वरासत / दीपक श्रीवास्तव
बिजली को गए आधे घंटे हो गए थे। अँधेरे का मुकाबला करती हुई अकेली मोमबत्ती उम्र के ढलते पड़ाव पर थी। मोम के पिघल-पिघल कर जमा होने से उसकी जड़ पर कलाकृति बन रही थी। मोमबत्ती की लौ तेज होने की वजह उसकी मोटी बत्ती थी। पड़ाँइन मोमबत्ती-कंपनी को गाली देना चाहती थीं, चुप रहीं।
बड़े हाल में बैठ कर वह सिल पर दाल पीस रहीं थीं। मोमबत्ती की लौ के विचलन और दाल पीसने की मौद्रिक क्रिया से उनकी बड़ी-सी परछाईं दीवाल पर थिरक रही थी। बड़कऊ और मुंसफ को बासी रिकवच पसंद है। अरुई के पत्ते पड़ोस की सहुआइन दे गई थीं। पड़ाँइन की नजर जहाँ दाल के दरबरेपन पर थी, वहीं उनकी निगाह वत्सला पर भी लगी थी। वत्सला ने अभी चलना सीखना शुरू किया है। पड़ाँइन ने उसके लिए चाँदी की पैंजनिया खरीद दी है, जिसमें घुँघरू लगे हैं। इस लगभग अँधेरे में, वत्सला रसोई में अपनी माँ कावेरी और हाल में दादी के बीच निरुद्देश्य आ-जा रही थी। पूरे घर में वत्सला के चलने से रुनझुन की आवाज और पड़ाँइन की सिल-बट्टे की खड़खड़ाहट ही सुनाई दे रही थी। वैसे भी कावेरी की आवाज कम सुनाई देती है।
तीन दिन बाद दीवाली है। बड़कऊ और मुंसफ अपनी बहुओं के साथ आए थे। बच्चों में मुंसफ की छोटी बिटिया मंजरी आई थी। बड़कऊ के दो लड़के और मुंसफ को एक लड़का है। सभी लड़के कोई ऊँची-ऊँची पढ़ाई कर रहे हैं। पड़ाँइन की बहुत इच्छा अपने पोतों को देखने की होती है, लेकिन न तो पोते, न ही उनके माँ और पिता को इसकी चिंता है। इसलिए उन्होंने भी संतोष कर लिया है। आते तो, बड़कऊ और मुंसफ भी नहीं हैं। मगर, इधर एक साल से दोनों लगातार आ-जा रहे हैं और इस दीवाली में बहुत सालों के बाद बहुएँ आई हैं।
आज सभी लोग सुबह से ही बड़कऊ के ससुराल गए हैं। रात का खाना खाकर लौटने की बात है। चलते समय बड़कऊ की दुल्हीन ने कहा था, 'अम्मा, आप भी चलतीं तो अच्छा लगता।'
उनके कहने में न आग्रह था न ही अनुमति लेने की औपचारिकता। समधी-गृह भोजन करने के लिए पड़ाँइन जाने से रहीं। हाँ, उनकी इच्छा थी कि कावेरी को ले जाते तो वह भी घूम लेती। लेकिन इन लोगों ने कावेरी का बहिष्कार कर रखा है। कावेरी भी इन लोगों से किसी तरह का संवाद बनाने की कोशिश नहीं करती। अपनी अस्वीकृति को उसने अपना ढाल बना लिया था। पड़ाँइन, कावेरी के इस चुप्पी रुपी अस्त्र की विरोधी थीं। उनकी बड़बड़हाट जब ज्यादा बढ़ जाती तब उनके खिलाफ भी कावेरी की यही रणनीति होती। इसी व्यवहार पर, पड़ाँइन, कावेरी को घुन्नी कहती थीं, सहुआइन से।
कह-सुन कर पड़ाँइन ने कावेरी को बरनवाल जी के विद्यालय में लगवा दिया है। विद्यालय मुहल्ले में ही है और कुकुरमुत्ता पब्लिक स्कूल किस्म का है। बरनवाल जी अपनी शक्ल की ही तरह के धूर्त हैं। सामने वाले के कमजोर होने पर झिड़कने का कोई मौका नहीं छोड़ते और जबर होने पर खीसें निपोरने में उनकी कोई सानी नहीं है। कावेरी को महीने के पाँच सौ रुपए देते है। उनका मुख्य व्यवसाय आटे की चक्की है। पाँच साल पहले 'गेट वेल ईंगलिश स्कूल' का बोर्ड लगा कर दो अध्यापिकाओं और चालीस बच्चों से शुरु हुआ सफर आज तीन सौ बच्चों और पाँच अध्यापिकाओं तक पहुँच चुका है। बरनवाल जी विद्यालय में प्रिंसिपल, प्रबंधक, क्लर्क और चपरासी का कार्य स्वयं देखते हैं। सहयोग की अपेक्षा वह किसी से नहीं करते, चालाक लोगों की भाँति किसी पर विश्वास नहीं करते।
बरनवाल का स्कूल पीछे गली में है। चौक की आबादी और मकानों की श्रृंखला इतनी घनी हो गई है कि पड़ाँइन को चारों तरफ मकान ही मकान दिखते हैं। पुरानी स्मृति के आधार पर वो अब कोई रास्ता खोज नहीं पाती हैं। छत पर खड़े होने पर पीछे कोई गली या सड़क नहीं दिखाई देती। मकानों की ऊँचाइयों ने उन्हें अपने में समेट लिया है।
पड़ाँइन का चार बिस्से का दोमंजिला मकान मुख्य सड़क पर है। उस सड़क को अस्सी फुटा रोड कहते हैं। पता नहीं सड़क अस्सी फुट की है या नहीं लेकिन चौड़ी है। आज से लगभग पचास साल पहले जब पड़ाँइन ब्याह कर आईं थी तब यह मकान नहीं बना था। उनके पति रामनरायण पाँडे एडवोकेट तब एडवोकेट नहीं बने थे और एंट्रेन्स की पड़ाई कर रहे थे। ससुर, मुख्तार साहब जो पेशे से मुख्तार थे अपने इकलौते बेटे के साथ के शुक्ला चिकन वाले के यहाँ किराए पर रहते थे। मुख्तार साहब की पत्नी का देहाँत हो गया था। बिना घरनी वाले घर की घरनी बन कर पड़ाँइन इस घर में लाई गई थीं। उनके मायके की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी।
उसी समय मुख्तार साहब ने यह जमीन खरीदी थी। उन्होंने मकान आलीशान बनवाया। आगे की तरफ बड़े-बड़े हाल निकाले थे। फिर आँगन और रहने के लिए कमरे थे। उसके बाद एक छोटा आँगन था जिसके बाद और कमरे थे। मकान तीन खंडों में था। आगे के हिस्से में मुख्तार साहब के जमाने में ही बैंक आ गया था, बीच वाले खंड में परिवार रहता आया है और पीछे के हिस्से में दो से तीन किराएदार रहते आए थे। किराएदार वर्ण व्यवस्था की परंपरा के अनुसार रहते। प्रारंभ से यही व्यवस्था चली आ रही थी, अब तक चल रही है।
