वक़्त / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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ब्याह हो गया था।तारा छेदी के घर आ गयी थी।अंदर की दुनिया में जैसे सारा कुछ हासिल हो चुका था।लेकिन बाहर की दुनिया में समस्याओं के असंख्य सवाल बेशरम बेहया की तरह जवान थे।छेदी खेतिहर मजदूर व्याह के नशे में पूरा सीजन बिना काम किये निकाल दिया था। उसकी माँ खीज चिढ़ कर चल बसी.उसके क्रिया-कर्म हेतु सेठ से कर्जा और बढ़ चला था।जब छेदी चेता तो उसे कही काम न मिला।घर की जमा-पूंजी चूल्हे की आंच की तरह विलुप्त हो गयी थी।

गाँव में काम नहीं था।वह बाहर तहसील की ओर निकल गया।सड़क बन रही थी।मजदूरी में खप गया।घर में जवान सुंदर तारा हर समय उसका इंतजार करती, फिर काम पर लग जाती।गाँव के लौडों में उसकी चर्चा अकेलेपन की चलती।कई बार कर्जे वाले सेठ का संदेसा आता घर में काम करने के लिए.वह मना कर देती। छेदी ने उससे सावधान रहने को कहा था।परन्तु छेदी के गाँव के यार दोस्त मंडराने लगे थे, किसी न किसी बहाने।आँखों में अंगारा लिए वह उन्हें फटकार लगाती, भगाती। वह रात दिन उसका इंतजार करती।कभी कभी वह आता था।कभी एक दिन के लिए और कभी सिर्फ एक रात के लिए.वह छेदी के इंतजार में बुझी-सी रहती।रात में चाहे जितना ठोक बजाकर अपनी कोठरी में बंद होती फिर भी हर खटके पर जान सांसत में पड़ जाती।इससे ती अच्छे वह अपने माँ बाप के घर में थी।माँ-बाप, भाई-भौजाई और भतीजे-भतीजियाँ सब थे। एकदम भरपूर परिवार-घर में दुलारी एकलौती बहन, डर की कोई बात नहीं।

हफ्ता पंद्रह दिन बीते थे छेदी वापस आ गया।हथेलियों का सहारा लेकर जमीन में बैठा हुआ।उसने मरी हुई आवाज में उसे आवाज दी।नज़र उठाकर देखा और हुलस कर गले आ लगी।

" आह: ! वह पस्त आवाज में बुदबुदाया।कराह उठा।

"क्या हुआ?" वह अवाक्-सी उसे देखती है।उसने इशारे से अपने दायें पैर को दिखाया।वह पैर तारकोल गिरने से बुरी तरह से झुलस कर घायल था।उघड़ी खाल पर बरनाल का लेप लगा था।जोकि गर्द धूल गुबार से मैला हो चला था।

" हाय, दैया! मर गयी...कैसे हुआ? ... वह धीरे से आगे बढ़ी।उसका मन उसे सहलाने को हुआ, किन्तु उसने मना करने से उसने अपना बढ़ा हुआ हाथ रोक लिया।

"सड़क पर तारकोल छिड्काने में पैर जल गया।"

"काहे...गमबूट नहीं पहने थें का?" उसने बड़े ही चिंतित स्वर में पूछा।परन्तु उसकी दृष्टि उसके जले पैरों पर केंद्रित थी।

"पहने थें।मगर वह एक आध जगह से फटा था।" दर्द की एक लहर उठी और वह बिलबिला गया।

वह भीतर गयी और देशी दारू की बोतल उठा लायी।वह देहरी पर ठिठक गयी और उसे देखने लगी।छेदी दीवाल की टेक लगाये आंखे मूंदें बैठा था। आज वह खुद उसके लिए दारू लेकर आई थी।वरना वह हर समय टोकती थी।वह सख्त विरोधी थी उसके पीने पिलाने के शौक का।शादी के बाद से वह देख रही थी कि उसने कितना पैसा दारू में उड़ा दिया था।एकदम घर खल्लास कर दिया था।शुरू शुरू में वह कभी-कभी उसे भी जबर दस्ती प्रेम में पिला दिया करता था।जो उसे काफी बुरा लगता था परन्तु नयी नवेली बहु होने के कारण और छेदी बुरा न मान जाए, वह संकोच और झिझक के साथ पी लेती थी।फिर कभी कामकाज के कारण आई थकावट दूर करने के लिए छेदी के प्रस्ताव को वह अस्वीकार न कर पाती थी।परन्तु शीघ्र ही उसने कभी-कभी से भी तौबा कर ली थी।

