वर्ग संघर्ष क्यों? / सहजानन्द सरस्वती

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15 अगस्त 1947 को मुल्क को राजनीतिक स्वतंत्रता मिल चुकने और इसीलिए राष्ट्रीयता को आमतौर से अब तक जैसा समझा तथा भारत में उसका प्रयोग किया जाता था उसकी वह आकर्षक शक्ति, जो वर्ग संघर्षों के रोकने का काम करती थी, खत्म हो जाने के कारण अब समय आ गया है कि वर्ग संघर्ष निर्बाध रूप से विकसित किए एवं चलाए जाएँ। जब तक नव प्राप्त आजादी का दायरा इस तरह बढ़ाया नहीं जाय कि उसके भीतर आर्थिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता भी आ जाए और इस तरह वह ऐसी बन जाय कि उसे जन साधारण एवं धानोत्पादक जनता बखूबी महसूस कर सके तब तक किसी भी तरह यह आजादी उनकी नहीं बन सकती और न वास्तविक तथा प्रभावशाली बनाई जाने के लिए उनके दैनिक जीवन में इसका प्रयोग ही हो सकता है। खोखली राजनीतिक स्वतंत्रता न तो किसानों का और न संयुक्त किसान-सभा का ही लक्ष्य है। स्वभावत: ही यह स्वयमेव लक्ष्य बनने लायक किसी भी तरह नहीं है। यह तो एक लक्ष्य का साधन मात्र है और वह लक्ष्य है समाज में मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का निर्मूलन और इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सर्वांगीण विकास एवं पूर्ण उन्नति के सभी साधनों को उसके लिए सुलभ बनाना।

महामना लेनिन के शब्दों में अंधविश्वास एक ऐसा बध्दमूल तथा पुराना रोग है जिसने जन समूह को ग्रस रखा है। यह एक नियम सा है कि जनसाधारण मध्यम वर्गीयों के नेतृत्व एवं संगठन में इसलिए विश्वास करते हैं कि वे मध्यवर्गीय देश के लिए कष्ट सहते हैं। यही कारण है कि इनकी लंबी डींगों तथा नकली आँसुओं, जिन्हें ये यह कह कर बहाते हैं कि उफ, जनता कितनी मुसीबतों एवं विपदाओं में पड़ी कराह रही है, के करते ये जनसाधारण ठगे जाते हैं। ये जन समूह एक क्षण के लिए भी यह सोचने-विचारने तथा विश्लेषण का कष्ट नहीं करते कि आखिर ये नेता किस वर्ग के हैं, उनकी संस्था भी किस श्रेणी की है और उनका मेलजोल किस आर्थिक वर्ग के साथ है; हालाँकि यह ठोस बात है कि हरेक व्यक्ति किसी-न-किसी वर्ग के स्वार्थ का प्रतिनिधित्व करता ही और इसीलिए उसकी रक्षा के लिए संगठन भी बनाता ही है, और कोई भी शख्स न तो तटस्थ रह सकता और न एक से अधिक आर्थिक वर्गों के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व कर सकता है। हकीकत तो यह है ─कितना अनर्थ है ─कि जनता इस विश्लेषण-विवेचन की जरूरत महसूस करती ही नहीं। प्रत्युत अपनी नादानी से उसकी यह धारणा होती है कि ये सभी लोग एवं संगठन ऐसे हो सकते हैं जो न तो उसमें से हैं और न उसके अपने हैं; फिर भी उसका प्रतिनिधित्व एवं उसके स्वार्थों की रक्षा कर सकते हैं! किसानों तथा मजूरों की जो कानूनी लूट अविराम चालू है और फलस्वरूप उन पर जो विपदाएँ आती रहती हैं उनके मूल में यही भयंकर अनर्थकारी नादानी और अंधविश्वास है। उनकी इस बीमारी को हटाना होगा और सिर्फ वर्ग संघर्ष ही इसकी रामबाण दवा है।

इसके सिवाय जिन परिस्थितियों एवं भौतिक दशाओं में वह रहता है उनके चलते और स्वभाव से भी किसान व्यक्तिवादी होता है और सदा डेढ़ चावल की अपनी खिचड़ी ही पकाता रहता है। महाशय बुखारिन के शब्दों में वह एक श्रेणी के रूप में अपने नन्हें से खेत से आगे देख सकता ही नहीं। यदि हम चाहते हैं कि दृढ़ता के साथ आसन जमाए बैठे स्थिर स्वार्थों पर सुसंयोजित तथा सुसंगठित आक्रमण कर के उसे विजयी बनाएँ तो आवश्यक रूप में किसानों की व्यक्तिवादिता और इसे अलग ही रहने की मनोवृत्ति को निर्मूल करना ही होगा। एतदर्थ किसान समुदाय में वर्ग भावना लानी होगी जिसे वर्ग संघर्ष आसानी से पैदा कर देगा।

सरकार के संबंध में साधारण मनुष्यों का खयाल है कि विशुध्द न्याय तथा उचित व्यवहार के लिए बनी यह एक तटस्थ संस्था है। इसीलिए उन्हें यह विश्वास रहता है कि सरकार उनके साथ न्याय करेगी ही। लेकिन सत्य तो इसके विपरीत है। पूँजीवादी अथवा सामंत वादी समाज की सरकार शोषक दल के द्वारा चालाकी से तैयार किया गया ऐसा यंत्र है जो धान पैदा करने वालों को दबाकर सदा मातहती में रखे, जिससे वे उस दल का कुछ बिगाड़ न सके। किसानों एवं जनसाधारण के भीतर सरकार के संबंध में जो यह भ्रांत धारणा है वह उन्हें व्यक्तिवादी तथा अलग ही रहनेवाले बना देती है। इसीलिए जरूरत है कि वर्ग-संघर्ष के द्वारा वह उनके दिमाग से निकाल दी जाए। ये वर्ग संघर्ष सरकार को विवश करते हैं कि उसका बुर्का उतर जाए, वह शोषकों का खुल के पक्ष ले और इस प्रकार अपना श्रेणी समर्थक रूप प्रकट कर के जनता को झलका दे कि उसकी असलियत क्या है।

इसके अलावा ये वर्ग संघर्ष किसानों तथा मिहनतकश जनता को विवश करते हैं कि वह महसूस करे कि उनकी अकर्मण्यता एवं व्यक्तिवादिता में कितने बड़े खतरे हैं। पीड़ित जनता को विभिन्न स्तरों के बीच सहयोग की जो नितांत आवश्यकता है उसे भी ये संघर्ष महसूस करवाते हैं जो बात दूसरी तरह हो नहीं सकती। यही तरीका है जिससे इन पीड़ितों का जबर्दस्त संयुक्त मोर्चा बनाया जा सकता है।