हैं।" तीसरे ने भी इन दोनों के साथ अपने अंदाजे का तीर छोड़ा, "हाँ, हाँ, दिनेशवा जो बैंक में बड़का अफसर बन गया है उसी का बरतुहार लेके आए होंगे।" मनमोहन बाबू जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे दुकान पर उनकी चर्चा वैसे-वैसे बढ़ती जा रही थी।
हाँ भाई, मामू हो तो इनके जैसा। अपने भी बैंक में बड़ा बाबू हैं। शहर में अपने पास रखकर दिनेशवा को पढ़ाया लिखाया और आज अपने से भी बड़का आदमी बना दिया। किसी ने बातों का रुख मोड़ते हुए कहा, "सुना है आजकल रामकिरपाल दा के यहाँ खूब बरतुहार आ रहा है पर उनका मन कहीं एक जगह बैठ नहीं रहा है——पता नहीं कैसी लड़की और कैसा परिवार खोज रहे हैं!" "किसी को हाँ ही नहीं कह रहे हैं" , दूसरे ने कहा। ताश फेरते हुए तीसरे ने कहा, "कभी लड़की का फोटो साड़ी में तो कभी सलवार कुरता में माँगते हैं——और तो और फोटो सादा और रंगीन दोनों!" एक व्यंग्य करता हुआ बोला, "हमको तो लगता है थाक भर फोटो जमा हो गया होगा।" किसी और ने कहा, "अभी नौकरी लगे छह महीने भी नहीं हुआ है पर बरतुहार है कि नाक में दम किए रहता है रामकिरपाल दा के."
"जो कहो पर मुझे तो लगता है दिनेशवा के मामू के हिसाब से ही ब्याह होगा आखिर आज तक उन्होंने इतना किया है। यही तो मौका होता है एहसान उतारने का। नहीं तो क्या रामकिरपाल दा शहर में रखकर बेटे को पढ़ा पाते——वो भी यहीं उनकी तरह माथा पर बोझा ढोता रह जाता" , वहाँ बैठे लोग ताश के पत्तों की तरह बात भी फेरने लगे।
गली-कुच्ची से होते हुए मनमोहन बाबू अपनी बहन के घर पहुँच गए. खपरैल दरवाजा जहाँ आठ-दस लोगों के बैठने भर की जगह थी। चार हाथ हट कर सामने गाय नाद के पास बैठी जुगाली कर रही थी। ठीक उसके बगल में बछिया पूँछ से मक्खियाँ उड़ा रही थी। मनमोहन बाबू एक दो सीढ़ी चढ़कर दरवाजे पर पहुँच गए. गौर से मुआयना किया, चौकी पर बिछावन लगा था और उस पर भागलपुरी चादर बिछी थी। बगल में दो-तीन लकड़ी की पुरानी और प्लास्टिक की चार नई कुर्सियां रखी थी।
थोड़ी राहत हुई चलो कम से कम बिछावन तो लगा है नहीं तो वर्षों पुरानी ये चौकी अपनी कहानी बताने लगती। उसी चौड़े मुस्कान से जो उन्होंने अभी तक अपने चेहरे पर टिकाए थे, साथ आए लोगों को बैठने को कहा और खुद घर के भीतर पर्दा उठा कर चले गए.
भीतर पहुँचते ही सबसे पहले उनकी नजर अपनी बहन सुमित्रा पर गई. कुछ महीनों में ही उसका चेहरा बदल गया था। खुशी रंग रूप बदल देती है पर घर के चारों तरफ देखकर मन ही मन सोचा इसका रूप बदलने में अभी थोड़ा समय लगेगा। सुमित्रा हालचाल पूछने के बाद चाय बनाने की तैयारी करती हुई बोली, "दादा आप तो कल आने वाले थे——हम तो——!"
