वरण / परंतप मिश्र
किसी भी देश में प्रचलित सामाजिक व्यवहार का आधार तत्कालीन देश, काल एवं परिस्थितियों द्वारा स्थापित प्रामाणिक आचार-विचार की स्थापना है। व्यवस्था को सुचारू रूप से स्थापित करने के लिए तथा समाज की स्वीकार्यता के लिए अनुशासन के साथ मानवीय मनोभावों के सम्मान को समायोजित किया जाता रहा है। बीतते हुए समय ने अपने अनुभवों की उपलब्धि से नित नूतन प्रतिमान स्थापित किये हैं, जो मूल्यों के सुदृढ़ नींव पर सुशोभित आदर्शों के रमणीय भवन निर्मित हैं, निश्चित रूप से तत्कालीन समाज के उन्नत कला को प्रतिनिधित्व प्रदान करता है।
पीढ़ियों से संरक्षित होते लोकव्यवहार में सामान्यतया स्वनिर्मित मान्यताओं के परिक्षण से विकसित होने की अवधारणा पलती रही है। पुनरावृति-सी लगनेवाली प्रचलित परम्पराएँ सामान्य न होकर सुसंस्कृत वैज्ञानिक अन्वेषण प्रसूत होती हैं। विस्थापित होती परम्पराएँ नवीनता को आत्मसात करती हुई परिवर्तन की अनिवार्यता के अलोक में वैज्ञानिक तथ्यों से उसकी उपयोगिता कि पुष्टि करती हैं। प्रवाहित संस्कृतियों की निर्मल धाराओं में न जाने कितनी परम्पराओं के किनारे बहते जा रहे हैं। वर्षों से उपयोगी तटों ने मानवता को अपने किनारों पर बसाया जहाँ से संस्कृति की नदियों ने सभ्यताओं के जीवन को सींचा है। पर आधुनिकता के बहाव से आई बाढ़ अपने साथ बहोत सारा जल लेकर आती है और मुख्य धारा कि शुद्धता को मिश्रित कर जाती है।
विसंगति के ज्वर की तरह शुद्ध प्रवाहित धारा अल्पकाल के लिए दूषित हो जाती है, पर यह एक नव निर्माण का आधार भी तय कर जाती है। घटित होती घटनाओं की अनिवार्यता एक स्वस्थ संस्कृति के विकास का मार्ग प्रशस्त कर जाती है। बाढ़ से आयी हुई जल धारा से जहाँ मलिनता आ जाती है तो वहीं यह एक आवश्यक क्रम भी माना जा सकता है, शुद्धिकरण की दिशा में किया गया प्राकृतिक उपचार अंततः अधिक स्वस्थता और स्थाइत्व के साथ पुनर्स्थापित होता रहा है। प्राकृतिक परिवर्तन प्रकृति का अधिकार है जो श्रेष्ठतम का वरण कर उसे आत्मसात करती जाती है। प्रकृति के सामान्य आचरण में भी वैज्ञानिक आधार हुआ करते हैं जिसे वह सरलतम और श्रेष्ठतम रूप में व्यवहार में लाती है। विवेक और बुद्धि से सुसज्जित मानवीय जिज्ञाषा निरंतर अध्ययन व आकलन से कुछ सिद्धांतों को स्थापित करती है जो वैज्ञानिक अन्वेषण की प्रक्रिया रही है।
उपयोगिता कि कसौटी पर कसे गए नैतिक मानदण्ड पुनः मनोरम किनारों का निर्माण कर जाते हैं, जहाँ पर नूतन सभ्यता के गाँव बसते हैं तो वहीं अनुपयोगी जलप्रलय के साथ आयी हुई अस्थायी गन्दगी मृत होकर समाप्त हो जाती है। किनारों पर बसे गाँवों में वनस्पतियों और जंतुओं की आपसी निर्भरता सम्बन्धों का प्रारम्भिक स्वरूप निर्धारित करता है। बहती हुई नदियों के शीतल जल ने अपने तटों को अपने से कभी अलग नहीं किया। अपनी हर एक लहरों से किनारों को आकार दिया है और उन पर बसी सभ्यताओं को मातृत्व के थाप से दुलारा है। विकास की सतत अविरल धारा से पुष्ट होते नैतिक मूल्यों के बीज आधुनिकता के पौधों का अंकुरण हुआ करते हैं। नैतिकता के प्रकाश में सिद्धांतों का पुनरावलोकन मूल्यों का संरक्षण है। बीते हुए युगों ने कई सभ्यताओं को नैतिक मूल्यों के क्षरण से नष्ट होते देखा है।
