वक्रता / दयानंद पाण्डेय
मजदूरों के साथ सड़क के किनारे वाला खेत सिंचवाने में व्यस्त था कि एक बस रुकी। मां शहर से छुट्टी में गांव घूमने आई थीं। मैं कुछ पहले ही आ गया था। लेकिन यह क्या? मैं तो मां को लेने दौड़ा आया था। रुक क्यों गया? कारण, चटक चांदनी की-सी साड़ी में लिपटी-सिमटी खिड़की के पास बैठी तुम थी। तुम अपलक मुझे निहार रही थी। मैं हिला जा रहा था। मेरा खेतिहर रूप जाने तुम्हें कैसा लग रहा था। है ना! तुम्हारे हाथ में कोई अंगरेजी पत्रिका थी, जो आंचल ढलकने के साथ ही सरक गई। मां का सामान बस से उतर चुका था। बस स्टार्ट होने को हुई तो तुम्हारे पास की सीट से किसी महिला स्वर का अभिवादन मां को मिला था। मैं पहचान गया था....तुम्हारी दीदी थीं। तब तो तुम ने मेरी मां से परिचय भी कर लिया होगा, यह सोचते ही बस स्टार्ट हो गई।
अभी आगे बढ़ कर कुछ कहना चाहता था कि, तब तक तुम कुछ कह चुकी थी। लेकिन बस के इंजिन की घड़घड़ाहट के शोर में तुम्हारे शब्द डूब गए थे कि तुम्हारे जबान से चल कर होंठों से टकरा वापस हो गए थे, नहीं जानता। मैं ने तो बस बुदबुदाते होंठ और हिलते हाथों की लहराती बेचैन उंगलियां और डबडबा आई आंखों भर को देखा था। उन्हीं आंखों को जिन में अंगड़ाई लेती पुतलियों के कोरों में झांक-झांक, गुनगुना पड़ता था, ‘तेरे तीन लोक से नयना / मुझ को प्यारे लगते हैं / कर देते हैं घायल / फिर भी प्यारे लगते हैं / निहारे लगते हैं....दुलारे लगते हैं / प्यारे लगते हैं.....तेरे तीन लोक से नयना।’ लेकिन शायद यह आज की आंखें वह आंखें न थीं। इन आंखों में कशिश की जगह अब कोशिश समाई जान पड़ रही थी। बस गई, तुम भी गई। यादें बाढ़ की तरह उफन आईं।
अंगरेजी का क्लास। प्रोफेसर दास सब से कुछ न कुछ जानना चाहते हैं। एक लड़की से पूछते हैं, ‘हवाई यू प्रेफर टू इंगलिश?’
लंबी-चौड़ी हकलाती भूमिका में एक बोल्ड-सा जवाब मिलता है, ‘आई वांट विजिट टू फारेन टूर, स्पेशली इंगलैंड....।’ बहुतों ने बहुतेरे जवाब दिए थे। कोई अंगरेजशी का यों ही ज्ञान पा लेना चाहता था, बेमकसद। कोई अनुवादक बनना चाहता था, कोई पत्रकार, कोई अंगरेजीदां....। बहुत से बहाने थे, अंगरेजी पढ़ने को। अलग बात है हिंदुस्तानियों की बचकानी अंगरेजी दंग ही करती है। फिर भी नया-नया जोश था, अंगरेजीदां बनने का, अंगरेजी सीखने-समझने का। अंगरेजी तो मैं नहीं सीख पाया, पर कुछ और जरूर सीख गया।
जो भी हो, उस पहले ही रोज से वह लड़की छात्रों के बीच ‘विषय वस्तु’ बनती रही। आए दिन किसी न किसी के साथ अलग-अलग प्रकरणों में उस का नाम जुड़ता-गुंथता रहा। कुछ यार लोग जबरिया अपने-अपने को उस ‘विषय वस्तु’ में रजिस्टर्ड होने की कोशिश में दिल तोड़ते घूमते रहते। उसके कंधे पर कंडक्टरनुमा थैला; जिस का इस्तेमाल रफ कागज, हिंदी-अंगरेजी की फिल्मी पत्रिकाओं से ले कर बाजारू, जासूसी उपन्यासों से होते हुए स्नो क्रीम, पाऊडर, आईना, कंघा आदि न जाने क्या-क्या रखने तक वह किया करती थी।
उस के बैडमिंटन खेलने की अदाओं पर, पैरों के घटबढ़ होने के बावजूद चलतू ढंग से ही सही क्लासिकल से ट्विस्ट तक की खूबियों का ख़ूब खुलासा होता, छात्रों के बीच। वह किसी भी छात्रा से बेबाकी से बतिया कर उल्लू बना देती। अदना-सा चुहुलबाज उल्लू एक मैं भी था, कतार में।
शायद कोई डिवेट्स कांपटीशन था। बहुतेरे छात्रों ने हिस्सा लिया था। वह लड़की भी हिस्सेदारों में एक थी। उस ने फर्स्ट प्राइज मारा, मैं सेकेंड हो गया था। लाइब्रेरी से एक रोज गुजर ही रहा था कि एक कन्या स्वर ‘सुनिए प्लीज!’ ने मन बांध पैरों को थाम लिया। बिना किसी लल्लोचप्पो के वह बोली:
‘डिवेट्स अच्छा दे लेते हैं।’
‘अरे नहीं, अच्छा तो नहीं, हां, हाथ-पांव मार लेता हूं।’
‘ओह!’