वो बीच में ही बोल पड़े, "हाँ कल आता छुट्टी थी पर बेटी के बाप को कितनी हड़बड़ी रहती है तुम तो समझ ही सकती हो।"
पर सुमित्रा के चेहरे पर ये सुनकर कोई खास खुशी नहीं आई. वह खौलते चाय में इलायची पीसकर डालने लगी। "चाय के साथ वही दालमोट बिस्कुट मत भेज देना——अब ये सब नहीं चलता है——चाय नाश्ते से भी लोग घर परिवार का अंदाजा लगा लेते हैं——मैं अपने साथ मिठाई और कुछ नमकीन लेता आया हूँ" , मनमोहन बाबू सलाह देते हुए बोले।
सुमित्रा बातों को आगे बढ़ाते हुए बोली, "दादा हम तो बरतुहार से थक गए हैं। अभी छह महीने भी नहीं हुआ है कि रोज कोई न कोई आ ही जाता है और वह हैं कि उन्हें कुछ पसंद ही नहीं आता है। पता नहीं कैसी बहू लाना चाहते हैं बस यही कहते रहते हैं एक ही बेटा है ऐसी बहू उतारेंगे वैसी पूरे गाँव में नहीं आई होगी और लोग आँखें फाड़े देखते रह जाएंगे।"
मनमोहन बाबू को शत प्रतिशत लगा कि तब तो वह उसी लड़की का रिश्ता लाए हैं जिसे रामकिरपाल बाबू अब तक ढूंढ रहे थे। लिफाफे से फोटो निकाल कर देते हुए बोले, "लो पहले तो तुम ये फोटो देख लो, पसंद कर लो फिर सबको दिखाना। लड़की क्या है बस समझो लक्ष्मी और सरस्वती दोनों का ही रूप है। इसके पिताजी मेरे ही साथ बैंक में हैं। बचपन से ही देखा है इसे। अभी एम ए कर रही है। माँ नहीं है बेचारी की। पूरा घर यही संभालती है। सुमित्रा फोटो बड़े ध्यान से देखने लगी। मनमोहन बाबू बहन के चेहरे का भाव पढ़ने की कोशिश करने लगे पर चेहरा था कि संशय का भाव लिए ही रहा। अब वह दान दहेज की चर्चा करने लगे," खाली हाथ तो आएगी नहीं, बाज़ार का भाव सबको पता है। प्राइवेट से सरकारी और सिपाही से लेकर आइ ए एस तक का रेट गाय चराने वाला भी बता सकता है। घर द्वार विहीन चौथी श्रेणी की सरकारी नौकरी दस लाख दहेज से शुरू होती है। हमारा दिनेश तो पी ओ है पी ओ! "
अपनी आवाज में थोड़ा-सा अभिमान लाते हुए बोले, "हमने तो उन्हें साफ-साफ कह दिया लड़की अच्छी है इसलिए हम आपके साथ चल रहे हैं पर पैसा कौड़ी के मामले में हम बीच में नहीं पड़ेंगे।" ज़रा बातों पर जोर देते हुए बोले, "१८-२० लाख तक तो दे ही देंगे।"
१८-२० लाख उनकी बातों का सबसे वजनदार बटखरा था जिसे उन्होंने तय होने वाले रिश्ते की तराजू पर रख दिया और मन ही मन निश्चिंत होने लगे कि अब बात पक्की ही है।
पर सुमित्रा भी इतने बरतुहारों को देखते-देखते बात तौल-तौल कर बोलना सीख गई थी, बोली, "दादा, मेरी हाँ या ना की क्या कीमत है घर के मालिक के सामने——वो जो कहें।"
"वह क्या कहेंगे——मेरी बात आजतक उन्होंने काटी है।"
मनमोहन बाबू बड़े भरोसे के साथ बोल ही रहे थे कि उनके बहनोई रामकिरपाल बाबू पधार गए. रामकिरपाल बाबू भाई बहन के बातचीत के विषय को ताड़ गए थे पर इतने दिन के घनिष्ठ पुराने रिश्ते में वह नई बात जो सुमित्रा के अलावा किसी को नहीं पता था उस बात को कैसे कहें, वह यही सोच रहे थे।
बहनोई की कुछ देर की चुप्पी से मनमोहन बाबू के मन में शंका के अंकुर फूटने ही लगे थे कि रामकिरपाल बाबू बोले, "हम आपसे बाहर थोड़े ही हैं। आज जो भी है सब आपका ही दिया है। आपके पास ही रहकर आज दिनेश बड़का आदमी बन गया।"
मनमोहन बाबू को लगा कि बेकार में ही उनके मन में शंका होने लगी थी। अभी वह सशंकित मन को समझा ही रहे थे कि रामकिरपाल बाबू ज़रा नरम आवाज में बोले, "वह क्या है कि अब तो बी ए, एम ए पास तो गाँव टोले में बहुत-सी लड़कियाँ आ गई हैं। ये अलग बात है कि कोई घर बैठे ही डिग्री ले लेती हैं और कोई पढ़ाई करके पर कहलाती तो सभी एम ए, बी ए पास ही हैं।"
मनमोहन बाबू के मन में इस बार शंका के अंकुर फूट ही गए. अब वह बहनोई के बातों की नब्ज थामने लगे, थोड़ा झुंझलाते हुए बोले, "तो फिर कैसी लड़की लाना चाहते हैं——कहीं नौकरिया तो नहीं?"
