वजूद / अलका सैनी
अगली सुबह वह अपनी बच्ची के उठने से पहले ही नहा धोकर तैयार हो गई और सब छोटे-मोटे काम निबटा लिए, फिर उसने बड़े चाव से अपनी बेटी को भी तैयार कर लिया और बेसब्री से अपने भाई के आने का इन्तजार करने लगी। हर रोज की तरह आज भी उसकी सास बिना कुछ कहे उसके पास दूध और पंजीरी रख कर चली गई। चेतना का मन नहीं हो रहा था पर फिर भी उसने जैसे-तैसे दूध और पंजीरी खत्म किया। समय बीत ही नहीं रहा था कि वह अपना मन बहलाने के लिए तोतली जुबान में अपनी बेटी से बातें करने लगी, “गुड़िया तुझे पता है आज तेली नानी बड़ी बेसब्री से अपनी नवासी का इन्त्जाल कर रही होगी, मेली रानी बेटी पहली बार अपने नानके जाएगी और आज तेरी नानी ने बहुत शौंक से खीर बनाई होगी क्यूंकि उन्हें पता है मुझे खीर बहुत पसंद है। पता है तेली नानी बचपन से लेकर मेरे हर जन्म दिन पर बादामो वाली खीर जरूर बनाती थी “उसे रह-रहकर वह दिन याद आने लगा जब।चेतना अपनी नवजात बच्ची को लेकर अस्पताल से सीधे अपने मायके जाना चाहती थी। मगर ससुराल में उसका यह पहला प्रसव था, इसलिए चेतना की सास बिल्कुल यह नहीं चाहती थी कि वह बच्ची को लेकर मायके जाए। उसकी सास कहने लगी, “देखो चेतना, अपने यहां का रिवाज हे कि लड़की का पहला प्रसव ससुराल में होना चाहिए। नहीं तो, समाज और बिरादरी में बड़ी बेइज्जती होती है और उस परिवार को नीची दृष्टि से देखते हैं।”
चेतना ने अपनी सास को समझाने का प्रयास किया, “मॉंजी, मुझे नवजात ’ शिशुओं की देखरेख के बारे में कुछ भी पता नहीं है। मैने तो अपने घर में खुद की आखों के सामने किसी भी छोटे बच्चे का लालन-पालन हाते नहीं देखा है। मेरी मॉं को इस बारे में अच्छी जानकारी है। अच्छा रहता, अगर मैं बच्ची को लेकर मायके चली जाती। आपकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती है और वहाँ मेरी मम्मी को घर का तो कोई काम करना नहीं होता क्यूंकि नौकर आकर सारा काम कर जाता है।”
उसकी सास चेतना को समझाने लगी, “कैसी बातें करती हो चेतना? क्या मैं तुम्हारी मॉं नहीं हूँ। अरे! मेरे खुद के चार लड़के और दो लड़कियॉं हैं। खानदान के कई बच्चो को मैंने अपने हाथो से पाला है। तुम चिंता मत करो, मेरी लाड़ली पोती है। तुम्हें अपनी बच्ची के साथ किसी भी प्रकार की कोई परेशानी नहीं होगी।”
चेतना की वहां बिल्कुल भी रुकने की इच्छा नहीं थी। मगर सास की जिद्द के आगे उसकी कहॉं चलती? ऊपर से उस के पति आकाश ने भी अपनी मॉं का पक्ष लिया। यह सब देखकर वह अपनी दूध मुंही बच्ची को मायके न ले जाकर सीधे ससुराल आ गई। वह चाहती थी कि उसकी बेटी के जन्म के सुअवसर पर घर में शांति बनी रहे, ताकि वह अपनी नवजात बच्ची की अच्छी तरह देखभाल कर सके।
शुरु-शुरु में कुछ दिन बहुत ही अच्छे तरीके से बीते। उसे इस बात का बिल्कुल अहसास नहीं हुआ कि वह मायके में है अथवा ससुराल में? उसकी सास उसके कमरे में पास में अपना पलंग बिछाकर सोती थी। बड़े प्यार से अपनी पोती को पुचकारती थी तथा उसे ढ़ाढ़स देती थी यह कहकर “चेतना तुम बिल्कुल चिंता मत करो। रात को मैं गुडिया को अपने साथ लेकर सोऊंगी तांकि तुम चैन की नींद सो सको। रात को बार-बार तुम्हें उठने की जरूरत नहीं पडेगी। ऐसे भी तुम काफी कमजोर हो गई हो। तुम केवल अपने स्वास्थय का घ्यान रखो। जब भी बच्ची दूध के लिए रोएगी मैं तुम्हें जगा दूँगी।
