वर्तमान-काल(काव्य) / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
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यह देखकर सन्तोष होता है कि वर्तमान-काल में हिन्दी गद्य ने प्रशंसनीय उन्नति की है। विद्या के उन समस्त विभागों से अब उसका सम्बन्ध हो गया है, जो राष्ट्रीय जीवन को विकास की ओर ले चलते हैं। देश के सार्वजनिक जीवन ने ज्यों-ज्यों उन्नत स्वरूप ग्रहण किया है, त्यों-त्यों हिन्दी गद्य को फलने-फूलने के लिए क्षेत्रा प्राप्त होता गया। सरकार और जनता के पारस्परिक सहयोग ने भी हिन्दी गद्य को सुगठित और पुष्ट होने का अवसर दिया। उत्तरी भारत तथा मधय प्रदेश के विश्वविद्यालयों में देशी भाषा की शिक्षा का प्रबन्धा हो जाने से हिन्दी काव्यों और अन्य ग्र्रन्थों के सुव्यवस्थित पठन-पाठन का श्रीगणेश अभी थोड़े ही दिनों से हुआ है, किन्तु उसने प्रचार-काल में जन्म अथवा पोषण प्राप्त पत्राों और पत्रिकाओं का साहित्यिक पद अधिक उन्नत करके गद्य-लेखन शैली के बहुत शीघ्र सबल और परिपक्व बनाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर ली है। समालोचना की प्राचीन शैली के साथ पाश्चात्य शैली ने कन्धो-से-कन्धा लगाकर हमें साहित्य के सबल और दुर्बल अंगों को परखने की कसौटियाँ बतलाई हैं, वे कसौटियाँ जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती। समालोचना का परिणाम भी देखने में आ रहा है,प्राय: लेखकगण अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में अधिक सावधान हो गये हैं और बहुत परिश्रम तथा छानबीन के साथ ही ग्रन्थप्रणयन में प्रवृत्ता होते हैं। अब हम यह दिखलावेंगे कि इस वर्तमान-काल में हिन्दी भाषा के प्रत्येक विभागों में कितनी उन्नति हुई और उनमें किस प्रकार समयानुकूल परिवर्ध्दन एवं परिवर्तन हो रहा है। सुविधा के लिए प्रत्येक विभागों का वर्णन अलग-अलग किया जावेगा, जिसमें प्रत्येक विषय का स्पष्टतया निरूपण किया जा सके। हिन्दी का कार्य-क्षेत्रा इस समय बहुत विस्तृत है और वह लगभग संपूर्ण भारतवर्ष में प्रसार पा रहा है। इसलिए हिन्दी उन्नायकों, सेवकों और ग्रन्थ-प्रणेताओं की संख्या भी बहुत अधिक है। सबका वर्णन किया जाना एक प्रकार से असम्भव है। इसलिए उल्लेख-योग्य कृतियों की ही चर्चा की जायेगी, और उन्हीं हिन्दी-सेवा-निरत सज्जनों के विषय में कुछ लिखा जायेगा, जिनमें कोई विशेषता है या जिन्होंने उसको उन्नत करने में कोई अंगुलि-निर्देश योग्य कार्य किया है, अथवा जिनके द्वारा हिन्दी भाषा विकास-क्षेत्रा में अग्रसर हुई है। अब तक मैं कुछ अवतरण भी लेखकों अथवा ग्रन्थकारों की रचनाओं का देता आया हूँ, किन्तु इस प्रकरण में ऐसा करना ग्रन्थ के व्यर्थ विस्तार का कारण होगा, क्योंकि इस प्रकार के गण्यमान्य विवुधाों एवं प्रसिध्द पुरुषों की संख्या भी थोड़ी न होगी।
(1) साहित्य-विभाग आजकल हिन्दी साहित्य बहुत उन्नत दशा में है। दिन-दिन उसकी वृध्दि हो रही है। किन्तु यह कहा जा सकता है कि जिसमें सामयिकता अधिक हो और जो देश और जाति के लिए अधिक उपकारक हों, ऐसे ग्रंथ अभी थोड़े ही बने हैं। हाँ,भविष्य अवश्य आशापूर्ण है। विश्वास है कि न्यूनताओं की पूर्ति यथासम्भव शीघ्र होगी और उपादेय ग्रंथों की कमी न रह जायेगी। मैं यहाँ पर प्रस्तुत साहित्यिक ग्रंथों का थोड़े में दिग्दर्शन करूँगा, इसके द्वारा यह अनुमान हो सकेगा कि हिन्दी साहित्य के विकास की प्रगति क्या है। सम्भव है कि किसी उपयोगी ग्रन्थ की चर्चा छूट जाये, किन्तु ऐसा अनभिज्ञता के कारण ही होगा। कुछ सहृदयों का जीवन ही साहित्यिक होता है, वे साहित्य-सेवा करने में ही आनन्दानुभव करते हैं, उनकी प्रकृति के कारण आजकल हिन्दी साहित्य उत्तारोत्तार उत्तामोत्ताम ग्रन्थों से अलंकृत हो रहा है। प्रचारकाल से आज तक उन लोगों ने इस क्षेत्रा में जो कार्य किया है, वह बहुत उत्साहवर्ध्दक और बहुमूल्य है। अब से पचास वर्ष पहले साहित्य के दशांग पर लिखे गये गद्य ग्रन्थों का अभाव था, परन्तु इस समय उसकी बहुत कुछ पूर्ति हो गई है। ऐसे निबन्धा जो आत्मिक प्रेरणा से लिखे जाते हैं और जिनमें भावात्मकता होती है, पहले दुर्लभ थे, किन्तु इन दिनों उनका अभाव नहीं है। कवि और कविता सम्बन्धी आलोचनात्मक निबंधा कुछ दिन पहले खोजने से भी नहीं मिलते थे, परन्तु आज उधार भी दृष्टि है। कुछ ग्रंथ लिखे गये हैं, और कुछ विद्वज्जनों की उधार दृष्टि है। जिन्होंने इस क्षेत्रा में कार्य किया है और जो आज भी स्र्वकत्ताव्य पालन में रत हैं-अब भी मैं उनकी चर्चा करूँगा। जिससे आप वर्तमानकालिक साहित्य भण्डार की वृध्दि के विषय में कुछ अनुमान कर सकें।
पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अनेक साहित्यिक ग्रन्थों की रचना की है। वे जैसे बहुत बड़े लेखक हैं वैसे ही बहुत बड़े समालोचक भी। उन्होंने हिन्दी साहित्य भण्डार को बहुमूल्य ग्रन्थ रत्न दिये हैं और अपनी निर्भीक समालोचना से हिन्दी भाषा को परिष्कृत भी बनाया है। उनके रचे कई सुन्दर ग्रन्थ हैं। जिनमें 'वेकन विचार रत्नावली', 'स्वाधीनता', 'साहित्य-सीकर', 'रसज्ञ-रंजन', 'हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा', कालिदास की निरंकुशता आदि ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
बाबू श्यामसुन्दरदास बी. ए. नागरीप्रचारिणी सभा के जन्मदाताओं में अन्यतम हैं। हिन्दी गद्य के विकास में तथा उसका वर्तमानकालीन उन्नति में भी उनका हाथ है। हिन्दी के जितने ग्रंथ आपने सम्पादन किये और लिखे हैं उनकी बहुत बड़ी संख्या है। साहित्य के अनेक विषयों पर आपने लेखनी चलाई है। आपकी लिखी गद्य-शैली का चमत्कार यह है कि उसमें प्रौढ़ लेखनी की कला दृष्टिगत होती है। हाँ, उसमें मस्तिष्क मिलता है, हृदय नहीं। रुक्षता मिलती है, सरसता नहीं। हाल में आपका 'हिन्दी भाषा और साहित्य' नामक एक अच्छा ग्रन्थ निकला है।
बाबू जगन्नाथप्रसाद 'भानु' एक बहुत बड़े साहित्यसेवी हैं। 'काव्य प्रभाकर' और 'छन्द प्रभाकर' उनके प्रसिध्द ग्रन्थ हैं। आजन्म उन्होंने हिन्दी-देवी की सेवा की और इस वृध्दावस्था में भी उसके चरणों में पुष्पांजलि अर्पण कर रहे हैं।
बाबू कन्हैयालाल पोद्दार की साहित्यिक रचनाएँ प्रशंसनीय हैं। उनका 'काव्य-कल्पद्रुम' एक उल्लेख-योग्य साहित्य-ग्रन्थ है।'हिन्दी-मेघदूत विमर्श भी उनकी साहित्यज्ञता का प्रमाण है। वे भी हिन्दी-सेवा व्रत के व्रती हैं और उसको चुने ग्रन्थ अर्पण करते रहते हैं।'
पंडित रामचन्द्र शुक्ल बड़े गंभीर और मननशील गद्य लेखक हैं। कवीन्द्र रवीन्द्र की रचनाओं से जो गौरव बंग भाषा को प्राप्त है वही प्रतिष्ठा पंडितजी की लेखनी द्वारा हिन्दी भाषा को प्राप्त हुई है। हिन्दी-संसार में आप अद्वितीय समालोचक हैं। आपके गद्य में जो विवेचन गम्भीरता दार्शनिकता और विचार की गहनता मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इनके हाल के निकले हुए'काव्य में रहस्यवाद' और 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' नामक ग्रन्थ इनके पांडित्य के जाज्वल्यमान प्रमाण हैं।
मिश्र बन्धुओं ने हिन्दी-भण्डार को एक ऐसा अमूल्य रत्न प्रदान किया है जिससे उनकी कीर्ति चिरकाल तक हिन्दी संसार में व्याप्त रहेगी। उनका मिश्रबन्धु विनोद नामक ग्रन्थ ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्ण और अद्भुत गवेषणा और परिश्रम का परिणाम है। आजकल हिन्दी साहित्य के इतिहास लगातार लिखे जा रहे हैं। किन्तु इन सब तारकमण्डल को ज्योति प्रदान करने वाला सूर्य उनका ग्रन्थ ही है। मिश्र बन्धुओं ने कुछ इतिहास ग्रंथ भी लिखे हैं। वे भी कम उपयोगी नहीं। पं. रमाशंकर शुक्ल एम. ए. 'रसाल' ने एक वर्ष के भीतर ही दो प्रशंसनीय ग्रन्थ प्रदान किये हैं। एक का नाम है 'अलंकार-पीयूष' और दूसरे का नाम है'हिन्दी-साहित्य का इतिहास।' ये दोनों ग्रन्थ अपने ढंग के अपूर्व हैं। 