वक़्त तो लगेगा / चंद्र रेखा ढडवाल

Gadya Kosh से
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जीवन रहते सबसे ज़्यादा यदि कुछ महत्त्वपूर्ण लगता है तो प्रश्न ......। भीतर से प्रश्नों की ऐसी और इतनी बौछार कि उत्तर की अपेक्षा या प्रतीक्षा दोनों नहीं रह जातीं। “तुमने मेरे साथ यह क्यों किया ? इस तरह नहीं उस तरह क्यों नहीं किया ? यह नहीं वो क्यों नहीं कहा ? ऐसे नहीं वैसे क्यों नहीं कहा ? अपने प्रति निष्ठा और ईमानदारी ढूंडने की व्यग्रता इतनी कि प्यार बीच में से गायब हो रहा है, इसकी भी चिन्ता नहीं की। नहीं मानने लायक बात को भी मन मार कर मान लेते वक्त दूसरा तुमसे कितनी दूर होता जा रहा है, कभी सोचना ही नहीं चाहा ... सोच की धुरी तुम स्वयं ही रहे। आस-पास बनते/पगते रिश्ते तो नानी की कहानी सुनते; बहती नाक वाले वे बच्चे मात्र, जिन्हें कहानी के सहज प्रवाह हेतु बीच-बीच में हुंकारा ही भरना होता है। तुम्हारा विरोध करते और तुमसे लड़ते-झगड़ते कोई तुम्हें ज़्यादा प्यार कर सकता है। ऐसा समझ कर, एक छूट यदि दी होती तो आसान रहता। मुझे ही नहीं, मेरे इर्द गिर्द के सब कुछ को और मेरे सरोकारों को तुम यदि चाह पाते तो मन पतझड़ सा नहीं झड़ता .....। मैंने तो तब भी सालों तक तुम्हीं को माना। मन से या बेमन से; यह भी मेरे ही सोचने की बात है। तुम्हें तो जो चाहिए था और जब चाहिए था तुमने पाया। पा जाना ही तुम्हारे लिए सब कुछ था। मैंने दिया कैसे, यह तुम्हारी चिन्ता और बाधा कभी नहीं हुआ। जिन्दगी की सर्वाधिक सुखद चीज़ भी जब घट रही थी, मैं असम्पृक्त नहीं थी। तुमने इतनी उदारता उस पल भी नहीं दिखाई कि मैं अपनी खुशी के साथ बेलौस जी पाती।

बड़े बेटे की नौकरी लगी तो बाज़ार से मोतीचूर के लड्डू मैं स्वयं लेकर आई थी। पास-पड़ोस के दो चार घरों में बांट कर अपनी खुशी उनसे सांझी कर लेना चाहती थी। “यह क्या ?” बड़े से थाल में अलग-अलग ढेरियां लगा रही थी तो तुमने पूछा।

“लड्डू हैं। लो, मुंह मीठा करो।” मेरा बढ़ा हुआ हाथ इस तरह पीछे किया कि शगुन का पहला ही लड्डू बूंदी के दाने होकर ज़मीन पर बिखर गया .....। “हमारी भी लगी थी नौकरी। मां के पास तो बांटने को देसी गुड़ भी नहीं था।” तुम्हारी पीठ देखती रही मैं कुछ पल; फैली-आंखों से, फिर भरा हुआ थाल जूठे-बर्तनों के बीच रख आई थी। विभोर होते पलों में भी मैंने तुम्हें निहारा और तुम्हारी तुनक या अपेक्षा के वशीभूत होकर कठपुतली सी नाचने लगी। हंस-हंस कर बधाईयां स्वीकारती पर अन्दर से केवल और केवल निभ जाने की प्रतीक्षा ...। जब सब बीत जाता तुम सरल से बन कर कुछ भी कहने लगते। मैं फिर पुलक से भर उठती। धुली-पुंछी एक-दम साफ .....। कुछ हुआ भी तो मेरे साथ ही हुआ न। घर का हर कांच, हर गिलास साबुत रहा। कुछ चटखा भी तो मेरे भीेतर ही न। इससे भी ज़्यादा यह कि तुम्हारी जिस बात को लेकर सबसे ज़्यादा नाराज़गी मुझे होती, मैं उसका भी औचित्य सिद्ध करने लगती। यह अलग बात है कि मैं यह सब कुछ समझते/बूझते हुए करती। आंशिक भले ही हुआ हो पर पूर्ण भ्रम मुझे कभी नहीं हुआ। सही और गलत को लेकर। सामान्य और सहज दिखते दिन बिता जाने के बाद, रात के किसी पहर नीन्द टूट जाती तो मैं ताने/बाने बुनने लगती शब्दों के। पीछे दूर-दूर तक पलटती, यहां-वहां जुगनुओं सदृश तुम्हारा किया भला सा कुछ चमक जाता तो बच्चे की सी तसल्ली लिए सो जाती। हर अगली सुबह हल्की सी परछाई मन पर गहराये तो गहराये, चेहरे से कुछ भांपने मैं नहीं देती। टूटती, फिर बनती। इस टूटने-बनने की प्रक्रिया में इतनी मेहनत कि अपने लिए सोचने का वक्त कम ही मिलता। अपना होना बस औरों के लिए।

चाय की एक प्याली मैंने बरामदे में पड़ी मेज पर रखी तो तुमने पूछा - “और तुम्हारी चाय ?” “तुम्हारे आने से पहले, अभी-अभी पी मैंने।” “क्यों ?” “बत्रा के यहां कीर्तन है। बहुत प्यार से बुला कर गईं हैं।”

“अच्छा ! हम भी तो यह शाम की चाय बड़े प्यार से पीते हैं तुम्हारे साथ।” यह चाय तुम सुबह की छूट गई खबरें और सम्पादकीय पढ़ते हुए पीते हो। मुझ से ज़्यादा तुम जानते हो। सोचते-सोचते सीढ़ियां उतर रही थी कि अजीब सी आवाज में कहा तुमने - “जाओ भई। भीतर बैठा बत्रा भी सुन रहा होगा तुम्हारे भजन। बड़ा प्रशंसक है तुम्हारा। “प्रशंसक है तुम्हारा”, सुना और “शिकारी है तुम्हारा”, गुना मैंने ...। तुम्हारे मन और तुम्हारी भाषा दोनों को जानती हूं ...। वहीं से पलट आई थी। कमरे में पेटीकोट पहने साड़ी तहा रही थी कि कमर से घेर लिया तुमने।

“प्रशंसक तो हम भी हैं तुम्हारे ..... हमीं को सुना दो न” कहते-कहते वहीं औंधा कर दिया था मुझे। तुम्हारी सन्तुष्टी के क्षणों में, मैं घोर असन्तुष्टी की भट्ठी में जलती-भुनती अतीत में ठिठकी एक स्मृति में घिरती चली गई। बर्फ के टुकड़े हो-हो कर शब्द, मेरी ठूण्ठ होती जाती संवेदना को हरियाला करते चले गये ...। “तुम जाओगी ही ?”