बड़ी जमीन और और उस पर इतना बड़ा मकान बनवाने की हैसियत मुख्तार साहब की नहीं थी। मुख्तार साहब को जानने वाला जब मकान देखता आश्चर्य और कुंठा से भर जाता। उन्होंने किसी की जानकारी में किसी जीवधारी को नहीं बताया कि आसमान से हुई इस धनवर्षा का स्रोत क्या है। सेकेंडहैंड अंग्रेजी काट के लंबे कोट के नीचे फटा पैजामा पहनकर कचहरी जाने वाले आदमी की माली औकात से परिचित होने का दावा हर परिचित करता लेकिन भव्य मकान ने कई शंशय और कहानियों को जन्म दिया। सबसे मजबूत कहानी सीनियर वकील कादरी से राब्ता रखती हुई थी। कादरी वकील सपरिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने के लिए गए। फिर उनकी कोई खबर नहीं मिली। कहने वाले काफी जोर देकर कहते थे कि कादरी साहब ने जेवर और नकद मुख्तार को सौंपा था जिसे मुख्तार हड़प गए।
मुख्तार साहब इन सबसे विचलित होते थे या नहीं यह तो जानकारी में नहीं है। वह उस प्रजाति के व्यक्ति थे जो अपनी सारी समस्या धर्म के हवाले कर देते थे और सभी चिंताओं से मुक्त हो जाते थे। 'सीताजी को भी अग्नि-परीक्षा देनी पड़ी' उनकी तर्क प्रक्रिया का आधार था। 'बहू को नवासे में मिली जमीन को बेचने से मिले पैसे...' जैसी कहानी भी उन्होंने प्रचलित करने की कोशिश की लेकिन उन्हें स्वयं इस कहानी के विश्वसनीय होने पर विश्वास नहीं था इसलिए या तो इस विषय पर बात नहीं करते या फिर उँगली ऊपर कर भगवान की दया को सारा श्रेय दे देते। अब भगवान की दया को चुनौती देने वाले उनके आसपास नहीं थे। सबसे दिलचस्प बात यह थी कि मकान की रजिस्ट्री पड़ाँइन अर्थात उनकी बहू के नाम की गई।
अब तो यह सब पुरानी बात हो गई। मुख्तार साहब को जानने वाले गिनती के रह गए। शुक्ला के जिस मकान में वो लोग किराए पर रहते थे वह टूट गया और वहाँ मार्केटिंग कांप्लेक्स बन गया था। अस्सी फुटा रोड मुख्य बाजार हो गया था। छोटे मकान बिक गए थे और सीधी खड़ी चारपाईयों की तरह की दुकानों में बदल गए थे। चीजें या तो बदल गईं थी या लुप्त हों गई थी।
दाल पिस गई थी। दाल और वत्सला को लेकर पड़ाँइन रसोई में गईं। कावेरी उनके और अपने लिए रोटी सब्जी बना रही थी। वत्सला को कावेरी को देकर पड़ाँइन रिकवच बनाने की तैयारी में लगीं। पिसी दाल को वह अरुई के पत्तों में लगाने लगीं। सहुआईन ने मुलायम पत्ते दिए थे। रिकवच बना कर और खाना खाकर वह जब रसोई से निकलीं तब तक बिजली आ गई थी। सामने मंदिर वाली कोठरी की बत्ती जल रही थी, बत्ती बंद करने के लिए वह वहाँ तक गई और न चाहते हुए भी उन्हें दूबर की याद आ गई।
दूबर उन चीजों से याद आते थे, जो उनसे जुड़ी थीं लेकिन उन चीजों से ज्यादा याद आते थे जिनसे वह नहीं जुड़े थे। मंदिर भी उनमें से एक था। दूबर घोषित तौर पर नास्तिक थे। भगवान को लेकर माँ का मजाक उड़ाते थे। पड़ाँइन जब कुछ कहती थी तब वह मनुष्यता, ऊँच-नीच, गरीब, भाग्य-भगवान, शोषण और कई अनजान शब्दों का प्रयोग करते।
दूबर अपनी हँसी से भी याद आते हैं। मुखड़े में दो बार हा-हा करते फिर अंतरे में वही हा-हा अलग ध्वनियों और आवृतियो में बढ़ते और घटते तीव्रता क्रम में आता।
दरअसल दूबर इस घर के विलक्षण सदस्य थे।
दूबर का जन्म व विकास परिवार के उस संक्रमण काल में हुआ था जब इस परिवार के दो प्रतिभाशाली पुत्र अपने बाबा मुख्तार साहब के सख्त अनुशासन की छाँह में अध्ययन के रास्ते उन्नति की राह पकड़ चुके थे। मुख्तार साहब जब तक छोटे पोते को अनुशासन का पाठ पढ़ाते, वह स्वयं दुनिया के अनुशासन से दूर हो गए।
दूबर अपने भाइयों से उम्र में छोटे थे। मुख्तार साहब जब तक रहे, दूबर के पिता अर्थात पाँडेजी की प्रशासनिक भूमिका घर में नहीं थी। उन पर अपने पिता के अनुशासन का दबाव रहा। दबाव कुछ ऐसा था कि वह दब्बू बन गए। अपने बड़े पुत्रों से उनका साहचर्य कम रहा, लेकिन दूबर उनके रुके हुए दुलार-प्रवाह के वारिस हो गए। पाँडे जी छोटे दूबर से बहुत सारी बातें करते। दूबर के पास बहुत सारे सवाल होते और पाँडे वकील उनके सवालों के जवाब देने की कोशिश करते। रामनारायन पांडेय एडवोकेट के पास भी कई सारे सवाल रहते जिनका जवाब वो ढूँढ़ने की कोशिश करते लेकिन नतीजा सिफर ही निकलता।
दूबर उनके सानिध्य में सवालों के साथ बड़े होने लगे। वो पैदल ही रमणीक लाल इंटर कालेज जाते थे। स्कूल के रास्ते में सिटी रेलवे स्टेशन, मजमेबाज या सड़क की गतिविधियों के अलावा कोई भी रोचक या गैर रोचक प्रसंग उन्हें आकर्षित कर लेता, जो उन्हें अध्ययन से ज्यादा महत्वपूर्ण लगता, तब वहीं रम जाते। दूबर दिमाग के अच्छे थे इसलिए प्रारंभिक परिक्षा परिणामों में उनकी घुमक्कड़ी असफलता के रूप में नहीं आई। समय के साथ शिक्षा उनकी प्राथमिकताओं में नीचे जाने लगे और अन्य चीजें उसका स्थान लेने लगी।