सास का सहयोगात्मक रवैया देखकर चेतना निश्चिन्त हो गई थी। इधर आकाश भी बीच-बीच में बच्ची की देखभाल कर लेता था। दिन में जब आकाश आफिस चले जाता था। और उस की सास घर के कामकाज में व्यस्त हो जाती थी। तब वह अपनी बेटी को गले लगाकर खूब लाड-प्यार करती थी। अपनी बेटी के साथ खेलने मे उसे खूब आनंद आता था। बीच-बीच में उस की सास उसकी देखभाल कर जाती थी। प्यार से अपनी पोती को पुचकारते हुए कहने लगती थी। “चेतना किसी भी चीज की कोई जरूरत हो तो मॉंगने में संकोच मत करना। मैने आज ही आकाश को बाजार भेजा है तुम्हारे लिए पंजीरी बनाने का सामान खरीदने के लिए, अरे इस बहाने हमारी भी पुरानी यादें ताज़ा हो जाएंगी। मेरी बार तो तुम्हारे ससुर खुद अपने हाथों से मुझे पंजीरी बना कर खिलाते थे "।। उसकी सास ने बड़े चाव से उसके लिए मेवा डालकर पंजीरी बनाई तथा सुबह-शाम दूध के साथ उसे खाने के लिए देती थी। वह चाहती थी कि उसकी कमजोरी जल्द दूर हो जाए और वह अपनी बिटिया को अच्छी तरह संभाल सके।
दस-पन्द्रह दिन ख़ुशी-ख़ुशी से बीते। उसे इस दौरान अपनी मॉं और सास में कोई फर्क नजर नहीं आया। वह अपने आपको ऐसी सेवा सुश्रुषा करने वाली सास पाकर धन्य समझने लगी। कुछ दिनों के उपरांत जैसे-जैसे सगे संबंधियों को घर में बच्चे के जन्म होने की खबर मिलने लगी। वैसे-वैसे वे लोग उनके घर बधाई देने आने लगे। जैसे ही दूसरे गॉंव में रहने वाली ननद को यह खबर मिली। वह ननदोई जी के साथ उसके घर बिटिया को देखने के लिए पहुँच गई। ननद और ननदोई को घर आया देख उसकी सास का सारा ध्यान उनकी खातिर दारी करने में लग गया। यहॉं तक कि आकाश भी बीच-बीच में अपनी बिटिया की सुध लेता था उसने भी सुध लेना छोड़ दिया।वह भी सीधे आफिस से आकर बहिन और अपने जीजा के साथ गप्पे मारने बैठ जाता था। कई बार तो ऐसा होता था पूरे दिन में एक बार भी उसकी सास उसके कमरे में नहीं जाती थी। बच्ची की देखभाल करना तो दूर की बात उसको झांकने तक नहीं आती थी। सास का अचानक बदला हुआ व्यवहार देखकर वह बहुत दुखी हो गई। मगर वह शिकायत करना भी चाहती तो किससे करती? चुपचाप वह मन ही मन घुटकर रह जाती थी। आकाश तो घर के किसी सदस्य के बारे में उसके मुँह से एक भी शब्द सुनने को तैयार नहीं था।
एक दिन की बात थी सुबह-सुबह जब वह नहा-धोकर अपनी बच्ची को संभालने लगी। तब हर रोज की तरह उसकी सास ने उसके लिए दूध पंजीरी लाकर खाने को दे दी और फिर घर के कामो में इतना व्यस्त हुई कि जैसे पता ही न हो कि घर में एक नवजात बच्चा भी है। चेतना को प्रसव के बाद काफी कमजोरी आ गई थी तब भी वह धीरे-धीरे अपना काम खुद करने की कोशिश करने लगी। अगर किसी भी चीज की उसे जरूरत पड़ती तो वह किसे बुलाती इसलिए वह हिम्मत करके खुद ही उठ जाती।वह तो शादी से ही दुर्बल थी। उसका मन सास के अचानक बदले हुए व्यवहार को देखकर दुखी हो गया था। वह मन से बुरी तरह टूट चुकी थी। खाना खाने का भी मन नहीं कर रहा था। मानो उसकी भूख मर गई हो। मगर वह यह भी जान रही थी कि अगर उसने पौष्टिक आहार नहीं खाया तो जल्दी से सामान्य अवस्था में नहीं आ पाएगी। उसके शरीर में स्थायी तौर पर कमजोरी रह जाएगी। वह यह भी सोचने लगी कि दो महीने बाद उसे वापस अपना घर संभालना है तथा साथ-साथ आफिस की ड्यूटी भी ज्वाइन करनी पडेगी। मगर किसी का भी इस तरफ ध्यान नहीं