वह उसके पास बैठ गयी और एक मग में शराब डाल कर उसे दी।उसने जब मुंह उठाया तो होंठ खुल गए और पसीने की बुँदे माथे पर चमक उठीं।दर्द के बावजूद उसके होंठों पर हंसी आ गयी।उसमे कोई हिचक नहीं थी।वह पीने में जुट गया।

"काम का क्या होगा?" उसके पीते हुए, टोकते पूछा...

"अब नहीं मिलेगा।" उसने पस्त आवाज में कहा।

"काहे?"

"ठेकेदार ने कहा है कि अब तुम इस काम के लायक नहीं हो।ठीक होने पर काम पर आ सकते हो।अभी घर जाकर आराम करो...मै जब तक ठीक होऊंगा तब तक काम ख़तम हो चुकेगा।इसलिए अब यही कही देखते है, मगर अच्छा होने पर।"

सुनकर वह बेसाख्ता हंसी.उसे उसके यहाँ रहने से आन्तरिक खुसी महसूस हुई.उसने उसके हाथ से बोतल छीन ली...फिर ख्याल आया।

"कुछ खाओगे?" तारा ने पूछा।

उसने सिर हिलाकर अपनी भूख जाहिर की।खाना उसने भी नहीं खाया था।

खाने के थोड़ी देर बाद वह दोनों जमीन पर पड़े थें।वह सो गया था परन्तु वह आँख मूंदे जग रही थी। उसके जिस्म में एक अजीब-सी गुदगुदाहट का अहसास हुआ।परन्तु वह औधे मुंह सोया था।तारा ने आँखे खोली और विस्मय से उन्हें मला। वह उठी और बालों को पीछे समटते हुए वहाँ से चल दी।याद नहीं आया कि वह कब ऐसे खाली हुई थी?

सेठ से कर्जा लेकर ईलाज और दैनिक अवश्कतायों की पूर्ति की जाती रही।उसके ठीक होने कुछ ज्यादा ही समय लग गया।जब वह ठीक हुआ तो-तो गाँव में कही काम न था।थक-हार कर वह कर्ज वाले भुवन सेठ के पास काम के लिए पहुँचा, जहाँ उसका सब कुछ गिरवी रखा था...उन्होंने उस पर दया दिखाते हुए अपने यहाँ काम पर रख लिया।

एक दिन जंगल में चोरी-चोरी लकड़ियाँ काटते हुए वह पकड़ा गया।दोष लकड़ी वाले सेठ का था।वही उससे चोरी की लकड़िया खरीदता था।जितनी लकड़ी उतने पैसे! सेठ के यहाँ उसका यही काम था।

तारा ने सुना तो दौड़ी-दौड़ी मिलने पहुँची।छेदी अप्रतिहत सलाखों से सिर भेड़कर उसे देखता रहा।बोला कुछ नहीं।उसका कोई भी काम करने का प्रयास उसका साथ नहीं देता था।वह तारा को किसी प्रकार संतुष्ट करने में असफल सिद्ध हो रहा था।

"सेठ कर्ज के तगादें पर आया था।" एक घुटन उठी थी, जो गले से होकर आँखों को बंद कर गयी।सिर गिराये हुए छेदी ने सुना, रो दिया...वह भी रो दी।

" मै तो बंद हूँ...यदि खुला भी होता तो क्या कर लेता?