कहते हैं, इंटर पास होते-होते दूबर सबके हाथ से निकल गए। उनमें तीन बुराइयाँ देखी गईं। एक तो नाटकों में भाग लेने लगे वो भी ऐसे नाटक जो स्टेज पर न होकर चौराहों पर होते। दूसरे, किसी को कुछ भी कह देते थे, सामने वाले की गरिमा और सम्मान की भी परवाह नहीं करते थे। और, तीसरी, कविताएँ लिखने लगे जो कि परंपरागत न होकर अलग शब्दावली में रहती थीं।
दूबर के भटकने को जब पड़ाँइन महसूस करने लगी तब उन्होंने विरोध और जब दूबर ने अपने विद्रोही तेवर को जारी रखा, पड़ाँइन ने मुखर विरोध किया। माँ और पुत्र में इसको लेकर लंबे-लंबे संवाद-विमर्श हुए। दूबर ने अपनी प्राथमिकताएँ घोषित कर दी। पड़ाँइन की नीति शिक्षा और भविष्य के सवाल को दूबर ने सिरे से खारिज कर दिया। पाँडेजी इस पूरे प्रकरण में किसी भी पक्ष में खड़े नहीं हो पा रहे थे। मन ही मन वह पुत्र की चेतना का समर्थन करते थे लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से इसको दिखा नहीं सकते थे। पड़ाँइन का वह विरोध करते नहीं थे और इस प्रकरण में कर भी नहीं सकते थे। पाँडे जी पूरे जीवन वकील बने रहे। वह सफलता को अलग दृष्टि से देखते थे। उनके बड़े लड़के जब इंजीनियर बने और सिंचाई महकमे में तैनात हुए या फिर छोटे लड़के मुँसिफी का इम्तहान पास कर न्यायाधीश बने तब उन्होंने निःसंग भाव में इसे लिया। उन्हें खुशी हुई, बहुत कुछ खुशी को उन्होंने सामाजिक औपचारिकता में प्रकट किया। सफलता और जीवन को वह अलग-अलग खाँचे में रखते थे।
पाँडेजी संवेदनशील व्यक्ति थे और कचहरी के असंवेदनशील माहौल में व्यक्ति रूपी संस्था पर होते प्रहार ने उन्हें निराश कर दिया था। उन्हें लगता था कि चीजें बदलनी चाहिए। उनकी एक दिक्कत और थी कि वह सोचते ज्यादा थे और बोलते बहुत कम था। वह जब मरे तब दूबर बीए के दूसरे दर्जे में थे।
गहराती शाम को पाँडे जी के सीने में दर्द शुरू हुआ तब दूबर घर पर थे। जल्दी-जल्दी वह रिक्शे पर लेकर उन्हें परिचित डाक्टर के यहाँ और वहाँ से मेडिकल कालेज के हार्ट सेंटर ले गए। तड़के चार बजे पाँडे ने दूबर के हाथ को अपने हाथ में लिए जीवन की आखिरी साँसें ली। दूबर पूरी रात पिता का सिर, हाथ और शरीर दबाते रहे।
महापुरूषों के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं, जब उनका साक्षात्कार सत्य से होता है और उन्हें आत्मज्ञान जैसी चीज की प्राप्ति होती है। भविष्य में दूबर महापुरुष नहीं बन पाए लेकिन उस रात वह उन अनुभवों के फंतासी को महसूस कर सके। परम एकांत के क्षणों में, मृत्यु का दुख तरल रूप में उनके अंदर उतरता जा रहा था। असहाय दूबर, पिता को मरते देखते रहे।
पाँडे जी के गुजरने के बाद दूबर और पड़ाँइन का वाद-विवाद कम हो गया। पड़ाँइन ने दूबर के मामले में मौखिक हस्तक्षेप बंद कर दिया। दूबर अब घर के बाहर ही ज्यादा रहने लगें। जूलूसों, धरनों, मीटिंगों में या कई-कई दिनों के लिए गाँवों में काम करने जाते थे। दूबर पहले कुछ दिनों ही घर के बाहर रहते थे। उत्तरोत्तर में यह अंतराल बढ़ने लगा और बाद में दूबर ने अपना स्थायी ठीहा विश्वविद्यालय छात्रावास में बना लिया।
दूबर जिस संगठन से जुड़े थे - वह भगत सिंह के विचारों वाली लाल पार्टी थी। संगठन कार्यालय व्यक्तिगत प्रयासों से बड़े शहरो में चल रहे थे। उसके सदस्य विश्वविद्यालय के छात्र और प्रगतिशील विचारों के लोग थे। दूबर के शहर के प्रमुख माइकल दत्त थे। संगठन के उद्देश्यों में किसानो, मजदूरों, दस्तकारो और झोपड़पट्टी में रहने वालों को शिक्षित व उनको चेतना से लैस करने का था। इसके लिए कार्यकर्ता इनके बीच जाते, साथ रह कर काम करते और दृष्टि देने की कोशिश करते। प्रकाशन भी संगठन की एक इकाई थी। जहाँ मुख्य रुप से अनुवाद प्रकाशित होते थे। बाहर से आए हुए अधेड़ और अकेले दत्त संगठन के प्रतिबद्ध संचालक थे।
दूबर जब घर आते थे तब माँ के पास-पास मँडराते थे - कुछ बात करने की कोशिश करते। पड़ाँइन जवाब देती लेकिन कम देती। यह अल्प बातचीत कभी-कभी बहस का रूप ले लेती और आरोप-प्रत्यारोप के बीच माँ-बेटा भोजन के न्यूनतम साझा रिश्ते तक अपने को सीमित कर लेते। दूबर परोक्ष भाव से माँ की देख-रेख की चिंता करते लेकिन इसके जाहिर होते ही पँड़ाइन उन्हें झिड़क देती। हालाँकि समय निकला जा रहा था लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि दूबर सुधर जाएँगे और बाकायदा घर वापस जाएगें। यह बात वह सहुआइन से दुखी होने पर कहती थीं।
दूबर कहाँ रहते है, क्या खाते हैं, कैसे सोते हैं, ऐसे सवाल पँड़ाइन को चिंता में डालते थे। इतना उन्हें पता था कि गरीबों के बीच जाते हैं। समाज को बदलने के लिए काम करते हैं - उनके यह समझ में नहीं आता था। सब ऊपर वाले का बनाया है। ऊँच-नीच, धर्म-जाति को इन्सान कैसे बदल सकता है? ऐसा सोचकर पँड़ाइन का मन दूबर के प्रति और कटुता से भर जाता था। आग लगे ऐसे समाज सुधार पर। बड़े-बड़े बदल नहीं पाए, ये चले हैं बदलने चार किताब पढ़ कर। पँड़ाइन एक दो बार नजर उतारने के काले धागे वाले टोटके भी कर चुकीं थीं।
दूबर की उम्र हो रही थी, उनके विवाह की साध और सनातन जिम्मेदारी की मुक्ति, दोनों ही भाव उनके मन में दबे थे।