“जी, यह नहीं मान रहे।” विवशता की जगह पत्नी होने का दर्प रहा होगा मेरे चेहरे पर कि हंस पड़ी थी वह इसाई हैडमिस्टेªस, “यही क्यों, तुम भी कहां मानना चाहती हो हमारी बात ... ख़ैर खुश रहो। पर अपना यह हुनर मत भूलना। आम नहीं हो तुम। आवाज़ की जादूगरनी हो, बड़े शहर में जा रही हो। बड़े अवसर पा सकोगी। हमारी शुभकामनाएं।” आज इतने सालों बाद ज़रा-ज़रा जानने लगी है कि बड़े शहर में कहां, एक घर में आई थी वह, जो उसके पिता के बड़े और खुले-खुले घर की तुलना में एक कोठरी भर था। छः बाई छः की कोठरी भर ही शायद। ... कारावास की बात भिन्न होती है। आप तैयार होते हैं। मन और शरीर दोनों ही धरातलों पर अपने को सिकोड़ कर औश्र संकुचित करके, जी लेने के लिए। यहां तो उड़ने की हुलस लिए आते हैं ...। फिर चलने तक की बेज़ारी यदि सामने आ खड़ी हो तो मन-आंगन की नंगी होती जाती ज़मीन पर बेल-बूटे तो क्या, घास तक नहीं उगती ...।

सुर में बजती ढोलकी पर चम्मच पीट-पीट कर गा लेने का सुख भी छिनने लगा तो विद्रोहिणी हुई थी, मैं ...। दोपहर के खाने और शाम की चाय के बीच जहां और जिसके यहां मौका मिलता मैं गाती। दौड़ते-भागते घर पहुंच कर जल्दी-जल्दी साड़ी ब्लाऊज़ तहाने और छुपाने के झंझट से बचने के लिए घर की धुली, सूती धोती में जाने लगी थी बाद में। कुछ-कुछ पुरानी पड़ती, आने जाने के लिए पहनी जाने वाली साड़ियां भी उन दिनों घर में पहनने लगी ...। तुम्हें इसका पता कभी चला ही नहीं या जानबूझ कर अनदेखा करते रहे, मैं नहीं जानती। वैसे व्यवहार में एक साफगोई और शालीनता निभाने (‘दिखाने’ ज़्यादा सही शब्द हो सकता है) की आदत तुम्हें थी। चलते पैरों के सामने पहाड़ खड़ा हर देने के दूसरे ही पल सहज हो कर बच्चे की तरह हंस सकने की सामर्थ्य तुममें थी ...। उन दिनों तुम्हारी यह आदत मेरे लिए सन्तोष की चीज़ थी। ... बहुत अर्से तक मैं इसे तुम्हारे गुणों में शुमार करती रही कि बात को बहुत नहीं खींचते तुम ... पर आज इन क्षणों में तुम्हारे साथ बिताए हुए को शब्दबद्ध करते - आषाड़ी बिजली सा कौन्ध गया यह बोध कि बड़े मंजे हुए कलाकार थे ...। तुम्हारी वह मुद्रा जो तब सब सह लेने के बाद भी चैन की चीज़ थी मेरे लिए (भीतर से ज़्यादा बाहिर के लिए ही तब भी) आज जानते हो, क्या लग रही है ? ...बेसन में लिपटी मछली, कड़ाही के उबलते तेल में छोड़ देने के बाद; पांव के बल बैठ कर निश्चिन्त बीड़ी पीते तलैया की मुद्रा ... बेसन के भीतर छुपी मछली के शरीर के साथ-साथ कब सिकुड़ता और फटता है वह।

तुम्हारे किये के प्रभावों से बचने के लिए मनोनीत गुमानों के कितने कितने महीन जाले बुने। हर किसी पर अविश्वास करने की तुम्हारी आदत को यूं विश्लेषित किया कि प्यार करते हो बहुत। बाहों से तो क्या नज़रों से भी क्यों घेरे मुझे कोई .... यही सोच कर शायद हर अड़ोसी/पड़ोसी के उठ कर चले जाने पर कुछ न कुछ कहते हो। वैसे तुम्हारी किस बात पर कब क्या महसूस किया। बहुत साफ नहीं है यह। किसी भी स्थिति को बचपन के खेल सा ‘स्टैचू’ करके गौर से देखा/परखा कब। उससे निकल भागने की जल्दी में रही सदा। इस भाग-दौड़ में कितनी बार गिरी और कितनी बार उठी। नहीं सोचा-विचारा। पर उस दिन थमी रह गई ...... छोटा अपने दोस्त को घर ले आया। उसकी मां नहीं रही थी। सुबह की गाड़ी में उसके साथ उसके गांव हो आने की सोच कर उसे लाया था। उसके सिर पर हाथ रखा तो फूट पड़ा था बच्चा, जेब से रूमाल निकाल कर तुमने भी आंखें पौंछी थी। मैं थोड़ा दूर-दूर ही रही। बहुत दुख रहा था मन उसके लिए। पर चाहती थी कि धैर्य रखूं और उसे हौंसला दूं। व्यावसायिक प्रचारकों की तरह घिसे/पिटे वाक्य दोहराती रही ...बस ऐसा ही है जीवन। यही शाश्वत नियम है। सबको जाना है आदि-आदि। अगली सुबह सैर से लौट कर बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठे तुम अखबार पढ़ रहे थे। जब वे गांव के लिए निकले।

“चलता हूं मां। ध्यान रखना।” मेरे पांव छूते, मेरे बेटे ने कहा, तो सीढ़ियां उतरता उसका दोस्त दोनों हाथों से अपना पेट थाम कर वहीं बैठ गया। उसके पास बैठ कर मैंने स्नेह से उसका चेहरा अपनी ओर घुमाया तो हिचकियां ले-लेकर रोने लगा वह। उसे अपनी छाती से सटा कर खुद भी ऊंचे-ऊंचे रो पड़ी मैं।

“अब बस भी करो।” गाड़ी छूट जाएगी इनकी, अजीब सी रूखी आवाज में कहा तुमने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही हड़बड़ा कर अपने से बरबस उसे अलग करके उठ खड़ी हुई मैं। आंखे पोंछते उन्हें जाते हुए देख रही थी कि तुम लगभग चीख पड़े -