असहाय मर्मान्तक पीड़ा से ग्रसित वह उसे टूक-टूक देखती, धीमी-धीमी बुझी चाल से वापस चली गयी।

कुछ दिन बाद सेठ तारा से मिलने उसकी झोपड़ी में आया।कर्ज उगाहने के लिए.उसने असमर्थता जाहिर की और छेदी के आने तक रूकने का अनुरोध किया।

"उसका आना मुश्किल है, कौन जमानत लेगा और मुकदमा लडेगा?" उसने कहा। "तुम्हारा अपना खर्चा कैसे चलेगा? क्या साधन है?"

वह निरुत्तर थी।

सेठ ने उसका हाथ पकड़कर उसी की खाट में बैठाया।खुद उसके समीप बैठा और... -कर्ज अदा करने का रास्ता बताया। -छेदी को छुड़ा लाने का वादा किया। -घर के पास वाली दुकान उसे उपहार करने को कहा, जिससे वह अपना खर्चा चला सके.उसने सोचने विचारने को कहा और उसे उलझता, असहाय, पस्त और हतास देखा...उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान थी...फिर वह चला गया।

फिर उस रात सेठ का खास नौकर उसे घर से बुलाकर ले चला।निविड़ रात।खेतों और पेड़ो पर अतृप्त आत्मायें भटक रही थीं।तारा निष्क्रिय मस्तिष्क के साथ घिसटती हुई चली जा रही थी...सिर्फ आँखे खुली थीं और पैर चल रहे थें...कहाँ...पता नहीं!

उसने पूछा नहीं, कहाँ जाना है? पूछना बेकार था! जहरीले पैसों वाला गिद्ध लजीज मांस के लिए प्रतीक्षारत था।वही जा रही थीं।जिसके मृत्योमुख बहाव के साथ उसका वजूद जीवन का अर्थ और हृदय की वेदना सब कुछ छेदी की मुक्ति की राह में बहते चले जा रहे थें।उस गिद्ध से चिड़िया क्या बचती? आई है अपनी गरज से तो नुचना लाजिमी है। उस रात सय्या पर अकेली, रोती कलपती, तड़फती और पिसती रही।फिर बेहोस हो गयी।ऐसा लगा कि पंक पयोधि के गहरे जल में डूब गयी है।पानी की गहराई व्यक्त होने के काबिल नहीं थी।डूबने की व्यथा अभिव्यक्ति के परे थी।फिर कौन सुनता? किसे सुनाना है? जब वही नहीं सुन, देख पा रही है...या देखती सुनती बेहोश थी।उस दारुण व्यथा में भी कैसा वेग, आत्मविश्वास और अपने प्रिय को लौटा लाने का उत्कट अभिलाषा की ललक बची रह गयी थी।

सेठ ने दो वादे पूरे कर दिए.पुराना सारा कर्जा माफ़ कर दिया।घर रेहन से मुक्त हो गया।छेदी को जेल से बाहर करवां दिया... छेदी आ गया था।जेल से छूटकर सीधे यही आया।सिर्फ, एक महीने ही उसे रहना पड़ा था।भुवन सेठ ने उसकी जमानत करा दी थी।अदालत में केस चलेगा।वहाँ से भी छुटा देंगे सेठ ने आश्वस्त किया... इस बीच उसे कितनी बार उसके पास जाना पड़ा, याद करने की बात नहीं है।

एक माह में छेदी कितना टूट फूट गया था।यह आसानी से कोई भी उसे देखकर समझ सकता था।तीस साल का जवान पचास साल के अधेड़ में तब्दील हो गया था।उसका पोर-पोर दुखता था।चलना, उठना, बैठना भारी था।घिसटना रह गया था।शराब उसके दर्द को कम करने में सहायक थी।अब वह सेठ से कर्ज, उधार मांगने पहुँच जाता था।सेठ उसे फिर-फिर कर्ज दिया करता। गृहस्थी की गाड़ी चलाने के लिए, उसकी दारू उसी में संलग्न थी।