बड़े भाईसाहब लोग दूबर के मुँहफट व्यवहार से पीड़ित हो चुके थे। उनको छोटे भाई को लेकर वात्सल्य भाव उमड़ता भी तो दूबर की कही कटूक्तियाँ याद आ जाती। दूबर उन सबका लालच उनके सामने रख देते थे। इंजीनियर साहब को लोकतांत्रिक कार्य परिवेश में कुबोलियाँ सुनने की आदत हो गई थी जिससे उनकी चमड़ी मोटी हो गई थी लेकिन मुंसफ साहब इस तरह के व्यवहार के आदी नहीं थे। दूबर उनके सहोदर थे अन्यथा जिस तरह से दूबर बोलते थे किसी आरोप में उन्हें दो-चार साल के लिए अंदर कर देते।
दूबर का मनोबल ही कहाँ बना रहा। सब कुछ एक सा कहाँ रहता है। सब कुछ परिवर्तनशील है तो दूबर कैसे अपरिवर्तित रहते। विचार से ही सब कुछ कहाँ क्रियान्वित होता है। क्रियान्वन संस्थाएँ करती हैं।
संगठन में दूबर जैसे-जैसे वरिष्ठ हो रहे थे, महत्वपूर्ण कार्यो से विलग किए जा रहे थे। साथियों के अनुसार इसके लिए वो स्वयं जिम्मेदार थे। व्यक्ति, व्यक्ति के मूल्य, उसकी स्वतंत्रता, व्यक्ति का दमन आदि उनके दिमाग में काँटे की तरह फँस गए थे। बोलना उनको आया नहीं, सुधरने की उनकी इच्छा नहीं थी। जिस व्यवहार कुशलता के अभाव में वो इस जगह थे, यहाँ भी उसका विधान नहीं था। हालाँकि स्थितियाँ अल्प समय में नहीं बदली लेकिन एक लंबे समय के बाद मान लिया गया कि दूबर संगठन के बहुत अनुकूल नहीं हैं।
दूबर की मुख्य आपत्तियाँ संगठन में लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर होती थी। ऐसे ही एक प्रसंग में एक दिन एक कार्यकर्ता के अस्वस्थता व कार्य जिम्मेदारी संबंध में उपजा विवाद अंतिम बहस मे बदल गया। दत्त संगठन को सर्वोपरि रख रहे थे, दूबर व्यक्ति को महत्वपूर्ण मान रहे थे। दोनो के पास तर्क थे, उन तर्कों के समर्थन में विद्वानों के तर्क थे। बहुत सारे नाम लिए गए, वो उन बौद्धिक लोगों के नाम थे जिनको वो लोग पढ़ते आए थे।
बातचीत का पटाक्षेप माइकल दत्त के सवाल से हुआ, 'इतना विरोध है, तब तुम यहाँ क्यों हो?'
दत्त ने फिर जोर देकर अपना सवाल दुहराया, 'तुम यहाँ क्यों हो?'
दूबर ने कहा, 'मै यहाँ क्यों हूँ?'
उन्होंने फिर धीमे स्वर मे दुहराया, 'मै यहाँ क्यों हूँ?'
संभवतः तैंतीस साल के दूबर ने इस सवाल को रात तक कई बार दुहराया हो। छात्रावास के कमरे में वह तख्त पर बिना शरीर के, केवल मस्तिष्क को लेकर लेटे थे। अपने वहाँ होने, यहाँ होने और अपने होने को उन्होंने अपनी सारी चेतना और दृष्टि के साथ समझने की कोशिश की। वह उच्च जाति में जन्मे, थोड़े-अधिक प्रयास से कुलक जैसा जीवन जी सकते थे।
क्या वह गलत जगह हैं? क्या वह यहाँ के पात्र नहीं है? फिर उनकी सही जगह कहाँ है? विकल्पहीन लोगो की सही जगह कहाँ है? सवालों की भीड़ बढ़ने लगी। तब दूबर उठे और विकल्पहीनता की स्थिति में मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' का जोर-जोर पाठ करने लगे। कविता का पाठ करते समय उनके चेहरे पर कैसे भाव थे यह बताना कठिन है क्योंकि कमरे में वह अकेले थे और कमरे में अँधेरा था।
शायद यही वह समय और उसकी नियति थी जिसमें दूबर प्रेम करने के लिए अभिशप्त थे।
दूबर अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए सुबह-शाम ट्यूशन पढ़ाते थे। शाम को पुस्तक विक्रेता मेहरोत्रा के यहाँ सातवीं में पढ़ने वाले बालक को पढ़ाते थे। मेहरोत्रा जी के बड़े मकान में कई किराएदार थे। मेहरात्रा की पत्नी बच्चे के पढ़ने के बाद बिला नागा दूबर को चाय और नाश्ता देती। इस जलपान अवधि में वह दूबर से सामयिक और अन्यान्य विषयों पर बातचीत करतीं। एक दिन मेहरात्रा की पत्नी ने दूबर से अनुरोध किया कि उनके एक किराएदार की मौसेरी बहन को हिंदी पढ़ा दीजिए। वह केरल की रहने वाली है और यहाँ नौकरी की खोज में आई है। उसको हिंदी बोलना, लिखना और पढ़ना नहीं आता है। बेचारी बहुत परेशान है।
दूबर को पहली नजर का प्यार नहीं हुआ था।
उस 'बेचारी' जिसका आधिकारिक नाम 'कावेरी' था, को जब उसके संभावित भाषा अनुदेशक से मिलाया गया तब दूबर कुछ और सोच रहे थे, जो वह हर समय करते रहते थे। इसे सोचने और कावेरी से मिलने में दूबर ने उसको इंटर-हाईस्कूल में पढ़ने वाली छात्रा ही समझा। दुबली कावेरी की लंबाई औसत थी, उसके गहरे काले बाल दो चोटियों में बँटे थे। इसके माथों के बीचों बीच सफेद रंग का टीके जैसा बना था। माँगे के सलवार-कुर्ते में वह असहज लग रही थी, संभवतः अपने पारंपरिक वस्त्रों की जगह उसने पहली बार सलवार-कुर्ता पहना था। उसके स्त्रियोचित अंग दुपट्टे की बेतरतीबी में छिपे थे। उभार उसके माथे की सिकुड़न में ही थे जो दूबर जैसे अजनबी से मिलने पर अपने आप बन गए थे। कावेरी को भी दूबर से मिल कर कोई संगीत-सा बजता नहीं सुनाई दिया। लेकिन यह सिर्फ पहली मुलाकात की ही बात है।
उस दिन कावेरी कुछ बोली नहीं, क्योंकि उसे बोलने को कहा नहीं गया और कहा जाता तो भी कावेरी को वहाँ बोली जाने वाली कोई भाषा नहीं आती थी।