‘मैं कहूं, कैसे फर्स्ट हो गई। अरे जनाब हाथ-पांव मारना छोड़, दिमाग पर जोर मारना सीखिए।’
‘आप ने ‘लाइन’ दे दी है तो, कोशिश करूंगा मादाम! वैसे कोई कन्या लाइन इत्तफाक से अपने नसीब में नहीं।’
‘चलिए यह इत्तफाक हम दिए देते हैं।’
‘इस जर्रानवाजी के लिए शुक्रिया!’
कि लाइब्रेरियन साहेब टहलते नजर आए, हम भी टहल लिए।
हां, उस कन्या लाइन को हमने ख़ूब साधा। माया में मार्निंग शो वाली अंगरेजी मूवी देखते हुए, जब-तब ह्वी पार्क के झुरमुटों में बैठते, उठंगते, नरम मुलायम घास पर टहलते हुए। रेलवे लाइब्रेरी में उमस भरी दोपहरें और सर्द शामें बिताते, दो-चार किताबें उड़ाते हुए। राप्ती की रेत पर टहलते, दौड़ते, किनारा देख-देख बंबइया हिंदी फिल्मों में देखे हुए बंबई का समुद्र सोचते हुए। थक कर लालडिग्गी पार्क की बेंचों पर सुस्ता-सुस्ता एक-दूसरे को हूंसते, चिढ़ाते-चिकोटते हुए।
गणेश होटल के शीशे से लोगों को टटोलते और बॉबीज रेस्तोरां के अंधेरों में अपने आप को हेरते टटोलते हुए। बाहर निकल गोलघर की खुली सड़क पर सहमे-सहमे, अलीनगर और बक्शीपुर की तंग सड़कों पर नजरें झुकाए हम चलते होते। मन एक अजीब ख़ुशफहमी में भटकता भागता होता। बल्लियों उछाल मारता दिल का दलदल दौड़-दौड़ जाता। ठीक वैसे ही जैसे सिविल लाइंस की सूनी-सूनी सड़क पर तुम्हारी साइकिल हौले-हौले दौड़ती....। ऐसी जाने कितनी ही अदाओं में उभ-चूभ डूबे हुए दुनिया की और चीजशें की खोज-ख़बर भुला बैठे हम, शहर में लोगों के लिए खोज-ख़बर बन बैठे थे।
सड़क के किनारे खड़ा, तुम्हारे साथ गई बस को देर तक देखता रहा। बस चली गई, उस के पीछे उड़ती धूल देखता रहा। धूल उड़ गई, दिशा देखता रहा। कब तक देखता भला? घुप्प अंधेरा हो गया। घर आ गया। बरबस तुम्हारी याद सताने लगी। तरह वही थी कि, ‘याद तुम्हारी आई / जैसे / कंचन कलश भरे....।’ पत्नी चौके में थी। पत्नी को ही ले कर छत पर अंधेरा टटोलते टोहते बड़ी देर तक टहलता रहा। खाना खा कर पलंग पर जाते ही, तुम्हारी गंध आने लगी। सीने में तकिया समेटा, गोया मेरी बाहों में तकिया नहीं तुम हो।
अलसाई नींद में गदराई देह की छुअन मिली। आंख खोली भी नहीं, उसे अपने आप में दबोचता, भरपूर चूमता, चाटता बुदबुदा पड़ा ‘नहीं पश्यंती तुम मुझ से इतर नहीं हो सकती....।’ पत्नी छिटक कर दूर हो गई, ‘आंय यह क्या? किस को याद कर रहे हो? शर्म नहीं आती....तुम्हें इतना भी ख्याल नहीं कि सोए हो मेरे साथ और याद बिटिया को कर रहे हो....छि....!’ तब याद आया कि पत्नी के साथ सोया हूं....। पम्मी बेटा तो मां के पास सोई होगी।....बरबस मां के बस से उतरने की याद हो आई। पत्नी उचट कर एक ओर हो गई थी।