वह देख रही थी।अच्छे दिन, बुरे दिन, काफी बुरे दिन।अक्सर रात में नींद न आने पर बिस्तर पर पड़े-पड़े अपने को सही गलत सिद्ध करने की कसमकश से उपजा पाप पुण्य का लेखा-जोखा।वह जानती है कि सेठ एक ऐसा गिद्ध है जो मरे व्यक्ति का नहीं, जिन्दा व्यक्ति का मांस नोच-नोच कर अहिस्ता-अहिस्ता खाता है।परन्तु उसका कोई विकल्प इस समय नहीं है।

ऐसे करते हुई कुछेक दिन ही बीते थे कि एक दिन तारा छेदी के साथ सेठ के घर जाकर उससे मिली।उसकी निगाह सेठ के तीसरे वादें पर रुकी थी।

"सेठ जी! हमरे मनई के लिए कोई काम? घर का खर्च कब तक उधार से चलेगा?" तारा ने अजिजी से कहा।उधार का भुगतान अपने द्वारा करने से पस्त थी।फिर छेदी के लिए कोई काम उसे बोझ से मुक्ति दिलायेंगा।

"छेदी अब क्या करोगे?" सेठ ने पूछा।

वह कुछ नहीं बोला।उसे निठल्लापन भाने लगा था।दोनों उसके तरफ देख रहे थे।

"अब तो किसी काम के काबिल रहे नहीं...? ...फिर जो कहो...कर देंगे...यदि कर सके." उसने टालना चाहा।मगर तारा उसे घेरने में कोई चूक नहीं रखना चाहती थी।

"सेठ जी घर के पास वाली आपकी ही दुकान-जमीन है।कुछ मदद हो जाती, तो यह काम से लग जाते।" तारा ने उसे तीसरे वादें की याद दिलाई. हांलाकि यह कहते हुए वह बुरी तरह डर, संकोच और सहमी थी कि उसे फिर उसी दोखज में लौटना पड़ेगा।अभी का कभी कभी, रोज-रोज का कार्य न बन जाए.

सेठ सब कुछ देखता है।सोचता हैऔर फिर हँसता है, "अच्छा ठीक है।छेदी ने मेरी बहुत सेवा की है।" यह कहते हुए वह तारा की तरफ देखता है..."तू कितने कष्ट भोग कर आया है और एक तरह से काम के नाकाबिल है।तो उस जगह को तुमको दान दिया।परन्तु पट्टा लिखकर न देबे।" उसने तारा से कहा।

"सेठ जी, आपकी जुबान काफी है।" तारा ने बुदबुदाते हुए कहा।

छेदी का ह्रदय कही बीच से फट गया।आवाज बाहर आयी...आदमखोर...नहीं...नहीं... नहीं...औरतखोर...? मगर अभी उसका कोई विकल्प नहीं है...जीवन का काफिला काफी लम्बा है और उसके हाथ पैर सब जवाब दे चुके है...तारा के साथ ही घिसट घिसटकर चल पाएंगे।नहीं तो जीना संभव नहीं है।अकेले दुष्कर है।उम्र जवानी की थी, परन्तु शरीर जर्जर अवस्था में था..." हे, देव! बजरंगबली।हम करंगे...सब करेंगे, जब तक सारी स्थिति को फिर से व्यवस्थित नहीं कर लूँगा...मरूँगा नहीं...जिन्दा रहूँगा और अपाहिज बनकर भी नहीं...और हम फिर खड़े होंगे जैसे गिरे ही ना थे।

उसके अंदर की उबलती इच्छा शक्ति देखकर तारा भी भौचक रह गयी।अभी तक कहाँ थी यह जीवटता? जेल के भीतर नष्ट हो गयी थी शायद।

दोनों ने मिलकर वह जगह और दुकान साफ करी और पीछे दो झोपड़ी खड़ी करी और आगे एक हैण्डपंप लगवाया।पैसा तारा के पास था और कर्ज उधार ने फिर राह आसान की। ।

उसने चाय, समोसे, पकौड़ी की दुकान खड़ी कर दी। तारा की वजह से चल निकली।छेदी गुमसुम मालिक बन गया।अब उसमे इतना विश्वास आ गया था कि वह अकेले भी दुकान चला लेता था।अक्सर सेठ की घर वाली तारा को अपने काम के लिए बुलवा लेती थी तब वह अकेले ही दुकान सम्हालता था।