मिसेज मेहरोत्रा ने कावेरी के सामने दूबर से हिंदी पढ़ाने के अनुरोध के साथ-साथ कहा कि गरीब लड़की हैं। गरीब पर उन्होंने ज्यादा जोर दिया और कहा कि इसके माँ-बाप नहीं है। यह चार बहनों में सबसे छोटी है। बहनें शादीशुदा है। इसने बीए किया है, अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती है। उन्होंने दोबारा बताया कि गरीब लड़की है। इस बार गरीब कहते समय मिसेज मेहरोत्रा ने करुणा और दया का बराबर मिश्रण किया, साथ में भगवान की दयानतदारी, भाग्य और सामाजिक जिम्मेदारी की चर्चा की। दूबर समझ गए कि मुफ्त का काम है कुछ मिलना नहीं है और इस साँवली काया को कामचलाऊ हिंदी पढ़ानी है। दूबर ने मन ही मन अपनी रणनीति बना ली कि कुछ दिन टरका दूँगा तब स्वयं आना बंद कर देगी।
दूसरे दिन ही दूबर टरका नहीं पाए।
अगले दिन बच्चे के अध्ययन-सत्र समाप्त होते-होते कावेरी हाथ में पुस्तिका किए खड़ी दिखी। दूबर टालने का उपयुक्त बहाना ढूँढ़ रहे थे, उसी अंतराल में उन्हें कावेरी की आँखे दिखीं। दूबर ने इसके पहले आँखों को एक जैविक अंग की तरह ही देखा था। किसी युवा स्त्री की आँखे, आँखों के अलावा कुछ होती हैं इसका बोध उन्हें नहीं था। आँखों को देखने में वो इसलिए सम्मोहित हो गए कि उस तात्कालिक समय में दूबर कुछ सोच नहीं रहे थे। कुछ देर के लिए दूबर को लगा कि कावेरी के चेहरे पर बस आँखें ही हैं। उसकी काली पुतलियाँ बड़ी थी और शेष भाग संगमरमरी सफेद। दूबर को पहली बार लगा कि आँखे बोलती भी है। टालना वो भूल चुके थे और उनको आस पास सब कुछ मखमली और सुखद लगने लगा। प्रेम की कोई भाषा नहीं होती है भविष्य में वह कह सकते थे।
दूबर ने कावेरी को कैसी हिंदी पढ़ाई यह कावेरी ही जानती होगी। पहली मुलाकात के चालीसवें दिन दूबर ने कावेरी से शादी का प्रस्ताव रख दिया। विवाह का प्रस्ताव करते समय दूबर भावुक नहीं थे। उन्होंने कावेरी को अच्छी तरह सोच समझ कर जबाब देने को कहा।
दूबर की अंतरंग मंडली अब बहुत छोटी हो गई थी। उनके लिए दूबर का प्रेम ओर विवाह का निर्णय अप्रत्याशित था। दूबर प्रेम कर सकते हैं - यह आश्चर्य का विषय था।
कावेरी के पास प्रस्ताव के विरोध के बहुत कारण नहीं था। इसकी मौसेरी बहन को दिल्ली में सरकारी नौकरी मिल गई थे और वह शहर छोड़ कर जा रही थी। दूर रहते कावेरी के संबंधियों ने समझदारी से निर्णय लेने की सलाह और अपने आने की असमर्थता की दलीलों को देते हुए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया।
इन सबसे अलग और महत्वपूर्ण बात थी कि कावेरी दूबर को पसंद करती थी। दूबले-पतले दूबर जब धाराप्रवाह बोलते थे, कावेरी उन्हें एकटक देखती थी। दूबर की बातें किसी ने पहले ध्यान से सुनी नहीं थी न ही समझने की कोशिश की। कावेरी समझती थी या नहीं यह नहीं पता लेकिन चुपचाप सुनतीं थीं, शायद उनके प्रेम-शादी होने में इसका योगदान रहा हो।
बहरहाल उनकी शादी बिना किसी रिश्तेदार की उपस्थिति के रजिस्ट्रार आफिस में दूबर के सात मित्रों और कावेरी के साथ टाइपिंग सीख रही दो सहेली लड़कियों की उपस्थिति में संपन्न हुई।
रजिस्ट्रार आफिस का खर्च और बाहर चाय का पैसा दूबर ने दिया। दो किलो लड्डू का पैसा कावेरी ने दिया। कावेरी ने अपना श्रृंगार स्वयं किया। उसने कांजीवरम किस्म की साड़ी पहनी जो उसकी मौसरी बहन ने भेंट की थी।
कावेरी शादी के पूरे गेटअप में थी। आँखों में काजल और बाल जूड़े के आकार में था। उस पर फूलों का गजरा जिसे कावेरी ने खुद बनाया था। सलोनी कावेरी के कांतिमय चेहरे को श्रृंगार ने और सजीव कर दिया था। रजिस्ट्रार आफिस की भीड़ में काफी लोगों का ध्यान कावेरी पर जा रहा था। ध्यान तो दूबर का भी जा रहा था। वह चोरी छिपी नजरों से लगातार कावेरी को देख रहे थे। कभी उन्हें कावेरी अपरिचित-सी लगती और फिर एक सुखद अहसास से भर जाते कि कावेरी ही उनकी पत्नी बनने वाली हैं।
रजिस्ट्रार आफिस की औपचारिताओं के बाद दोनों ने एक दूसरे को फूलों की माला पहनायी। इस पूरी गहमा-गहमी के बीच दूबर को अपने माता-पिता की याद आती रही। इस शादी की उन्होंने बाकायदा कोई योजना नहीं बनाई थी। पड़ाँइन उन्हें इस शादी की अनुमति देती या नहीं देती, ऐसा विचार दूबर ने करने की आवश्यकता नहीं समझी।
कावेरी के भोलेपन से उनके प्रेम संबंध की शुरुआत हुई। दूबर भोले नहीं थे। भोली कावेरी भी नहीं थी। एक तरह के भोलेपन और अभोलेपन के बीच मँडराते-बिचरते और मिलने से पात्रों में प्रेम जैसा, और अंततः विवाह संभव हुआ।
माला पहनाते समय दूबर लटपटा गए थे। परंपराओं को याद उन्हें तब आई। पड़ाँइन के स्नेह और प्रेम का आतंक विवाह प्रक्रिया संपन्न होने के बाद उन पर हावी होने लगा। खुशी, पश्चाताप और दुख जैसी संवेदनाएँ एक-एक करके उनके अंदर घुमड़ी। खुशी कावेरी की थी, पड़ाँइन के विवाह में न शामिल होने का पश्चाताप था और दुख पिता का था।
स्मृतियाँ कावेरी को भी भेद रही थीं। एक अलग सामाजिक परिवेश, अलग से लगते लोग और उनके बीच नए और नएपन के कलफ और महक से सराबोर कपड़े पहने, घबराए से दूबर को देख कर कावेरी को गुदगुदी जैसी खुशी और हल्के ठंड की कँपकँपाहट-सी घबराहट हो रही थी। इस पूरे कार्यक्रम में दूबर और कावेरी की नजर एक बार भी नहीं मिली, लेकिन पूरे समय दोनों एक दूसरे को देखते रहे।