याद आने लगीं तुम्हारी बेवकूफियां....तुम्हारी इंगलैंड जाने की बचकानी जिद जोर पर रही। जिद की जीत होती रही। तुम ने मुझ से मिलना तक छोड़ दिया....देख कर भी नहीं देखती। देखती तो निर्विकार। गोया मैं आदमी नहीं पेड़ कि सड़क होऊं।....इस बीच तुम्हारे डैडी चल बसे। तुम पर जिम्मेदारियां भहरा पड़ीं। चाहा था कि तुम्हारे दुख को अपना लूं। साथ हो लूं। लेकिन एक किस्म की ग्रंथि तुम्हारे मन में घर कर गई थी। कुंठाएं तुम्हें चारों ओर से जकड़ती चली गईं। अपने आप को तोड़ती दफ्तर-परिवार के बीच एक धुरी बनाती, जोड़ती तुम जाने वक्त के किस चमत्कार को जोहती रहती। और चमत्कार थे कि वक्त के हाथों से खिसकते गए। तुम्हारी जिंदगी की सारी तरतीबें बेतरतीब होती चली गईं। मैं तो क्या बहुतों ने तुम्हें संभलने को कहा। लेकिन तुम भला किसी का कहा क्यों मानती? बस एक झूठी अकड़ के सैलाब में सड़ती, वक्त की आग में तिल-तिल कर जलती बुझती, तुम को सिवाय अपने दोहरेपन के कुछ रास नहीं आता। हालां कि यह दोहरापन भी तुम्हें कितना रास आया, मुझ से या किसी से भी अधिक तुम ही जानती हो। सोचता हूं, मुझे न सही, तुम ने किसी को तो समझने की जरूरत समझी होती, तो शायद बहारों का रुख़ तुम्हारी ओर भी मुड़ा होता और उस का कोई झोंका कतई तौर पर तो नहीं, शायद बहक कर ही सही, इस अदने लल्लू की ओर भी बढ़ आता। लेकिन कहां? तुम तो अपना आप ही कहीं खो बैठी थी, कि रूठ बैठी थी नहीं कह सकता।
बाप का बड़ा बेटा कब तक ख़ैर मना सकता था भला....? नौकरी मिली-मिलाई थी, लाख विरोध करने पर भी एक चुड़ईक दोस्त की इस पैरोडी, ‘रहिमन वे नर मर चुके, जिन बियाह को जायं....उनते पहले वे मुएं जिन....’ सुनते-सुनाते शादी की अनचाही खोटी खूंटी पर टांग दिया गया। खूंटी खाती रही, मन सोता रहा। सोते-सोते सुस्त गृहस्थी के फेर ने आ घेरा....। तुम्हारी याद आती तो उछाल दिया करता। बुरी तरह धंसता हुआ। कभी-कभार पुराने यार लोग टांट कर ही बैठते, टालू तौर पर टाल जाता। पर कहां टाल पाया ....अब भी तुम्हारी याद की सूली पर सवार हूं। जब-तब इस सूली पर चढ़ता ही रहता हूं, शायद नियति हो गई है।
घर में बिटिया पैदा हुई। जान-बूझ कर इस का नामकरण तुम्हारे नाम से किया। यह सोच कर कि तुम नहीं, न सही, बिटिया तो मेरी रहेगी।....पश्यंति बेटी के रूप में। इस तरह मेरी बिटिया बन कर तुम मेरे मन-मानस, घर-देहरी और आंगन में अपने से कहीं अधिक विस्तार पा चुकी थी। फिर भी तुम और तुम्हारी याद! झकझोर-झकझोर जाती। मन का पोर-पोर पिरा उठता। समय की सूली, तुम्हारी याद की सूली से धारदार नहीं लगी मुझे। बीता समय भी तुम्हारी याद न धो सका। फिर भी समय तो बीतता ही गया।