एक बार सेठानी ने बुलवाया।छेदी था उसने नहीं बताया।वह नहीं जा पाई.तुरंत सेठ का नौकर आया और पूछ बैठा, "काहे जी? सेठानी ने तारा को बुलवाया था तो भेजा काहे नहीं?" वह हकला गया।उसे कोई जवाब नहीं सूझा।तारा तुरंत फ़ुरत चली गई थी सेठानी को मनाने।वहाँ सेठानी नहीं सेठ जी रूठे बैठे थे।उसने सेठ को मनाया।उनका मन मिजाज खुस किया।वह अहसान फरामोश नहीं है, उसने अपने को समझाया।उसे अपनी औकात में रहना चाहिए.उसे नहीं भुलाना चाहिए कि वह आज किसके कारण से अपने बलबूते है।किन्तु वह शीघ्र ही वह इस गुलामी से मुक्ति पा लेगी।

सुबह सुबह छेदी जग गया था परन्तु अलसाया लेटा रहा।वह एकटक उसे देखती रही।उसने सोचा अब उसे बता देना चाहिए.उसकी सांसे उसकी तरफ आई थी। फिर उसने तारा की तरफ देखा और उसने यकायक बोल दिया, "मेरे पेट में दो माह का बच्चा है..." उसकी आवाज में हलकी थरथराहट थी।वह विवाहिता है फिर यह हिचकिचाहट...? सिर झुकाए उसने सुना।न बताने वाले के स्वर में प्रसन्नता और उल्लास था, न सुनने वाले के कोई ख़ुशी फैली।

" अच्छा है...! कहकर उसने उसके शब्दों को पिया।किन्तु जिसे हम दुःख तकलीफ या यातना कहते ही उसका भी खास मौका नहीं था।परन्तु यदि यह सुख अगर था, तो बहुत ही फीका और धुंधला-सा था।फिर वह उठकर अपने काम पर चला गया।

वह देख रही थी, सुन रही थी।रात को जब वह उसकी देह को छुवेगां तो पूछेगी।इस दुनिया में उसकी देह ही ने तो उसका साथ दिया है वरना उसकी दुनिया बसने से पहले ही उजड़ गयी थी।

दुःख निराशा और आतंक के मिले जुले अहसास ने उसे खाट पर डाल दिया था।मन में पता नहीं क्यों यह बात तेजी के साथ तैर रही थी कि भावी के विषय में उसे खुद पता नहीं है कि यह किसका है...? घर के दूसरे सिरे पर स्थित कोठारी में वह लेटी है, असहाय निरासक्त अकेली।अपने आप से दर्द, दुःख और चिंता से अभिशक्त।

वह दूर कही और है।

उस रात।ठीक आधी रात।भयानक पीड़ा में पड़ी उसे मौत नज़र आ रही थी। डर, घबराहट और असहनीय दर्द में वह पसीने से तरबतर थी।वह जोर-जोर से चीखने लगी।ह्रदय-विदारक चीखें सुनकर वह जागा।वह कही बाहर सोया था जैसे भीतर कोई अछूत हो। घबरा कर वह बिस्तरे से उतरा।उसकी कोठरी में आते-आते वह लड़खड़ाया।

"तारा!" उसकी आवाज घबराहट और बदहवास से भरी थी।

"गाँव से कमली को बुला लाओ... " टूटती हुई आवाज में उसने कहा।वह और कुछ कहना चाहती थी परन्तु बात अधूरी छोड़कर वह शरीर के उठते गिरते दर्द से बेदम थी।उसके तन बदन में पीड़ा भीषणतम रूप से बह रही थी।उसे लगा कि वह मर जाएगी।उसकी आँखों में याचना तड़फ रही थी।

वह अपनी आँखों से उसकी यातना नहीं देख सकता।न जाने क्यों, उस क्षण उसके भीतर अजीब झुरझरी फ़ैल गयी कि अगर...?

