वणिक-पुत्र की पत्नी / पंचतंत्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हितोपदेश’ भारतीय नीति-कथाओं का संग्रह है। इसका रचनाकाल 850 वर्ष ई. पू. माना गया है। ‘हितोपदेश’ की नीतिपरकता और सोद्देश्यता का प्रभाव परवर्ती विदेशी कथा साहित्य पर भी पड़ा है। इन कथाओं का मूल आधार बुद्धि और शक्ति का कम-से-कम व्यय और लक्ष्य की अधिक-से-अधिक प्राप्ति है। यह बात बुद्धिमत्ता और नीतिनिपुणता से ही सम्भव है। यहाँ एक ऐसे ही चातुर्य की कहानी प्रस्तुत है।

कन्नौज में वीरसेन का राज्य था। वीरसेन ने अपने पुत्र को अपने प्रतिनिधि के रूप में वीरपुर भेजा। राजकुमार धनी था, सुन्दर था और अभी युवक था। एक दिन जब वह अपने नगर की गलियों में से गुजर रहा था कि उसे एक बेहद सुन्दर युवती दिखाई दी, जिसका नाम लावण्यवती था। लावण्यवती एक सौदागर के बेटे की पत्नी थी। राजकुमार महल में पहुँचा, तब तक लावण्यवती के सौन्दर्य ने उसके हृदय में स्थायी जगह बना ली थी। उसने एक दासी के हाथ लावण्यवती को एक पत्र भेजा। इस पत्र में राजकुमार ने लिखा था कि लावण्यवती के सौन्दर्य ने उसे बिद्ध कर डाला है।

अब, दूसरी ओर लावण्यवती का भी वही हाल था, जो राजकुमार का था, लेकिन जब राजकुमार की दासी ने उसे पत्र देना चाहा, तो उसने उसे लेने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसे डर था कि पत्र लेने से उसका अपमान होगा।

“मैं तो अपने पति की हूँ।” वह बोली, “मेरे पति ही मेरा मान हैं। पत्नी का मान भी तभी तक है, जब तक उसके मन में अपने पति का आधार है। मेरे जीवनाधार जो कहेंगे, मैं वही करूँगी।”

“क्या मैं जाकर यही उत्तर दूँ?” दासी ने पूछा।

“हाँ,” लावण्यवती ने कहा।

दासी ने जब जाकर राजकुमार से वैसा ही कहा, तो वह उदास हो गया।

“पंचशर देव ने मुझे बिद्ध कर दिया है,” वह बोला, “केवल लावण्यवती की उपस्थिति ही मेरे घावों को मिटा सकती है।”

“तब हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि उसका पति ही उसे यहाँ ले आए,” दासी ने कहा।

“वह कभी हो ही नहीं सकता,” राजकुमार बोला।

“हो सकता है,” दासी ने जवाब दिया। “जो पराक्रम से नहीं होता, वह उपाय से हो जाता है। शृगाल ने कीचड़ वाले मार्ग से चलकर हाथी को मार डाला था।”

“सो कैसे?” राजकुमार ने पूछा।

दासी बोली -

“ब्रह्म जंगल में कर्पूरतिलक नामक एक हाथी रहता था। शृगाल उसे जानते थे। एक दिन वे आपस में कहने लगे, “अगर यह बड़ा जानवर किसी तरह मार डाला जाए, तो हम लोग चार महीने तक उसे खा सकेंगे।” तब एक बूढ़ा शृगाल उठ खड़ा हुआ और उसने वादा किया कि वह अपनी बुद्धि के बल पर इस हाथी को मार डालेगा। तदनुसार, वह कर्पूरतिलक की खोज में निकल पड़ा। उसके पास पहुँचकर उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा, “हे दैवी प्राणी! एक बार अपनी कृपादृष्टि मुझ पर भी डालिए।”

“तुम कौन हो?” हाथी चिंघाड़ा, “यहाँ क्या लेने आए हो?”

“मैं एक शृगाल हूँ,” उसने उत्तर दिया, “जंगल के जीवों का खयाल है कि वे राजा के बिना जिन्दा नहीं रह सकते। उन्होंने एक सभा करके मुझे आपके पास यह सन्देश देने के लिए भेजा है कि वे आपको अपना राजा बनाना चाहते हैं। अतः मेरा आपसे अनुरोध है कि आप तुरन्त वहाँ चलिए ताकि सौभाग्य का यह क्षण टल न जाए।” इतना कहकर वह आगे-आगे चलने लगा। पीछे-पीछे कर्पूरतिलक चल रहा था। वह जल्दी ही अपना शासन शुरू कर देना चाहता था।

अन्ततः शृगाल उसे एक गहरे गड्ढे के पास ले आया और ऊपर से ढँका होने के कारण हाथी उसमें गिर पड़ा।

“प्यारे भाई शृगाल,” हाथी चिल्लाया, “अब क्या होगा? मैं तो बुरी तरह कीचड़ में धँस गया हूँ।”

“महाराज!” शृगाल ने हँसते हुए उत्तर दिया, “आप मेरी पूँछ पकड़कर बाहर आ जाइए।”

तभी कर्पूरतिलक को अन्दाज मिला कि उसे फाँसा गया है। वह कीचड़ में डूब गया। शृगालों ने मिलकर उसे खा लिया। यही कारण है कि मैंने आपसे उपाय द्वारा काम करने की बात कही है।

दासी के कहने पर राजकुमार ने शीघ्र ही सौदागर के बेटे चारुदत्त को बुलावा भेजा। राजकुमार ने उसे अपने साथ रख लिया। एक दिन स्नान के बाद उसने चारुदत्त से कहा, “मैंने गौरी की मन्नत मना रखी है, जो मुझे पूरी करनी है-तुम्हें एक काम करना होगा। एक महीने तक हर शाम तुम किसी अच्छे परिवार की कोई स्त्री मेरे पास लाओगे ताकि मैं उसका सत्कार कर सकूँ। यह काम आज से ही शुरू होना है।”

चारुदत्त शाम के वक्त एक स्त्री को ले आया और उसे राजकुमार के पास छोड़कर एक ओर चला गया और छुपकर देखने लगा कि राजकुमार क्या करता है। राजकुमार ने स्त्री के पास गये बिना ही उसे नमस्कार किया और फिर आभूषण, वस्त्र, चन्दन, इत्र आदि की भेंट देकर एक सिपाही के साथ विदा कर दिया। इससे चारुदत्त को बड़ी सन्तुष्टि हुई। उसका जी ललचा आया। इसलिए इतनी सारी भेंट पाने के लालच में दूसरी शाम अपनी पत्नी को ही ले आया। जब राजकुमार ने अपनी जिन्दगी, लावण्यवती को सामने पाया, तो यह कूदकर उसके पास चला आया। उसने उसे आलिंगन में बाँधकर लगातार चूमना शुरू कर दिया। यह दृश्य देखकर बेचारा चारुदत्त वहीं जड़ हो गया - जैसे वह बेचारगी की मूर्ति बन गया था।

वणिक्-पुत्र ने लालच में पड़ एक जाल फैलाया, लेकिन बदले में पत्नी को चुम्बित होते पाया।