वतन के रखवाले / दीपक मशाल
“आप कैसे ये जनरल बोगी खाली करा सकते हैं जबकि इसके बाहर 'सैनिकों के लिए आरक्षित' या इसके जैसा कुछ भी नहीं लिखा?” उन १०-१२ सैनिकों के कहने पर चुपचाप उस सामान्य बोगी से उतरते लोगों में से उस पढ़े-लिखे से युवक ने एक मिलिट्री वाले से सवाल कर दिया।
“तुझे हम सबकी वर्दी नहीं दिख रही क्या?” सैनिकों में से एक ने जवाब में सवाल की गोली चला दी।
शायद युवक भी जल्दी हार मानने वाला नहीं था “पर रेलवे ने पहले से तो ऐसा कुछ बताया।।”
“हाँ-हाँ ठीक है भूल होगी रेलवे की। अब अपना सामान सिमेटो और जल्दी निकलो यहाँ से।” युवक की बात काटते हुए दूसरा सैनिक बोल पड़ा।
बिना अपना सामान उठाये वो फिर बोला- “पर अगर ये आर्मी के लिए है तो मेरे चाचा जी भी लेफ्टिनेंट कर्नल हैं। कैंसर सर्जन हैं वो आर्मी होस्पीटल में। देखिये सर मुझे सुबह ड्यूटी ज्वाइन करनी है और ये रात भर का सफ़र है, मुझे यहीं रहने दीजिए प्लीज़। आप चाहें तो मैं अंकल से बात करा देता हूँ।। अगर विश्वास ना हो तो।”
कहते-लहते वह जेब से मोबाइल निकाल अपने अंकल का नम्बर डायल करने लगा।
उसके मोबाईल वाले हाथ को सख्ती से पकड़ एक सैनिक कुछ ज्यादा ही तैश में आते हुए बोला “ओये ज्यादा नौटंकी नहीं। चुपचाप उतर जा या धक्के मार के उतारें। बाकी के सब चू** थे क्या जो आराम से उतर गए। बड़ा आया अंकल वाला”
मायूस होकर उसे वतन के उन रखवालों की मंशा पूरी करनी ही पड़ी। उसके डब्बे से नीचे उतरने के साथ-साथ दो लड़कियां उसी बोगी में चढ़ने की कोशिश करने लगीं। जिन्हें उसने समझाने की सोची कि इनलोगों से बात करना फ़िज़ूल है। पर उससे पहले ही- “ये कम्पार्टमेंट पूरा खाली है, क्या हम इसमें बैठ सकती हैं?”
अन्दर से ३-४ समवेत स्वर उभरे- “हाँ-हाँ क्यों नहीं? आ जाइये।”