“कितना देखोगी ? घंटा, उसे छाती में भींच कर रखे रही, तसल्ली नहीं हुई ?” पीछे घूम कर तुम्हें नहीं देखा। लगा, यदि देखूंगी तो मुंह नोच लूंगी। भीतर आकर पांव से सिर तक चादर ओढ़ कर सोई तो तुम्हारे जाने तक उठी नहीं फिर। पहली बार यह नहीं सोचा कि तुम भूखे ही दफ्तर जा रहे हो ....। यही नहीं, तुम्हारे जाने के बाद अपना मन पसंद नाश्ता बनाकर भी खायाा। उस समय तक मेरे विद्रोह की पराकाष्ठा थी यह। दोपहर के खाने के लिए घर आये तो सब भूल चुके थे। मैंने भी ठीक तुम्हारी तरह भूलने का नाटक किया। तुम्हारे सामने बैठ कर आम दिनों से भी ज़्यादा खाया। लगा तुम थोड़ा आहत हुए ..... सोचा होगा कि रो-धो कर सुबह के व्यवहार यानी तुम्हें भूखा भेज देने को लेकर क्षमा-याचना करूंगी। हमेशा यही तो हुआ। तुम्हारी हर बदजुबानी और ज़्याद्ती के बाद भी माफ़ी नामा-मेरी ओर से ही दाखिल हुआ। माहौल को खुशग़बार करने की कोशिश में अपने भीतर कितना कुछ नागवार करती चली गई .......। तुम्हारे साथ-साथ मैंने भी कब सोचा। पर उस दिन साफ हो गया कि क्या हो रहा है मेरे साथ .... घर के सामने की सड़क पर बाईक चलाती लड़की, रास्ता काटते सांप से भयभीत होकर नियंत्रण खो बैठी। औंधे मुंह गिरी तो नाक-मुंह खून से भर गया। तुम भागते हुए गये थे, चीख सुन कर और मैं भीतर से डिटोल-रूई ले आई थी। इन्सानियत में सराबोर पूरी तन्मयता से उसके माथे पर लगी चोट को हल्के-हल्के मुँह से हवा देते हुए साफ कर रही थी कि मेरी नज़र उसकी पीठ सहलाते तुम्हारे हाथ पर गई। पल भर तुम्हें देखते रहने के बाद उसके माथे की खरोंच को फूंक मारे बगैर जल्दी से पोंछ दिया मैंने। लड़की चौंकी। सोलह-सत्तरह की रही होगी पर भांप गई।

“मैं ठीक हूं !” उसने तुम्हारी ओर को पलट कर कहा फिर मेरा हाथ अपने हाथों से रोकते हुए बोली - “अब हो गया आंटी। अस्पताल हो आऊंगी। बहुत-बहुत धन्यवाद।” कह कर वह सीढ़ियां उतर गई तो जाना कि क्या हो गया ...घुटने पकड़ कर मुश्किल से उठी मैं ...। बच्ची छुपा ले गई अपना रूआंसापन भी और मैंने अपने भीतर का कलुष उघाड़ कर रख दिया उसके सन्मुख। पति से बदला लेने लगी थी पर उसके साथ क्या किया ? यह इतनी कड़वाहट और इतना घटियापन कहां से आ गया मुझमें ? ...तुम्हारी करतूत है। क्या बना दिया मुझे ..... लकीरों को सांप समझने और कहने लगी हूं। खरी-सच्ची संवेदनाओं में खोट देखने लगी हूं ...। बहुत रोई थी उस दिन ...। तुम जो करो, जिस तरह करो और जैसे भी करो मैं नहीं ठूण्डूंगी उसमें पाप/पुण्य की छाया। साफ सुथरी ऊपरी सतह देखूंगी। जमीन के भीतर कुलबुलाते केंचुओं का नर्तन नहीं देखूंगी ...। यह संकल्प लेकर ही हल्की हो पाई थी उस शाम को ...। वैसे अनदेखा करना आज ही क्यों कठिन लगा ... यह तो मैं तब से करती आ रही हूं जब चीजें आज से सौ-सौ गुणा ज़्यादा चुभती थीं। क्या-क्या कह कर बहला लिया करती थी मन को। ...“अथाह है तुम्हारे तन/मन की प्यास। इसी से ओस की बून्द से समुद्र तक जो जहां मिले पी जाना चाहते हो। बहलाना तुम भी जानते थे।

“तुम्हारे लिए क्या कमी है मेरे पास कहो ? “पर मैं ही मैं क्यों नहीं तुम्हारे लिए ? “अरे ! अधिष्ठात्री देवी तो तुम ही हो मेरे मन सिंहासन की। मेरी राधा तो तुम्हीं हो। बाकी तो गोपियों संग कन्हैया की सी छेड़-छाड़ है थोड़ी।” “पर अपने जानने/पहचानने वालों के बीच तुम्हारी इस थोड़ी छेड़-छाड़ की वजह से बहुत छोटी पड़ जाती हूं मैं अक्सर। मुझे बेचारी समझते कभी-कभी ज़रा ज़्यादा ही पतियाने लगती हैं मुझे तुम्हारी गोपियां। मेरी पीठ पीछे, अनजाने लोगों से तुम जो करो; तुम जानो, पर मेरे अपने ...” “वाह जी ! अनजानों पर कृपा बरसे और तुम्हारे अपने वंचित रह जाएं।” मुझे बीच में रोक कर कहा था तुमने ....। वैसे यह झूठ और बकवाद भी तुमने तभी तक निभाया जब तक मैं तुम्हारी हर रात की ज़रूरत रही, बाद में तो यह मुंह मुलाहज़ी भी छोड़ दी। ढीट होते चले गये। शरीर कमज़ोर होता गया पर मन की भूख प्रबल और बेलिहाज़ होती गई। मेरी इच्छा तो कब की मर गई थी पर एक कामुक युवा को देखने व झेलने की जगह एक कामुक बूढ़े को देखना व झेलना पहले से भी कठिन लगा ...। इच्छा और असमर्थ्य की जंग को देखते दया या घृणा से नहीं, जुगुप्सा से भर उठती मैं ...

पति-धर्म, लोक-लाज और तुम्हारे साथ बीते कुछ मीठे पलों की परतों तले मैं रोज़-रोज़ दफनाती रही तुम्हारे और अपने बीच के रिश्ते की टुकड़ा-टुकड़ा लाश। कोई नहीं जान पाया और किसी ने नहीं देखा कि समय बीतते तुम्हारे और मेरे बीच रिश्ता नहीं एक साबुत लाश पसर गई ..... एक ठण्डी शान्ति फैलती गई भीतर/बाहिर दोनों जगह ...। यहां तक कि मैं तुम्हें ज्यादा नमक उंडेलते, नहीं टोकती। सुबह-सुबह बगीचे में बिना चादर लपेटे घूमने से भी नहीं रोकती। डाक्टर की दी हिदायतें दोहराना अब मरे हुए सम्बन्ध पर मर्सिया पड़ने जैसा लगने लगा था ...। मैं तुम्हारी घर-गृहस्थी निभाते और तुम्हारा हर हुकुम बगैर आनाकानी किये बजाते रह कर भी तुमसे विलग कर दूर आ खड़ी हुई थी। यह तुमने नहीं जाना क्योंकि बाहिर से तो विराट होते बरगदी पेड़ तले के चबूतरे समान मैं सिमटती चली गई तुम्हारी छाया में। फिर एक दिन मेरे पल-पल पर काबिज हो गये तुम। ठोस वजह थी तुम्हारे पास (मेरे पास ऐसी वजहें कभी नहीं रहीं।) एक हाथ और एक पांव संज्ञा-शून्य हो गया तुम्हारा।

“अरे ! घबराह्ते क्यों हो, भाभी के दो-दो हाथ और एक तुम्हारा। तुम्हारे पास तो तीन-तीन हुए न।” दोस्त कहते और निश्चिन्त मुस्कुराते तुम। इतना और ऐसा भरपूर जी लिया था तुमने कि इस तरह बिस्तर पर पड़ना भी भारी नहीं लग रहा था शायद। फिर पढ़ने/लिखने वाले आदमी थे। घण्टों पढ़ते और बीच-बीच में आलतू-फालतू मुझ से लिखवाते रहते। “जिन्दगी बार-बार नहीं मिलती। इसलिए यह, इधर-उधर के सिद्धान्त और इसके/उसके लिहाज़ की बली नहीं चढ़ाई जा सकती .....तुमने कहा तो कमरे की दहलीज लांघता वर्मा तो जैसे उड़कर आ पहुंचा तुम्हारे सिरहाने ...