'अलंकार-पीयूष' में प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों की शास्त्रार्थ परम्परा का सुन्दर विवेचन उन्होंने जिस प्रकार किया है, वह हिन्दी-संसार के लिए एक दुर्लभ वस्तु है। उसमें उनकी प्रतिभा और विचारशैली दोनों का विकास है। उनका हिन्दी-साहित्य का इतिहास भी एक उल्लेखनीय और अभूतपूर्व ग्रन्थ है। पं. रमाकान्त त्रिापाठी एम. ए. का 'हिन्दी-गद्य-मीमांसा' नामक ग्रन्थ भी अपूर्व है। यह पहला ग्रन्थ है जिसमें हिन्दी भाषा पर पाश्चात्य प्रणाली से विवेचन किया गया है। थोड़े समय में इस ग्रन्थ का आदर भी अधिक हुआ है, यह इसकी उपयोगिता और बहुमूल्यता का प्रमाण है। श्रीमान् सूर्यकान्त शास्त्री एम. ए. का हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास भी गहन विवेचना के लिए अपना प्रमाण आप है। पंजाब जैसे सुदूरवर्ती प्रान्त में रहकर भी आपने हिन्दी के विषय में जिस मर्मज्ञता का परिचय दिया है, वह अभिनन्दनीय है। उनका यह ग्रन्थ हिन्दी भण्डार की आदरणीय सम्पत्ति है। बाबू रमाशंकर श्रीवास्तव एम. ए.,एल-एल. बी. का हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास भी उपयोगी ग्रन्थ है और परिश्रम से लिखा गया है। अंग्रेजी स्कूलों में कोर्स में उसका गृहीत हो जाना इसका प्रमाण है। पं. जगन्नाथ मिश्र एम. ए. का 'हिन्दी गद्य-शैली का विकास' नामक ग्रन्थ भी सुन्दर है। लेखक का पहला ग्रन्थ होने पर भी प्रशंसा-योग्य है। 'हिन्दी काव्य में नवरस' नामक एक ग्रन्थ पं. बाबू रामबित्थरियाने और 'नवरस' नामक ग्रन्थ बाबू गुलाबराय एम. ए. ने लिखा है। पहला ग्रन्थ बहुत गवेषणा और विचारशीलता के साथ लिखा गया है। इसलिए वह बहुत उपयोगी बन गया है। दूसरा ग्रन्थ छोटा है परन्तु गुण में बड़ा है। बाबू साहब बड़े चिन्ताशील लेखक हैं, इसलिए उनकी लेखनी से जो निकला है, बहुमूल्य हैं। रायकृष्णदास की 'साधाना' उनकी किसी बड़ी साधाना का फल है। यह ग्रन्थ भावुकता की दृष्टि से आदरणीय है। उन्होंने कुछ कहानियाँ भी लिखी हैं, जो भावमयी और उपयोगिनी हैं। उनसे भी उनकी सहृदयता का परिचय मिलता है।
(2) नाटक
नाटक लिखने में सफलता उन लोगों को आजकल प्राप्त हो रही है जो नाटक कम्पनियों में रहकर कार्य कर रहे हैं। फिर भी हिन्दी साहित्य क्षेत्रा में ऐसे नाटक भी लिखे जा रहे हैं जो साहित्यिक-दृष्टि से अपना विशेष स्थान रखते हैं। ऐसे नाटककारों में अधिक प्रसिध्द बाबू जयशंकर प्रसाद हैं। उनके नाटकों में सुरुचि है, और कवित्व भी। किन्तु उनका गद्य और पद्य दोनों इतना जटिल और दुरूह है कि वे अब तक नाटय मंच पर नहीं आ सके। हाँ, साहित्यिक दृष्टि से उनके नाटक अवश्य उत्ताम हैं। उन्होंने कई नाटकों की रचना की है। उनमें अजातशत्रु, स्कन्दगुप्त और चन्द्रगुप्त उल्लेख-योग्य हैं। पंडित बदरीनाथ भट्ट बी. ए. ने दो-तीन नाटक की रचना की है। वे सब सुन्दर हैं और उनमें ऐसा आकर्षण है कि वे रंगमंच पर खेले भी गये। उपयोगिता की दृष्टि से इनके नाटक प्रशंसनीय हैं। पं. बेचन शर्मा 'उग्र' का 'महात्मा ईसा' नाटक भी अच्छा है। पंडित लक्ष्मीनारायण मिश्र बी. ए. ने दो नाटक लिखे हैं, जो थोड़े दिन हुए प्रकाशित हुए हैं। एक का नाम है 'संन्यासी' और दूसरे का'राक्षस का मंदिर'। दोनों ही सामाजिक नाटक हैं और जिस उद्देश्य से लिखे गये हैं उसकी पूर्ति की ओर लेखक की दृष्टि पाई जाती है। परन्तु मैं इन दोनों नाटकों से अधिक उत्ताम उनके अन्तर्जगत् नामक पद्य-ग्रन्थ को समझता हूँ। बाबू आनन्दी प्रसाद श्रीवास्तव ने 'अछूत' नामक एक नाटक लिखा है। यह नाटक अच्छा है और इसका लेखक इसलिए धान्यवाद का पात्रा है कि उसकी ममता अछूतों के प्रति देखी जाती है। ऐसे उपयोगी अनेक सामाजिक नाटकों की आवश्यकता हिन्दू समाज को है। इसके बाद वे नाटककार आते हैं, जिन्होंने नाटक कम्पनियों के आश्रय में रहकर नाटकों की रचना की है। वे हैं पंडित राधोश्याम, बाबू हरिकृष्ण जौहर और आगा हश्र आदि। इन लोगों ने भी अनेक नाटकों की रचना करके हिन्दी साहित्य की सेवा की है। इनमें से पंडित राधोश्याम और बाबू हरिकृष्ण जौहर के नाटक अधिक प्रसिध्द हैं। इनमें भावुकता भी पाई जाती है और हिन्दू संस्कृति की मर्यादा भी। अन्य नाटकों में रूपान्तर से हिन्दू संस्कृति पर प्रहार किया गया है और स्थान-स्थान पर ऐसे अवांछनीय चरित्रा अंकित किये गये हैं जो प्रशंसनीय नहीं कहे जा सकते। रंगमंच पर कारण-विशेष से वे भले ही सफलता लाभ कर लें, पर उनमें सुरुचि पर छिपी छुरी चलती दृष्टिगत होती है। इस दोष से यदि कोई प्रसिध्द नाटककार मुक्त है तो वे हैं पंडित माधाव शुक्ल। उनको आर्य संस्कृति की ममता है। उनका 'महाभारत' नामक नाटक इसका प्रमाण है। इनके विचार में स्वातंत्रय होने का काण यह है कि वे किसी पारसी नाटक-मण्डली के अधीन नहीं हैं। वे उत्ताम गायक और वाद्यकार ही नहीं हैं, नट कला में भी कुशल हैं और सरस कविता भी करते हैं। दुख है, कि हिन्दी संसार में अब तक बंगाली नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय और गिरीश चन्द्र का समकक्ष कोई उत्पन्न नहीं हुआ। साहित्य के इस अंग की पूर्ति के लिए समय किसी ऐसे नाटककार ही की प्रतीक्षा कर रहा है। बाबू हरिश्चन्द्र के नाटक छोटे ही हों, पर उनमें जो देश-प्रेम, जाति-प्रेम तथा हिन्दू संस्कृति का अनुराग झलकता है,आजकल के नाटकों में वह विशेषता नहीं दृष्टिगत होती। श्री निवासदास के नाटकों में विशेष कर 'रणधीर प्रेम मोहिनी' में जो स्वाभाविक आकर्षण है वैसा आकर्षण आजकल के नाटकों में कहाँ? ये बातेें उन्हीं नाटकों में पैदा हो सकती हैं जो चलती भाषा में लिखे गये हों और जिनके पद्यों में वह शक्ति हो कि उन्हें सुनते ही लोग मंत्रामुग्धा बन जावें। परमात्मा करे ऐसे नाटककार हिन्दी क्षेत्रा में आवें, जिससे देश जाति और समाज का यथोचित हित हो सके।
(3) उपन्यास
इस काल के प्रसिध्द उपन्यास-लेखक पं. किशोरीलाल गोस्वामी और श्रीयुत प्रेमचन्द हैं। पं. किशोरीलाल गोस्वामी ने 60 से अधिक उपन्यास लिखे हैं। इसी सेवा और संस्कृत के विद्वान् तथा कवि-कर्म-निरत होने के कारण हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के बाईसवें अधिवेशन के सभापतित्व पद पर वे आरूढ़ हो चुके हैं। बाबू देवकीनंदन खत्री के बाद यदि किसी ने हिन्दी जनता को अपनी ओर अधिक आकर्षित किया तो वे गोस्वामीजी के उपन्यास ही हैं। इनके बहुत पीछे बाबू धानपतराय बी. ए. (प्रेमचन्द) हिन्दी-क्षेत्रा में आये। परन्तु जो सफलता थोड़े दिनों में उन्होंने प्राप्त की, वह गोस्वामी जी को कभी प्राप्त नहीं हुई। कारण यह है कि प्रेमचंद जी के उपन्यासों में सामयिकता है और रुचिपरिमार्जन भी, गोस्वामी जी के उपन्यासों में यह बात नहीं पाई जाती। इसलिए उनकी उपस्थिति में ही उपन्यास-क्षेत्रा पर प्रेमचन्द जी का अधिकार हो गया। उनकी भाषा भी चलती और फड़कती होती है। उनमें मानसिक भावों का प्रकाशन भी सुन्दरता से होता है। इसलिए आजकल हिन्दी साहित्य-क्षेत्रा में उन्हीं की धाूम है। सुदर्शन जी को छोटी कहानियाँ लिखने में यथेष्ट सफलता मिली है। आपकी भाषा सरस, सरल और मुहावरेदार होती है तथा कहानियों का चरित्रा-चित्राण विशेष उल्लेखनीय। कौशिक जी ने कहानियाँ और उपन्यास दोनों लिखने की ओर परिश्रम किया है। उनका पारिवारिक और सामाजिक भावों का चित्राण हृदय-ग्राही और मनोहर होता है। झाँसी के बाबू वृन्दावनलाल वर्मा बी. ए. ने'गढ़ कुण्डार' नामक सुन्दर उपन्यास लिख कर हिन्दी में वह काम किया है जो सर वाल्टर स्काट ने अंग्रेजी भाषा के लिए कियाहै।
पं. बेचन शर्मा उग्र ने कई उपन्यासों और बहुत-सी कहानियों की रचना की है। भाषा उनकी फड़कती हुई और मजेदार होती है, उसमें जोर भी होता है। यदि उसमें चरित्रा-चित्राण भी सुरुचिपूर्ण होता तो मणिकांचन योग हो जाता। पं. भगवती प्रसाद वाजपेयी, बाबू जगदम्बा प्रसाद वर्मा और बाबू शम्भूदयाल सक्सेना ने 'मीठी चुटकी' नामक एक उपन्यास संयुक्त उद्योग से लिखा है। हिन्दी में यह एक नया ढंग है, जिसे इन सहृदय लेखकों ने चलाया। पंडित भगवती प्रसाद वाजपेयी ने मुसकान, बाबू जगदम्बा प्रसाद वर्मा ने बड़े बाबू तथा बाबू शम्भूदयाल सक्सेना ने 'बहूरानी' नामक उपन्यास लिखा है। ये लोग कहानियाँ भी अच्छी लिखते हैं। पं. प्रफुल्लचन्द्र ओझा ने 'पतझड़', 'जेल की यात्रा', 'तलाक' आदि उपन्यास लिखे हैं, जो अच्छे हैं। श्रीमती तेजरानी दीक्षित प्रथम महिला हैं जो उपन्यास रचना की ओर प्रवृत्ता हुई हैं। आपका 'हृदय का काँटा' नामक उपन्यास हिन्दी-संसार में अच्छी प्रतिष्ठा लाभ कर चुका है। पंडित गिरिजादत्ता शुक्ल बी. ए. 