कभी सुना था कि तुम्हारी भी शादी-वादी हो गई....। पर आज तुम्हारी सूनी मांग देख कर विकल हो गया। अलबत्ता उस अदा में नहीं कि, ‘कोई विकल हुआ है / किसी रूप की कृपा है / है मेरे भी ऊपर....’ हां इस अदा की चुभन जरूर थी। पत्नी को भी तुम्हें ही समझ बैठा....। ओफ्फ! तुम्हें भुलाता बहुत रहा। बहुत तरहें अख़्तियार की इस भुलाने ख़ातिर....। शुरू में तो तुम्हारे प्रतिशोध में कुछ कन्याओं से खेला। उन्हें जी भर कर उलीचा। उलीच-उलीच तबाह करता रहा। कुछ समय बाद पाया कि वह तुम्हारी बिरादर कन्याएं तबाह हुई हों, न हुई हों, मैं जरूर तबाह हो गया। अपनी अमानवीयता से आजिज, वापस घर की राह याद आई। नहीं गया घर। इस लिए कि उस शहर में तुम्हारे होने का अंदेशा था। भुलाता रहा तुम्हें। शहर-दर-शहर भटकता, नौकरियां करता, छोड़ता-झुलसाता रहा, अपने आप को। नहीं झुलसा मैं। झुलसता गया मेरा वक्त, झुलसा मेरा कैरियर, झुलसा मेरा अहं।, झुलसे मेरे आस- पास और परिवार के लोग। पर मन मेरा नहीं झुलसा। कभी नहीं।
तुम्हें भुलाने की ख़ातिर इस ‘झुलसने’ से ‘झांकने’ की एक लंबी प्रक्रिया है। तुम नहीं समझ सकोगी। तुम्हारे पास वक्त नहीं होगा। न ही समझ सकने लायक मन। यकीन मानो, अब भी मेरा व्यक्तित्व अपने नहीं तुम्हारे परितोष के लिए उद्वेलित हो उठा है। हां, तुम्हीं ने तो मुझे परितोष बनाया था। याद है तुम्हें, कि तुम ने कहा था, ‘अनु, एक बात कहूं।’
‘कहो।’
‘यह तुम्हारा अनु नाम घर में चले तो चले, मेरे साथ नहीं चलेगा।’
‘आज नाम की बात कर रही हो कि घर में चले तो चले, मेरे साथ नहीं। क्या ख़बर कि कल मेरे व्यक्तित्व को भी यूं ही किक कर दो और फिर मेरे मन को। प्यार को भी!’
‘अरे नहीं बाबा! देखो तुम बेवजह सेंटीमेंट की गिरफ्त में आ जाते हो....मैं भला क्यों सोचूंगी, सोचें मेरे दुश्मन! मैं ने तो सोचा कि....’
‘कि आलू गोभी रख दें।’
‘धत्! मैं तो तुम्हें परितोष कहूंगी। परितोष....हूं!’
ठीक भी था, पश्यंति और परितोष। दोनों देखने में अलंकारिक। एक-दूसरे के समानांतर। अब सोचता हूं तो पाता हूं कि नियति भी इसी समानांतर के साथ गुंथी रही, कुछेक छिटपुट क्षणों को छोड़, हम दोनों हमेशा समानांतर ही रहे। हमेशा के लिए होते गए। कोई वक्रता नहीं, न ही कोई तिर्यक, जो एक-दूसरे को काटते हुए मिला सके और कि अनर्थ का अर्थ काट कर अर्थवान अर्थ दे सके।
सुबह देर से उठा था। आदत है सुबह देर तक सोने की। रात-भर जागता जो हूं। अख़बार पढ़ नहीं, पलट रहा था। फोन की घंटी बजी। मैं ने ही उठाया, ‘यस प्लीज....’ और ‘पम्मी, तुम्हारा फोन’ कह कर अख़बार फिर से पलटने लग गया। लेकिन अचानक फोन पर बतियाती पम्मी के मुंह से परितोष नाम सुन कर विचलित हो गया। पम्मी की बात-चीत सुनता रहा ‘....हां, परितोष....! हां-हां....पापा घर पे ही हैं। उन्हों ने ही तो फोन रिसीव किया था! आ रहे हो ना। ऊं हूं? यहीं आ जाओ न प्लीज! ममी नहीं आना चाहतीं? देखो उन्हें किसी तरह कनविंस तो करो। तुम समझते क्यों नहीं? अच्छा चलो भई, तुम्हारी ही सही, मैं ही आई। ओ॰ के॰।’