ये प्रश्न रामकिरपाल बाबू के चेहरे पर ठहर-सा गया। वह हाँ-ना कुछ नहीं बोले पर कहते हैं न, मौनं सहमति लक्षणम्——यहाँ वही हो गया।
मनमोहन बाबू लड़की वालों के सामने अपना बखान कुछ इस तरह किया था कि लड़का, उनकी बहन का नहीं उनका ही है और ब्याह के करता-धरता वही हैं। सो लड़की वाले भी इत्मीनान से थे। पर यहाँ तो बात ही उल्टी हो गई. ये बात ध्यान में आते ही मनमोहन बाबू थोड़ा गुस्से में आ गए और बोले, "अरे कहिए, कुछ तो बताइये, कहीं तो मन स्थिर किया ही होगा!"
बहन बहनोई, दोनों को असमंजस की स्थिति में देखकर उन्हें अंदाजा लग गया कि शादी की बात कहीं आगे बढ़ गई है। सुमित्रा वहाँ से उठकर अपने काम के बहाने चली गई. मनमोहन बाबू रिश्ते के बदलते रूप को देख रहे थे और सोच रहे थे, "अच्छा और बुरा समय अपने साथ कई बदलाव लेकर आता है।"
ब्याह का मौसम शुरू होते ही सभी यही चर्चा करने लगते हैं कि किस घर में बेटी ब्याह के लायक हो गई, किस लड़के की उम्र निकली जा रही है पर सबसे अधिक चोट इसी बात पर रहती है कि फलां लड़के का बरतुहार क्यों नहीं आ रहा। लेकिन यहाँ सभी उन बातों को छोड़ इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि आखिर रामकिरपाल दा के यहाँ इतने बड़े आदमी अपनी बेटी ब्याहने तैयार कैसे हो गए! जो भगवान में भरोसा करते थे उन्होंने मान लिया, जोड़ी भगवान ऊपर ही बना देता है तो कुछ लोग मानते थे कि हो न हो लड़का-लड़की में पहले से ही प्रेम उरेम होगा नहीं तो! वहीं जो विरोधी पक्ष के थे, उनका मत साफ था कि लड़की में ही कोई खोट होगा तभी यहाँ मुँह छुपाने चले आए हैं। पर सबको इस बात का अचरज ज़रूर हो रहा था कि आखिर गोबर में पद्दुम कैसे फूट गया!
आजकल रामकिरपाल बाबू का चाल ढाल भी बदल गया है। पहले जहाँ सुबह शाम उठना-बैठना होता था वहाँ अब कम ही नजर आते हैं। अब वह अधिकतर गाँव के मुखिया, सरपंच और प्रतिष्ठित लोगों के दरवाजे पर देखे जाने लगे हैं। मतलब साफ है कि अब वह अपने को उन्हीं के स्तर का समझने लगे हैं। इधर इनका चाल ढाल बदला उधर लोगों के देह की नोचनी बढ़ गई.