जा रहा था। ना ही उसकी सास का और ना ही आकाश का। सास तो केवल अपनी बेटी और दामाद की आवाभगत में व्यस्त रहने लगी थी। वह तो केवल उनके लिए तरह-तरह के पकवान बनाने में लगी रहती थी। डॉक्टर ने अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय चेतना को हिदायत दी थी, “देखो जब तक तुम्हारे टॉंके खुल नहीं जाए तब तक किसी भी तरह का भारी खाना मत खाना क्योंकि प्रसव के बाद पाचन शक्ति मंद पड़ जाती है" तब पास में खड़ी उसकी सास ने भी हामी भरते हुए कहा था, ”जी डाक्टर साहिब आप बिलकुल चिंता न करे मै मेरी बहू का पूरा ख्याल रखूंगी, मुझे भी पता है कि १०-१५ दिनों तक हल्का खाना ही लेना चाहिए। मै इसे कभी दलिया, कभी खिचड़ी आदि बना कर देती रहूंगी"
चेतना ने डॉक्टर की बात को मानते हुए हामी भरी थी। डॉक्टर साहब मैं आपकी बात का पूरा-पूरा ध्यान रखूंगी। मगर अब उसकी सास पहले दिनों की तरह न तो उसके लिए अलग से कुछ बनाती न ही उसे कुछ पूछने आती। मगर बहुत ज्यादा समय बीतने के कारण भूख लगने के बाद भी किसी से कुछ कह नहीं पाती थी, जब उसके पति ही उसकी सुध-बुध नहीं लेते थे तो और किसी को तो वह क्या कह पाती।। उसदिन सास ने उसे दूध और पंजीरी के सिवाय खाने के लिए कुछ भी नहीं दिया। घर के सारे लोगों ने दोपहर का खाना खा लिया था। मगर उसके बारे में किसी को कुछ भी याद नहीं था जैसे कि उसका कोई वजूद ही नहीं है घर में। लगभग शाम के चार बजे के आस-पास उसकी सास ने कमरे में प्रवेश किया और कहने लगी।
"चेतना लो यह तुम्हारा खाना। दूध और चावल मिला कर खा लो। दूध-चावल खाने से तुम्हारी छाती में दूध भी उतरने लगेगा। अभी तक तुम्हारे स्तनों में बच्ची का पेट भरने लायक पर्याप्त दूध नहीं आ रहा है। इस वजह से बच्ची भी देखो न कितनी कमजोर होती जा रही है। भूखे पेट रहने से वह सारा दिन रोती रहती है"। चेतना के मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। उसका वह खाना देखकर मन भर आया। बिल्कुल भी इच्छा नहीं हो रही थी। कि वह इस तरह का खाना खाए। उसे रह-रहकर अपनी मॉं की याद सताने लगी। जब वह एक बार घर में बीमार पड़ गई थी। उसकी मॉं ने सिरहाने के पास बैठकर अपने हाथ से निवाले तोड़-तोडकर जबरदस्ती खाना खिलाया था। मगर अब ये सब देख चेतना की आँखें आँसुओं से भर आई। उसे लगने लगा जैसे कि वह इंसान न होकर कोई दूध देने वाली गाय या बकरी हो। नहीं तो ऐसी अवस्था में इतना हल्का खाना उसे क्यों खिलाया जाता? उसको सुबक-सुबक कर रोता देखकर हौसला देने के बजाय उसकी सास गुस्से से तमतमा उठी और कहने लगी। तुम तो ऐसे धाड़ मारकर रो रही हो जैसे कि हम तुम्हारे दुश्मन हो। ये बातें हमारे बड़े बजुर्गो ने सिखाई है। क्या हमें पता नहीं है कि तुम्हें क्या खाना देना चाहिए और क्या नहीं? अभी चेतना कुछ बोली भी नहीं थी कि पास में खड़ा हुआ आकाश भोंहे चढ़ाते हुए गरजने लगा, “आखिर तुम अपने आप को समझती क्या हो, हम क्या तुम्हे दुखी रखते हैं? बार-बार रोकर तमाशा करने लगती हो।अगर तुम्हारा मन किसी और चीज को खाने को होता है तो क्या मुँह से बोल नहीं सकती, तुम क्या गूंगी हो? या यहाँ कोई मेहमान आई हो "
चेतना फिर भी चुप रही उसे लगा कि रोकर उसने पता नहीं कौन सा गुनाह कर दिया हो जो सब लोग उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं
कोई उसको दिलासा तो क्या देता ऊपर से उसके ननद और नंदोई भी उसको ही कसूरवार ठहराने लगे और ननद तो आग में घी का काम करते हुए सबके सामने बोली, “इसे शायद हमारा यहाँ आना अच्छा नहीं लगता तभी बिन बात पर हंगामा कर देती है, इतना ही नापसंद है हमारे घर का खाना तो अपने घर क्यूँ नहीं चली जाती"
ननद की टेडी बात सुनकर चेतना से रहा नहीं गया और वह कहने लगी, “दीदी मै तो जाना ही चाहती थी पर मांजी ने मुझे जाने नहीं दिया"
इसका मतलब हम लोग ही खराब है, क्या दुनिया में तुमने ही निराला बच्चा पैदा किया है जो इतने नखरे कर रही हो, गाँव में तो बच्चा पैदा होने के चार दिन बाद ही सब घर का चौंका-चूल्हा करने लग जाती है औरते। ये शहर की लडकियां कुछ ज्यादा ही नाजुक बनती है और ऊपर से इनके माँ-बाप अपनी लड़कियों को कुछ सिखाना नहीं जानते ननद की इतनी कड़वी बातें सुनकर तो चेतना खुद को बहुत ही अपमानित महसूस करने लगी कि जैसे वह कटघरे में खड़ी कोई मुजरिम हो। चारो तरफ से उस पर शब्दों के बानो की बौछार हो रही थी जिससे उसका सीना छलनी हुआ जा रहा था। पर कौन था उसकी पुकार वहाँ सुनने वाला? यहाँ तो उसके पक्ष में बोलने वाला भी कोई नहीं था।
तभी उसके ससुर ने फैंसला सुनाते हुए कहा, “यदि चेतना को आपकी सेवा में कमी नजर आती है तो बेहतर है कि इसे कल ही इसके माँ बाप के घर भेज दिया जाए, “आकाश बेटे इसके घर फोन लगा कर उन लोगो को कल यहाँ बुला लो तांकि वे अपनी लाडली को अपने घर ले जाएँगे जहां इसकी भरपूर सेवा होगी "
इतनी बात सुनने की देर थी कि आकाश ने झट से चेतना के घर पर फोन कर दिया और कहने लगा, “जी मै आकाश बोल रहा हूँ, बात कुछ इस तरह है कि चेतना का यहाँ मन नहीं लग रहा है तो आप लोग कल यहाँ आ जाए और इसे अपने साथ ले जाए और जब तक इसका मन नहीं भर जाए इसे अपने साथ ही रखें "
आकाश को फोन करता सुनकर चेतना मन ही मन घुटने लगी कि उसने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया है जो उसके माता-पिता को बेवजह परेशान किया जा रहा है। क्या यही दिन देखने के लिए उन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े को इन लोगो के हवाले किया था?, इस तरह कई तरह के विचारों के सागर में डूबते-डूबते उसका मन हो रहा था कि वह किसको अपनी दास्ताँ सुनाकर अपना जी हल्का करे।वह खुद को बिलकुल असहाय महसूस कर रही थी कि जैसे किसी ने तपती रेगिस्तान की रेत पर उसे नंगे पाँव चलने के लिए छोड़ दिया हो, जहां दूर दूर तक कोई छाँव नजर नहीं आ रही थी।
अगली सुबह उसके माता-पिता आकाश के कहने पर उसके ससुराल पहुँच गए।वह मन ही मन बुरी तरह घबरा रही थी कि पता नहीं कौन सा पहाड़ टूटने वाला है। अभी वह लोग बैठे भी नहीं थे कि उसकी सास ने शिकायतों की लम्बी चोडी लिस्ट उनके सामने रखनी शुरू कर दी। सब लोग उसकी हाँ में हाँ मिला रहे थे। उसके पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं था, सब कुछ सुनकर चेतना के माता-पिता का मुँह सूखकर काँटा हो गया। फिर उसकी सास ने अपना फैंसला सुनाते हुए कहा, “चेतना को लगता है कि हम उसकी देखभाल ठीक तरह से नहीं कर पाते इसलिए बेहतर है कि आप अपनी लाडली को अपने साथ ले जाए और इसके नखरे जी भर कर सहे " उसकी सास पता नहीं गुस्से से क्या-क्या अनगर्ल बोले जा रही थी कि उसके माँ बाप की आँखें भी भर आई और सब कुछ सुनकर तो चेतना का कलेजा मुँह को आ रहा था कि लड़की होना कोई पाप हो जैसे।कुछ देर की चुप्पी के बाद उसकी माता जी बच्ची को देखने के बहाने उसके कमरे में आई और चेतना को गले लगा कर रोने लगी और उसे होंसला देने लगी, “चेतना तू घबरा मत अगर तेरा यहाँ रहने का मन नहीं है तो मै कल ही तेरे भाई को सुबह तुझे लेने के वास्ते भेज दूँगी तू अपना और गुड़िया का सामान तैयार रखना "
