वनवास / गोपाल चौधरी
तुली घर लौटा! घर खाली था। करुणा जा चुकी थी अपने माँ पापा के घर। घर की चाबी पड़ोसन को दे गई। जब अंदर आया तो खाने के मेज पर एक कागज का टुकड़ा था: वह जा रही है अपने पापा के पास। अब वह आएगी नहीं। उसे बुलाने कि कोशिश न करे।
तुली ने चाय बनाई। सोफ़े पर बैठकर करुणा को फोन करने लगा। पर फोन लग नहीं पा रहा था। शायद उसने ब्लाक कर दिया था। फिर उसने करुणा के पापा को फोन लगया। दो बार-बार कोशिस करने पर फोन लगा। पर उसके पापा केवल इतना कह कर फोने काट दिया—वो घर पर ही है।
उस रात तुली को नींद नहीं आई। वह सोफे पर बैठा कुछ स्केच बनाते रहा। डिज़ाइन पेपर पर पता नहीं क्या-क्या बनाता रहा और जब सुबह हुई और एक लंबी झपकी के बाद उसको होश आया। तो डिज़ाइन पेपर के कैनवस पर एक तस्वीर बनी थी: वह उसकी अपनी ही तस्वीर लगती हुई। इसके पृष्ठ भूमि में सुदूर क्षितिज में सुंदर पर्वत शृंख्लाए दीख रही होती! कुछ राज छुपाती-सी लगी और कुछ खोलती-सी भी लगी।
और तुली निकल पड़ा आवारा राही की तरह। जहाँ मन करता जाता। जहाँ भी ठौर ठिकाना मिलता वहाँ ठहर लेता। होटल, सराय, धर्मशाल, गुरुद्वारा, मंदिर, मस्जिद किसी के भी धर्मशाले में ठहर जाता। दिन भर इधर उधर भटकता और रात में थक कर सो जाता। जो बस या ट्रेन किस भी शहर और गाँव के लिए मिलता, वह चला जाता।
लोग पूछते—कहाँ जाना है? वह बोलता—बस ऐसे ही घूम रहा हूँ। पर जब अपने आप से पूछता तो कोई जवाब नहीं मिलता। पर कुछ था जो उसे बुला रहा था। अदृश्य, असपष्ट-सा कोई उसे अपनी ओर खींचे जा रहा था। क्या था वो? शायद उसी की तलाश में तुली दर ब दर भटक रहा था। क्या वह जिंदगी ही तो नहीं-नहीं थी शायद!
ऐसे ही भटकते-भटकते वह एक दिन अपने आप को एक गाँव में पाया उसने। बिलकुल उसके गाँव जैसा था। नाम भी वैसा ही था-फुलवरिया। फुलवरिया यानी फूलो का बाड़ा या घेरा। बिलकुल फूलों के बगीचे जैसा था हमारा गाँव। कितना सुंदर। गाँव में प्रवेश करते ही आम, कटहल और महुआ के पेड़ो के बगीचे शुरू हो जाते हैं। इसके एक ओर सोना नदी बहती है और दूसरे सिरे पर गंडक की नहर।
कितनी यादें जुड़ी है अपने गाँव से। —मेरे बचपन का सपनों का गाँव ... हरियाली, ताजगी और हवाओं पर उड़ती जिंदगी... जाओ तो वापिसआने का मन ही नह करता। कितनी सुनहरी और हरियाली यादें अपने इस गाँव की। सोना नदी पार कर अपने आम के बगीचे में जाना, उसके बाजू में गन्ने के खेत जिधर नज़र दौड़ाओ उधर उसके प्राकृत के प्रहरी से खड़े हरे बहरे ... कभी गन्ना खाना तो कभी आम और आम की बात ही न की जाय... हरेक आम के हरेक पेड़ के आमो का अलग स्वाद... गन्ने का भी वही हाल शकरकंद भून कर खाना...
सोना नदी में तैरना... जब थक जाना तो मछलियाँ पकड़ने लगता। किनारे पर बैठे-बैठे ... उन्हे आग में पका कर भर्ता या चोखा बनाना ... और नमक मिर्च मिला कर खाना। —याद है मुझे, तुली सोच रहा था, जब पहली-पहली बार गाँव गया था... तब हमारा फुफेरा भाई-सुभाष भैया को दादा जी अपने पास ही रखे हुए थे। वे ही मुझे घुमाने ले गए। उन्होने हमारे गन्ने के खेत दिखाए फिर बोले—उंख चुस ब? पर ये क्या? भाई तो दूसरे के खेत से गन्ने तोड़ने लगा। —भाई ये क्या? हमको अपने खेत का गन्ना खाना है। दूसरे के खेत का नहीं। नहीं जानते हो दूसरे के खेत का गन्ना ज्यादा मीठा होता है। भाई ने तपाक से जवाब दिया और मैं चुप रह गया।
और न जाने कितनी यादें जुड़ी है। वह कुश्ती... वह दंगल... वह मेले... वह लोगों के रेले। वह चुपके-चुपके रात में उठ कर चाचा लोगों के साथ नाच देखने जाना ... माँ पापा मना करते थे...... बोलते ये नाच बच्चों के लिए नहीं होते... पर हम जाते और चाचा-पापा के भाई लोग ही हमे ले जाते... पापा से छुपते छुपते। बाद में पापा से वे डांट भी खा लेते... पर हमे नाच दिखाने ले जाते जरूर... क्यों? हमारे साथ रहने से चाचा लोग को एटैन्शन कुछ ज्यादा ही मिलता ... लोगों से भी... और लौंडों और बाई जी से भी।
तब तुली आठ साल का रहा होगा। दादा ने पापा से लड़ कर उसे गाँव ले आए अपने साथ। वह उसे पहलवान बनाना चाहते। दादा पटना आ कर उसे ले गए। पापा के लाख माना करने के बावजूद। गाँव आते ही दादा आखाडा भेजने लगे। पहले सुबह उठ कर गाय और भैंस का धारोष्ण दूध पीना।
दादा कहते: कृष्ण के दादा केशरी जी उन्हे ऐसे ही दूध पिलाते। इससे—गाय के दूध से दिमाग तेज होता है और भैंस के दूध से शरीर तंदरुस्त और मजबूत। फिर तेल मालिश और शरीर पर अखाड़े की मिट्टी। फिर दंड बैठक और मुगदर भाँजना। फिर कुश्ती तरह के दांव पेंच ...कभी धोबिया पाट... तो कभी बाहुकंटक पाश।
अभी कुछ महीने भी नहीं हुए थे कि पापा अचानक आए और उसे गाँव से वापिस पटना ले गए। इस तरह तुली के पहलवान बनने का सफर बीच में ही खत्म हो गया। बहुत बाद में तुली को समझ में आया कि दादा जी उसे पहलवान क्यों बनाना चाहते थे। ... विभाजन का दंश सहा था उन्होने। वही कारत उप-महादेश का विभाजन...!