इस परितोष नाम से पम्मी की बात अकसर होती रहती। अकसर वह उस से मिलने भी जाती रही। चाहता था, पूछूं उस से कि यह परितोष कौन-सी बला है? लेकिन पूछने भर का साहस कभी बटोर न पाया। पूछने की सोचता तो अतीत का बीहड़ भयावह लगने लगता। अतीत झुलसा-झुलसा जाता। जब्त कर जाता अपने आप को। फिर जब से पम्मी की ममी नहीं रहीं थी, पम्मी की आजादियों में बचकानी गृहस्थी का लटका लटक गया था। बची-खुची उस की आजादी में खलल नहीं डालना चाहता था, न ही उस की नीयत पर किसी किस्म का अंदेशा। शक-सुबहे जैसी कोई दीवार हम बाप-बेटी के बीच कभी रही ही नहीं। एक अंडरस्टैंडिंग थी, जिसे हम दोनों बाख़ुशी पा लेते। लेकिन इस बार इन सारी चीजों से परे हो कर सोचने लग गया था। जब कि न तो ऐसी मेरी आदत थी, न ही इस किस्म का संस्कार। फिर भी....। बहुत दिन हुए उन का यह चक्कर चलते हुए। मैं कुछ न भुला कर भी नार्मल-सा हो गया था।
सर्दियों की ही कोई सुबह थी। फोन की घंटी गुनगुनाई....मैं उठूं-उठूं कि पम्मी दौड़ कर फोन पर झूल गई। जाने क्या गुप-चुप खुसफुस स्टाइल में बतियाती रही। कान लाख लगाए रहा, कुछ सुन नहीं पाया। सिवाय, ‘ओ॰ के॰ बाबा’ जो वह बहुत ही जोर से बोली थी।
रिसीवर रख कर, उछलती-बहकती, किचेन में चली गई। थोड़ी देर बाद सहमती, सकुचाती आई। बोली, ‘पापा!’ मैं ने कहा, ‘हां, कहो ।’ बोली, ‘एक ब्वायफ्रेंड आ रहा है....।’
‘अच्छी बात है। आने दो।’
‘वो तो है। बट यू बिहैव नार्मली। प्लीज!’
‘कोई ख़ास बात है क्या?’
‘नहीं बस यूं ही।’ कहती हुई वह अपने कमरे में चली गई। मैं कॉफी पीता रहा। थोड़ी देर बाद किंचित शर्मीला-सा एक लड़का आया। सधे-सधाए ढंग से ‘मार्निंग’ कर के बैठ गया। बात ही बात में उस ने बताया कि वह कोई डिप्लोमा कोर्स कर रहा है। पिता आर्मी में कैप्टेन थे। वार में शहीद हो गए और अब वह अपनी ममी के साथ रहता है। दोस्तों में पम्मी उस की अच्छी दोस्त है। बात ही बात में यह मालूम होते देर न लगी कि उस की ‘ममी’ कौन थी। मेरा दिल पहली बार तुम्हारी याद में धड़कने के बजाय बैठने सा लग गया। बड़ा नर्वस सा हो गया। पम्मी को बुलाया और यह कह कर कि ‘अभी आता हूं’ पार्क की ओर चला गया।
नरम मुलायम धूप की आंच में तुम्हारी यादों का मोम पिघलने लगा। पार्क की बेंच पर बैठे हुए तुम्हारे सामानांतर नाम का उद्घोष मन में धौकनी की मानिंद धौंक रहा था। क्या पम्मी उसे वक्र बना सकी होगी? या कि....? इसी उधेड़बुन में था कि एक थुलथुल-सी गोलमटोल महिला पैरों को तौलती हुई सी आती नजर आई। बतर्ज दुष्यंत, ‘तू किसी रेल-सी गुजरती है / मैं किसी पुल सा थरथराता हूं’ का सा एहसास मन पर छा गया। सहसा वह रेल मेरी छाती पर आ कर रुक गई थी।
औरत फुसफुसाई, ‘परितोष!’