'गिरीश' ने 'प्रेम की पीड़ा', 'पाप की पहेली', 'जगद्गुरु का विचित्रा चरित्रा', 'बाबू साहब', 'बहता पानी', 'चाणक्य', 'सन्देह', आदि उपन्यासों की रचना की है, जिनमें से 'बहता पानी'और 'चाणक्य' अभी अप्रकाशित हैं। बाबू साहब का दूसरा संस्करण हो रहा है। इनके उपन्यासों में चिन्ता-शीलता, भावुकता और सामयिकता पाई जाती है। उपन्यास का प्रधान गुण रोचकता और रुचि-परिमार्जन है पर्याप्त मात्रा में ये बातें इनके उपन्यासों में हैं। भाषा भी इनकी चलती और ऐसी होती है जैसी उपन्यास के लिए होनी चाहिए। कहीं-कहीं उसमें गम्भीरता भी यथेष्ट मिलती है। ये सहृदय कवि भी हैं। इनका 'रसाल बन' नामक पद्य-ग्रन्थ कीर्ति पा चुका है और हाथों-हाथ बिक चुका है। कवि-हृदय होने के कारण इनके उपन्यासों में कवित्व भी देखा जाता है और उसमें सरसता भी यथेष्ट मिलती है। लहरी बुक डिपो बनारस से कुसुम माला नाम से जो उपन्यासों की मालिका निकल रही है, उसमें भी कुछ अच्छे उपन्यास निकले हैं, ये उपन्यास बाबू दुर्गाप्रसाद खत्राी के लिखे हुए हैं। इन उपन्यासों की भाषा बाबू देवकीनन्दन खत्राी की चन्द्रकान्ता की-सी है, जिनमें उर्दू के शब्दों का प्रयोग निस्संकोच भाव से किया जाता है। बाबू ब्रजनन्दनसहाय बी. ए. अच्छे उपन्यास लेखक हैं। इन्होंने कई उपन्यास लिखे हैं। सौन्दर्योपासक इनका सबसे अच्छा उपन्यास है और प्रशंसा भी पा चुका है। मैं समझता हूँ, बिहार प्रान्त में ये पहले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने उपन्यास लिखने में सफलता लाभ की है। बाबू जैनेन्द्र कुमार भी एक अच्छे उपन्यास और कहानी लेखक हैं। इनकी भाषा ओजमयी और सुन्दर होती है, और शब्द-विन्यास प्रशंसनीय। इनकी भाव-चित्राण-क्षमता भी अच्छी है। हिन्दी संसार के ये गण्य लेखकों में हैं। थोडे दिनों से उपन्यास क्षेत्रा में पं. विनोदशंकर व्यास ने भी अपनी सहृदयता का परिचय देना प्रारम्भ किया है। उन्होंने कहानियाँ भी लिखी हैं और कुछ उपन्यास भी। उनमें भावुकता है और सूझ भी। इसलिए उनको उपन्यास लिखने में सफलता मिल रही है और वे अपने को इस कार्य के योग्य सिध्द कर रहे हैं। इनकी भाषा और भावों में एक प्रकार का आकर्षण पाया जाता है। बाबू गोपालराम गहमरी जासूसी उपन्यास लिखने के लिए प्रसिध्द हैं। इन्होंने भी बहुत अधिक उपन्यास लिखे हैं और कीर्ति भी पाई है। जासूसी उपन्यास लिखने में हिन्दी संसार में इनका समकक्ष कोई नहीं पाया जाता। यह इनकी विशेषता है। इनकी भाषा चलती और सर्वसाधारण के समझने के योग्य होती है। इनमें उपज और भावुकता भी है।
मैं समझता हूँ हिन्दी में जितने अधिक उपन्यास आजकल निकल रहे हैं उतने अन्य विषयों के ग्रन्थ नहीं। आजकल उपन्यास का क्षेत्रा बड़ा विस्तृत है और उत्तारोत्तार बढ़ता जाता है। उपन्यासों ने हिन्दू संस्कृति को आजकल उलझनों में फँसा दिया है। आजकल की रुचि भिन्नता अविदित नहीं। कोई हिन्दू संस्कृति का आमूल परिवर्तन चाहता है, कोई उसको बिलकुल धवंस कर देना चाहता है, कोई उसका पृष्ठ पोषक है, कोई विरोधी। किसी के विचार पर पाश्चात्य भावों का रंग गहरा चढ़ा है। कोई भारतीय भावों का भक्त है। किसी के सिर पर जातीय पक्षपात का भूत सवार है और कोई सुधार के उन्माद से उन्मत्ता। निदान इस तरह के भिन्न-भिन्न भाव आज हिन्दू-समाज के क्षेत्रा में कार्य कर रहे हैं। अधिकतर समाचार-पत्रों के लेख और उपन्यास ही अपने-अपने विचार प्रगट करने के प्रधान साधान हैं। इसीलिए उपन्यासों का उत्तारदायितत्व कितना बढ़ गया है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। परन्तु दुख है कि इस उत्तारदायित्व के समझने वाले इने-गिने सज्जन हैं। आजकल अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग वाली कहावत ही चरितार्थ हो रही है। जो लोग शृंगार रस की कुत्सा करते तृप्त नहीं होते, उन्हीं लोगों को उपन्यासों में अश्लीलता का अभिनय करते अल्प संकोच भी नहीं होता। देश-प्रेम का सच्चा राग, जाति-हित की सच्ची प्रतिधवनि, आज भी बहुत थोड़े उपन्यासों में सुन पड़ती है। जिन दुर्बलताओं से हिन्दू समाज जर्जर हो रहा है, जिन कारणों से दिन-दिन उसका अधा:पतन हो रहा है, जो फूट उसको दिन-दिन धवंस कर रही है, जो अवांछनीय जाति-भेद की कट्टरता उसका गला घोंट रही है, जिन अन्धा-विश्वासों के कारण वह रसातल जा रहा है, जो रूढ़ियाँ मुँह फैलाकर उसको निगल रही हैं, क्या सच्चाई के साथ किसी उपन्यास लेखक की उस ओर दृष्टि है? क्या हिन्दुओं की नाड़ी टटोल कर किसी उपन्यासकार ने हिन्दुओं को वह संजीवन-रस पिलाने की चेष्टा की है, जिससे उनके रग-रग में बिजली दौड़ जाय? स्मरण रखना चाहिए कि हिन्दू जातीयता की रक्षा ही भारतीयता की रक्षा है क्योंकि हिन्दुओं में ही ऐसे धार्मिक भाव हैं, जो विजातीयों और अन्य धार्मावलम्बियों से भी आत्मीयता का निर्वाह कर सकते हैं। सारांश यह कि आजकल के अधिकांश उपन्यास मनोवृत्तिा-मूलक हैं। थोड़े ही उपन्यास ऐसे लिखे जाते हैं। जिनमें आत्माभावों को देश जाति अथवा धर्म की बलिदेवी पर उत्सर्ग करने की इच्छा देखी जाती है। इधार यथार्थ रीति से दृष्टि आकर्षित होना ही वांछनीयहै।
(4) जीवन-चरित
जीवन चरित्रा की रचना भी साहित्य का प्रधान अंग है। जीवन-चरित्रा और उपन्यास में बड़ा अंतर होता है। उपन्यास काल्पनिक भी होता है। किन्तु जीवन-चरित किसी महापुरुष की वास्तविक जीवनचर्या के आधार से लिखा जाता है। इसीलिए उसकी उपादेयता अधिक होती है। हिन्दी में जीवन-चरित बहुत थोड़े लिखे गये और जो लिखे गये हैं वे भी कला की दृष्टि से उच्च कोटि के नहीं कहे जा सकते। फिर भी यह स्वीकार करना पडेग़ा कि इस विषय में आरा-निवासी बाबू शिव-नन्दन सहाय ने प्रशंसनीय कार्य किया है। उनका लिखा हुआ गोस्वामी तुलसीदास और बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित बहुत ही सुन्दर और अधिकतर उपयोगी तथा गवेषणापूर्ण है। जीवन-चरित के लिए भाषा को भी ओजस्विनी और मधाुर होना चाहिए। उनकी रचना में यह बात भी पाई जाती है। उन्होंने चैतन्य देव एवं सिक्खों के दस गुरुओं की भी जीवनियाँ लिखी हैं। ये जीवनियाँ भी उत्तामता से लिखी गई हैं। इनमें भी उनकी सार ग्राहिणी प्रतिभा का विकास देखा जाता है। वे कवि भी हैं और सरस हृदय भी। इसलिए उनकी लिखी जीवनियों में उपन्यासों का-सा माधुर्य आ गया है। पंडित माधाव प्रसाद मिश्र की लिखी हुई विशुध्द चरितावली भी आदर्श जीवनी है। पंडितजी की गणना हिन्दी भाषा के प्रौढ़ लेखकों में है। विशुध्द चरितावली की भाषा में वह प्रौढ़ता मौजूद है। उसमें उनकी लेखनी का विलक्षण चमत्कार दृष्टिगत होता है। पंडित रामनारायण मिश्र बी. ए. बनारस नागरी प्रचारिणी सभा के स्थापकों में से अन्यतम हैं। आपका बनाया हुआ 'जस्टिस रानाडे का जीवन चरित' नामक ग्रन्थ भी अच्छा है। उसकी अनेक शिक्षाएँ उपदेशपूर्ण हैं। पंडित जी अच्छे गद्य लेखक हैं, और यथावकाश हिन्दी की सेवा करते रहते हैं। पंडित रामजी लाल शर्मा ने छोटी-बड़ी कई जीवनियाँ लिखी हैं। जिस जीवनी में उन्होंने भगवान रामचन्द्र का चरित्रा अंकित किया है, उसमें उनकी सहृदयता विकसित दृष्टिगत होती है और भी बहुत-सी छोटी-छोटी जीवनियाँ स्व-संस्थापित हिन्दी प्रेस से उन्होंने निकाली हैं, उनमें भी उनकी प्रतिभा की झलक मिलती है। पंडित ओंकारनाथ वाजपेयी ने अपने ओंकार प्रेस से छोटी-छोटी जीवनियाँ निकाली हैं। वे भी सुन्दर और उपयोगिनी हैं। राजस्थान निवासी स्व. मुंशी देवीप्रसाद ने कुछ मुसलमान बादशाहों, मीराबाई और राजा बीरबल की जीवन लिखी है और कुछ स्त्रिायों की भी परन्तु वे प्राचीन ढंग से लिखी गई हैं। फिर भी उनमें रोचकता और सरसता मिलती है और उनके पाठ से आनन्द आता है। पंडित ज्योतिप्रसाद मिश्र निर्मल ने 'स्त्री कवि कौमुदी' नाम से हिन्दी स्त्री कवयित्रिायों की एक जीवनी निकाली है। वह भी अच्छी है। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी ने स्व. कविरत्न पंडित सत्यनाराण की अच्छी जीवनी लिखी है। उसमें उन्होंने जीवन-चरित लिखने की जिस शैली से काम लिया है वह प्रशंसनीय है। उनके सरल और भोले हृदय का विकास इस जीवनी में अच्छा देखा जाता है। वे एक उत्साही पुरुष हैं और उनके उत्साह का ही परिणाम यह जीवनी है, नहीं तो उसका लिखा जाना असम्भवथा।
(5) इतिहास