पड़ाँइन को याद है, शादी होने के बीस दिन बाद दूबर आए थे। नाराजगी और क्रोध से पड़ाँइन की आवाज नहीं निकल रही थी। दूबर एक घंटा रहे। इधर-उधर करते रहे। उन्होंने कुर्सी और दीवार को बताया कि वो अर्जुनगंज में किराए का मकान लेकर रह रहे हैं। शादी और कावेरी की कोई चर्चा उन्होंने नहीं की। चर्चा की स्थिति व वातावरण नहीं था। वस्तुतः पूरे अंतराल में पड़ाँइन कुछ बोली नहीं। पड़ाँइन ने यह जरूर देखा कि दूबर की दाढ़ी बनी हुई है, कपड़े ठीक थे और चेहरा भरा-भरा लग रहा था। उनको आंतरिक खुशी हुई। पर शादी करने का गुस्सा ज्यादा वजनदार था। उन्होंने दूबर को चाय और भुना चिवड़ा देने के अतिरिक्त कोई संबंध नहीं बनाया। दूबर ने पहले चिवड़ा चम्मच से खाया फिर प्लेट को हथेली पर ठोंक कर और अंत में प्लेट से चिपके चिवड़ों को बीन-बीन कर, ठीक अपने पिता की तरह।
दूसरी बार दूबर पहले फेरे के तीन महीने बाद आए। इस बार वो पूरी तैयारी से आए थे। आते ही उन्होंने खाने की माँग की। पड़ाँइन पकौड़ी बनाने के लिए आलू प्याज काटने लगी। दूबर ने कुछ बेहया शक्ल बना कर आधिकारिक घोषणा करते हुए माँ से कहा कि उन्होंने शादी कर ली है। वो बताना चाहते थे कि कावेरी बहुत अच्छी लड़की है लेकिन जज्ब कर गए।
पड़ाँइन शांत थीं लेकिन छिली प्याज और आलू के छिलकों को उन्होंने दूबर से बाहर फेंकने को कहा। दूबर को लगा कि आज का दिन ठीक है। पड़ाँइन जब तक पकौड़ी बना रही थी, दूबर ऊपर कमरे में गए-अपने पिता की साइकिल उतार लाए। रसोई में गए माँ को बताया कि उन्होंने नौकरी कर ली है, जहाँ एकाउंट लिखने का काम करना पड़ता है। काम की जगह रहने से दूर है इसलिए पिता की साइकिल ले जा रहे हैं।
पकौड़ी खाते समय उनका सर नीचे था। उसी मुद्रा में उन्होंने कहा कि कावेरी यहीं आकर रहना चाहती हैं।
'मछरी तो नहीं खाने लगे?', पड़ाँइन जब कुछ सार्थक नहीं कह पाईं तो गुस्से का विद्रूप व्यंग्य भाव में कहीं और निकला।
दूबर चुप ही रहे। उन्हें माँ की खुफिया सूचनाओ पर आश्चर्य हुआ। मछली मारना कावेरी के यहाँ का पेशगत व्यवसाय है।
दुबारा पकौड़ी देते तक पड़ाँइन का गुस्सा कुछ संयत हो चुका था। दूबर को मुलायम देख उन्होंने कई बार की दुहराई बात फिर से कह दी।
पड़ाँइन ने अपने बेटों इंजीनियर साहब और मुंसफ से दूबर के कल्याण के लिए अनुनय किया था।
आज फिर उन्होनें दूबर से कहा 'भाइयों से मिल लो वो लोग कुछ बेहतर इंतजाम कर सकते हैं।'
दूबर पहले कुछ सख्त बात कहना चाहते थे। उन्होंने अपने आपको रोक दिया। उन्होंने एक संक्षिप्त व्यक्तव्य दिया जिसकी भाषा बड़बड़ाहट से भरी और मंतव्य इनकार में था। उन्होंने उसमें यह स्पष्ट किया कि वो जो करना होगा स्वयं करेंगे और वह मजदूर की जिंदगी जीना इससे बेहतर मानते हैं।
उन्होंने फिर माँ से सामान्य स्वर में पूछा कि तुम्हें अगर कोई एतराज हो तो वह यहाँ नहीं आएँगे, वहीं रहेगें जहाँ रह रहे हैं। आखिरी शब्द तक आते-आते दूबर सख्त हो गए थे।
पड़ाँइन ने जब पूछा कि कब आ रहे हो तब तक दूबर पिता की साइकिल हाथ में लेकर आगे बढ़ चुके थे।
उन्होंने सीधे जवाब नहीं दिया पहले उन्होंने कहा कि शायद तुम दादी बनने वाली हो। शायद के 'द' से उन्होंने हँसना शुरू कर दिया था। उसी हँसी की रौ में उन्होंने कहा कि दो महीने का किराया दे चुका हूँ, उसको वसूल लूँ तब आऊँगा।
कच्चे पहाड़ और कही बात का क्या भरोसा।
पड़ाँइन ने उपर का कमरा अगवानी के लिए तैयार कर लिया। अपनी शादी की मसहरी उसमें रखवा लिया। एक पुरानी ड्रेसिंग टेबल बढ़ई से ठीक करवा कर रख दिया।
वह मनहूस शाम पड़ाँइन को अभी भी अच्छी तरह याद है। वह शाम धूसर लाल नहीं थी लेकिन पड़ाँइन अगर चित्रकार रहतीं तब उसी रंग में उस शाम को याद करतीं।
वो आँगन में बैठी थीं। दो मर्तबान अचार के धूप में दोपहर के रखे थे, उन्हें ही उठाने के उपक्रम में बैठी, बची हुई धूप का इस्तेमाल कर रही थीं।
आँगन के दरवाजे पर उन्हें कोई खड़ा दिखा। थोड़ी देर में उन्होंने पहचाना वह लईक था। वह दूबर का पुराना दोस्त और नाटकों में साथ काम करता था। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी। इसलिए पड़ाँइन पहचान नहीं पा रहीं थी। वह अभी तक दरवाजे पर ही खड़ा था।
उसकी शारीरिक भाषा और पड़ाँइन को एकटक देखने की भंगिमा - अस्वाभाविक और उसका आना अप्रत्याशित था। आँगन के मुहाने पर एक ही मुद्रा में लईक के लगातार खड़े रहने से पड़ाँइन का विस्मय आशंका में बदलने लगा। वो उठकर लईक के पास तक गईं।
लईक ने पहला सवाल किया 'चाची घर में कोई और है।'
इस सवाल से पड़ाँइन इतना घबरा चुकी थी कि वो 'नहीं' भी नहीं कह पाई।
लईक बाहर निकल गया और सहुआइन के घर चला गया। वह दूबर परिवार की आंतरिकता से परिचित था। लईक ने सहुआइन को बताया कि आज सुबह जब दूबर साइकिल से बाईपास होकर दफ्तर जा रहे थे, उनकी टक्कर ट्रक से हो गई थी, उन्हें मेडिकल कालेज ले जाया गया लेकिन बच नहीं सके। दूबर के मित्र मेडिकल कालेज में ही हैं। पोस्टमार्टम के बाद यहीं आएँगे। आप ही चाची को बताइए।
