वररुचि की कथा / कथासरित्सागर

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वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त ऐसी कथाएँ और कौन सुना सकता है! यदि गोपनीय न हो, तो आप अपनी कथा भी मुझे सुनाइए।

वररुचि ने कहा, सुनो काणभूति, मैं तुम्हें अपनी रामकहानी भी सुना देता हूँ। कौशाम्बी में सोमदत्त नामक ब्राह्मण रहते थे। वसुदत्ता उनकी पत्नी थी। यह ही मेरे पिता और माता थे। मेरे शैशव में ही पिता का स्वर्गवास हो गया। माता ने बड़े कष्ट उठाकर मुझे पाला।

एक बार की बात है। दो बटोही हमारे घर आये। दोनों ब्राह्मण थे और बड़ी दूर से चलकर आ रहे थे। थके होने से हमने अपने घर उन्हें ठहरा लिया। रात का समय था। दूर से मृदंग की थाप सुनाई दी। सुनते ही मेरी माँ की आँखें आँसुओं से डबडबा आयीं और उसने मुझसे कहा, बेटा, ये तुम्हारे पिता के मित्र नन्द हैं। ये बड़े अच्छे नर्तक हैं। गाँव में इनका नर्तन हो रहा है।

मैं तो बच्चा ही था। उल्लसित होकर बोला, माँ मैं नन्द चाचा का नर्तन देखने जाता हूँ। फिर तुमको उनके अभिनय के सारे संवाद अक्षरशः सुनाऊँगा और उनका नर्तन भी वैसा का वैसा ही करके दिखाऊँगा।

हम दोनों माँ-बेटे की बातचीत दोनों अभ्यागत सुन रहे थे। उनमें से एक ने बड़े कौतुक से पूछा, माता, यह बालक क्या कह रहा है?

मेरी माता ने कहा, मेरा बेटा वररुचि विलक्षण बुद्धि वाला है। एक बार जो भी देख और सुन लेता है, वैसा का वैसा ही यह तुरत याद कर लेता है।

मेरी परीक्षा लेने के लिए उस ब्राह्मण ने प्रातिशाख्य (वैदिक व्याकरण) का एक पाठ मेरे आगे बोला। मैंने सुना और जस का तस दोहरा दिया।

तब तो वह ब्राह्मण मेरी माँ के चरणों पर गिर पड़ा और बोला, माता, मैं व्याडि1 हूँ। यह मेरा मित्र इन्द्रदत्त है। हम दोनों ऐसे ही विलक्षण बुद्धि वाले व्यक्ति को खोज रहे हैं। आपके घर आकर हमारा जन्म सफल हो गया।

मेरी माँ के पूछने पर व्याडि ने अपना वृत्तांत इस प्रकार बताया-वेतस नामक नगर में देवस्वामी और करम्भक नामक दो ब्राह्मण भाई रहते थे, उनमें से एक का पुत्र मैं व्याडि हूँ और दूसरे का यह इन्द्रदत्त है। मेरे पिता तो मेरे जन्म के बाद ही चल बसे और उनके दुख में कुछ समय बाद इस इन्द्रदत्त के पिता ने भी देह त्याग दिया। पतियों के न रहने पर हम दोनों की माताएँ भी शोक में घुल-घुलकर चल बसीं। हम दोनों अनाथ हो गये। इधर-उधर भटकने लगे। धन हमारे पास बहुत था, विद्या नहीं थी। तो हम दोनों ने कुमार कार्तिकेय की आराधना की। एक दिन कार्तिकेय ने हमें स्वप्न में दर्शन दिये और बताया कि पाटलिपुत्र नामक नगर में, जहाँ राजा नन्द राज्य करता है, वर्ष2 नामक एक ब्राह्मण रहता है, उससे हम दोनों को विद्या मिल सकती है। हम दोनों पाटलिपुत्र पहुँचे। बहुत पूछताछ करने पर लोगों ने बताया कि वर्ष नाम का कोई मूर्ख रहता तो इसी नगर में है। जिस ढंग से पाटलिपुत्र के लोगों ने वर्ष का नाम लिया, उससे तो हमारा मन ही डूब गया। अस्तु किसी तरह वर्ष के घर का पता लगाकर हम वहाँ पहुँचे। वर्ष का घर चूहों के बिलों से भरा हुआ था। उसकी दीवारें ढहने को थीं और छप्पर तो लगभग उड़ ही गया था। उसी घर में वर्ष ध्यान लगाये हुए बैठे थे। उनकी पत्नी ने हमारा आतिथ्य किया। वह मूर्तिमती दुर्गति के समान लगती थी-धूसर देह, कृश काया और फटे-पुराने कपड़े। हमने उसे अपने आने का प्रयोजन बताया तो उसने कहा, ‘तुम लोग मेरे बेटों-जैसे हो। मैं तुम्हें अपनी कथा सुनाती हूँ।’ वर्ष की पत्नी ने अपनी कहानी इस प्रकार बतायी-इसी पाटलिपुत्र नगर में शंकरस्वामी नामक ब्राह्मण रहता था। उसके दो पुत्र हुए, एक था मेरा पति वर्ष और दूसरे उपवर्ष। मेरे पति मूर्ख और दरिद्र निकल गये, जबकि छोटे भाई उपवर्ष बड़े विद्वान और धनी थे। एक बार वर्षा का समय था। स्त्रियाँ इस ऋतु में गुड़ और आटे की पीठी से गुप्तांगों की मूर्तियाँ बनाकर हँसी-हँसी में मूर्ख ब्राह्मणों को दान देती हैं। यह कुत्सित रीति यहाँ चली आ रही है। मेरी देवरानी को और कोई ब्राह्मण नहीं मिला, तो उसने अपना जुगुप्सित दान अपने जेठ अर्थात् मेरे ही इन पतिदेव को दे दिया और ये मूर्खराज प्रसन्न होकर उसे घर भी ले आये।