जीवन चरित और उपन्यास इन दोनों से भी इतिहास का स्थान बहुत ऊँचा है। जीवन-चरित का सम्बन्ध किसी एक महापुरुष अथवा उसके कुटुम्ब के कुछ प्राणियों या उससे सम्बन्ध रखने वाले कुछ विशेष मनुष्यों से होता है। उपन्यास की सीमा भी परिमित है। वह भी कतिपय व्यक्ति विशेषों पर अवलम्बित होता है, चाहे ये काल्पनिक हों अथवा ऐतिहासिक। परन्तु इतिहास का सम्बन्ध एकदेश, एक राज्य, किंबा एक समाज अथवा किसी जाति-विशेष से होता है। उसमें नाना सांसारिक घटनाओं के संघटन और मानव-समाज के पारस्परिक संघर्ष से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के कार्य-कलाप सामने आते हैं, जो मानव-जीवन के अनेक ऐसे आदर्श उपस्थित करते हैं, जिनसे सांसारिकता के विभिन्न प्रत्यक्ष प्रमाण सम्मुख आ जाते हैं। इसलिए उसकी उपादेयता बहुत अधिक बढ़ जाती है और यही कारण है कि इतिहास साहित्य का एक प्रधान अंग है। हिन्दी संसार में इसके आचार्य राय बहादुर पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा हैं। आप ऐसे उच्च कोटि के इतिहास लेखक हैं कि उनको समस्त हिन्दी संसार मुक्त कण्ठ होकर सर्वोत्ताम इतिहासकार मानता है। उन्होंने अपनी गवेषणाओं से बड़े-बड़े ऐतिहासिकों को चकित कर दिया है। शिलालेखों, मुद्राओं एवं अनेक प्राचीन पुस्तकों के आधार से ऐसी-ऐसी ऐतिहासिक बातों को वे प्रकाश में लाये हैं जो बिलकुल अंधाकार में पड़ी थीं, उनको इन कार्यों के लिए बड़े-बड़े पुरस्कार मिले हैं। सरकार ने भी राय बहादुर की उपाधि देकर उनकी प्रतिष्ठा की है। हिन्दी संसार ने भी साहित्य-सम्मेलन के द्वारा उनको 1200 रु. का मंगला प्रसाद पारितोषिक दिया है। इन सब बातों पर दृष्टि रखकर विचार करने से यह ज्ञात हो जाता है कि आपका इतिहासकारों में कितना उच्च स्थान है। आपने जितने ग्रन्थ बनाये हैं वे सब बहुमूल्य हैं और तरह-तरह की गवेषणाओं से पूर्ण हैं। आपके उपरान्त इतिहासकारों में पंडित विश्वेश्वरनाथ रेऊ का स्थान है। आप उनके शिष्य हैं और योग्य शिष्य हैं। आपका भी ऐतिहासिक ज्ञान बहुत बढ़ा हुआ है। श्रीयुत सत्यकेतु विद्यालंकार ने 'मौर्य साम्राज्य का इतिहास' नामक एक अच्छा इतिहास ग्रन्थ लिखा है, उसके लिए (1200रु.) पुरस्कार भी उन्होंने साहित्य सम्मेलन द्वारा पाया है। आपका यह इतिहास गवेषणापूर्ण, प्रशंसनीय और उल्लेख योग्य है। श्रीयुत जयचंद विद्यालंकार ने 'भारतवर्ष का इतिहास' नामक एक बड़ा ग्रंथ लिखा है। यह ग्रन्थ अभी प्रकाशित नहीं हुआ है,किन्तु मैं जानता हूँ कि यह उच्च कोटि का इतिहास है और इसमें ऐसी अनेक बातों पर प्रकाश डाला गया है, जो पाश्चात्य लेखकों की लेखनी द्वारा अन्धाकार में पड़ी थीं। अधयापक रामदेव का लिखा हुआ 'भारत का इतिहास' और गोपाल दामोदर तामसकर रचित 'मराठों का उत्कर्ष' नामक इतिहास भी प्रशंसनीय और उत्ताम हैं। ये दोनों ग्रन्थ परिश्रम से लिखे गये हैं और उनके द्वारा अनेक तथ्यों का उद्धाटन हुआ है। पं. सोमेश्वरदत्ता शुक्ल बी. ए. ने कुछ इतिहास ग्रंथ लिखे हैं और श्रीयुत रघुकुल तिलक एम. ए. ने 'इंग्लैण्ड का इतिहास' बनाया है। इन दोनों ग्रन्थों की भी प्रशंसा है। पंडित मन्नन द्विवेदी गजपुरी का बनाया हुआ मुसलमानी राज्य का 'इतिहास' नामक ग्रन्थ भी सुन्दर है और बड़ी योग्यता से लिखा गया है। भाषा इस ग्रन्थ की उर्दू मिश्रित है, परन्तु उसमें ओज और प्रवाह है लेखक की मनस्विता इस ग्रंथ में स्थल-स्थल पर झलकती दृष्टिगत होती है। आप सुकवि थे, परन्तु जीवन के दिन थोड़े पाये, बहुत जल्द संसार से चल बसे। भाई परमानन्द एम. ए. ने योरप का एक सुन्दर इतिहास लिखा है और प्रसिध्द वीरबन्दे गुरु का एक इतिवृत्ता भी रचा है। आप एक प्रसिध्द विद्वान् हैं और हिन्दू जाति पर उत्सर्गी कृत जीवन हैं। इसलिए आपके ये दोनों ग्रन्थ हिन्दू दृष्टिकोण से ही लिखे गये हैं, जो बड़े उपयोगी हैं।
(6) धर्म-ग्रन्थ
आर्य सभ्यता धर्म पर अवलम्बित है। धर्म ही उसका जीवन है और धर्म ही उसका चरम उद्देश्य। धर्म का अर्थ है धारण करना। जो समाज को, देश को, जाति को उचित रीति से धारण कर सके, उसका नाम धर्म है। व्यक्ति की सत्ताा धर्म पर अवलम्बित है। इसीलिए वैशेषिक दर्शनकार ने धर्म का लक्षण यह बतलाया है-
यतोऽभ्युदयनि:श्रेयस् सिध्दि: स धर्म:
जिससे अभ्युदय अर्थात् बढ़ती और नि:श्रेयस् अर्थात् लोक-परलोक दोनों का कल्याण हो उसी का नाम है धर्म। आर्य जाति और आर्य सभ्यता इसी मन्त्रा का उपासक, प्रचारक एवं प्रतिपालक है। किन्तु दुख है कि आजकल धर्म के नाम पर अनेक अत्याचार किये जा रहे हैं। अतएव कुछ लोग धर्म की जड़ खोदने के लिए भी कटिबध्द हैं। वे अधर्म को धर्म समझ रहे हैं,यह उनकी भ्रान्ति है सामयिक स्वार्थ परायणता, अन्धा-विश्वास और दानवी वृत्तिायों के कारण संसार में जो कुछ Religion और मजहब के नाम पर हो रहा है वह धर्म नहीं है, धार्माभास भी नहीं है। वह मानवीय स्वार्थ परायणता और अहम्मन्यता का एक निन्दनीयतम कार्य है जिस पर धर्म का आवरण चढ़ाया गया है। वैदिक धर्म अथवा आर्य सभ्यता न तो उसका पोषक है और न उसका पक्षपाती। जो कुछ आजकल हो रहा है, वह अज्ञान का अकाण्ड ताण्डव है। उसको कुछ भारतीय धर्मपरायण सज्जनों ने समझा है और वे उसके निराकरण के लिए यत्नवान् हैं। इस दिशा में बहुत बड़ा कार्य कवीन्द्र रवीन्द्र कर रहे हैं, वे संसार भर में भ्रमण कर यह बतला रहे हैं, धर्म क्या है। वे कह रहे हैं कि जब तक आर्य धर्म का अवलम्बन यथा रीति न किया जायगा, उस समय तक न तो संसार में शान्ति होगी और न उसकी दस्यु वृत्तिा का निवारण होगा। दस्युवृत्तिा का अर्थ परस्वापहरण है। भारतवर्ष में भी अनेक विद्वान धर्म रक्षा के लिए यत्नवान् हैं और सत्य का प्रचार कर रहे हैं। प्रचार का एक अंग ग्रंथ-रचना है, जिसका सम्बन्ध साहित्य से है। मेरा विषय यही है, इसलिए मैं यह बतलाऊँगा कि वर्तमानकाल में कितने सदाशय पुरुषों ने इस कार्य को अपने हाथ में लेकर उत्तामतापूर्वक किया है। मैं समझता हूँ, इस दिशा में कार्य करने वालों में भारतधर्म महामण्डल के स्वामी दयानन्द का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। उनका सत्यार्थविवेक नामक ग्रंथ जो कई खंडों में लिखा गया है, वास्तव में आदर्श धर्म ग्रंथ है। आपने और भी धर्म-सम्बन्धी ग्रंथ लिखे हैं और आजतक इस विषय में यत्नवान् हैं। आप जैसे संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् हैं वैसे ही अंग्रेजी के भी। आपके ग्रंथों की विशेषता यह है कि आप तात्तिवक विषय को लेकर उनकी मीमांसा पाश्चात्य प्रणाली और वैदिक सिध्दान्तों के आधार से उपपत्तिापूर्वक करते हैं और फिर बतलाते हैं कि सत्य और धर्म क्या है। आपके ग्रंथ अवलोकनीय हैं और इस योग्य हैं कि उनका यथेष्ट प्रचार हो। स्वर्गीय पं. भीमसेन जी के पुत्र पं. ब्रह्मदेव शर्मा भी इस विषय में बडे उद्योगशील हैं, उनका 'ब्राह्मण सर्वस्व' नामक पत्रा इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य कर रहा है। उन्होंने धर्म सम्बन्धी कई उत्तामोत्ताम ग्रंथ भी निकाले हैं, जो पठनीय और मनन योग्य हैं। वास्तव में आप बड़े बाप के बेटे हैं। प्रसिध्द महोपदेशक कविरत्न पण्डित अखिलानन्द की अविश्राम शील महत्ताामयी लेखनी भी अपने कार्य में रत है, वह भी एक से एक अच्छे धार्मिक ग्रंथ लिखते जा रहे हैं और आज भी धर्म रक्षा के लिए पूर्ववत् बध्द परिकर हैं। आपके जितने ग्रंथ हैं, सब बहुज्ञता और बहुदर्शिता से पूर्ण हैं, उनमें आपके पाण्डित्य का अद्भुत विकास देखा जाता है। लखनऊ के नारायण स्वामी द्वारा महर्षि कल्प स्वामी रामतीर्थ के सद्ग्रंथों का जो पुन: प्रकाशन और प्रचार हो रहा है वह भी महत्तवपूर्ण कार्य है। स्वामी जी के उपदेश और वचन भवभेषज और संसार तापतप्तों के लिए सुधा सरोवर हैं, उनका जितना अधिक प्रचार हो उतना ही अच्छा है। पं. कालूराम शास्त्री का उद्योग भी इस विषय में प्रशंसनीय है। उन्होंने भी धर्म सम्बन्धी कई उत्तामोत्ताम ग्रंथ लिखे हैं। पंडित चन्द्रशेख शास्त्री का प्रयत्न भी उल्लेखनीय है। उन्होंने वाल्मीकि रामायण और महाभारत का सरल और सुन्दर अनुवाद करके उनका प्रचार प्रारम्भ किया है। उनमें धर्म-लिप्सा है, अतएव परमार्थ दृष्टि से उन्होंने अपने ग्रंथों का मूल्य भी कम रखा है। आजकल गोरखपुर के गीता प्रेस से जो धर्म-सम्बन्धी पुस्तकें निकल रही हैं वे भी इस क्षेत्रा में उल्लेख योग्य कार्य कर रही हैं। बाबू हनुमान प्रसाद पोद्दार का उत्साह प्रशंसनीय ही नहीं, प्रशंसनीयतम है। वे स्वयं धार्मिक ग्रंथ लिखते हैं और अन्य योग्य पुरुषों से धार्म्म ग्रंथ लिखाकर उनका प्रचार करने में दत्ता-चित्ता हैं। पंडित लक्ष्मीधार वाजपेयी का अनुराग भी इधार पाया जाता है। उन्होंने 'धर्म-शिक्षा' नामक एक पुस्तक और कुछ नीति-ग्रंथ भी लिखे हैं उनके ग्रंथ अच्छे हैं और सामयिक दृष्टि से उपयोगी हैं। उनका प्रचार भी हो रहा है। आर्य समाज द्वारा भी कतिपय धर्म सम्बन्धी उत्तामोत्ताम ग्रंथ निकले हैं।
(7) विज्ञान