गजब! कितने परितोष हो गए साले, समझ नहीं आया। इधर-उधर देखा। मेरे और उस के सिवा आसपास कोई भी नहीं था।
‘क्षमा करेंगी, मैडम, शायद आप को गतलफहमी हुई है। मैं अवनींद्र हूं, अवनींद्र नाथ।’ भावुक होता हुआ बोला था मैं।
‘हां, सच हमें गलतफहमी हो गई थी, अनु! माफ नहीं करोगे....प्लीज! सेंटीमेंटल मत होवो। बी रिलैक्स।’
‘डोंट बी सिली यार! मैं तुम्हारा परितोष ही हूं। हां....। ‘कहते हुए उस घोर सर्दी में भी मैं पसीना-पसीना हो गया था। मेरा वह पुल थरथरा कर खंड-खंड हो चुका था।
‘देखो, मानती हूं कि तुम ने अपनी बिटिया को मुझ जैसा ही बनाना चाहा है, पर तुम उसे बना नहीं पाए, मुझ जैसा। मैं कांपलेक्सिव थी, वह नहीं है। सहज है वह तुम्हारी ही तरह। हालां कि तुम ने उसे मेरे रूप में ही पाला-पोसा है, बड़ा किया है, मुझ से कहीं अधिक प्यार दिया है। मैं अभागी थी। जानते हो, तुम्हारे प्रति मेरा प्यार और बढ़ गया है। किशोर वय का उछाल मारता प्यार, आज पुख्ता हुआ जान पड़ता है। पर तुम शायद नहीं जानते हो, तुम्हारे लिए कितनी तो बेचैन रही हूं। तुम्हारी एक झलक पा लेने भर को तरसती रही हूं। लेकिन अभिशप्त थी इस हसरत को दफनाने की ख़ातिर। तुम पुरुष हो, कुछ ऐसा-वैसा सोच कर या उस को अंजाम दे कर भी सहज रह सकते हो। औरतों के साथ स्थिति दोमुंही है। अगर वह कुछ ठीक भी सोचती हैं, या कर गुजरने की तमन्ना रखती हैं तो वह हवा के ख़िलाफ हो गई मानी जाती हैं। तुम पुरुष हो। हवा के ख़िलाफ हो कर टूटने के बावजूद एक किस्म का रोमांच महसूस लेते हो। लेकिन औरतें लाख अपने को उन्मुक्त समझती हों, इस स्थिति में असहाय साबित होती हैं। ऐसे टूटती हैं, गोया बदन के भीतर कांच टूटे। और ये कांच मन छील-छील इतना विदीर्ण कर जाता है कि मत पूछो। मेरा मन विदीर्ण तो नहीं हुआ है, छलनी जरूर हो गया है। तुम्हें नहीं मालूम, हवा के ख़िलाफ न चल कर भी मैं चली। भीतर ही भीतर मैं तपती रही। डैडी के गुजरने के बाद घर की सारी छतों की दीवार बाख़ुशी बन गई। बनी रही। लेकिन अपने लिए कितनी दीवारें, अभेद्य दीवारें खड़ी कर लीं, बहुत बाद में जान पाई। तब जब सारी छतें, मुझे नंगा कर गईं। मैं ठूंठ दीवार बन कर भहराती गई। कोई नहीं आया मुझे संभालने। तुम भी जाने किस दुनिया में भटक रहे थे। वैसे तुम से मैं ने कोई उम्मीद भी न की थी।
‘जाने भी दो, बीते दिनों का लेखा-जोखा कुछ छीनेगा ही, देने वाला नहीं। बस इतना जानो कि जिंदगी जीने का संबल मैं तुम से ही पाती रही। मेरे अनजाने में तुम ने, जो मेरे लिए किया, मैं नहीं जानती ठीक-ठाक। मैं तो बस तुम से जीने का अर्थ पाती रही। न पा कर भी, अपने आप में तुम्हें संजोती रही। एक बार तो इतना बेचैन हुई कि तुम्हें एक लंबी चिट्ठी लिख मारी, जिस में तुम्हारे साथ रहने की बात भी तय की थी। लेकिन तुम्हारा कोई अता-पता न था, मेरे पास। एक बार तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा पता मिला भी तो बेकार साबित हुआ। तुम जरमनी गए हुए थे। सोचा, चिट्ठी उसी पते से पोस्ट करा दूं। पर जाने किस मनोविज्ञान ने इरादा बदल दिया। जाने कितनी बार इरादे बनते-बदलते रहे। मैं भी बदलती गई। लेकिन बदलाव के हर अंतिम मोड़ पर आ कर यही लगा कि कहीं कुछ बुनियादी तौर पर गलत हो गया है। और तुम्हें याद है तुम ने एक बार कहा था, ‘सब कुछ गलत हो, हो ले। बुनियाद से दुरुस्त होने की संभावनाएं बनी रहती हैं। कम से कम जिंदगी के मामले में तो यह होना ही चाहिए। हालां कि यह बहुत ही मुश्किल काम है। कहां हो पाता है, यह बात मुझ पर इस तरह चस्पा हो जाएगी, तब सोच भी नहीं सकी थी।’