देवरानी के इस अपमानजनक व्यवहार से तो मेरे तन में आग लग गयी और मैंने अपने पति को खूब फटकारा। इन्हें भी अपनी मूर्खता और अज्ञान पर बड़ा पछतावा हुआ और ये कुमार कार्तिकेय की आराधना करने लगे। कुमार कार्तिकेय ने इन्हें वरदान दिया कि तुम्हें सारी विद्याएँ प्रकाशित हो जाएँगी पर तुम्हें अपना सारा ज्ञान किसी श्रुतधर (एक बार में सुनकर पूरा याद कर लेने वाले) को ही सबसे पहले बताना होगा। इतनी कथा सुनाकर वर्ष की पत्नी ने हम दोनों (व्याडि और इन्द्रदत्त) से कहा, तो पुत्रो, यदि तुम्हें मेरे पतिदेव से सारा ज्ञान अर्जित करना है, तो किसी श्रुतधर को खोजो। ये अपनी विद्या केवल उसी को बता सकते हैं, अन्य किसी को नहीं। वर्ष की पत्नी की बात सुनकर हमने सबसे पहले तो उसे सौ स्वर्णमुद्राएँ दीं, जिससे उसकी दरिद्रता कुछ समय के लिए दूर हो सके। तब से हम किसी श्रुतधर बालक को खोज रहे हैं। (वररुचि ने काणभूति से कहा) - व्याडि तथा इन्द्रदत्त की इतनी कथा सुनकर मेरी माँ ने कहा-पुत्रो, मेरे इस बेटे वररुचि के जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि यह वर्ष नामक उपाध्याय से सारी विद्याएँ प्राप्त करेगा। इतने वर्षों से मैं तो स्वयं इस चिन्ता में घुली जा रही हूँ कि वर्ष नाम के गुरु मेरे बेटे को कब और कहाँ मिलेंगे।

तुम लोगों ने मेरी चिन्ता दूर कर दी। तुम इसे ले जाओ। (वररुचि ने काणभूति से कहा) - तब व्याडि और इन्द्रदत्त ने मेरी माँ को भी प्रचुर धन दिया और मुझे लेकर पाटलिपुत्र में वर्ष गुरुदेव के पास पहुँचे। मैं, व्याडि तथा इन्द्रदत्त-तीनों उपाध्याय वर्ष के सामने पवित्र भूमि पर बैठे। वर्ष सारे शास्त्र बोलते चले गये और मैं एक बार सुनकर सब याद करता गया। व्याडि में किसी भी शास्त्र को दो बार सुनकर याद कर लेने की योग्यता थी और इन्द्रदत्त तीन बार सुनकर याद रख सकता था। मैं एक बार सुनकर स्मरण किये हुए शास्त्र को बाद में उन दोनों के सामने सुनाता, तो वे शास्त्र पहले व्याडि को याद हो जाते, फिर व्याडि उन्हें इन्द्रदत्त को सुनाता, तो तीसरी बार सुन लेने से इन्द्रदत्त को भी वे याद होते जाते। फिर क्या था, सारे पाटलिपुत्र में वर्ष के अद्भुत शास्त्रज्ञान और उसके साथ हमारी योग्यता की भी धूम मच गयी। समूह के समूह ब्राह्मण महाज्ञानी वर्ष के दर्शन के लिए आने लगे और जब यह सारी बात राजा नन्द को विदित हुई, तो उन्होंने वर्ष के घर को धन-धान्य से भर दिया।