साहित्य का एक विशेष अंग विज्ञान भी है। बाह्य जगत् के तत्तव की अनेक बातों का सम्बन्ध विज्ञान से है। इस विषय के ग्रंथ अंग्रेजी भाषा में उत्ताम मौजूद हैं परन्तु हिन्दी भाषा में अब तक उनकी न्यूनता है। डॉक्टर त्रिालोकीनाथ वर्मा ने विज्ञान पर एक सुन्दर ग्रंथ दो भागों में लिखा है, उसका नाम, 'हमारे शरीर की रचना'। इस ग्रंथ पर उनको साहित्य-सम्मेलन से1200 का पुरस्कार भी मिला है। इससे इस ग्रंथ का महत्तव समझ में आता है। वास्तव में हिन्दी-संसार में विज्ञान का यह पहला ग्रंथ है, जो बड़ी योग्यता से लिखा गया है। प्रयाग में विज्ञान परिषत् नामक एक संस्था है। उसके उद्योग से भी विज्ञान के कुछ ग्रंथ निकले हैं। उस संस्था से 'विज्ञान' नामक एक मासिक पत्रा भी निकलता है। पहले इसका सम्पादन प्रसिध्द विद्वान् बाबू रामदास गौड़ एम.ए. करते थे, अब प्रोफेसर ब्रजराज एम. ए., बाबू सत्यप्रकाश एम‑ एस-सी‑ के सहयोग से कर रहे हैं। पत्रा का सम्पादन पहिले ही से अच्छा होता आया है, यही एक ऐसा पत्रा है, जिसके आधार से हिन्दी-संसार में विज्ञान की चर्चा कुछ हो रही है। डॉक्टर मंगल देव शास्त्री एम. ए. और नलिनी मोहन सान्याल एम. ए. ने भाषा विज्ञान पर जो ग्रंथ लिखे हैं,वे बडे सुन्दर हैं और ज्ञातव्य विषयों से पूर्ण हैं। उनके द्वारा हिन्दी भण्डार गौरवित हुआ है। हाल में एक ग्रंथ बाबू गोरखनाथ एम. ए. ने सौर परिवार नामक लिखा है, यह ग्रंथ बड़ा ही उत्ताम और उपयोगी है, उसको लिखकर ग्रंथकार ने एक बड़ी न्यूनता की पूर्ति की है।
(8) दर्शन
भारत का दर्शन शास्त्रा प्रसिध्द है। वैदिक धर्म के षड्दर्शन को कौन नहीं जानता? उसकी महत्ताा विश्व-विदित है। बौध्द दर्शन भी प्रशंसनीय है। स्वामी शंकराचार्य के दार्शनिक ग्रंथ इतने अपूर्व हैं, कि उन्हें विश्वविभूति कह सकते हैं, संसार में अब तक इतना बड़ा दार्शनिक उत्पन्न नहीं हुआ। श्री हर्ष का 'खंडन खंड खाद्य' भी संस्कृत भाषा का अलौकिक रत्न है। परन्तु हिन्दी भाषा में अब तक कोई ऐसा उत्ताम दर्शन ग्रंथ नहीं लिखा गया जो विशेष प्रशंसा प्राप्त हो। केवल एक ग्रंथ साहित्याचार्य पंडित रामावतार शर्मा ने दर्शन का लिखा है, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस ने छापा है। इस ग्रंथ का नाम 'योरोपीय दर्शन' है। पंडित जी बड़े प्रसिध्द विद्वान् थे। उन्होंने संस्कृत में भी कई महत्तवपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं, परमार्थ दर्शन आदि। जैसे वे संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे वैसा ही उनका अंग्रेजी का ज्ञान भी बड़ा विस्तृत था। वे एम. ए. थे, किन्तु उनकी योग्यता उससे कहीं अधिक थी। इसलिए उनका बनाया हुआ 'योरोपीय दर्शन' नामक ग्रन्थ पांडित्यपूर्ण है। लाला कन्नोमल एम. ए. ने भी 'गीता दर्शन'नाम का एक अच्छा ग्रन्थ लिखा है। यह ग्रन्थ हिन्दी संसार में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। पं. रामगोविन्द त्रिावेदी ने संस्कृत के दर्शनों पर एक अच्छा दर्शन ग्रन्थ लिखा है। यह ग्रन्थ भी सुन्दर और उपयोगी है। हाल में श्रीयुत गंगाप्रसाद उपाधयाय ने एक सुन्दर दर्शन-ग्रन्थ लिखा है। उसका नाम है 'आस्तिकवाद'। ग्रन्थ बड़ी योग्यता से लिखा गया है और उसमें लेखक ने अपने पांडित्य का अच्छा प्रदर्शन किया है। किन्तु उस ग्रन्थ के मीमांसित विषय अत्यन्त वाद-ग्रस्त हैं। इसलिए उसके विषय में अनेक विद्वानों के विचार तर्कपूर्ण हैं। उस ग्रन्थ पर थोड़े दिन हुए कि ग्रन्थकार को हिन्दी साहित्य सम्मेलन से1200 रु. पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है जो ग्रन्थ की महत्ताा को प्रकट करता है। बाबू वासुदेव शरण अग्रवाल एम. ए. दार्शनिक लेखों के लिखने में आजकल प्रसिध्दि प्राप्त कर रहे हैं। उनके लेख होते भी हैं बड़े प्रभावशाली और गम्भीर। वे बड़े चिन्ताशील पुरुष हैं। परन्तु जहाँ तक मैं जानता हूँ उन्होंने अब तक कोई ग्रन्थ नहीं लिखा।
(9) हास्य-रस
हास्यरस साहित्य के लिए ऐसा ही उपयोगी और प्रफुल्लकर है जैसा गगन तल के लिए आलोक माला और धारातल के लिए कुसुमावली। विद्वानों का कथन है कि हास मूर्तिमन्त हृदय-विकास है। वह मनमोहक तो है स्वास्थ्यवर्ध्दक भी है। हृदय के कई विकार हास्यरस से दूर हो जाते हैं, मन का मैल तक उससे धाुल जाता है। जी की कसर की दवा और हृदय को हर लेने की कला हँसी है। यह भी कहा जाता है कि रोग की जड़ खाँसी और झगड़े की जड़ हाँसी और यह भी सुना जाता है कि अनेक सुधारों का आधार परिहास है। किन्तु देखा जाता है कि हास्यरस के लेखक प्रत्येक भाषा के साहित्यों में थोड़े होते हैं। कारण यह है कि हास्यरस पर लेखनी चलाने की योग्यता थोड़े ही लोगों में होती है। हास्य-सम्बन्धी लेख प्राय: अश्लील हो जाते हैं। इसका परिणाम सुफल न होकर कुफल होता है। हास्यरस में तरलता है, गंभीरता नहीं। अतएव गंभीर लेखक उसकी ओर प्रवृत्ता नहीं होते। हँसी के लेखों में प्राय: व्यंग्य से काम लिया जाता है। यह व्यंग्य मर्यादाशीलता का बाधाक है, झगड़े का घर भी। इससे भी लोग उससे बचते हैं। परन्तु जीवन में हास्यरस की भी बड़ी आवश्यकता है। इसलिए उसका त्याग नहीं हो सकता। सभाओं में देखा जाता है कि जिस व्याख्यान दाता में हँसाने की शक्ति नहीं होती वह जनता पर जैसा चाहिए वैसा अधिकार नहीं कर सकता। जो लोग अपने व्याख्यानों में समय-समय पर लोगों को हँसाते रहते हैं, अधिकतर सफलता उन्हीं को मिलती है। हास्यरस के ग्रन्थ आनन्द के साधान होते हैं। इसलिए ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता भी साहित्य के लिए होती है। समाज के कदाचारों और अंधाविश्वासों पर मीठी चुटकी लेने और उन पर व्यंग्यपूर्ण कटाक्ष करने के लिए हास्यरस के ग्रंथ ही विशेष उपयोगी होते हैं यदि अश्लीलता न आने पावे और उनमेंर् ईष्या द्वेष का रंग न हो। पंडित जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी इस कला में कुशल है, हिन्दी संसार उनको हास्यरसावतार कहता है। उनका कोई ग्रन्थ हास्यरस का नहीं हैं-परन्तु जितने लेख उन्होंने लिखे हैं, और जो ग्रंथ बनाये हैं, उन सबों में हास्यरस का पुट मौजूद है। आप सहृदय कवि भी हैं, आपकी कविताओं में भी हास्यरस का रंग रहता है। आप जिस सभा में उपस्थित होते हैं, उसमें ठहाका लगता ही रहता है, बात-बात में हँसाना आपके बाएँ हाथ का खेल है।
हिन्दी संसार में हास्यरस सम्बन्धी रचना करने के लिए जी. पी. श्रीवास्तव अधिक प्रसिध्द हैं। उनके रचित नाटकों में हास्यरस की पर्याप्त मात्रा होती है। बाबू अन्नपूर्णानन्द ने हास्यरस के दो ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें से एक का नाम है 'मगन रहु चोला'। ये दोनों भी हास्यरस के उत्ताम ग्रन्थ हैं। उनके पढ़ने में जी लगता है और उनसे आनन्द भी मिलता है। ग्रन्थ अच्छे ढंग से लिखे गये हैं और उपयोगी हैं। यदि ये ग्रन्थ अधिक संयत होते तो बहुत अच्छे होते। पं. शिवरत्न शुक्ल ने भी'परिहास-प्रमोद' नामक हास्यरस की एक अच्छी पुस्तक लिखी है। उसमें भी हँसी की मात्रा यथेष्ट है। उन्होंने कटाक्ष और व्यंग्य से अधिकतर काम लिया है, जिससे उनको अपने उद्देश्य में अच्छी सफलता मिली है। पण्डित ईश्वरी प्रसाद शर्मा बड़े प्रसिध्द हास्यरस के लेखक थे। उन्होंने इस विषय में कई ग्रन्थों की रचना की है उन्होंने अनेक बँगला और अंग्रेजी के उपन्यासों का अनुवाद किया है और कुछ नीति-ग्रन्थ भी लिखे हैं। वे बहुत अच्छे पत्रा-सम्पादक भी थे। उन्होंने बहुत काल तक स्वयं अपना, 'हिन्दी मनोरंजन' नामक मासिक पत्रा निकाला। वे चिरकाल तक हिन्दू-पंच के भी सम्पादक रहे। उनके समय में यह पत्रा इतना समुन्नत हुआ कि फिर उसको वैसा सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ। वे बहुत अच्छे समालोचक भी थे।
(10) भ्रमण-वृत्ताान्त
'चातुर्य मूलानि भवन्ति प×च' में देशाटन भी है। वास्तव में सांसारिक अनेक अनुभव ऐसे हैं जो बिना देशाटन किये प्राप्त नहीं होते। इसीलिए भ्रमण-वृत्ताान्तों के लिखने की प्रणाली है। अनेक देशों की सैर घर पर बैठे करना भ्रमण-वृत्ताान्तों के आधार से होता है, उनके पढ़ने से भ्रमण-कत्तर्ाा के अनेक अर्जित ज्ञानों का अनुभव भी होता है। इसलिए साहित्य का एक अंग वह भी है। मासिक-पत्राों में प्राय: इस प्रकार के भ्रमण-वृत्ताान्त निकला करते हैं। उनसे कितना मनोरंजन होता है। यह अविदित नहीं। ज्ञानवृध्दि में भी उनसे बहुत कुछ सहायता प्राप्त होती है। हिन्दी में, जहाँ तक मुझको ज्ञात है, इस विषय के दो बड़े ग्रंथ लिखे गये हैं। एक बाबू सत्यनारायण सिंह का लिखा हुआ तीर्थयात्रा नामक ग्रंथ, जो कई खंडों में लिखा गया है। इस ग्रंथ में भारतवर्ष के समस्त तीर्थों का सुन्दर और विशद वर्णन है, यात्रा-सम्बन्धी अनेक बातें भी उसमें अभिज्ञता के लिए लिखी गई हैं। ग्रन्थ की भाषा अच्छी और बोधागम्य है। कहीं-कहीं प्राकृत विषयों का चित्राण भी सुन्दर है। दूसरी पुस्तक बाबू शिवप्रसाद गुप्त की लिखी हुई है। उसका नाम पृथ्वी परिक्रमा है। यह पुस्तक भाषा, भाव और विचार तीनों दृष्टियों से बड़ी उपयोगी है। उसमें योरोप के स्थानों एवं जापान इत्यादिक के कहीं-कहीं बड़े मार्मिक वर्णन हैं, जिनके पढ़ने से देशानुराग हृदय में जाग्रत होता है और जातीयता का महत्तव समझ में आता है। इसमें अनेक स्थानों के बड़े मनोहर चित्रा हैं जो बहुत आकर्षक हैं। ग्रंथ संग्रहणीय और पठनीय है। इसी सिलसिले में मैं पंडित रामनारायण मिश्र बी. ए. रचित कतिपय भूगोल-सम्बन्धी ग्रंथों की चर्चा भी कर देना चाहता हूँ। यद्यपि यह पृथक विषय है, परन्तु भ्रमण का सम्बन्ध भी भूगोल से ही है। इसलिए यहीं उनके पुस्तकों के विषय में कुछ लिखना आवश्यक जान पड़ता है। पंडित जी ने भूगोल-सम्बन्धी दो-तीन पुस्तकें लिखी हैं जो अपनी विषय नवीनता के कारण आदरणीय हैं। उन्होंने इन ग्रन्थों को खोज और परिश्रम से लिखा है। इसलिए वे अवलोकनीय हैं। उनमें मनोरंजन की सामग्री तो है ही, कतिपय देश-सम्बन्धी आनुषंगिक ज्ञान-वर्ध्दन के साधान भी हैं।