माँ की ढाढस भरी बातें सुनकर चेतना को कुछ राहत मिली, और बस तब क्या वह एक रात भी उसके लिए गुजारना पहाड़ की तरह लग रहा था। ख़ुशी-ख़ुशी उसने अपना और अपनी बेटी का सामान एक अटैची में पेक कर लिया। उसे लग रहा था जैसे कि वह पिंजरे में कैद कोई पंछी हो और जो अपनी आजादी के लिए अपने पंख भी न फडफडा पा रहा हो।सारी रात यूँही करवटे लेते बीत गई और नींद का कहीं नामो निशाँ नहीं था। वह मन ही मन सोच रही थी कि घर जाकर न सिर्फ वह अपने रिश्तेदारों से मिलेगी बल्कि अपनी बचपन की सहेलियों से मिल पाएगी, यही सोचते-सोचते वह कल्पना के घोड़े पर सवार पता नहीं क्या-क्या सोच रही थी। उसकी तन्द्रा भंग हुई अपनी सास की आवाज सुनकर।
उसकी सास जोर-जोर से चेतना को आवाज दे रही थी जबकि लगभग ग्यारह बजे का समय हुआ था, “चेतना तुम्हारे घर से तुम्हारी मम्मी का फोन है आकर सुन लो मैंने होल्ड किया है "
चेतना बड़ी दुविधा में पड़ गई ये सुनकर कि इस समय फोन आने का क्या कारण हो सकता है, सोचते-सोचते उसने रीसीवर अपने कानो पर लगाया।उधर से उसकी माँ ने कहना शुरू किया, “चेतना बेटे मेरी बात ध्यान से सुनना, हम तुम्हारे माँ बाप है इस लिए हर हाल में तुम्हारा भला ही चाहेंगे। बेटे जो भी बात हुई है हम सब समझते है तेरा कोई कसूर नहीं है पर न तो हम तेरे सास-ससुर को कुछ कह सकते है न जमाई जी को, हम तो तुम्हे ही अपना समझ के समझा सकते है। तेरे पिता जी और मैंने बहुत विचार विमर्श किया इस बारे में कि हम ठहरे लड़की वाले इस लिए बेटे अब तुम्हारा असली घर तुम्हारा ससुराल ही है और तुम्हे अपने सास-ससुर को ही अपने माता-पिता की तरह समझना होगा। तेरे पति ही तेरे लिए भगवान् का स्वरुप है, और अगर कोई बात कोई तुझे कह भी दे तो बेटे बुरा मत माना करो बल्कि अपनी सेवा और प्यार से सबका इस कदर दिल जीत लो कि वह तुम्हारी हर बात माने।और तुम तो खुद बहुत समझदार हो। मै ये नहीं कह रही कि ये घर तेरा अपना नहीं है, तुम कभी भी दामाद जी के साथ याहाँ आकर जितने दिन चाहो रह सकती हो।पर शादी के बाद लड़की का असली घर उसका ससुराल ही होता है एवं उसके पति ही उसके लिए सब कुछ होते हैं।हमारे बड़े बजुर्ग कहा करते थे कि वह लड़की बड़ी खुश नसीब होती है और स्वर्ग में जाती है जिसकी अर्थी उसी घर से उठती है जिस घर में उसकी डोली जाती है।"
कहते-कहते उसकी माँ रोने लगी और चेतना कुछ बोले इससे पहले ही रीसीवर रख दिया। चेतना तो फोन सुनकर मानो जड्वंत हो गई, अगर वह बोलना चाहती तो भी फोन पर क्या बोल पाती।उसके मुँह पर तो जैसे ताला लग गया हो। लाख कोशिश के बावजूद भी उसकी आँखों में आँसू भर आये और गाल पर लुडकने लगे, उसे लगा कि भरी दुनिया में कौन है यहाँ उसका? किसे वह अपना कहे?
चेतना यह सोचने के लिए विवश हो गई कि क्या वह हमेशा की तरह कभी माता-पिता और कभी अपने पति की दया पर निर्भर मात्र एक आश्रित की तरह है? आखिर एक औरत होने के नाते उसका वजूद क्या है?