‘अब तो सोच लिया न, समझ भी लिया होगा। अच्छी बात है। जिस बुनियाद की तुम बात कर रही हो, इस बुनियादी शुरुआत की इब्तिदा उम्र के किसी पड़ाव से हो सकती है। और इस हिसाब में कोई भी हवा ख़िलाफ भले ही पड़ती हो, कुछ बहुत असर नहीं डाल पाती। और फिर जो तुम्हारे भीतर की बात जशेरदार हो तो यह असर बड़ी आसानी से चाटा जा सकता है, उड़ाया जा सकता है। क्यों कि यह, देखने में भारी-भरकम जरूर जान पड़ता है, और कि कहीं जानलेवा और बोझिल भी। पर बेसिकली यह होता कमजशेर ही है। बस जरा दम और हौसले की जरूरत होती है।’
‘हमारी उमर अब चढ़ाव-उतार के अजीब मझदार में हैं, तिस पर भी हौसलों को अपने ऊपर न्यौछावर करना समझ नहीं आता। बल्कि सच यह है कि औरत होने के नाते अपने को बहुत कमजोर पाती हूं। बाहर से भले ही बहुत पुष्ट और दृढ़ बातें कर लूं; पर भीतर से, सुलूक के स्तर पर नितांत खोखली हुई पाती हूं, अपने आप को। यह कसूर हमारे कद्दई किस्म के संस्कारों का है, जो औरतों के लिए एक कंटीली लक्ष्मण रेखा खींच, बीहड़ों-बियाबानों में उतार कर अभिशप्तता का लबादा उढ़ा गया है। तुम कहोगे कि लबादा उतार फेंको। मैं पूछती हूं, तुम कितनी औरतों से यह कह सकते हो, और कि तुम्हारे जैसे कितने लोग हैं यह कहने वाले कि ‘यह लबादा उतार फेंको।’ बल्कि यह भी कि कितनी औरतें हैं जो यह लबादा उतारने को तैयार होंगी। जहां तक मैं समझ पाई हूं, अपने बीच की औरतों को, वह तो यह बात भी सुनने को राजी न हों। भले ही वह घुट-घुट कर जीती हों, वह कहीं से अभिशप्त बना दी गई हैं, यह मानने को भी तैयार न होंगी। उस के खिलाफ हो पाने के बारे में कुछ सोच पाना भी बेमकसद जान पड़ता है उन्हें। क्यों कि वह उस में ही खुश रहना सीख गई हैं। वह अभिशप्तता, उन की धरोहर है, कहीं कम, कहीं ज्यादा। फर्क बस इतना ही है। वह सब कुछ समझते हुए भी नहीं समझना चाहतीं। इस लिए कि वह कभी किसी किस्म का रिस्क लेना नहीं सीख पाई हैं। और जिस दिन वह यह रिस्क लेना जान लेंगी, तुम्हारे जैसे मर्दों को इस या उस तरह का कुछ कहने की जरूरत ही नहीं होगी। और जिस दिन यह होगा, होगा जरूर, उस दिन एक नए किस्म की अराजकता भी पनप सकती है, जो सुखद भी हो सकती है और तकलीफदेह भी।’
‘पर होगी मानवीय!’
‘हां, तुम कहते हो तो मान लेती हूं। वैसे तुम्हारा कहना कहीं ठीक भी जान पड़ता है। लेकिन छोड़ो यह सब। ऐसा कुछ बतियाने नहीं आई यहां....वैसे भी इस टकराव में जाने मंजिल मिले कि खो जाए, एक रिस्क ही होता है। बात असल यह है कि तुम्हारी बिटिया और मेरे बेटे की दोस्ती एक लंबे अर्से से चली आ रही है। उन की दोस्ती, अब दोस्ती से कुछ अलग की भी मांग करने लगी है। तुम नहीं जानते मैं ने अपने बेटे को, तुम जैसा ही लल्लू डीलडौल दिया है, तुम्हारे अनुरूप ही संजोया है, तुम्हारा ही मन बोया है। अब हमारे साथ जो हुआ सो हुआ, अब इन के साथ तो ऐसा वैसा कुछ न होने दो प्लीज....!’