(11) अर्थ-शास्त्रा
'अर्थस्य पुरुषो दासो' प्रसिध्द सिध्दान्त वाक्य है। वास्तव में पुरुष अर्थ का दास है। 'सर्वेगुणा: का)नमाश्रयन्ति' और'धानात् धार्म्मम् तत: सुखम्' आदि वाक्य भी अर्थ की महत्ताा प्रकट करते हैं। सांसारिक चार महान् पदार्थों में अर्थ का प्रधान स्थान है। ऐसी अवस्था में यह प्रकट है कि साहित्य में अर्थ-शास्त्रा का महत्तव क्या है। हमारा प्राचीन संस्कृत का कौटिलीय अर्थ-शास्त्रा प्रसिध्द है। अंग्रेजी भाषा में इस विषय के अनेक बड़े सुन्दर ग्रन्थ हैं। हिन्दी भाषा में पूर्ण योग्यता से लिखे गये वैसे सुन्दर ग्रन्थों का अभाव है। फिर भी वर्तमानकाल के कुछ ग्रन्थों की रचना हुई है। सबसे पहले पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अर्थशास्त्रा पर 'सम्पत्तिा-शास्त्रा' नामक एक ग्रन्थ लिखा। इसके बाद श्रीयुत प्राणनाथ विद्यालंकार, पण्डित दयाशंकर दूबे एम. ए. और श्रीयुत् भगवानदास केला ने भी अर्थ-शास्त्रा पर लेखनी चलाई। इनमें सबसे उत्ताम ग्रन्थ प्राणनाथ विद्यालंकार का है। अन्य ग्रन्थ भी उपयोगी हैं और उस न्यूनता कीर् पूत्तिा करते हैं जो चिरकाल से हिन्दी साहित्य में चली आती थी। यहीं पर मुझको पण्डित राधाकृष्ण झा एम. ए. की स्मृति होती है। आप अर्थशास्त्रा के बहुत बड़े विद्वान् थे। दुख है कि अकाल काल-कलवित हुए। हिन्दी संसार को उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। उनके बनाये हुए 'प्राचीन-शासन-पध्दति', 'भारत की साम्पत्तिाक अवस्था' आदि ग्रन्थ अपने विषय के अनूठे ग्रन्थ हैं, वरन हिन्दी भण्डार के रत्न हैं। इनके अतिरिक्त श्रीयुत सुख-संपतिराय भण्डारी का नाम भी उल्लेख-योग्य है। इन्होंने भी अर्थशास्त्रा के कुछ ग्रंथों की रचना की है।
(12) समालोचना सम्बन्धी ग्रंथ
साहित्य के लिए समालोचना की बहुत बड़ी आवश्यकता है। समालोचक योग्य मालाकार समान है, जो वाटिका के कुसुमित पल्लवित पौधाों, लतावेलियों, यहाँ तक कि रविश पर की हरी-भरी घासों को भी काट-छाँटकर ठीक करता रहता है और उनको यथारीति पनपने का अवसर देता है। समालोचक का काम बड़े उत्तारदायित्व का है। उसको सत्यप्रिय होना चाहिए, उसका सिध्दान्त 'शत्राोरपि गुणवाच्या दोषावाच्या गुरोरपि' होता है। प्रतिहिंसा परायण की समालोचना नहीं है। जो समालोचना शुध्द हृदय से साहित्य को निर्दोष रखने और बनाने के लिए की जाती है, वही आदरणीय और साहित्य के लिए उपयोगिनी होती है। समालोचक की तुला ऐसी होनी चाहिए जो ठीक-ठीक तौले। तुला के पलड़े को अपनी इच्छानुसार नीचा ऊँचा न बनावे, यदि वास्तविक समालोचना पूत-सलिला सुरसरी है तो प्रतिहिंसा वृत्तिामयी आलोचना कर्मनाशा। वह यदि सब प्रकार की मलिनताओं को दूर भगाती है तो यह किये हुए कर्म का भी नाश कर देती है। हिन्दी संसार में आजकल समालोचनाओं की धाूम है। परन्तु उक्त कसौटी के अनुसार आलोचना का कार्य करने वाले दो-चार सज्जन ही हैं। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि जितनी समालोचनाएँ की जाती हैं वे पक्षपातपूर्ण होती हैं या उनमेंर् ईष्या-द्वेषमय उद्गार ही होता है। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचनाओं की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। उनसे जो लाभ हिन्दी संसार के गद्य-पद्य साहित्य को प्राप्त हुआ, उसकी चर्चा भी हो चुकी है। बाबू बालमुकुंद गुप्त भी एक अच्छे समालोचक थे। वर्तमान लोगों में पण्डित पिर्ंसिंह शर्मा अच्छे समालोचक माने जाते हैं। उनकी समालोचनाएँ खरी होती हैं, इसलिए सर्वप्रिय नहीं बनतीं। कुछ लोग नाक-भौं चढ़ाते ही रहते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उनकी समालोचना अधिकतर उचित और वास्तवतामूलक होती है। पं. कृष्ण बिहारी मिश्र बी. ए., एल-एल. बी.,पं. अवधा उपाधयाय, डॉक्टर हेमचन्द्र जोशी, बाबू पदुम लाल बख्शी बी. ए. तथा पं. रामकृष्ण शुक्ल एम. ए. गम्भीर समालोचक हैं और समालोचना का जो उद्देश्य है उस पर दृष्टि रखकर अपनी लेखनी का संचालन करते हैं। मैं यह जानता हूँ कि इनका विरोधा करने वाले लोग भी हैं, क्योंकि समालोचना कर्म ऐसा है कि वह किसी को निष्कलंक नहीं रखता। फिर भी इस कथन में वास्तवता है कि इन लोगों की समालोचनाएँ अधिकतर संयत और तुली हुई होती हैं। ये लोग भी मनुष्य हैं, हृदय इन लोगों के पास भी हैं, भावों का आघात-प्रतिघात इन लोगों के अन्त:करण में भी होता है। इसलिए सम्भव है कि उनके उद्गार कभी कुछ कटु हो जावें। परन्तु मेरा विचार यह है कि ये लोग सचेष्ट होकर ऐसा करने की प्रवृत्तिा नहीं रखते। साहित्याचार्य पं. शालग्राम शास्त्री भी अच्छे समालोचक हैं। उनकी समालोचना पांडित्यपूर्ण होती है। परन्तु उनकी दृष्टि व्यापक है। वे संस्कृत के विद्वान् हैं और उनकी कसौटी संस्कृत की प्रणाली का रूपान्तर है। इसलिए उनका कसना भी साधारण नहीं, और उनकी तुला पर तुल कर ठीक उतर जाना भी सुगम नहीं। परन्तु वे आलोचना करते हैं बड़ी योग्यता से। पंडित किशोरीदास वाजपेयी,पं. बनारसीदास चतुर्वेदी, और बाबू कृष्णानंद गुप्त भी कभी-कभी आलोचना क्षेत्रा में आते हैं और अपनी सम्मति निर्भीकता से प्रकट करते हैं। यह भी समालोचना का एक गुण है, चाहे वह कुछ लोगों को अप्रिय भले ही हो। समालोचना-ग्रंथों में पं. पिर्ंसिंह शर्मा का बनाया (सतसई समालोचना) अधिक प्रसिध्द है, इस ग्रंथ के लिए उनको साहित्य सम्मेलन द्वारा 1200 रुपये का पुरस्कार भी मिला था। पं. कृष्ण बिहारी मिश्र का बनाया देव और बिहारी, नामक ग्रंथ भी उल्लेखनीय है। पं. रामकृष्ण शुक्ल और बाबू कृष्णानन्द गुप्त के समालोचना ग्रन्थ भी अच्छे और उपयोगी हैं। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के (कालिदास की निरंकुशता) आदि ग्रंथ भी अवलोकनीय हैं।
(13) उन्नति सम्बन्धी उद्योग
हिन्दी भाषा विकसित होकर वर्तमान काल में जितना अग्रसर हुई है। यह हिन्दी संसार के लिए गर्व की वस्तु है। परन्तु साहित्य के अनेक विभाग ऐसे हैं, जिनमें अब तक एक ग्रंथ भी हिन्दी में नहीं लिखा गया। विद्या-सम्बन्धी अनेक क्षेत्रा ऐसे हैं, जिनकी ओर हिन्दी साहित्य-सेवियों की दृष्टि अभी तक नहीं गयी। उर्दू भाषा की न्यूनताओं की पूर्ति के लिए भारतीय मुस्लिम सम्प्रदाय बहुत बड़ा उद्योग कर रहा है। जब से हैदराबाद में उर्दू यूनिवर्सिटी स्थापित हुई है, उस समय से निजाम सरकार ने उसको अधिकतर समुन्नत बनाया है। उन्होंने विद्या-सम्बन्धी समस्त विभागों पर दृष्टि रखकर उर्दू भाषा में उनसे सम्बन्ध रखने वाले ग्रंथों की पर्याप्त रचना कराई है। परन्तु ऐसा सुयोग अब तक हिन्दी भाषा को नहीं प्राप्त हुआ, इसलिए उसकी न्यूनताओं की पूर्ति भी यथार्थ रीति से नहीं हो रही है। उसको राष्ट्रीयता का पद प्राप्त हो गया है। इसलिए आशा है,उसकी न्यूनता की पूर्ति के लिए हिन्दी संसार कटिबध्द होगा और वह उन्नति करने में किसी भाषा से पीछे न रहेगी। मैं कुछ उन उद्योगों की चर्चा भी इस स्थान पर कर देना चाहता हूँ जो उसकी समुन्नति के लिए आजकल भारतवर्ष में हो रहे हैं।
(14) अनुवादित प्रकरण
अनुवाद भी साहित्य का विशेष अंग है। आजकल यह कार्य भी हिन्दी संसार में बड़ी तत्परता से हो रहा है। प्रत्येक भाषा के उत्तामोत्ताम ग्रंथों का अनुवाद हिन्दी में प्रस्तुत कर देने के लिए, अनेक कृतविद्यों की दृष्टि आकर्षित है। इस विषय में उल्लेख योग्य कार्य पं. रूपनारायण पाण्डेय और बाबू रामचन्द्र वर्मा का है। इन दोनों हिन्दी प्रेमियों का विशिष्ट कार्य है, उन लोगों ने अनेक ग्रंथ रत्नों का अनुवाद हिन्दी भाषा भण्डार को अर्पण किया है। आज तक इन सज्जनों का उद्योग शिथिल नहीं है। वे पूर्ण उत्साह के साथ अब भी अपनेर् कत्ताव्य पालन में रत हैं। पण्डित रूप नारायण ने अधिकतर अनुवाद उपन्यासों ही का किया है। परन्तु वर्मा जी का अनुवाद सब प्रकार की पुस्तकों का है, उन्होंने इस विषय में विशेष ख्याति प्राप्त की है। पंडित जी की अन्य विशेषताओं का उल्लेख मैं पहले कर चुका हूँ।