“वाह क्या माणिक/मुक्ता उगल रहे हो ... लगे रहो भाई, मास्टर-पीस बनेगा ...” मास्टर-पीस ! हैरान रह गई मैं। इस सड़े हुए आदमी के पास है क्या ... ? पर विडम्बना देखो कि इसी सड़े हुए आदमी के पास रहना पड़ता है मुझे। मेरी पल-पल की चाकरी को मेरे आत्मजों ने भी मेरा कर्तव्य मान लिया। लाचार होकर तुम और भी ज़्यादा समर्थ व क्रूर शोषक बन बैठे।” अब शिकायत भी अधिकार नहीं रह गया। एक बीमार आदमी के किये की क्या चर्चा ? एक अभिशाप जीते आदमी के प्रति कैसी नाराजद्यगी ? अब उसके लिए कौन सी बद्दुआ ...? मैं भी सोचती पर ...

“कहां हो तुम ? किस यार की यादों में हो ?” तुम्हारे अन्दर फलों का रस और कमीनापन गडमड हो गया। पहली बार मेरे भीतर कुछ ज़्यादा ही हलचल हो गई। मन के अंधेरे कोने में दफन तुम्हारे-मेरे रिश्ते का शव विशालकाय होते-होते मेरे आस-पास पूरे घर में फैल गया। नहीं ! अब तो संस्कार करने ही होंगे। गंधा जाऐगा भीतर/बाहिर सब कुछ। मैं उतावली हो उठी इतनी कि भागते हुए रसोई में पहुंची। बर्तन-चौका निबटा कर घर जाने के लिए तत्पर बाई को रोक लिया ...... उसे साथ लेकर बड़े बेटे जयंत का खाली पड़ा कमरा खूब अच्छी तरह झाड़ा/बुहारा पलंग पर की चादर व सिरहाने का गिलाफ, सब कुछ बदल दिया। उसकी अलमारी में पड़े उसके कपड़ों को पुरानी धोती में बांधा और ऊपर के खाने में रखवा दिया। तुम्हें सोया जानकर, दबे पांव आकर हैंगर निकालने लगी थी कि तुमने पूछा “ये कहां ले जा रही हो ?”

“जयंत के कमरे में रख रही हूं अपने कपड़े। यहां करीने से तुम्हारे कपड़े और किताबें आदि रख दूंगी। तुम्हारे सामने खड़े रहते तुम्हारा कुछ भी निकाल कर देते हुए आसानी रहेगी।” कुछ कहा नहीं तुमने पर सन्तुष्ट दिखे। मैं और मेरी चीज़ कम से कम जगह घेरे यह इच्छा तो तुम्हारी सदा से रही है। तुम्हें मुक्त रखूं यही चाहा है तुमने। पर आज मैं तुम्हें मुक्त करने की कोशिश में नहीं हूं। बल्कि स्वयं मुक्त होने की शुरूआत कर रही हूं .....। मेरे जीवन रहते सबसे ज़्यादा यदि कुछ महत्त्वपूर्ण लगता है तो प्रश्न ......। भीतर से प्रश्नों की ऐसी और इतनी बौछार कि उत्तर की अपेक्षा या प्रतीक्षा दोनों नहीं रह जातीं। “तुमने मेरे साथ यह क्यों किया ? इस तरह नहीं उस तरह क्यों नहीं किया ? यह नहीं वो क्यों नहीं कहा ? ऐसे नहीं वैसे क्यों नहीं कहा ? अपने प्रति निष्ठा और ईमानदारी ढूंडने की व्यग्रता इतनी कि प्यार बीच में से गायब हो रहा है, इसकी भी चिन्ता नहीं की। नहीं मानने लायक बात को भी मन मार कर मान लेते वक्त दूसरा तुमसे कितनी दूर होता जा रहा है, कभी सोचना ही नहीं चाहा ..... सोच की धुरी तुम स्वयं ही रहे। आस-पास बनते/पगते रिश्ते तो नानी की कहानी सुनते; बहती नाक वाले वे बच्चे मात्र, जिन्हें कहानी के सहज प्रवाह हेतु बीच-बीच में हुंकारा ही भरना होता है। तुम्हारा विरोध करते और तुमसे लड़ते-झगड़ते कोई तुम्हें ज़्यादा प्यार कर सकता है। ऐसा समझ कर, एक छूट यदि दी होती तो आसान रहता। मुझे ही नहीं, मेरे इर्द गिर्द के सब कुछ को और मेरे सरोकारों को तुम यदि चाह पाते तो मन पतझड़ सा नहीं झड़ता .....। मैंने तो तब भी सालों तक तुम्हीं को माना। मन से या बेमन से; यह भी मेरे ही सोचने की बात है। तुम्हें तो जो चाहिए था और जब चाहिए था तुमने पाया। पा जाना ही तुम्हारे लिए सब कुछ था। मैंने दिया कैसे, यह तुम्हारी चिन्ता और बाधा कभी नहीं हुआ। जिन्दगी की सर्वाधिक सुखद चीज़ भी जब घट रही थी, मैं असम्पृक्त नहीं थी। तुमने इतनी उदारता उस पल भी नहीं दिखाई कि मैं अपनी खुशी के साथ बेलौस जी पाती। बड़े बेटे की नौकरी लगी तो बाज़ार से मोतीचूर के लड्डू मैं स्वयं लेकर आई थी। पास-पड़ोस के दो चार घरों में बांट कर अपनी खुशी उनसे सांझी कर लेना चाहती थी। “यह क्या ?” बड़े से थाल में अलग-अलग ढेरियां लगा रही थी तो तुमने पूछा।