एक दिन रामकिरपाल बाबू शिवनाथ मास्टर साहब के यहाँ से सांझ को लौट रहे थे कि रास्ते में शंकर मिल गया। कुछ समय पहले तक शंकर और इनका खैनी से लेकर भांग पीने तक का याराना था पर बेटे की नौकरी और खासकर जब से ब्याह तय हुआ रामकिरपाल बाबू शंकर के लिए द्वितीया का चाँद हो गए. शंकर उनको देखते ही बोला की हो दादा, बहुत दिनों के बाद आपके दर्शन हुए! "
"क्या कहूँ, बेटे का ब्याह क्या कर रहा हूँ लगता है पैर में पहिया लग गया है। फुरसत ही नहीं मिलती।" यहाँ भी रामकिरपाल बाबू बेटे के ब्याह की चर्चा का मौका छोड़ना नहीं चाह रहे थे। शंकर भी जताना चाह रहा था कि वह भी खबर रखता है, बोला, "सुना है रिश्ता बहुत बड़े परिवार में हो रहा है।"
ये सुनते ही रामकिरपाल बाबू का चमकता मुखमंडल और देदीप्यमान हो गया।
"हाँ हाँ, अगले पुनिया (पूर्णिमा) को ही ब्याह है। हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि इतने बड़े घर की बेटी हमारे घर आएगी।"
"चर्चा तो पूरे गाँव में है। खूब गोदी में खेलाया है दिनेशवा को। अब बहू के हाथ का पकवान खाने का दिन आ गया" , शंकर उत्साहित होकर बोला।
रामकिरपाल बाबू अपनी गरदन ज़रा अकड़ाते हुए बोले, "खिलाती ज़रूर खिलाती पर उसे समय कहाँ है। नौकरी करती है, हजारों कमाती है। बाप भी बड़ा अफसर है। उनके यहाँ तो खाना बनाने वाला अलग से है। वह क्या खाना बनाएगी!"
रामकिरपाल बाबू के बोलने का ढंग शंकर को अच्छा नहीं लगा। वह बस इतना ही बोला, "तब तो बड़े घर की बेटी आ रही है——वंश सुधर जाएगा।"
"वही समझो——" कहते हुए रामकिरपाल बाबू हवा में झूमते हुए चल दिए.
शादी में कुछ ही दिन बचे थे। तैयारी है कि पूरी ही नहीं होती। तीन कमरों के पक्के मकान को नया रूप दिया जा रहा था। वैसे तो वह नया घर बना लेते पर समय की कमी के कारण पुराने मकान को ही नया रूप दिया जा रहा था। अब पैसों की भी कोई कमी नहीं थी। उम्मीद से अधिक बिना मुँह खोले ही लड़की वाले ने इतना जो दे दिया था। रामकिरपाल बाबू सोच रहे थे कि बहू तो कभी-कभी ही आएगी यहाँ इसलिए नया घर शादी ब्याह के बाद आराम से बनवाएंगे। इनके आँगन में और भी पटेदार (हिस्सेदार) थे। उनकी बहुएं थी पर सब के सब मैट्रिक या उससे नीचे तक ही पढ़ी थीं। उन बहुओं को बोलने बाजने का तरीका भी नहीं पता था। न बाल बच्चों को ढंग से पालना पोषणा ही जानती थी। कटोरे में दाल भात परोस देती। क्या सोचेगी ऐसा घर परिवार देखकर। पर कुछ ही दिनों की तो बात है। दूसरी बार बहू नए घर में ही आएगी। उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था पर शादी में बहू के रहने लायक घर तो रहना ही चाहिए. पिछवाड़े जाकर चापाकल पर खुले में नहाएगी——क्या सोचेगी, बाप कैसे घर में दे गया है। एक नहाने वाला बाथरुम तो होना ही चाहिए, उसकी कोठरी से लगा हुआ। आजकल उजरका पत्थर लगा रहता है एकदम चिकना-चिकना रहता है वही पत्थर लगवाएंगे। कोठरी में ठंडा हवा वाला मशीन भी लगवा देंगे। बिजली रहे न रहे जब तक बहू रहेगी तब तक तो जेनरेटर रखना ही पड़ेगा। पलंग इधर तो सोफासेट उधर रहेगा। वैसे तो अपने माँ बाप के घर से सब लेकर आएगी ही पर तैयारी तो हमें भी करके रखनी ही चाहिए. उसी का पैसा है उसी पर खर्च करना है। आज नहीं तो कल, सब कुछ तो उसी का ही होगा।