बाल-साहित्य
बाल-साहित्य भी साहित्य का प्रधान अंग है। हर्ष है कि इधार भी कुछ सहृदयों की दृष्टि गयी है। 'बाल सखा', 'बानर', 'बालक', 'खिलौना' आदि मासिक पत्रा इसके प्रमाण हैं। बाल-साहित्य सम्बन्धी रचनाएँ भी अब अधिक होने लगी हैं। कुछ पुस्तकें भी निकली हैं। पं. सुदर्शनाचार्य बी. ए., बाबू श्रीनाथ सिंह, बाबू रामलोचन शरण, श्री रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी आदि ने बाल-साहित्य पर सुन्दर रचनाएँ की हैं जो इस योग्य हैं कि आदर की दृष्टि से देखी जाएँ। इन लोगों की कुछ रचनाएँ पुस्तकाकार भी मुद्रित हुई हैं। पं. रामलोचन झा एम. ए. की रचनाएँ भी इस विषय में प्रशंसनीय हैं। इन्होंने पाँच किताबें लिखी हैं जो बिहार प्रान्त में आदर के साथ गृहीत हुई हैं।
(1) संघटित संस्थाएँ
यों तो पंजाब, युक्त प्रान्त, बिहार एवं मधय प्रदेश में हिन्दी की समुन्नति के लिए बहुत-सी संस्थाएँ काम कर रही हैं,परन्तु विशेष उल्लेखयोग्य तीन संस्थाएँ ही हैं-(1) नागरी-प्रचारिणी सभा, बनारस, (2) हिन्दी साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग, (3)हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहाबाद।
1. नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी भाषा की समुन्नति के लिए अपने जीवन काल में बहुत बड़ा उद्योग किया, अपने उद्योग में उसको अच्छी सफलता भी मिलती आयी है। विशाल हिन्दी कोश का प्रस्तुत करना, हिन्दी के प्राचीन अनेक गंथों की खोज कराना, मनोरंजन ग्रंथ माला की पुस्तकें निकालना, हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए बड़े प्रयत्न करना, राजभवन-सा प्रकाण्ड नागरी-प्रचारिणी सभा-भवन बनाना, सर्व्वांग पूर्ण हिन्दी व्याकरण की रचना कराना और एक अच्छा वैज्ञानिक कोश तैयार करा लेना उसके उल्लेखनीय कार्य हैं। आज भी वह शिथिल प्रयत्न नहीं है और हिन्दी भाषा के उत्कर्ष साधान में पूर्ववत् दत्ताचित्ता है। भारतवर्ष के और हिन्दी-भाषा-भाषी प्रान्तों के अनेक विद्वान् और प्रभावशाली पुरुष आज भी उसके सहायक और संरक्षक हैं। युक्त प्रान्त की गवर्नमेण्ट की भी उस पर सुदृष्टि है। पाश्चात्य अनेक विद्वान् उसके हितैषी हैं। ये बातें उसके महत्तव की सूचक हैं। उसके संचालकगण यदि इसी प्रकार बध्द-परिकर रहे तो आशा है उसका भविष्य और अधिक उज्ज्वल होगा और वह हिन्दी देवी की समुन्नति के और भी बड़े-बड़े कार्य कर सकेगी।
2. दूसरी प्रसिध्द संस्था हिन्दी साहित्य सम्मेलन है, जिसका केन्द्र स्थान प्रयाग है। इसने भी हिन्दी भाषा के उन्नयन के बहुत बड़े-बड़े कार्य किये हैं। इसके द्वारा मद्रास प्रान्त और आसाम जैसे सुदूरवर्ती प्रदेशों में हिन्दी-प्रचार का पूर्ण उद्योग हो रहा है। उसने प्रथमा, मधयमा और उत्तामा परीक्षाओं का आविर्भाव करके लगभग भारत के सभी प्रान्तों में हिन्दी के प्रेमी और विद्वान् उत्पन्न कर दिये हैं, जिनकी संख्या सहòों से अधिक है। उसने विदुषी स्त्रिायाँ भी उत्पन्न की हैं, जो अंगुलि निर्देश-योग्य कार्य हैं। अनेक हिन्दू राज्यों में हिन्दी भाषा को राज्य-कार्य की भाषा बनाना और अनेक राजाओं और महाराजाओं को हिन्दी भाषा के प्रति उनकेर् कत्ताव्य का धयान दिलाना भी उसका बहुत बड़ा कार्य है। उसका पुस्तक प्रकाशन विभाग भी चल निकला है। वर्ष के भीतर निकले हिन्दी के सर्वोत्ताम ग्रंथ के लेखक को मंगला प्रसाद पारितोषिक देकर एक प्रभावशाली आदर्श उपस्थित करना उसका उत्साहवर्ध्दक कार्य है। उसने एक विद्यापीठ की स्थापना भी की है। आशा है, उसका भविष्य भी उज्ज्वल होगा। इधार उसमें कुछ शिथिलता आ गयी है किन्तु विश्वास है कि श्रीयुत पं. रमाकान्त मालवीय बी. ए., एल-एल. बी. के प्रधान मंत्रिात्व में और श्रीयुत बाबू पुरुषोत्ताम दास टंडन एम. ए., एल-एल. बी. के अधिक सतर्क और सावधान हो जाने से यह शिथिलता दूर होगी और फिर पूर्ववत् वह अपने कार्यों में तत्पर हो जावेगा।
3. तीसरी संस्था हिन्दुस्तानी एकेडेमी है। इसकी स्थापना युक्त प्रान्त की सरकार ने की है। इसमें युक्त प्रान्त के हिन्दी भाषा और उर्दू के अधिकांश विद्वान् सम्मिलित है। सर तेजबहादुर सप्रू और सर मुहम्मद सुलेमान साहब जैसे गौरवशाली पुरुष इसके सभापति और प्रधान पदाधिकारी है। इसका कार्य-संचालन भी अब तक संतोषजनक रीति से हो रहा है। इस संस्था से थोड़े दिनों में जैसे उत्तामोत्तान ग्रंथ प्रत्येक विषयों के निकले हैं, उनसे उसकी महत्ताा और कार्यकारिणी शक्ति को बहुत बड़ा श्रेय मिलता है। उसने हिन्दी और उर्दू की जो त्रौमासिक पत्रिाकाएँ निकाली हैं, वे भी उसको गौरवित बनाती हैं, और यह विश्वास दिलाती हैं कि इसके द्वारा हिन्दी और उर्दू का भविष्य आशामय होगा और सम्मिलित रूप से उनकी यथेष्ट समुन्नति होगी। इसी स्थान पर मैं एक बहुत ही उपयोगिनी संस्था की चर्चा भी करना चाहता हूँ। वह है कलकत्तो की एक लिपि-विस्तार परिषद। दुख है कि यह संस्था अब जीवित नहीं है। परन्तु अपने उदय-काल में इसने हिन्दी के भाग्योदय की पूर्व सूचना दी थी। हिन्दी-संसार को इसने ही पहले-पहल यह बतलाया कि यदि कोई लिपि भारतव्यापिनी हो सकती है तो वह नागरी लिपि है। इस परिषद के संस्थापक जस्टिस शारदाचरण मित्र थे, जो अपने समय के बड़े प्रसिध्द पुरुष थे। इनके सहकारी थे पंडित उमापतिदत्ता शर्मा और बाबू यशोदा नन्दन अखौरी। इस परिषद से 'देवनागर' नामक एक बहु-भाषी पत्रा निकलता था जो नागरी लिपि में मुद्रित होता था। यह बड़ा ही प्रभावशाली और सुन्दर पत्रा था। इसका सम्पादन उक्त बाबू यशोदानंदन अखौरी करते थे। जब तक यह पत्रा चला, इसने हिन्दी की बड़ी सेवा की।
आरा नागरी प्रचारिणी सभा जैसी छोटी-मोटी और अनेक संस्थाएँ हिन्दी भाषा की उन्नति के लिए उद्योग कर रही हैं और उसका प्रचार दिन-दिन बढ़ा रही हैं, जिसके लिए वे अभिनन्दनीय और धान्यवाद योग्य हैं। उन सबका वर्णन करने के लिए यहाँ स्थान नहीं है अतएव मैं उन सबका उल्लेख न कर सका, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है, कि मैं उन्हें उपयोगी नहीं समझता अथवा उपेक्षा की दृष्टि से देखताहूँ।
(2) कतिपय प्रसिध्द प्रेस
संस्थाओं के अतिरिक्त कुछ प्रसिध्द प्रेस अथवा मुद्रण यन्त्राायल ऐसे हैं जिनसे हिन्दी भाषा की समुन्नति और विस्तार में बहुत बड़ी सहायता मिली है। मैं उनकी चर्चा भी कर देना यहाँ आवश्यक समझता हूँ। युक्त प्रान्त में दो बहुत बड़े प्रेस ऐसे हैं,जिन्होंने हिन्दी पुस्तकों का प्रकाशन प्रकाण्ड रूप में करके अच्छी कीर्ति अर्जन की है और स्वयं लाभवान होकर उसे भी विशेष लाभ पहुँचाया है। पहला है लखनऊ का नवल किशोर प्रेस। इसने प्राचीन-नवीन अनेक हिन्दी ग्रन्थों को प्रकाशित और प्रचारित कर उसको विशेष ख्याति प्रदान की है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उसका मुद्रण-कार्य अधिक संतोषजनक नहीं है, फिर भी यह कहने के लिए बाधय हूँ कि उसने सब प्रकार के ग्रन्थों के प्रकाशन में अच्छी सफलता लाभ की है। अब उसकी दृष्टि मुद्रण की ओर भी गयी है। आशा है, उसका मुद्रण-कार्य भी भविष्य में यथेष्ट उन्नति लाभ करेगा। इस प्रेस से आज कल 'माधाुरी'नामक एक सुंदर मासिक पत्रिाका निकल रही है। पहले इसका सम्पादन पं. कृष्णबिहारी मिश्र बी. ए., एल-एल. बी. और मुंशी धानपति राय बी. ए. करते थे। इस कार्य को इस समय सफलतापूर्वक पं. राम सेवक त्रिापाठी कर रहे हैं। वास्तव बात यह है कि इस पत्रिाका से इस प्रेस का गौरव है।
दूसरा सुप्रसिध्द प्रेस प्रयाग का इण्डियन प्रेस है। हिन्दी भाषा के मुद्रण कार्य में इसने युगान्तर उपस्थित कर दिया है। इस प्रेस से अनेक बहुमूल्य हिन्दी पुस्तकें निकलीं और इस समय भी निकल रही हैं। स्वर्गीय बाबू चिन्तामण्0श्निा घोष ने बंगाली होकर भी हिन्दी भाषा की जो सेवा की है वह प्रशंसनीय और अभिनन्दनीय है। इस प्रेस से 'सरस्वती' नामक मासिक पत्रिाका अब तक निकल रही है, जिसका सम्पादन पहले पं महावीर प्रसाद द्विवेदी करते थे और अब पं. देवी दत्ता शुक्ल सफलता के साथ कर रहे हैं। इस प्रेस का कार्य इस समय यद्यपि पहले का-सा नहीं है, परन्तु विश्वास है कि वह सावधान होकर फिर पूर्ववत् हिन्दी के समुन्नति-कार्य में संलग्न होगा।