“लड्डू हैं। लो, मुंह मीठा करो।” मेरा बढ़ा हुआ हाथ इस तरह पीछे किया कि शगुन का पहला ही लड्डू बूंदी के दाने होकर ज़मीन पर बिखर गया .....। “हमारी भी लगी थी नौकरी। मां के पास तो बांटने को देसी गुड़ भी नहीं था।” तुम्हारी पीठ देखती रही मैं कुछ पल; फैली-आंखों से, फिर भरा हुआ थाल जूठे-बर्तनों के बीच रख आई थी। विभोर होते पलों में भी मैंने तुम्हें निहारा और तुम्हारी तुनक या अपेक्षा के वशीभूत होकर कठपुतली सी नाचने लगी। हंस-हंस कर बधाईयां स्वीकारती पर अन्दर से केवल और केवल निभ जाने की प्रतीक्षा ...। जब सब बीत जाता तुम सरल से बन कर कुछ भी कहने लगते। मैं फिर पुलक से भर उठती। धुली-पुंछी एक-दम साफ .....। कुछ हुआ भी तो मेरे साथ ही हुआ न। घर का हर कांच, हर गिलास साबुत रहा। कुछ चटखा भी तो मेरे भीेतर ही न। इससे भी ज़्यादा यह कि तुम्हारी जिस बात को लेकर सबसे ज़्यादा नाराज़गी मुझे होती, मैं उसका भी औचित्य सिद्ध करने लगती। यह अलग बात है कि मैं यह सब कुछ समझते/बूझते हुए करती। आंशिक भले ही हुआ हो पर पूर्ण भ्रम मुझे कभी नहीं हुआ। सही और गलत को लेकर। सामान्य और सहज दिखते दिन बिता जाने के बाद, रात के किसी पहर नीन्द टूट जाती तो मैं ताने/बाने बुनने लगती शब्दों के। पीछे दूर-दूर तक पलटती, यहां-वहां जुगनुओं सदृश तुम्हारा किया भला सा कुछ चमक जाता तो बच्चे की सी तसल्ली लिए सो जाती। हर अगली सुबह हल्की सी परछाई मन पर गहराये तो गहराये, चेहरे से कुछ भांपने मैं नहीं देती। टूटती, फिर बनती। इस टूटने-बनने की प्रक्रिया में इतनी मेहनत कि अपने लिए सोचने का वक्त कम ही मिलता। अपना होना बस औरों के लिए।

चाय की एक प्याली मैंने बरामदे में पड़ी मेज पर रखी तो तुमने पूछा - “और तुम्हारी चाय ?” “तुम्हारे आने से पहले, अभी-अभी पी मैंने।” “क्यों ?” “बत्रा के यहां कीर्तन है। बहुत प्यार से बुला कर गईं हैं।” “अच्छा ! हम भी तो यह शाम की चाय बड़े प्यार से पीते हैं तुम्हारे साथ।” यह चाय तुम सुबह की छूट गई खबरें और सम्पादकीय पढ़ते हुए पीते हो। मुझ से ज़्यादा तुम जानते हो। सोचते-सोचते सीढ़ियां उतर रही थी कि अजीब सी आवाज में कहा तुमने - “जाओ भई। भीतर बैठा बत्रा भी सुन रहा होगा तुम्हारे भजन। बड़ा प्रशंसक है तुम्हारा। “प्रशंसक है तुम्हारा”, सुना और “शिकारी है तुम्हारा”, गुना मैंने ......। तुम्हारे मन और तुम्हारी भाषा दोनों को जानती हूं ......। वहीं से पलट आई थी। कमरे में पेटीकोट पहने साड़ी तहा रही थी कि कमर से घेर लिया तुमने।

“प्रशंसक तो हम भी हैं तुम्हारे ..... हमीं को सुना दो न” कहते-कहते वहीं औंधा कर दिया था मुझे। तुम्हारी सन्तुष्टी के क्षणों में, मैं घोर असन्तुष्टी की भट्ठी में जलती-भुनती अतीत में ठिठकी एक स्मृति में घिरती चली गई। बर्फ के टुकड़े हो-हो कर शब्द, मेरी ठूण्ठ होती जाती संवेदना को हरियाला करते चले गये ....। “तुम जाओगी ही ?”

“जी, यह नहीं मान रहे।” विवशता की जगह पत्नी होने का दर्प रहा होगा मेरे चेहरे पर कि हंस पड़ी थी वह इसाई हैडमिस्टेªस, “यही क्यों, तुम भी कहां मानना चाहती हो हमारी बात ...... ख़ैर खुश रहो। पर अपना यह हुनर मत भूलना। आम नहीं हो तुम। आवाज़ की जादूगरनी हो, बड़े शहर में जा रही हो। बड़े अवसर पा सकोगी। हमारी शुभकामनाएं।” आज इतने सालों बाद ज़रा-ज़रा जानने लगी है कि बड़े शहर में कहां, एक घर में आई थी वह, जो उसके पिता के बड़े और खुले-खुले घर की तुलना में एक कोठरी भर था। छः बाई छः की कोठरी भर ही शायद। ..... कारावास की बात भिन्न होती है। आप तैयार होते हैं। मन और शरीर दोनों ही धरातलों पर अपने को सिकोड़ कर औश्र संकुचित करके, जी लेने के लिए। यहां तो उड़ने की हुलस लिए आते हैं .....। फिर चलने तक की बेज़ारी यदि सामने आ खड़ी हो तो मन-आंगन की नंगी होती जाती ज़मीन पर बेल-बूटे तो क्या, घास तक नहीं उगती ...।

सुर में बजती ढोलकी पर चम्मच पीट-पीट कर गा लेने का सुख भी छिनने लगा तो विद्रोहिणी हुई थी, मैं ....। दोपहर के खाने और शाम की चाय के बीच जहां और जिसके यहां मौका मिलता मैं गाती। दौड़ते-भागते घर पहुंच कर जल्दी-जल्दी साड़ी ब्लाऊज़ तहाने और छुपाने के झंझट से बचने के लिए घर की धुली, सूती धोती में जाने लगी थी बाद में। कुछ-कुछ पुरानी पड़ती, आने जाने के लिए पहनी जाने वाली साड़ियां भी उन दिनों घर में पहनने लगी .....। तुम्हें इसका पता कभी चला ही नहीं या जानबूझ कर अनदेखा करते रहे, मैं नहीं जानती। वैसे व्यवहार में एक साफगोई और शालीनता निभाने (‘दिखाने’ ज़्यादा सही शब्द हो सकता है) की आदत तुम्हें थी। चलते पैरों के सामने पहाड़ खड़ा हर देने के दूसरे ही पल सहज हो कर बच्चे की तरह हंस सकने की सामर्थ्य तुममें थी ...। उन दिनों तुम्हारी यह आदत मेरे लिए सन्तोष की चीज़ थी। ... बहुत अर्से तक मैं इसे तुम्हारे गुणों में शुमार करती रही कि बात को बहुत नहीं खींचते तुम ... पर आज इन क्षणों में तुम्हारे साथ बिताए हुए को शब्दबद्ध करते - आषाड़ी बिजली सा कौन्ध गया यह बोध कि बड़े मंजे हुए कलाकार थे ...। तुम्हारी वह मुद्रा जो तब सब सह लेने के बाद भी चैन की चीज़ थी मेरे लिए (भीतर से ज़्यादा बाहिर के लिए ही तब भी) आज जानते हो, क्या लग रही है ? ... बेसन में लिपटी मछली, कड़ाही के उबलते तेल में छोड़ देने के बाद; पांव के बल बैठ कर निश्चिन्त बीड़ी पीते तलैया की मुद्रा ... बेसन के भीतर छुपी मछली के शरीर के साथ-साथ कब सिकुड़ता और फटता है वह।

