वक़्त की क़ीमत / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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पौने ग्यारह बजे राघव वर्मा दफ्तर पहुँचे हरसुख को पहले से ही वहाँ पहुँचा देखकर चौके. थोड़ा हटकर पूछा- "यहाँ कैसे आ धमके मिस्त्रीजी?"

" साहेब, आपके घर गया था। आप वहाँ नहीं मिले, तब आना पड़ा।"

" कहो क्या बात है, तुम्हारा पैसा मैं घर दे आया था घर से ले लिया होगा?"

" साहेब आपके यहाँ आठ दिन काम किया है, मैंने?"

"हाँ-हाँ किया है,। वर्माजी ने चोर नज़रो से इधर–उधर देखा।"

" मेम साहेब ने सात दिन का पैसा दिया है। एक दिन का पैसा काट लिया है।"

"बनते तुम्हारे सात ही दिन है। वर्मा लापरवाही से बोले।"

"सोमवार से सोमवार सात दिन।" हरसुख चौंका–"ऐसा हिसाब हमने पहली बार जाना है।"

"नही जानते तो जानलो-तुम दस बजे काम पर आते थे?"

"आता था, पर बीच में खाना खाने की छुट्टी नहीं करता था, काम छोड़कर बीड़ी-सैगरेट नहीं पीता था। चाय आपके घर में बनती नहीं। मैं सात घण्टे काम करता था, बिना रुके–बिना कमर सीधी किए।"

"तुम आठ दान में आठ घण्टे लेट हुए. आठ घण्टे का मतलब जानते-हो पूरी एक दिहाड़ी।"

"आप मुझसे रोज कह्ते थे कि तुम्हारे इंतज़ार में दफ्तर देर से जाना पड़ता है,। दफ्तर में आपकी कितनी दिहाड़ियाँ कटीं?"

मिस्त्री का चेहरा तमतमा गया।

"मैं दिहाड़ी पर काम करता हूँ", वर्मा ने दांत पीसते हुए कहा।

"नहीं साहेब"–मिस्त्री का गला भर आया–बड़े लोगों का दिहाड़ी से क्या मतलब। मिस्त्री भारी कदमों से चुपचाप चल दिया।"

ग्यारह बज चुके थे। राघव वर्मा बिल्ली की तरह चैम्बर में घुसे। धीरे से रजिस्टर खोला। सारी खीझ उतारते हुए हस्ताक्षर घसीटे और समय वाले काँलम में नौ-पन्द्रह अंकित कर दिया।

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