तीसरा हिन्दी-उन्नायक बिहार का खड्ग विलास प्रेस है। इस प्रेस की स्थापना स्वर्गीय बाबू रामदीन सिंह ने की थी। उन्हीं के समय में इस प्रेस को यथेष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी थी और वह अब तक उनके सुयोग्य पुत्रों राय बहादुर राम, रण विजय सिंह, बाबू सारंगधार सिंह बी. ए. और बाबू रामजी सिंह के सम्मिलित उद्योग से सुरक्षित हैं। इस प्रेस ने बिहार प्रान्त में हिन्दी भाषा की समुन्नति के लिए जो किया, उसकी बहुत प्रशंसा की जा सकती है। इसने बहुत-सी हिन्दी की उपयोगी पुस्तकें अपने प्रेस से निकालीं और उनके द्वारा बिहार प्रान्त की जनता को बहुत अधिक लाभ पहुँचाया। अन्य प्रान्तों में भी उनकी पुस्तकों का आदर हुआ है और यह उन लोगों के सफल उद्योग का परिणाम है। बाबू हरिश्चन्द्र और पं. प्रताप नारायण मिश्र जैसे प्रसिध्द और उद्भट हिन्दी साहित्य सेवियों की कुल पुस्तकों का स्वत्व इस प्रेस ही को प्राप्त है और इसने इनके प्रचार का भी उद्योग किया है। बाबू रामदीन सिंह जी के जीवन में जिस प्रकार हिन्दी साहित्य के धाुरन्धार विद्वान् इस प्रेस की ओर आकर्षित थे,उसी प्रकार अब भी वर्तमान काल के अनेक विद्वानों की सुदृष्टि इस पर है, जिससे यह पूर्ववत् उन्नत दशा में रहकर अपने व्रतपालन में संलग्न है। हिन्दी और हिन्दू जाति के सच्चे उपासक कतिपय सुंदर हिन्दी ग्रंथों के लेखक और प्रचारक बाबू रामदीन सिंह का यह कीर्ति-स्तम्भ है। इसको अपने इन महत्तव का धयान है और इसलिए यह अपनेर् कत्ताव्य-पालन में आज भी पूर्णरूप से दत्ताचित्ता है।
चौथा बम्बई का श्री वेंकटेश्वर प्रेस है। बहुत दूरवर्ती होने पर भी इस प्रेस ने भी हिन्दी भाषा की बहुत बड़ी सेवा की है। धर्म सम्बन्धी हिन्दी ग्रन्थों के प्रकाशन में इसने जो अनुराग दिखलाया वह अत्यन्त प्रशंसनीय है। विद्यावारिधि पंडित ज्वालाप्रसाद और उनके लघुभ्राता पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र के समस्त बहुमूल्य ग्रन्थों के प्रकाशन का श्रेय इसी को प्राप्त है। इन विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा के और संस्कृत के अनेक विद्वानों के बहुत से ग्रंथों का प्रकाशन, इसने किया है, और आज भी इस कार्य में पूर्ववत् दत्ताचित्ता है। इसके ग्रन्थों का आदर बम्बई प्रान्त में तो हुआ ही और प्रान्तों में भी अधिकता से हुआ, जिससे हिन्दी भाषा के विस्तार, प्रचार, उन्नति में बहुत बड़ी सहायता प्राप्त हुई है, इस प्रेस से 'वेंकटेश्वर समाचार' नामक चिरकाल से एक हिन्दी साप्ताहिक समाचार-पत्रा निकलता है, जिसको धर्म-क्षेत्रा में आज भी बहुत गौरव प्राप्त है।
इन प्रेसों के अतिरिक्त बंगवासी प्रेस, स्वर्गीय पंडित रामजीलाल शर्मा द्वारा स्थापित हिन्दी प्रेस, महर्षि-कल्प पंडित मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित अभ्युदय प्रेस, कानपुर का प्रताप प्रेस, लखनऊ का गंगा फाइन आर्ट प्रेस, वणिक् प्रेस,वर्म्मन प्रेस, गीता प्रेस और काशी का ज्ञानमण्डल एवं लहरियासराय (दरभंगा) के विद्यापति आदि प्रेस भी उल्लेखनीय हैं, जिनसे आज भी हिन्दी भाषा की बहुत कुछ सेवा हो रही है। लहरियासराय का विद्यापति प्रेस इस समय अधिक समुन्नत है, और यह बाबू रामलोचनशरण उसके अभिभावक के प्रशंसनीय उद्योग और शील सौजन्य का परिणाम है।
(3) पत्र और पत्रिकाएँ
किसी भाषा की उन्नति के लिए पत्रा-पत्रिाकाएँ अधिकतर उपयोगी हैं। आजकल हिन्दी-संसार में जितनी पत्रा-पत्रिाकाएँ विभिन्न प्रान्तों से निकल रही हैं वे ही इस बात के प्रमाण हैं कि हिन्दी भाषा इस समय कितनी समुन्नत, बहुव्याप्त और वृध्दि-प्राप्त है। आजकल हिन्दी भाषा में सात-दैनिक पत्रा निकल रहे हैं, इनमें से तीन कलकत्तो से, दो युक्तप्रान्त से, एक पंजाब से और एक मधयप्रदेश से निकलता है। कलकत्तो के पत्रों में 'भारत-मित्र' सबसे पुराना दैनिक है। इसका संपादन योग्य हाथों से होता आया है। किन्तु इस समय यह उन्नत दशा में नहीं है। श्रीयुत पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी द्वारा सम्पादित'स्वतंत्रा' और बाबू मूलचन्द अग्रवाल बी. ए. सम्पादित 'विश्वमित्र' यथेष्ट समुन्नत हैं। वे अपनेर् कत्ताव्य का पालन कर रहे हैं और अधिक संख्या में उनका प्रचार भी है। युक्त-प्रान्त का पंडित बाबूराव विष्णु पराड़कर सम्पादित 'आज' और पंडित रमाशंकर अवस्थी का 'वर्तमान' भी अच्छे दैनिक हैं, और समयानुकूल हिन्दी भाषा और देश की सेवा करने में प्रसिध्द हैं। पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र बी. ए. सम्पादित जबलपुर का 'लोकमत' अच्छा दैनिक है। लाहौर का 'मिलाप', भी एक प्रकार से उत्ताम है। इन दोनों दैनिकों की यह विशेषता है कि ये ऐसे स्थान से निकल रहे हैं जो हिन्दी भाषा के लिए अब तक उर्बर नहीं सिध्द हुए। फिर भी वे अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखकर चल रहे हैं, यह हिन्दी भाषा के लिए हृदयों में आशा का संचार करने वाली बात है। काशी का द्विदैनिक पत्रा पंडित जानकीशरण त्रिापाठी सम्पादित 'सूर्य' भी इस योग्य है कि उसका स्मरण किया जावे वह शान्त भाव से अपने पथ पर अग्रसर हो रहा है और धीर भाव से धर्म और देश दोनों की सेवा कर रहा है। लीडर प्रेस का'भारत' भी हिन्दी संसार का एक अर्ध्द साप्ताहिक पत्र है। अब यह समुन्नत होकर दैनिक हो गया है, और बड़ी योग्यता से निकल रहा है। उसका सम्पादन पंडित नंददुलारे वाजपेयी एम. ए. करते थे। ये प्रतिभावान् और चिन्तनशील लेखक हैं। इन्होंने थोडे दिनों से पत्रा-सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया है, फिर भी यह कार्य से सफलता के साथ कर रहे हैं। परंतु अब उसका सम्पादन दूसरों के हाथ में है! साप्ताहिक पत्राों में विशेष प्रसिध्द 'अभ्युदय', 'प्रताप', 'बंगवासी', 'तरुण', 'राजस्थान', 'देश', 'आर्यमित्र', 'सैनिक', 'कर्मवीर' आदि हैं। इन सबका सम्पादन भी योग्यता से हो रहा है और ये सब सामयिक विचारों के प्रचार और हिन्दी भाषा के विस्तार में विशेष उद्योगवान् हैं। काशी से हाल में 'जागरण' नाम का एक पाक्षिक पत्रा बाबू शिवपूजन सहाय के सम्पादकत्व में निकला है। बाबू शिवपूजन सहाय अनुभवी और सम्पादन कार्य में पटु हैं। इन्होंने दो-तीन सुंदर उपन्यास भी लिखे हैं जो भाषा और भाव दोनों की दृष्टि से उत्ताम हैं। आशा है, कि उनके हाथ से सम्पादित होकर 'जागरण'हिन्दी संसार में यथेष्ट प्रतिपत्तिा लाभ करेगा। मासिक पत्राों की संख्या बड़ी है। उनमें से प्रसिध्दि-प्राप्त 'सरस्वती', 'माधाुरी', 'सुधा', 'विशाल भारत', 'वीणा', 'चाँद', 'कल्याण', 'हंस', 'विज्ञान' आदि हैं जिनका सम्पादन योग्यतापूर्वक होता है। ये हिन्दी संसार में प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी देखे जाते हैं। इनमें सुन्दर से सुन्दर लेख पढ़ने के लिए मिलते हैं और उनमें ऐसी सरस कविताएँ भी प्रकाशित होती हैं, जिनमें कवि कर्म पाया जाता है। जैसी मासिक पत्रिाकाओं के प्रकाशित होने से साहित्य वास्तव में साहित्यिकता प्राप्त करता है, ये पत्रिाकाएँ वैसी ही हैं। इनके अतिरिक्त स्त्रिायों के लिए 'आर्य महिला', 'सहेली', 'त्रिावेणी' नाम की पत्रिाकाएँ और बच्चों के लिए 'बालसखा', 'खिलौना', 'बानर' और 'बालक' नामक पत्र भी सुन्दरता से निकल रहे हैं एवं आदृत भी हैं। हाल में 'प्रेमा' नामक एक अच्छी पत्रिाका भी निकली है। त्रमासिक पत्रिकाओं में नागरी-प्रचारिणी सभा की 'नागरी प्रचारिणी पत्रिाका' और 'हिन्दुस्तानी' एकेडेमी का 'हिन्दुस्तानी' उल्लेखयोग्य है। 'नागरी प्रचारिणी पत्रिाका' चिरकाल से निकल रही है और अपने गम्भीरतामय लेखों के लिए प्रसिध्द है। इसके पुरातत्व सम्बन्धी लेख बड़े मार्के के और उपयोगी होते हैं। इस पत्रिाका का सम्पादन बड़ी योग्यता से होता है। 'हिन्दुस्तानी' के लेख भी चुने और ऊँचे दर्जे के होते हैं। सम्पादन की दृष्टि से भी वह अभिनन्दनीय है। यह अभी थोड़े दिनों से निकल रहा है।
अन्त में मुझको यह कहते कष्ट होता है कि उर्दू भाषा के लिए निजाम हैदराबाद ऐसा कल्पद्रुम अब तक कोई राजा-महाराजा हिन्दी को नहीं मिला। किन्तु मुझको इसका गौरव और गर्व है कि राजा-महाराजाओं से भी अधिक प्रभावशाली महर्षि कल्प पूज्य पं. मदनमोहन मालवीय और महात्मा गाँधी उसके लिए उत्सर्गी-कृत-जीवन हैं, जिससे उसका भविष्य अधिक उज्ज्वल है। मुझको विश्वास है कि वह दिन दूर नहीं है जब हमारे राजे-महाराजे भी अपनार् कत्ताव्य समझेंगे और हिन्दी भाषा के विकास,परिवर्ध्दन और प्रचार के सर्वोत्ताम साधान सिध्द होंगे। परमात्मा यह दिन शीघ्र लावे।
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