आधुनिकता का पल्लव सभ्यता कि जड़ों से पोषित होता है यह एक उर्ध्वगामी प्रक्रिया है। प्रकृति जो समस्त श्रृष्टि का कारक है, जगत की सत्यता का आलम्बन है अर्थात प्रकृति के आदर से ही जगत के अस्तित्व का आधार बनता है। सत्य जो अस्तित्व को प्रमाणित करता है वह कालातीत होता है। कृत्रिमता कभी भी सत्य का पर्याय नहीं बन सकती है। नैसर्गिक जीवन के आभाव में अस्तित्वहीन कृत्रिमता अविकसित रह जाती है। सत्य जो शिव और सुन्दर है अपरिवर्तित होकर जीवन के पुष्प की सुवास बन जाता है। असत्य अस्थायी अभिवयक्ति बनकर क्षणभंगुरता को प्राप्त होता है। कृत्रिम वस्तु का जीवन स्पन्दन रहित होकर मौलिकता के अभाव में नष्ट होने की घटना है।
अस्तित्व उपस्थिति की मौलिक अनिर्वायता है। किसी को प्राप्त करने के लिए स्वयं को समाप्त करना स्वयं के अस्तित्व का अतिक्रमण है। अपनी उपस्थिति को नष्ट करके उस पर किसी और का आरोपण वैचारिक आत्मसमर्पण अथवा आत्महत्या कि तरह ही समझा जा सकता है। किसी भी स्थिति में किसी को पाने के लिए अपने आप को खो देना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है। वैचारिक साम्यता के आधार पर आवश्यकता के अनुरूप सहजीविता का प्रयोग किया जा सकता है। जहाँ सहअस्तित्व, परस्पर आदर व सम्मान से अग्रसर होते हैं।
विकास और विनाश की यात्रा में समानान्तर चलते पथों का चुनाव करते समय मानवीय सम्बन्धों में आचरण की मर्यादा का सम्मान निहित होना चाहिए। अमर्यादित आचरण लोकव्यवहारिक नहीं कहा जा सकता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के द्वारा निर्मित अधिकतम एवम् न्यूनतम आचरण का पालन करना सिद्धांतों की समृद्धि के साथ-साथ पूर्वजों के अनुभव प्रसूत निर्देशों का सम्मान है। पीढ़ियों से प्रवाहित एक कुल की मर्यादा एक परिवार की पूँजी के समान होती है। जिसमें उत्कृष्ट अवसरों के दृष्टांत और श्रेष्ठ प्रवरों के कृतित्व से स्थापित आदर्श, उस कुल को चिरकाल तक गौरवान्वित करती है तथा निरंतर श्रेष्ठता को उपलब्ध होने का मार्गदर्शन करती है।
किसी के अनादर करके आप आदर की कामना नहीं कर सकते हैं। हमारे ऋषियों ने अपनी सामाजिक कर्तव्यों के निर्धारण के समय ही जड़-चेतन सभी को सम्मानित किया है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रकृति के अनुशासन के संदर्भ में क्रिया-प्रतिक्रिया का सिद्धांत भी अनुसरणीय है। अतः "आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्" किसी कार्य को करने से पहले उसे स्वयं पर घटित होते हुए अगर देखें तो यदि परिणामस्वरूप आप को अच्छा लगता है तो ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ करें और अगर अच्छा नहीं लगता है तो ऐसा व्यवहार किसी के साथ न करें।
व्यक्ति जहाँ समाज की न्यूनतम इकाई है तो वहीं परिवार सामाजिक विस्तार का सफल संयोजन है। व्यक्ति से परिवार और परिवार से समाज की यात्रा में जहाँ घर से गाँव और गाँव से विश्वगाँव बनता है वहीं कर्तव्यों से अधिकार और अधिकार से आदर्श स्थापित होते हैं। नैतिक मूल्यों के संरक्ष्ण से संस्कृति सुसंस्कृत होती है और तब जाकर कई वर्षों की यात्रा के बाद अगला पड़ाव संस्कृति से सभ्यता पर आकर ठहरता है। इतिहास के पन्नों से झाँकती सभ्यताओं की दुनिया में विकास के सूत्रों का आकलन सुरक्षित है उत्थान और पतन के दस्तावेजों ने सुनहरे भविष्य की पांडुलिपियाँ सहेज कर रखी हैं नवयुग का जो आधार प्रदान करने को तत्पर हैं।