पड़ाँइन को बताने की जरूरत नहीं पड़ी। वो लईक के पीछे-पीछे यहाँ तक आ गई थीं। उन्होंने सब कुछ सुन लिया था।
पहले उनका चीत्कार सुनाई दिया। पड़ाँइन वही जमीन पर बैठ गई। उनके चीखने की तीव्रता तेज हुई जब सहुआइन ने उनको पकड़ा और सहुआइन की आवाज उसमें शामिल हुई। दोनों सखियों की अनियमित चीखें और फिर विलाप दूबर के जीवन यात्रा को अपने में सँजोए था। लोग धीरे-धीरे जमा होने लगे। महिलाएँ पड़ाँइन को लेकर उनके घर तक आईं। मुहल्ले के कुछ लोग मेडिकल कालेज जाने लगे। समय के साथ विलाप का स्वर धीमा हो चला था। बीच-बीच में हिचकियों की आवाजें आ रही थी।
अँधेरा घिर चुका था। पड़ाँइन को मोतियाबिंद की शिकायत थी। आँखों में रुकी हुई आँसू की बूँदें परदे का काम कर रही थी। उनके आस-पास सब धब्बे की तरह लग रहा था। सफेद रुई के फाहो के बीच टँगे चित्रों की तरह। उसी धब्बे में जब बहुत सारी गतिविधियाँ एक साथ होने लगीं, उनके आत्मीय उनके पास जुटने लगे और दबा हुआ कोलाहल सुनाई देने लगा, तब उनकी रही-सही समझ ने बता दिया कि उनके दूबर आ गए।
आँगन के एक कोने में वो बैठी थीं। वह उठीं और भरसक दौड़ते हुए मुहाने तक गईं। उनके दूबर को लेकर लोग आ गए थे। दूबर सफेद कपड़े में लिपटे थे। हमेशा जीवंत दूबर आज शांत पड़े थे। उनकी बची हुई आस टूट गई। कहीं उनको लग रहा था, सब झूठ है, लेकिन अब सब सामने था। पड़ाँइन वहीं भहरा गई।
जिस स्पर्श ने उन्हें थामा वह उनका जाना पहचाना नहीं था। उन्होंने मुड़ कर देखने की कोशिश की। एक स्त्री काया सामने थी। शायद, उसे भी पकड़ कर लाया गया था। पड़ाँइन कुछ-कुछ सचेत हो चली थी।
कावेरी रो नहीं रही थी। वह बड़बड़ा रही थी - अनजानी और अनचीन्ही भाषा में। उसकी नजर कहीं अनंत में थी। वह पड़ाँइन के सामने खड़ी थी। कावेरी विषाद की किन्हीं अतल गहराइयों में थी। लेकिन उस पराजित समयखंड में भी संशय और अस्वीकृति बोध मस्तिष्क में अपनी जगह बचाए हुए थी।
दुख के इन क्षणों में दो दुखी स्त्रियाँ संबंधों की स्वीकार्यता के असमंजस में थी। पड़ाँइन हताश थीं। दूबर को वो सुधार नहीं पाईं। दूबर चले गए। उनके साथ सुधारने की अनंत साध चली गई। परंपराओं ने पड़ाँइन को पुत्रों के सफल होने और उस रास्ते उनके महान बनने का दर्शन दिया था। दूबर इस दर्शन से प्रभावित नहीं हुए।
वह अपने को सँजोने की कोशिश करने लगीं। उन्होंने कावेरी को कंधों से पकड़ा और अपनी ओर खींचा। कावेरी उनके कंधे पर आकर बेहोश हो गई।
सब कुछ निबट गया। सभी कुछ बीत जाता है आनंद उत्सव भी और मृत्यु उत्सव भी।
कितनी चीजें तब से बदल गईं। कावेरी उसी दिन इस घर में आई और फिर नहीं गई। छह महीने बाद वत्सला हुई। मुंसफ और बड़कऊ कई बार आए - परिवार नहीं आया। दोनों दफ्तरी काम से आते होंगे, ऐसा पड़ाँइन सोचती थीं।
दोनों बेटों के आने पर मकान का जिकर हो ही जाता था। मुंसफ ने एक बार मकान की पूरी पैमाइश भी करवा डाली। मुंसफ माँ से दुलराने लगे थे। अपने साथ गाजियाबाद चलने की फौरी जिद्द भी करते, पड़ाँइन हाँ-हूँ करके टाल देती। उनके लिए टेलीफोन लगवा दिया था। टेलीफोन पर ग्रैनी से बात कराई जाती। हालाँकि संवाद की गुंजाइश कम रहती, लेकिन ख्याल रखने की सारी औपचारिकताएँ निभाई जातीं। बच्चे ख्याल रखते हैं अब पड़ाँइन ऐसा सहुआइन से कहा कहती हैं।
इस दीवाली में मुंसफ और बड़कऊ उनकी बहुएँ और एक बच्ची मंजरी आईं। घर में चहल-पहल थी। रोज नई-नई फरमाइशों, अपनी-अपनी पत्नियों के पाककला की भर्त्सना और माँ को मनुहारों के साथ घरेलू पकवानों की माँग रहती।
कावेरी का अधिकांश समय रसोई में बीतता। बहुएँ अफसरानी थीं और बाकायदा अफसरानी थीं। कावेरी के साथ किसी ने कोई संबंध नहीं बनाया। एक क्रूरता की सीमा तक कावेरी से उनकी संवादनिरपेक्षता थी। वत्सला ने भी उनसे कोई संबंध नहीं बनाए, वह अपनी दादी से चिपकी रहती।
इस तीन दिन में मकान का जिकर बार-बार आया।
'अम्मा यह मकान बड़ा है लेकिन किराया कम आता है', 'इसकी पुताई कितने सालों से नहीं हुई', 'आपकी तबियत ठीक नहीं रहती हमारे साथ चलिए' , 'इस भीड़ वाली जगह में रहने से तबियत बिगड़ जाती है', 'सड़क से धुआँ बहुत आता है, इससे अच्छा कि नई कालोनी में छोटा मकान लेकर आराम से रहे', आदि वाक्यों के साथ मकान की चर्चा हुई।
दरअसल इस दीवाली की जमघट मकान को बेचने को लेकर ही थी। मकान की वर्तमान कीमत एक करोड़ तक लगने की संभावना थी। नोएडा में दोनों भाइयों ने प्लाट ले लिया था। यह मकान बिक जाता तो दोनों भाई मिलकर एक व्यवसायिक प्लाट लेने की योजना बना रहे थे। माँ साथ चलने को तैयार हो जाती तब ठीक था अन्यथा उनके लिए एक छोटा मकान खरीद देते, माँ कहीं रह लेती। इसी योजना पर उन लोगों में आपसी सहमति बनी थी।