तुम्हारे किये के प्रभावों से बचने के लिए मनोनीत गुमानों के कितने कितने महीन जाले बुने। हर किसी पर अविश्वास करने की तुम्हारी आदत को यूं विश्लेषित किया कि प्यार करते हो बहुत। बाहों से तो क्या नज़रों से भी क्यों घेरे मुझे कोई .... यही सोच कर शायद हर अड़ोसी/पड़ोसी के उठ कर चले जाने पर कुछ न कुछ कहते हो। वैसे तुम्हारी किस बात पर कब क्या महसूस किया। बहुत साफ नहीं है यह। किसी भी स्थिति को बचपन के खेल सा ‘स्टैचू’ करके गौर से देखा/परखा कब। उससे निकल भागने की जल्दी में रही सदा। इस भाग-दौड़ में कितनी बार गिरी और कितनी बार उठी। नहीं सोचा-विचारा। पर उस दिन थमी रह गई ...... छोटा अपने दोस्त को घर ले आया। उसकी मां नहीं रही थी। सुबह की गाड़ी में उसके साथ उसके गांव हो आने की सोच कर उसे लाया था। उसके सिर पर हाथ रखा तो फूट पड़ा था बच्चा, जेब से रूमाल निकाल कर तुमने भी आंखें पौंछी थी। मैं थोड़ा दूर-दूर ही रही। बहुत दुख रहा था मन उसके लिए। पर चाहती थी कि धैर्य रखूं और उसे हौंसला दूं। व्यावसायिक प्रचारकों की तरह घिसे/पिटे वाक्य दोहराती रही ... बस ऐसा ही है जीवन। यही शाश्वत नियम है। सबको जाना है आदि-आदि। अगली सुबह सैर से लौट कर बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठे तुम अखबार पढ़ रहे थे। जब वे गांव के लिए निकले।

“चलता हूं मां। ध्यान रखना।” मेरे पांव छूते, मेरे बेटे ने कहा, तो सीढ़ियां उतरता उसका दोस्त दोनों हाथों से अपना पेट थाम कर वहीं बैठ गया। उसके पास बैठ कर मैंने स्नेह से उसका चेहरा अपनी ओर घुमाया तो हिचकियां ले-लेकर रोने लगा वह। उसे अपनी छाती से सटा कर खुद भी ऊंचे-ऊंचे रो पड़ी मैं। “अब बस भी करो।” गाड़ी छूट जाएगी इनकी, अजीब सी रूखी आवाज में कहा तुमने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही हड़बड़ा कर अपने से बरबस उसे अलग करके उठ खड़ी हुई मैं। आंखे पोंछते उन्हें जाते हुए देख रही थी कि तुम लगभग चीख पड़े -

“कितना देखोगी ? घंटा, उसे छाती में भींच कर रखे रही, तसल्ली नहीं हुई ?” पीछे घूम कर तुम्हें नहीं देखा। लगा, यदि देखूंगी तो मुंह नोच लूंगी। भीतर आकर पांव से सिर तक चादर ओढ़ कर सोई तो तुम्हारे जाने तक उठी नहीं फिर। पहली बार यह नहीं सोचा कि तुम भूखे ही दफ्तर जा रहे हो ...। यही नहीं, तुम्हारे जाने के बाद अपना मन पसंद नाश्ता बनाकर भी खायाा। उस समय तक मेरे विद्रोह की पराकाष्ठा थी यह। दोपहर के खाने के लिए घर आये तो सब भूल चुके थे। मैंने भी ठीक तुम्हारी तरह भूलने का नाटक किया। तुम्हारे सामने बैठ कर आम दिनों से भी ज़्यादा खाया। लगा तुम थोड़ा आहत हुए ...सोचा होगा कि रो-धो कर सुबह के व्यवहार यानी तुम्हें भूखा भेज देने को लेकर क्षमा-याचना करूंगी। हमेशा यही तो हुआ। तुम्हारी हर बदजुबानी और ज़्याद्ती के बाद भी माफ़ी नामा-मेरी ओर से ही दाखिल हुआ। माहौल को खुशग़बार करने की कोशिश में अपने भीतर कितना कुछ नागवार करती चली गई ...। तुम्हारे साथ-साथ मैंने भी कब सोचा। पर उस दिन साफ हो गया कि क्या हो रहा है मेरे साथ ... घर के सामने की सड़क पर बाईक चलाती लड़की, रास्ता काटते सांप से भयभीत होकर नियंत्रण खो बैठी। औंधे मुंह गिरी तो नाक-मुंह खून से भर गया। तुम भागते हुए गये थे, चीख सुन कर और मैं भीतर से डिटोल-रूई ले आई थी। इन्सानियत में सराबोर पूरी तन्मयता से उसके माथे पर लगी चोट को हल्के-हल्के मुँह से हवा देते हुए साफ कर रही थी कि मेरी नज़र उसकी पीठ सहलाते तुम्हारे हाथ पर गई। पल भर तुम्हें देखते रहने के बाद उसके माथे की खरोंच को फूंक मारे बगैर जल्दी से पोंछ दिया मैंने। लड़की चौंकी। सोलह-सत्तरह की रही होगी पर भांप गई।

“मैं ठीक हूं !” उसने तुम्हारी ओर को पलट कर कहा फिर मेरा हाथ अपने हाथों से रोकते हुए बोली - “अब हो गया आंटी। अस्पताल हो आऊंगी। बहुत-बहुत धन्यवाद।” कह कर वह सीढ़ियां उतर गई तो जाना कि क्या हो गया ... घुटने पकड़ कर मुश्किल से उठी मैं ...। बच्ची छुपा ले गई अपना रूआंसापन भी और मैंने अपने भीतर का कलुष उघाड़ कर रख दिया उसके सन्मुख। पति से बदला लेने लगी थी पर उसके साथ क्या किया ? यह इतनी कड़वाहट और इतना घटियापन कहां से आ गया मुझमें ? ...तुम्हारी करतूत है। क्या बना दिया मुझे ... लकीरों को सांप समझने और कहने लगी हूं। खरी-सच्ची संवेदनाओं में खोट देखने लगी हूं ...। बहुत रोई थी उस दिन ...। तुम जो करो, जिस तरह करो और जैसे भी करो मैं नहीं ठूण्डूंगी उसमें पाप/पुण्य की छाया। साफ सुथरी ऊपरी सतह देखूंगी। जमीन के भीतर कुलबुलाते केंचुओं का नर्तन नहीं देखूंगी .......। यह संकल्प लेकर ही हल्की हो पाई थी उस शाम को ...। वैसे अनदेखा करना आज ही क्यों कठिन लगा ... यह तो मैं तब से करती आ रही हूं जब चीजें आज से सौ-सौ गुणा ज़्यादा चुभती थीं। क्या-क्या कह कर बहला लिया करती थी मन को। ... “अथाह है तुम्हारे तन/मन की प्यास। इसी से ओस की बून्द से समुद्र तक जो जहां मिले पी जाना चाहते हो। बहलाना तुम भी जानते थे।