वह दौड़ गया।

कमली दाई के आते ही सब आगे उसके सुपर्दगी में क्या कहा जा सकता था? उस रात रोती तड़फती पीड़ा की अनगिनत लहरों के बीच उसने बच्ची को जन्म दिया था।फिर बेहोश हो गयी।होश आने पर कमली के दुलराते पोपली आवाजों ने उसे अपने में लौटा दिया था।आँखों से गर्दन तक लावारिस पानी की लकीरे थरथराती हुई नीचे तक चली गयी थीं।अंदर छाती में तेज हिलक कंपकपाती आस उठी और उसने बच्ची को समेट लिया।

कमली दाई ने अपना काम कर दिया था।छेदी ने जल्दी-जल्दी पैसे देकर विदा किया।उसने इशारे से भीतर जाने को कहा था।

उसका कंठ सूख जाता है।सिर झुक जाता है।भीतर सोचता है कि बगैर तारा उसका कोई अलग अस्तित्व नहीं है।मेरे अस्तित्व में भूख, गरीबी, लाचारी, जेल, दर्द, प्रताड़ना और मानसिक और शारीरिक अपंगता और बीते हुए वक़्त की यातना सबका हिस्सा है... उसकी जड़े खोखली थी और है।उसकी जड़ो को सीचने का काम तारा ने किया।तभी उसमे फल फूल पत्तियाँ विकसित हुए हैं।तारा का इसमें क्या कसूर? जबकि तारा सब कुछ सहते हुए भी उसे पालती रही, जगाती रही और उसे अपने पैरों पर खड़ा करती रही।शायद गलती उसकी है या किसी की भी नहीं परिस्थितियाँ ही ऐसी होती रही कि वे सब बेबस थें...उसने समझ लिया है कि वह मजबूत आदमी बन सकता है और पुनः खड़ा हो सकता है तो बगैर तारा के नहीं।

उसे लगा कि उसमे नवजात में दिलचस्पी आ गयी है।वह जल्दी ही सब कुछ भूलकर छोड़कर बच्ची के पास जैसे अभी-अभी उसका ख्याल आया हो! वह उसे प्यार करता है और तारा के सिर पर हाथ रखता है। उसे तसल्ली मिलती है, उसकी आँखों से आंसू ढूलक पड़ते है।

एक नए सिरे से सोचते-सोचते वह पुरानी हालातों में गुजरने लगा।सबसे महत्त्वपूर्ण चेहरा उसमे उसकी पत्नी तारा का, उभर कर आ रहा था।कितन सहा है उसने अकेले और अब तक सहन कर रही है, सबको।अंदर से जलते-खौलते हुए उसने सेठ को क़त्ल कर देने की सोचीं।मगर यह सही नहीं होंगा।वह तो पाप से मुक्ति पा जायेगा और उसका और परिवार नरक में समा जायेगा? लेकिन अब समझौते नहीं करेंगे।वह एक हादसा था जो गुजर गया है।तारा उस वक़्त कमजोर पड़ गयी थी। उस वक़्त कमजोर न पड़ती तो क्या करती सबकी जिंदगी बचानी थी। आज वह सब न होते? क़िस्त दर क़िस्त जिंदगी खरीदी है उसने...तारा सब तरह का मान अपमान सहते हुए भी हम सभी को पालती रही, पढ़ाती रही...उसकी गलती रंच मात्र भी नहीं है।वह न होती इतनी जीवंत तो हम सब कही न होते।उसकी गलती नहीं है...सारी की सारी गलती उसकी खुद की है। जो गलत जगहों पर चोट करता रहा और पराजित होता रहा...परन्तु अब समझौते नहीं करना है...सशक्त है।मानसिक शारीरिक और आर्थिक रूप से अब हम कमजोर नहीं है...उसका आन्तरिक प्रलाप जारी था।अपने को धिक्कारने की खिड़की खुल गयी थी...अब अपनी जान की परवाह नहीं करनी है।यादों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था...बचने के लिए उसने शराब को हमसफ़र बनाया था।परन्तु वह सब जब तक नहीं छूटें जब तक वह पूरी तरह नशे के आगोश में नहीं आ गया...उससे उस दिन कुछ ना खाया गया और न कुछ किया गया।