बिजली गाँव में कभी कभार सांझ बाती दिखाने आ जाती थी पर पूरे घर में रामकिरपाल बाबू ने बायरिंग करवा दिया। पहले जहाँ तहाँ तार लटका रहता था और उसमें यहाँ वहाँ बल्ब झूलते रहते थे पर अब हर जगह टीपटाप करने वाला स्विच लग गया। बिजली की गति से सारा काम हो रहा है पर बेटे की माँ, सुमित्रा वह भी तो सास बनने वाली थी, को एक ही चिंता लगी रहती थी कि साड़ी, कपड़े किसकी पसंद से खरीदवाए, किस शहर से खरीदवाए जो इतने बड़े घर की बेटी को पसंद आए. जेवर किस-किस डिजाइन का ले। उन लोगों के जमाने में तो जान पहचान के सुनार से ही जेवर गहना बनवा लिया जाता था पर सुना है कि अब कंपनी वाला जेवर भी आने लगा है। सोचती है वही खरीद लिया जाए. याद आया दिल्ली में उसकी बहन की बेटी रहती है उसी से कल फोन पर बात हुई है। उसने कहा है कि मौसी दिल्ली ही चली आओ, नए फैशन की साड़ी और जेवर की खरीदारी मैं चाँदनी चौक और सरोजनी नगर में करा दूँगी। सुमित्रा घर आँगन घूम-घूम कर देख रही है और मन ही मन बेटा ब्याह का गीत गुनगुना रही है।
ब्याह का कार्ड छपकर आ गया। रामकिरपाल बाबू सबसे पहले भगवती स्थान जाकर दुर्गा माँ के चरणों में कार्ड चढ़ा आए फिर नाई को गाँव के उन लोगों को कार्ड पहुँचाने के लिए कहा जो गाँव के क्रीम लोग या प्रतिष्ठित लोग हैं।
मन ही मन पति-पत्नी ने तय कर लिया था कि उतने बड़े घर में बारात लेकर जाएंगे तो गाँव के गिने चुने लोगों को ही ले जाएंगे क्योंकि बारातियों के उठने बैठने, कपड़े लत्ते के ढंग से इनकी भी इज्जत लड़की वालों की तरफ बढ़ेगी। जूता चप्पल तक देखा जाता है कि कैसा पहन कर आए हैं। बाकी लोगों को तिलक वाले दिन भोज भात खिला देंगे और कह देंगे, इतनी दूर इतने लोगों को ले जाना संभव नहीं हो पाएगा।
बेटा अगर बैंक में अफसर नहीं बनता तो आज ये सुख नसीब नहीं होता कि इतने बड़े घर से रिश्ता जोड़ कर हम गाँव, समाज, नाते-रिश्तेदारों के बीच छाती चौड़ी कर पाते! नहीं तो आज तक तो हम इनके बराबर नहीं थे। पर सुमित्रा की बातें भी बारबार उनके मन में घूमती ही रहती थी कि शादी ब्याह तो बराबर वालों के साथ होता है। हो न हो, कोई बात ज़रूर है नहीं तो वह हमारे घर क्यों आते अपनी बेटी देने। हम तो उनके आगे कहीं नहीं ठहरते। इनके मन में भी ये बात खटकती ज़रूर थी कि कहीं लड़की में कोई खोट तो नहीं या फिर कहीं कुछ——।
पर मन को ये कहकर समझा देते कि इतना बढ़िया मौका छोड़ना भी तो समझदारी नहीं है, गाँव समाज में जो इज्जत मिल रही है वह तो है ही। इसके साथ एक और बड़ा लोभ छिपा था कि इसी बहाने वंश सुधर जाएगा। इतने बड़े घर की बेटी है, बाल बच्चों पर भी असर पड़ेगा ही और वंश सुधारने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। हालांकि दिनेश इस शादी के लिए आसानी से तो तैयार नहीं हुआ पर समझाने बुझाने और वंश के नाम पर वह तैयार हो गया था।