“तुम्हारे लिए क्या कमी है मेरे पास कहो ? “पर मैं ही मैं क्यों नहीं तुम्हारे लिए ? “अरे ! अधिष्ठात्री देवी तो तुम ही हो मेरे मन सिंहासन की। मेरी राधा तो तुम्हीं हो। बाकी तो गोपियों संग कन्हैया की सी छेड़-छाड़ है थोड़ी।” “पर अपने जानने/पहचानने वालों के बीच तुम्हारी इस थोड़ी छेड़-छाड़ की वजह से बहुत छोटी पड़ जाती हूं मैं अक्सर। मुझे बेचारी समझते कभी-कभी ज़रा ज़्यादा ही पतियाने लगती हैं मुझे तुम्हारी गोपियां। मेरी पीठ पीछे, अनजाने लोगों से तुम जो करो; तुम जानो, पर मेरे अपने .....” “वाह जी ! अनजानों पर कृपा बरसे और तुम्हारे अपने वंचित रह जाएं।” मुझे बीच में रोक कर कहा था तुमने ......। वैसे यह झूठ और बकवाद भी तुमने तभी तक निभाया जब तक मैं तुम्हारी हर रात की ज़रूरत रही, बाद में तो यह मुंह मुलाहज़ी भी छोड़ दी। ढीट होते चले गये। शरीर कमज़ोर होता गया पर मन की भूख प्रबल और बेलिहाज़ होती गई। मेरी इच्छा तो कब की मर गई थी पर एक कामुक युवा को देखने व झेलने की जगह एक कामुक बूढ़े को देखना व झेलना पहले से भी कठिन लगा .....। इच्छा और असमर्थ्य की जंग को देखते दया या घृणा से नहीं, जुगुप्सा से भर उठती मैं ...

पति-धर्म, लोक-लाज और तुम्हारे साथ बीते कुछ मीठे पलों की परतों तले मैं रोज़-रोज़ दफनाती रही तुम्हारे और अपने बीच के रिश्ते की टुकड़ा-टुकड़ा लाश। कोई नहीं जान पाया और किसी ने नहीं देखा कि समय बीतते तुम्हारे और मेरे बीच रिश्ता नहीं एक साबुत लाश पसर गई ..... एक ठण्डी शान्ति फैलती गई भीतर/बाहिर दोनों जगह .....। यहां तक कि मैं तुम्हें ज्यादा नमक उंडेलते, नहीं टोकती। सुबह-सुबह बगीचे में बिना चादर लपेटे घूमने से भी नहीं रोकती। डाक्टर की दी हिदायतें दोहराना अब मरे हुए सम्बन्ध पर मर्सिया पड़ने जैसा लगने लगा था ....। मैं तुम्हारी घर-गृहस्थी निभाते और तुम्हारा हर हुकुम बगैर आनाकानी किये बजाते रह कर भी तुमसे विलग कर दूर आ खड़ी हुई थी। यह तुमने नहीं जाना क्योंकि बाहिर से तो विराट होते बरगदी पेड़ तले के चबूतरे समान मैं सिमटती चली गई तुम्हारी छाया में। फिर एक दिन मेरे पल-पल पर काबिज हो गये तुम। ठोस वजह थी तुम्हारे पास (मेरे पास ऐसी वजहें कभी नहीं रहीं।) एक हाथ और एक पांव संज्ञा-शून्य हो गया तुम्हारा।

“अरे ! घबराह्ते क्यों हो, भाभी के दो-दो हाथ और एक तुम्हारा। तुम्हारे पास तो तीन-तीन हुए न।” दोस्त कहते और निश्चिन्त मुस्कुराते तुम। इतना और ऐसा भरपूर जी लिया था तुमने कि इस तरह बिस्तर पर पड़ना भी भारी नहीं लग रहा था शायद। फिर पढ़ने/लिखने वाले आदमी थे। घण्टों पढ़ते और बीच-बीच में आलतू-फालतू मुझ से लिखवाते रहते। “जिन्दगी बार-बार नहीं मिलती। इसलिए यह, इधर-उधर के सिद्धान्त और इसके/उसके लिहाज़ की बली नहीं चढ़ाई जा सकती .....तुमने कहा तो कमरे की दहलीज लांघता वर्मा तो जैसे उड़कर आ पहुंचा तुम्हारे सिरहाने ... “वाह क्या माणिक/मुक्ता उगल रहे हो ..... लगे रहो भाई, मास्टर-पीस बनेगा ...”

मास्टर-पीस ! हैरान रह गई मैं। इस सड़े हुए आदमी के पास है क्या .... ? पर विडम्बना देखो कि इसी सड़े हुए आदमी के पास रहना पड़ता है मुझे। मेरी पल-पल की चाकरी को मेरे आत्मजों ने भी मेरा कर्तव्य मान लिया। लाचार होकर तुम और भी ज़्यादा समर्थ व क्रूर शोषक बन बैठे।” अब शिकायत भी अधिकार नहीं रह गया। एक बीमार आदमी के किये की क्या चर्चा ? एक अभिशाप जीते आदमी के प्रति कैसी नाराजद्यगी ? अब उसके लिए कौन सी बद्दुआ ...? मैं भी सोचती पर ... “कहां हो तुम ? किस यार की यादों में हो ?” तुम्हारे अन्दर फलों का रस और कमीनापन गडमड हो गया। पहली बार मेरे भीतर कुछ ज़्यादा ही हलचल हो गई। मन के अंधेरे कोने में दफन तुम्हारे-मेरे रिश्ते का शव विशालकाय होते-होते मेरे आस-पास पूरे घर में फैल गया। नहीं ! अब तो संस्कार करने ही होंगे। गंधा जाऐगा भीतर/बाहिर सब कुछ। मैं उतावली हो उठी इतनी कि भागते हुए रसोई में पहुंची। बर्तन-चौका निबटा कर घर जाने के लिए तत्पर बाई को रोक लिया ...... उसे साथ लेकर बड़े बेटे जयंत का खाली पड़ा कमरा खूब अच्छी तरह झाड़ा/बुहारा पलंग पर की चादर व सिरहाने का गिलाफ, सब कुछ बदल दिया। उसकी अलमारी में पड़े उसके कपड़ों को पुरानी धोती में बांधा और ऊपर के खाने में रखवा दिया। तुम्हें सोया जानकर, दबे पांव आकर हैंगर निकालने लगी थी कि तुमने पूछा “ये कहां ले जा रही हो ?”