रात आ चुकी थी।तारा ने उसे खाट पर लिटाया।वह दुकान बंद करके आ गयी थी।वह इतनी बेहोशी में नहीं था कि कुछ महसूस न कर सके.अवसाद में कितना पी गया होश नहीं रहता है।

तारा ने एक आध कौर ही खाए थे कि उसका ध्यान छेदी पर गया।उसने देखा कि वह मरी हुई आँखों से उसे ही देखे जा रहा है।या खुली आँखों से सो रहा है, कुछ कहना मुश्किल है।वह उठकर उसे देखने आई. खाने के लिए पूछा। वह वैसे ही निश्चल पड़ा रहा।वह लौटकर कहने के लिए वापस गयी परन्तु उससे इस बार खाया न गया।

वह गहराई से महसूस करती है कि उसे शरीरिक कष्ट के अलावा आर्थिक, मानसिक, समाजिक तकलीफे सदैव प्रताणित किया करती हैं।इसलिए वह इनसे निजात पाने के लिए शराब का सहारा लेता है...यह सब उसे भी है। किन्तु उसे इन दर्द-पीर को परे रखकर आगे बढ़ना है। ...सब कुछ पीछे छोड़कर आगे की जिंदगी उजास के आलम में तब्दील करनी है...एक निश्चित प्रायश्चित... आत्मप्रलाप नहीं।

आज छेदी की सुबह पांच बजे ही नींद खुल गयी।उसे याद है।वह फुर्ती से उठा और नित्यकर्म से निपट कर जल्दी ही चाय की दुकान खोल दी।उसने अपना अकेलापन तोड़ने की ठान ली थी।दुकान पर एक आध चाय और ठर्रा वाले आ जमे थे।उसने जल्दी से ठर्रा वाले को निपटाया और फिर चाय चढ़ा दी।अब वह सोच रहा था कि तारा के आने के पहले ही वह उसके लिए पकौड़ी बनाने की तैयारी कर दे।तारा सुबह जल्दी करीब पांच बजे आकर यह सब काम निपटाया करती थी। वह सबसे बाद करें दस के बाद ही आता था और उसका कुल्ला भी ठर्रा से हुआ करता था।तभी उसकी आँखे खुलती थीं।

तारा आ गयी थी और विस्मय से उसे देखती हुई काम में जुट गयी।ताज्जुब दर ताज्जुब! उसे बहुत खुसी हुई जब उसे छेदी से दारू की कोई बदबू नहीं आती मिली।वह पकोड़े और खस्ता समोशा बनाने में जुट गयी।दुकांन के सभी काम तीब्र गति से थे।आज छेदी ग्राहकों से डील कर रहा था और उसने तारा को समान बनाने की प्रक्रिया में लगे रहने दिया।

प्रतिदिन काम सही ढंग से चल रहा था।बनाने का काम तारा के पास था और बेचने का काम छेदी कर रहा था।उसे बच्ची भी देखनी होती थी।वह बहुत सुंदर थी।छेदी और तारा से भी ज्यादा।वह पास में खेला करती थी, रोया और पुछ्कारी जाती रहती थी।वह माँ की दुलारी थी, परन्तु छेदी के लिए उपेक्षित और नगण्य।किन्तु उसे प्रेम करने में उसका जी ललचाया करता रहता।

उन्ही दिनों भुवन सेठ का मुनीम आया था और उसने तारा को सेठानी ने बुलाया है ऐसा कहा।वह भूल गयी और छेदी ने याद भी नहीं दिलाया बल्कि वह तो चाहता था कि उसे याद न आये।

दों-तीन बीत जाने के बाद भुवन सेठ आज खुद उनकी दुकान में आकार खड़ा हो गया।छेदी ने आहट पाकर सिर उठाया।परन्तु कुछ प्रतिकिया नहीं दी।तारा ने उन्हें बैठने को कहा।

वे नहीं बैठे। उन्होंने पूछा, "काहे, हमारी घर वाली ने तारा को बुलवाया था तो भेजा काहे नहीं?"