रामकिरपाल बाबू आखिर हैं तो बेटे के बाप ही, कभी-कभी ये सोच कर भी चिंतित हो जाते हैं कि बहू बेटे पर शासन न करने लगे, पति वाला सम्मान न दें। बड़े घर की बेटी है और ऊपर से नौकरिया है। पर इसे बेकार की चिंता कह तुरंत दिमाग से निकाल भी देते ये सोच कर कि जहाँ इतना सब कुछ मिल रहा था वहाँ एक आँख तो बंद करना ही पड़ता है।
परसों ही तिलक है। तैयारी में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए. बाहर बेटे के पिता और घर के भीतर बेटे की माँ का पैर जमीन पर नहीं पड़ रहा। सुमित्रा आने वाले मेहमान का स्वागत कर रही है। कभी दिल्ली से लाए लाखों रुपयों के कपड़े और जेवर सबको दिखा रही है तो कभी होने वाली बहू के गुणों का बखान कर रही है। हालांकि डर की एक बाती उसके भीतर भी जल रही है पर मन की शंका कहकर वह बार-बार रसोई की डिबिया की तरह फूंक मारकर बुझा देती है पर बाती है कि रह-रह कर जल ही जाती है।
रामकिरपाल बाबू भीतर आते हुए हँसकर बोले, "तुम्हारा सपूत अभी तक बच्चा ही है, कल तो आ ही जाएगा और आज है कि मिनट-मिनट पर फोन कर रहा है। बाहर हो हल्ला में कुछ सुनाई नहीं दे रहा।"
मेहमानों के बीच ज़रा गर्व से माथे पर आँचल रखते हुए सुमित्रा बोली, "ऊपर वाले की किरपा है कि ऐसा सीधा बेटा कलजुग में भी है जो मिनट-मिनट पर फोन करता रहता है नहीं तो आजकल——!"
रामकिरपाल बाबू सुमित्रा को मोबाइल देकर बोले, "तुम्ही बात कर लो क्या कह रहा है, मैं ज़रा बाहर देखता हूँ।"
सुमित्रा अब बात करती ही कि तभी मनमोहन बाबू सपरिवार आ पहुँचे। सुमित्रा सब कुछ छोड़ अपने भाई के स्वागत सत्कार में लग गई.
इधर कन्या पक्ष में लड़की के पिता के चेहरे पर कोई खास खुशी नहीं थी। एक जिम्मेदारी थी जो वह पूरी कर देना चाहते थे। कहा जाता है, बेटी अपने से ऊँचे घर में देनी चाहिए. ऊँचा नहीं तो कम से कम परिवार बराबर का तो होना ही चाहिए पर जिस घर में बेटी दे रहे हैं वह इनके सामने कहीं नहीं टिकता। बस एक, लड़के की नौकरी है और दो-चार बीघे खेत और कहाँ ये इतने बड़े अफसर और पुश्तैनी जमीन जायदाद के मालिक। पर इन्हें भी कहीं मुँह छिपाना था। ब्याह वहाँ तय हो गया यही बहुत है नहीं तो ऐसी लड़की अभी भी हमारे समाज में——।
कितना ही बेटी के नाम से अपना कपाड़ ठोक ले (ठोक) पर थे तो बेटी के बाप ही। खरीदारी तो इन्होंने कर ली थी पर बेटी की पसंद से भी सामान देना चाहते थे। ससुराल में दो चार दिन भी रहे तो उसे कोई कमी खले नहीं। पत्नी को बेटी की पसंद जानने के लिए भेजा ताकि आज सामान की खरीदारी कर सकें।
ये क्या! कुछ ही देर में पत्नी जैसे कुछ ही क्षणों में सब कुछ लुट गया हो जैसा भाव चेहरे पर लिए घबराती हुई आई और वहीं सोफे पर पसर गई.
हड़बड़ाते हुए कौशिक बाबू ने पूछा, "ऐसा क्या हो गया जो तुम?"
"बस यही होना बचा था!"
"क्या?"
"वह शादी के लिए तैयार नहीं है।"
"क्या!"
लगा जैसे आकाश से लपलपाती हुई बिजली उनके ऊपर गिर पड़ी हो। उसने साफ-साफ मना कर दिया, कहा, "संजू के साथ मैं लिव इन में थी——उसने मुझे धोखा दिया और आप——आप भी तो वही कर रहे हैं——मुझे कूँएं में धकेल रहे हैं। उस लड़के के साथ मैं पूरी ज़िन्दगी नहीं बिता सकती——नौकरी के अलावा उसके पास क्या है——न व्यक्तित्व न सामाजिक प्रतिष्ठा!"