सभी ने मुंसफ साहब को यह जिम्मेदारी दी कि वह माँ को रजामंद करेंगे। 'आखिरी माँ की उमर ही अब कितनी है', 'आखिरी समय शांति से भगवान का भजन करेंगी'... आदि दलीलें लोग अपने को समझाने के लिए दे रहे थे या अपने ही जैसे सामने वाले को, यह समझना कठिन था। कावेरी के बारे में सदस्यों की आम राय थी कि उसे उसके पैतृक घर वापस भिजवा दिया जाए।
उपर के कमरे में सुबह से ही दोनों भाई और उनकी पत्नियों की बैठक चल रही थी। यह तय किया जा रहा था कि आज आखिरी चोट कर दिया जाए। मुंसफ की भाभी अपने देवर का उत्साहवर्द्धन कर रही थी। कल रात वो लोग प्रापर्टी डीलर के यहाँ भी गए थे, जिसने जमीन को बिकवाने और अच्छी कीमत मिलने की गारंटी दी थी। माँ को किस तरह घेरा जाएगा इसकी योजना बन रही थी। सभी लोग अपनी भूमिकाओं और उसमें संबंधित तार्किक संवादों को माँज रहे थे।
मंजरी उसी समय नाश्ता करके नीचे से उपर आई। आते ही उसने अपनी माँ से पूछा कि क्या दीवाली में भी रंग लगाते हैं। किसी ने उसके सवाल पर ध्यान नहीं दिया -उसकी माँ ने भी नहीं।
उसने दुबारा पूछा, उसकी माँ 'नहीं' कह कर बातचीत में शामिल हो गईं।
मंजरी ने बालरोष से कहा 'लगाते हैं रंग, तभी तो दादी और आन्टी के हाथों में काला रंग लगा है।'
मुंसफ की पत्नी उस समय कुछ कह रही थीं।
मुंसफ ने एकाएक अपनी पत्नी को डाटते हुए जोर से कहा, 'चुप रहो।'
फिर मंजरी को अपने पास बुला कर पूछा 'क्या कह रही थी तुम।'
मंजरी जो पिता की ऊँची आवाज से सहम गई थी, पहले तो चुप रही फिर उसने अपनी बात को दुहरा दिया, और बाहर चली गई।
मुंसफ गंभीर हो गए थे। आशंका उनके अंदर घर कर रही थी। वहाँ खामोशी छा गई। मुंसफ जो सोच रहे थे वैसा कोई सोचना नहीं चाह रहा था। काले हाथ और दोनों के काले हाथ... हथेलियों पर काले रंग का एक ही मतलब तो होता नहीं है। मुंसफ जानते थे कि एक ही मतलब होता है। मुंसफ पिछले कई साल की कचहरी की जिंदगी में जान गए थे कि कहीं और कभी, कुछ भी हो सकता है। वो जानते थे कि उदाहरणों से ही नहीं अपवादों से भी दुनिया भरी है।
वह निराश और क्रोधित हो रहे थे। कौन बता सकता है ? यही सवाल उभर कर आ रहा था।
बड़कऊ के मुँह से निकला 'मामा'।
मुंसफ को जबाव मिल गया था। अगर कुछ ऐसा हुआ है तो मामा को जरूर बुलाया गया होगा। माँ उन्ही पर भरोसा करती हैं।
मामा बद्रीनरायन पाठक के बेरोजगार लड़के को तीन साल पहले मुंसफ साहब ने कह कर स्टांप बेंडिंग का लाइसेंस दिलवाया था। पाँच साल पहले उनके बहुत घिघियाने पर उनकी लड़की की शादी में दस हजार रुपए भी दिए थे जो आज तक नहीं मिले।
मुंसफ के पास उनके लड़के का मोबाइल नंबर था। उन्होंने नंबर मिलाया लड़का घर पर ही था और मामा भी वहीं थे।
मुंसफ ने मामा से छूटते ही पहला सवाल किया, 'आप कुछ दिन पहले यहाँ आए थे।'
उधर से कोई जवाब आया।
उन्होंने फिर पूछा 'किसलिए।'
उधर से थोड़ी बाद कुछ जवाब आया।
मुंसफ अपना आपा खो बैठे, उन्होंने फोन पर गालियाँ देनी शुरू कर दी और मोबाइल बिस्तर पर फेंक दिया।
बड़कऊ ने फोन उठा लिया और बाहर छत पर जाकर बात करने लगे। बड़कऊ जब कमरे में वापस आए तो मुंसफ चुपचाप बिस्तर पर आँख बंद कर लेटे थे। बड़कऊ का चेहरा उतरा हुआ था। दोनों बहुएँ बदलते परिवेश को समझ नहीं पा रही थीं। अभी उनको यही समझ में नहीं आ रहा था कि मामा से क्यों बात हो रही है।
बड़कऊ ने धीर-धीरे जो बताया उसका सार यह था कि पड़ाँइन ने मकान कावेरी को बेच दिया और रजिस्ट्री भी करा दिया है। मामा ने कहा कि मैने दीदी को बहुत रोकने की कोशिश की लेकिन दीदी जिद पर अड़ी थी। मामा का यह भी कहना था कि उन्होंने यह भी चेताया कि अपरिचित का कोई भरोसा नहीं होता है तो दीदी ने कहा कि लिखने के अगले दिन अगर कावेरी उन्हें घर से निकाल देगी तब भी वह मकान कावेरी के ही नाम लिखेंगी।
'उनका गला दबाएगी और मकान बेच कर चली जाएगी।' बड़कऊ की पत्नी बोली।
अब तक सबको सब स्पष्ट हो गया था।
मुंसफ उठे और नीचे माँ के पास पहुँचे। पीछे-पीछे और लोग पहुँचे।
पड़ाँइन नीचे के आँगन में मंजरी और वत्सला से खेल रही थी। कावेरी रसोई में इन लोगों के नाश्ते के लिए पूड़ी निकाल रही थी।
मुंसफ कुछ देर खड़े रहे।
उनके पास बहुत सी दलीले थीं, बहुत सारे तर्क थे लेकिन उन्होंने छोटा सवाल किया, 'आपने मकान इस औरत को लिख दिया।'
पड़ाँइन जानती थीं यह सवाल देर सवेर होगा, उन्होंने छोटा जबाव दिया 'हाँ।'
'क्यों।' यह शायद मुंसफ का आखिरी सवाल था।
'मकान मेरा था।'
मुंसफ जानते थे।
कोई कुछ नहीं बोला।
सभी लोग उपर चले गए।
थोड़ी देर बाद मंजरी दौड़ी हुई आई और दादी से बोली 'दादी हम लोग जा रहे हैं।'
पड़ाँइन उठी और झाड़ू लगाने लगी, किसी के जाने के बाद झाड़ू नहीं लगाते। उनके सामने एक बड़ी समस्या यह थी कि इतनी अधिक मात्रा में बासी रिकवच को क्या किया जाएगा?
उपर से सामान रखने-खोलने और बंद करने की आवाजें आ रही थी।
उन्हें लगा कि कहीं कोई हँस रहा है।
सब कहीं शांति थी। उन्हें फिर भी लगा कि कही कोई हँस रहा है - मुखड़े में दो बार हा-हा फिर अंतरे में वही हा-हा अलग ध्वनियों और आवृतियों के बढ़ते और घटते तीव्रता क्रम में।