छेदी ने कुछ जवाब नहीं दिया।वह जवाब देना भी नहीं चाहता था।परन्तु वह भीतर ही भीतर उबल रहा था। उस समय तारा बोलने वाली थी कि छेदी ने उसे ईशारे से रोक दिया।सेठ ने फिर जवाब तलब किया।

"किसी के बाप के नौकर नहीं है हम और हमारी घर वाली, ... अब न अहिये कबहूँ हम या हमरी जोरू, समझे!" उसकी आवाज में तेजी और तुर्शी थी।तारा चुपचाप ऑंखें फाड़ते देखती रह गयी।भुवन सेठ को भी यकीन करना मुश्किल था कि छेदी ऐसा बोल सकता है और वह भी ऐसी तेज आवाज में।

"अच्छा! ऐसी जुर्रत?" सेठ बुरी तरह खिसिया गया था और हिकारत में फुफकारता हुआ वहाँ से चला गया।

"उन्हीं की जमीन जायजाद में बैठे हो और उन्ही के सहारे यह सब चल रहा है और उन्ही को दुत्कार दिया...?"

"चुप्प...! एकोह शब्द आगे नहीं...अब उसका कुछोव नहीं...सगरा भुगतान ह्यू गया है...सारा हिसाब किताब बराबर हुए गवां है...कुछुव बाकि नहीं...अब उसके पास जांवेक जरुरत नहीं है।" उसने उसे बुरी तरह चेतावनी सहित झिड़क दिया।

वह चुप लगा गयी।किन्तु वह भविष्य की कुशंका से ग्रसित हो गयी थी...परन्तु उसके चेहरे पर डर आकर बैठ गया था।

कुछ ही समय बीता था कि मुन्सी जी सेठ के दो परमानेंट लठैतों के साथ दुकान के सामने खड़े थे, आक्रामक मुद्रा में।मुन्सी जी ने दुकान और जगह छोड़ने का आर्डर कर दिया।छेदी ने मना कर दिया।

उनके लठैत उसे मारने के लिए लपके.वह भाग कर कोठारी से अपना लट्ठ निकाल लाया।अब उनके बीच लाठियों से बात होने लगी।दो लठैतों के बीच छेदी कमजोर पड़ रहा था।उसका सिर फट गया था भीड़ जुटने लगी थी।यकायक तारा में उसे पीटता देख गुस्से और क्रोध का सैलाब उठा और वह भी एक लाठी निकल लाई.उसने मुन्सी पर हमला कर दिया।मुन्सी चीखा चिल्लाया।उसके लठैतों का ध्यान उसकी तरफ गया और इधर छेदी की जात विरादरी के लोग और आ जुटे।मुन्सी भागा तो उसके लठैत भी भागे।

छेदी बेहोश हो गया।परन्तु उसे जल्दी ही होश आ गया।उसे उठाकर लोग मोहनलाल गंज के सरकारी हॉस्पिटल में ले गए जहाँ उसकी मरहमपट्टी की गयी।वह और उनके साथियों ने थाने में मुन्सी और उनके दो लठैत हरखू और किशनु के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवाई गयी।

संयोग से स्थानीय विदायक छेदी की जाति का निकला।उसे अपने वोट बैंक की खातिर छेदी का पक्ष लेना पड़ा।उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के शोषण का मामला तूल पकड़ने लगा।वह जगह सरकारी निकली जिस पर सेठ ने अवैध कब्ज़ा कर रखा था।विधायक जी की कृपा से दोनों पक्षों में समझौता हुआ और वह जगह और दुकान छेदी के ही कब्जे में बनी रही।

अब छेदी और तारा निर्द्वंद होकर अपनी दुकान चलाने लगे।दुकान की चिंता ख़त्म हुयी और सेठ की बेगारी से मुक्ति।