“जयंत के कमरे में रख रही हूं अपने कपड़े। यहां करीने से तुम्हारे कपड़े और किताबें आदि रख दूंगी। तुम्हारे सामने खड़े रहते तुम्हारा कुछ भी निकाल कर देते हुए आसानी रहेगी।” कुछ कहा नहीं तुमने पर सन्तुष्ट दिखे। मैं और मेरी चीज़ कम से कम जगह घेरे यह इच्छा तो तुम्हारी सदा से रही है। तुम्हें मुक्त रखूं यही चाहा है तुमने। पर आज मैं तुम्हें मुक्त करने की कोशिश में नहीं हूं। बल्कि स्वयं मुक्त होने की शुरूआत कर रही हूं .....। मेरे भीतर फंुकारते अजगर की जीह्वा का तांडव तुम देख सको उससे पूर्व ही तुम्हारे सामने से हट गई। एक पर्दा पड़ा रहे। कोई न जाने और सालों से लिजलिजे कीड़े सा, मेरी मेधा/मेरे मन पर रेंगता तुम्हारे और मेरे बीच का सम्बन्ध समाधी हो जाये। जयंत के कमरे को अपने लिए सजाते स्वयं को कोसा मैंने, यह तो बहुत पहले कर चुकी होती मैं यदि देखती कभी अपनी ओर भी .....। पूरे दिन में चाहे घण्टा भर ही सही यहां अपनी और नितान्त अपनी होकर जी लेती मैं। मनपसंद पढ़ती। कुछ लिखती या निढाल होकर पड़ी रहती बिस्तर पर। उघड़े दुपट्टे या टांगों के बीच फंसी कमीज के प्रति ज़रा भी चिन्तित हुए बगैर। चलो, जब जगे तब ही सवेरा। बाई को कुछ पुरानी धोतियां निकाल कर दीं और फर्श को शीशे के समान चमकाने की हिदायत देकर तुम्हारे सामने आ खड़ी हुई ......। “सुनो ! मैंने कुछ तय किया है। “चलिए ! हमारी पत्नी हमारी सोहबत में रहते हुए कुछ तय करने लायक तो हुई।” प्रभावित नहीं हुई मैं तुम्हारे हास्य के पर्दे में छुपे व्यंग्य बोध से। “आज से और अभी से तुम लिखाते जाओगे। जिस दिन समझोगे कि लिखा चुके। मैं पढ़ कर सुना दूंगी। रोज़-रोज़ लिखवाना फिर सुनना बन्द। ठीक लगे तो लिखाओ नहीं तो .......।” मैंने बात पूरी नहीं की पर कह दी दो टूक लहज़े में। “नहीं तो, ” ... तुमने कमज़ोर सी कोशिश फिर भी की। “नहीं तो मत लिखाओ।” मेरी बेबसी का फायदा उठा रही हो।” तुमने पैंतरा बदल लिया ....। “फायदा तो अब भी तुम्हीं उठा रही हो।” कुछ कहने की जगह तुमने बाँह आंखों पर रख ली तो कमज़ोर पड़ी मैं ....। पर नहीं। अब बिल्कुल नहीं। मुझे भी जीना है। ....... उस पल से; सिर झुकाये, बहुत सोच-सोच कर धैर्यपूर्वक लिखती हूं मैं। पर तुम्हें सुनने और तुम्हें देखने का उपक्रम करते, मैं तुम्हें कतई नहीं सुनती और देखती। लिखती हूं, पर तुम्हारा लिखाया नहीं ...। जिस दिन अचानक तुम कहोगे कि अब हो गया, पढ़ो। मैं सुनना चाहता हूं ...। मैं सुनाऊंगी तुम्हें यह सब जो लिख रही हूं .....। नानी की कहानी के अंधे कुंए को दर्पण सा दिखाऊंगी कि शर्म से डूबना भी चाहो तो चूल्लू भर पानी न मिले ...। शायद शर्म न आए गुस्सा आए। बेबस गुस्सा देखूंगी तुम्हारी आंखों में जिसे मैंने सिर्फ महसूस ही किया है आज तक। दर्शाया कभी नहीं ...

“सुन रही हो सुम्मी” तुम्हारी आवाज़ का तिलिस्म सिर चढ़ा तो जागती आंखों में परियां समाने लगीं। “अब कल।” कोई बहाना बनाये बगैर उठ खड़ी हुई मैं। कमरे से निकलते हुए अपनी पीठ पर चिपकी तुम्हारी भोचक्क आंखें दिख रहीं थी मुझे ......। वक्त तो लगेगा, तुम्हें अनदेखा करके जीने की कोशिश में ...! बल्कि स्वयं मुक्त होने की शुरूआत कर रही हूं ...। मेरे भीतर फुँफकारते अजगर की जीह्वा का तांडव तुम देख सको उससे पूर्व ही तुम्हारे सामने से हट गई। एक पर्दा पड़ा रहे। कोई न जाने और सालों से लिजलिजे कीड़े सा, मेरी मेधा/मेरे मन पर रेंगता तुम्हारे और मेरे बीच का सम्बन्ध समाधी हो जाये। जयंत के कमरे को अपने लिए सजाते स्वयं को कोसा मैंने, यह तो बहुत पहले कर चुकी होती मैं यदि देखती कभी अपनी ओर भी ...। पूरे दिन में चाहे घण्टा भर ही सही यहां अपनी और नितान्त अपनी होकर जी लेती मैं। मनपसंद पढ़ती। कुछ लिखती या निढाल होकर पड़ी रहती बिस्तर पर। उघड़े दुपट्टे या टांगों के बीच फंसी कमीज के प्रति ज़रा भी चिन्तित हुए बगैर। चलो, जब जगे तब ही सवेरा। बाई को कुछ पुरानी धोतियां निकाल कर दीं और फर्श को शीशे के समान चमकाने की हिदायत देकर तुम्हारे सामने आ खड़ी हुई ...।

“सुनो ! मैंने कुछ तय किया है।

“चलिए ! हमारी पत्नी हमारी सोहबत में रहते हुए कुछ तय करने लायक तो हुई।” प्रभावित नहीं हुई मैं तुम्हारे हास्य के पर्दे में छुपे व्यंग्य बोध से। “आज से और अभी से तुम लिखाते जाओगे। जिस दिन समझोगे कि लिखा चुके। मैं पढ़ कर सुना दूंगी। रोज़-रोज़ लिखवाना फिर सुनना बन्द। ठीक लगे तो लिखाओ नहीं तो ...।” मैंने बात पूरी नहीं की पर कह दी दो टूक लहज़े में। “नहीं तो, ” ... तुमने कमज़ोर सी कोशिश फिर भी की ।

“नहीं तो मत लिखाओ।” मेरी बेबसी का फायदा उठा रही हो।” तुमने पैंतरा बदल लिया ...।

“फायदा तो अब भी तुम्हीं उठा रही हो।” कुछ कहने की जगह तुमने बाँह आंखों पर रख ली तो कमज़ोर पड़ी मैं ...। पर नहीं। अब बिल्कुल नहीं। मुझे भी जीना है। ... उस पल से; सिर झुकाये, बहुत सोच-सोच कर धैर्यपूर्वक लिखती हूं मैं। पर तुम्हें सुनने और तुम्हें देखने का उपक्रम करते, मैं तुम्हें कतई नहीं सुनती और देखती। लिखती हूं, पर तुम्हारा लिखाया नहीं ...। जिस दिन अचानक तुम कहोगे कि अब हो गया, पढ़ो। मैं सुनना चाहता हूं ...। मैं सुनाऊंगी तुम्हें यह सब जो लिख रही हूं ...। नानी की कहानी के अंधे कुंए को दर्पण सा दिखाऊंगी कि शर्म से डूबना भी चाहो तो चूल्लू भर पानी न मिले ...। शायद शर्म न आए गुस्सा आए। बेबस गुस्सा देखूंगी तुम्हारी आंखों में जिसे मैंने सिर्फ महसूस ही किया है आज तक। दर्शाया कभी नहीं ...

“सुन रही हो सुम्मी” तुम्हारी आवाज़ का तिलिस्म सिर चढ़ा तो जागती आंखों में परियां समाने लगीं। “अब कल।” कोई बहाना बनाये बगैर उठ खड़ी हुई मैं। कमरे से निकलते हुए अपनी पीठ पर चिपकी तुम्हारी भोचक्क आंखें दिख रहीं थी मुझे ...। वक्त तो लगेगा, तुम्हें अनदेखा करके जीने की कोशिश में ... !