बेटी ने जो कहा माँ जस का तस बोल रही थी। कौशिक बाबू के पसीने छूटने लगे। अब दो चार दिन शादी में बचा है और बेटी ये तमाशा करेगी सोचा भी नहीं था। एक बार शादी हो जाए, दोनों साथ रहेंगे सब ठीक हो जाएगा। लड़का ज़रा सीधा है इसलिए आज के समय में भी बेटी का फोन नम्बर लड़के को नहीं दिया कि कहीं फोन से दोनों के बीच बातचीत न होने लगे और बेटी को लड़के के घर परिवार के बारे में सब जानकारी न हो जाए. बेटी को तो यही बताया था कि लड़के को गाँव में और शहर में भी पुश्तैनी जमीन जायदाद है, ऊपर से नौकरी तो है ही। नहीं तो जो लड़की लिव इन में रह चुकी हो उससे शादी के लिए कौन तैयार होगा। इतना बढ़ा चढ़ा कर बेटी को नहीं बताते तो वह भी शादी के लिए तैयार नहीं होती। "पर उनदोनों के बीच बातचीत कैसे हो गई——?" , पिता गुस्से में बोले। माथे पर हाथ रखे पत्नी बोली, "आज के जमाने में ये पूछते हो——सौ तरीके हैं।"
अगले ही दिन तिलक है। आज ही दिनेश भी आने वाला है। घर, रिश्तेदारों से भर गया है। रामकिरपाल बाबू सिल्क का कुरता और परमसुख धोती पहने परमसुख का अनुभव कर रहे हैं। सुमित्रा जो आज तक सूती साड़ी पहन दिन काटती रही हजारों रुपयों की सिल्क की साड़ी पहनकर खुशी से लकदक हो रही है।
रामकिरपाल बाबू ठिठोली करते हुए सबके सामने सुमित्रा से बोले, "लो एकाध घंटे में अपना दिनेश आ जाएगा। मन भर कर लेना बात——"
कि ठीक उसी समय मोबाइल फोन के स्क्रीन पर एक नंबर चमकने लगा, "समधी साहब"।
अभी इस समय इनका फोन, भौहें थोड़ी टेढ़ी हुई ही जा रही थी कि फिर सोचा कल ही सगे सम्बंधियों के साथ तिलक चढ़ाने आ रहे हैं, कोई बात पूछनी होगी या इत्मीनान करना चाह रहे होंगे कि तैयारी कैसी है।
रामकिरपाल बाबू मोबाइल फोन का बटन दबाते ही परनाम पाती के बाद समधी साहब को निश्चिंत कर देना चाहते थे कि आप जो अपने सगे-सम्बंधियों को लेकर हमारे यहाँ आइएगा, स्वागत सत्कार में हमारी ओर से कोई कसर नहीं रहेगी। बस आप निश्चिंत होकर पधारें। इतना बोलने की तैयारी कर ही रहे थे कि उनके चेहरे पर खुशी की जगह पसीने की बूँद छलछलाने लगी। वह बस इतना ही कह पाए, "ज़रा एक बार फिर से कहें——शायद सुनने में कोई गलती हो रही है।"
फिर तो खुशी से चमकती आँखों के आगे अँधेरा छा गया, गला सूखने लगा। दीवार पकड़ कर वहीं बैठ गए. दौड़ती हुई सुमित्रा आई और बोली, "अरे ये क्या हो गया? अभी तो ठीक ही थे!" रामकिरपाल दा बस इतना ही बोल पाए, "भीतर कोठरी में ले चलो।"
कोठरी में जो उनकी बातें हुई उसके बाद तो लाखों रुपये के खरीदे गए जेवरों की चमक अचानक फीकी पड़ गई. साड़ियों के झिलमिलाते सितारे टूट कर बिखरने लगे। भंडार से उड़ रही मिठाई की सुगंध वहीं स्थिर हो गई और सगे-सम्बंधियों के कानों में भी बात चली गई.
मनमोहन बाबू अपने बहनोई के चेहरे पर पानी के झीटें मार रहे थे। रामकिरपाल बाबू बेहोशी में केवल इतना ही बोल रहे थे, "दिनेशवा माई, अब!" बदहवास-सी सुमित्रा कभी अपने पति का मुँह तो कभी अपने भाई का चेहरा देख रही थी।