‘देखो, पश्यंति, इस बात का बुरा नहीं मानना चाहिए तुम्हें। इस लिए बस भी करो पश्यंति! अब आख़िर चाहती क्या हो, मेरी बिटिया की जिंदगी भी मेरी जैसी हो जाए। जहर घुल जाए!’
‘शायद तुम भूल रहे हो कि मैं परितोष की मां हूं।’
‘नहीं, भला यह कैसे भूल सकता हूं। बिलकुल फिल्मी किस्म का यह मोड़ मुझे कुछ सोचने नहीं दे रहा। कोई फैसला नहीं लेने दे रहा। एक अजीब-सी आशंका मन को डुबाए ले जा रही है।’
‘तुम्हारा विवेक और सुलझा हुआ दिमाग कहीं बिखर तो नहीं गया? चीजों के प्रति सोचने-समझने का वह स्वस्थ नजरिया किस गोते में गंवा आए हो। समझ नहीं पा रही। मुझे समझने की कोशिश करो प्लीज!’
‘एक और बिखराव ख़ातिर?’
‘नहीं, बिखरे हुए को सहेजने ख़ातिर मन अपना साफ करो।’
‘कहा न, कोई फैसला नहीं ले पा रहा।’
‘देखो बिफरो नहीं। बात हमारे या तुम्हारे फैसले की है भी नहीं। फैसला तो उन्हें ही लेना है। हम सिर्फ कोशिश कर सकते हैं। अलग बात है इस में हमारा एक गहरा स्वार्थ होगा....जो तुम्हें कहीं पवित्र लगेगा। अपने बीच के इस उमस-भरे समानांतर की घुटन को, इस समानांतर रेखा की नियति को इन के माध्यम से कोई तिर्यक देना, कोई वक्र खींचना....शायद यह स्वार्थ पूरा होना ही नियति हो।’
‘लेकिन यह अचानक तुम्हारा हृदय-परिवर्तन? समझ नहीं आया।’
‘तुम कहा करते थे न, आदमी को करीब से करीबतर होने के लिए संबंधों में कहीं वक्र होना जरूरी होता है, चाहे वह किसी भी बिंदु पर हो....पर हो।’ मुझे यही बिंदु मिल पाया है, उसे छोड़ना नहीं चाहती, अपनी भरसक नहीं छोड़ूंगी। आज पहली बार तुम्हारे किसी टांट पर मैं नाराज नहीं हुई हूं। सो जानो कि यह हृदय- परिवर्तन है जरूर, पर अचानक नहीं, इस की एक लंबी और दुरूह प्रक्रिया है। वैसे इस परिवर्तन की इब्तिदा में तुम्हारी मां हैं।’
‘अच्छा! लेकिन मां को गुजरे जमाना हुआ....तुम्हारी भेंट कब हुई?’
‘पहले तो तुम तिनके जैसी बातों और घटनाओं का भी पूरा-पूरा ब्यौरा रखते थे, कहूं कि मन में बांध रखते थे, यह कैसे भूल गए भला? याद नहीं? बहुत बरस पहले, बस से तुम्हारे गांव से हो कर गुजरी थी तब यह परितोष छोटा ही था। तुम्हारी मां और तुम्हारी पम्मी उस बस से उतरी थीं, तुम दौड़े-दौड़े धोती खुंटियाते आए थे। उसी बस से दीदी के साथ मैं इलाहाबाद जा रही थी। तुम ने हमें देखा भी था। मैं ने तुम्हें देख हाथ उठाया था। कुछ कहा भी था। तुम सुने ही नहीं भला!’
‘पर तब मां ने मुझ से कुछ नहीं बताया था!’
‘मां ने मुझ से कहा था, ‘बेटी, इन दोनों की जोड़ी ख़ूब फबेगी। मेरी मानो तो अपनी कमी इन दोनों से पूरी कर लेना। तुम लोगों का मलाल धुल जाएगा।’ मैं फफक पड़ी थी।’
‘फफक तो तुम अब भी रही हो।’
‘तब में, अब में बड़ा फर्क है....तुम नहीं महसूसते?’
‘महसूसने से फायदा भी क्या है, सिवाय झुलसने के और क्या हासिल है?’
‘देखो यह अपनी देवदासाना अदा अब बटोरो, और सोचो कि अब तुम कुछ और हो कि हर वक्त बच्चे ही बने रहोगे? देखो बच्चे उधर से इधर ही आ रहे हैं।’