वर्तमान कहानियों का परिदृश्य / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
कहते हैं ख़ामोश रहना भी एक फ़न है। कहना ग़लत न होगा कि रचनाकार इस फ़न में माहिर होता है। अपने एकांत के भीतर एक नई कायनात बसाता है। कभी सख़्त अंधेरे में रौशनी के कतरों की तलाश करता है। कभी जलते हुए चिराग़ों की ख़ातिर ज़िंदगी की दुआ मांगता है। कभी साँस की सूखी हुई सतह पर खुद ही डूब जाता है। कभी हवाओं को बड़ी हसरत से देखता है। कभी खुशबुओं के गुबार को तकता चला जाता है। जाने क्या-क्या करता है? मगर हाँ, जाते-जाते दुनिया को, समाज को ‘कुछ’ दे कर जाता है। वो ‘कुछ’ कुछ ऐसा होता है जो हमारी ज़िंदगी की ज़रूरत में तब्दील हो जाता है। एक आदमी जिसकी सोच में दरार न आई हो, कोई फाँक मौजूद न हो, उसकी भूख सिर्फ रोटी से नहीं मिटती। उसे ‘कुछ और’ भी चाहिए होता है। यही ‘कुछ और’ एक रचनाकार की उम्र भर की कमाई है। अपनी धड़कनों को लम्हा-लम्हा पिघलाता है फिर उससे ‘कुछ और’ तैयार करता है। यह ‘कुछ और’ कुछ और नहीं बल्कि उसका लेखन है। लेखन चाहे वह किसी भी विधा में की गई हो, समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए। क्योंकि रचनाकार, साहित्य और समाज तीनों एक ही धागे से लिपटे होते हैं। जैसे किसी धागे से मोम चिपका रहता है।
माना जाता है कि कहानियाँ अपने वक़्त की दास्तान बयाँ करती हैं। मैं यहाँ सिर्फ कहानियों की बात करूंगा। कहानियाँ जो वर्तमान में लिखी जा रही हैं। कहानियाँ, जिसमें वक़्त पानी की तरह बह रहा है। कहानियाँ, जिसमें रिश्ते आग बन कर अपनी ही आगोश में झुलस रहे हैं। कहानियाँ, जिसमें दर्द किसी घूँघरू की शक्ल में नाच उठा है। जैसे किसी तवायफ़ के सूने पाँव की पाज़ेब से ताज़ा टूटे हों। कहानियाँ, जहाँ ज़मीन और आसमान का फ़र्क ख़त्म हो जाता है। कहानियाँ, जहाँ क्षितिज के नाम पर एक हल्की सी लकीर रह जाती है। कहानियाँ, जहाँ सपने इतने बड़े हो जाते हैं कि आँखों का दयार भी कम लगने लगता है। जैसे एक बीज में संसार। जैसे एक मटके में समंदर। वर्तमान समय में जिन कहानीकारों ने पानी पर अपना नाम लिखने का काम किया है। या यूँ कह लीजिए कि पाठकों की सोच में उतरने का साहस किया है। जिसमें स्त्री और पुरूष दोनों शामिल हैं। साहित्य के शाख़ पर मौजूद उन नये रचनाकारों का नाम है : प्रभात रंजन, मो. आरिफ, पंकज सुबीर, नवीन कुमार नैथानी, विमल चंद्र पांडेय, अनुज, वंदना राग, अजय नावरिया, राकेश मिश्र, रवि बुले, पंखुरी सिन्हा, नीलाक्षी सिंह, तरूण भटनागर, प्रत्यक्षा, उमाशंकर चौधरी, कुणाल सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शर्मीला बोहरा जलान, चंदन पांडेय, कविता, अल्पना मिश्र, सुषमा जगमोहन, मनोज कुमार पांडेय, कुमार अम्बूज, संजय कुंदन, गीता चतुर्वेदी, एंव योगेंद्र आहुजा। इन रचनाकारों ने कहानी के आसमान पर एक-एक नया खुशबूदार चाँद टाँक दिया है। अभी तो शाम की सरगोशी रौशन हुई है। अभी देखना है कि कौन सा चाँद सुबह तक जल कर सूरज के ज़ख्म को सहलाता है।
कुछ कहानियाँ जिसमें सिर्फ गाँव की समस्याएं हैं। जैसे-जैसे वक़्त बदलता गया आदमी की चेतना, कुछ नया करने की तमन्ना, नये तकनीक आदि ने उसे शहर की तरफ खींचा है। यही वजह है कि कुछ कहानियाँ जिसमें सिर्फ शहर की समस्याएं है। कुछ कहानियाँ जो गाँव से चल कर शहर तक आती हैं। तो कुछ ऐसी भी कहानियाँ लिखी जा रही हैं जो शहर से गाँव की ओर रूख़ करती हैं। कभी कभी गाँव और शहर आपस में टकरा उठते हैं। दोनों जगह की अपनी-अपनी मानसिकता है, सोच है, काम करने का तरीका है। चीज़ों को समझने का ढंग है, देखने का नज़रिया है। वर्तमान समय के ज़्यादातर कहानीकार शहर में रहते हैं। शहर का एक अपना मिज़ाज होता है। शहर में अलग तरह की समस्याएं, कठिनाइयाँ और परिस्थितियाँ होती हैं जो गाँव की समस्याओं, कठिनाइयों, और परिस्थितियों से बिल्कुल भिन्न होती हैं। ख़ासकर सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक भार के नीचे दब कर शहर का हए एक आदमी कहीं न कहीं अंतर्मुखी हो गया है। आज की कहानियों के पात्र नौकरी की तलाश में बहुत दूर तक भटकता है। अगर नौकरी मिल भी जाती है तो ऑफिस की समस्या, ऑफिस में अपोज़िट सेक्स के प्रति झुकाव आदि सब कुछ है। सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की ईच्छा भी उसका पीछा नहीं छोड़ती है। ‘पंखुरी सिन्हा’ की कहानी ‘समांतर रेखाओं का आकर्षण’ में इसकी झलक देखी जा सकती है। इन्हीं की एक और कहानी ‘बड़े नक्शे में एक छोटा शहर’ का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। यह कहानी गाँव और शहर के बीच की रेखा को बारीक कर एक ख़ामोश आवाज़ गूंजायमान करती है। आदमी कहीं भी रहे समस्याएं उसका कभी उसका साथ नहीं छोड़ती। शायद यही आदमी होने का अभिशाप है।
मौजूदा समय और समाज में ‘मानव मूल्य’ जैसी कोई चीज़ दिखाई नहीं देती है। आदमी के उपर भौतिकता इस तरह से लिपटी है कि नैतिकता का नूर कहीं दफ़्न सा लगता है। आदमी से उसकी आदमीयत जैसे किसी ने छीन लिया हो। दो लोगों के बीच प्रेम और मधुरता जैसी भावनाएं खत्म हो गई है। रिश्ते कई परतों में बिछ कर जम गये हैं। आदमी इतना मतलबी होता जा रहा है कि उसे अपने से परे कुछ भी नहीं दिखता। उसकी आँख का दायरा इतना कम हो गया है कि एक या दो से अधिक लोग उसमें नहीं रह सकते। उसकी सोच की छत इतनी छोटी है कि बारिश की चार बूंदें भी नहीं टिक सकती। उसमें दिन-ब-दिन एक अजीब किस्म का भाव पैदा होता जा रहा है। जिसकी वजह उसे खुद भी मालूम नहीं है। उसे ज़िंदगी की चाहत तो है मगर उस ज़िंदगी का सही इस्तेमाल कैसे करे? बस यह पता नहीं है। अपने आप में उलझा हुआ, अपने आप से लड़ता हुआ, अपना ही विरोध करता हुआ जाने किस दिशा में कदम बढ़ाने को तैयार खड़ा है। सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि उसे दिशा का ज्ञान भी नहीं है। और जो कोई इस बारे में जानकारी दे सकता है उस से तो सारे रिश्ते वह पहले ही तोड़ चुका है। शहर में अवसाद से सम्पन्न लोगों की कमी नहीं है।
‘तरूण भटनागर’ की कहानियाँ ‘चेहरे के जंगल में’, ‘भटकाव’, ‘खिड़की वाला संसार’ शहर के आस पास घूमती हैं। ‘मनीषा कुलश्रेष्ठ’ की कहानी ‘स्टिकर’, ‘अल्पना मिश्र’ की कहानी ‘सड़क मुस्तकिल’, ‘प्रत्यक्षा’ की कहानी ’15 माइल्स’ और ‘विमल चंद्र पाण्डेय’ की कहानी ‘सिगरेट’ अपने आप में शहर के वातावरण को समाहित करती है। ‘विमल चंद्र पाण्डेय’ की एक दूसरी कहानी ‘उसके बादल’ और ‘सुषमा जगमोहन’ की कहानी ‘शहादत’ दोनों में गाँव खुद को दर्ज़ करवाता है। आज की कहानी डूबते हुए सूरज से कुछ किरणें चुरा कर आँखों को खुशबूदार बना लेने के जैसा है। आज के कहानीकार, जो चीज़ें जैसी है ठीक उसी तरह से प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। प्रेम सम्बंध भी कहानियों में कई दफ़ा कई जगह दिखाई देते हैं मगर यह सम्बंध गाँव और शहर दोनों जगह अपनी अपनी सीमाओं और सम्भावनाओं के साथ मौजूद होता है। शहर और गाँव में इस सम्बंध के शुरूआत होने, पलने और पकने फिर टूटने के कारण अलग अलग होते हैं। गाँव में एक ओर जहाँ इस टूटन को छुपाने की कोशिश की जाती है वहीं शहर में दिखाने से कोई परहेज़ भी नहीं है। कभी कभी तो इसे अपना ‘सिम्बॉल ऑफ स्टेटस’ के रूप में भी परोसा जाता है। तो कहीं इस सम्बंध को ज़ाहिर करने के लिए एक चौकोर सी चुप्पी ही काफी होती है।
आज रिश्तों के मायने इस तरह से बदलने लगे हैं जैसे शब्दों के अर्थ संदर्भों के साथ अलग-अलग होते हैं। रिश्तों में व्यवसायिकता अब आम बात हो गई है। चाहे वह रिश्ता पति-पत्नि का हो, माँ-बाप और बच्चे का हो या दोस्त वगैरह कुछ भी हो सकता है। आज की पीढ़ी धर्म, जाति, समाज, देश, संस्कृति, नियम, सदाचार, शिष्टता, अनुशासन, वेशभूषा आदि सब चीज़ों को छोड़ कर एक ऐसी स्थिति में पहूँच गई है। जहाँ उजालों में डूबी हुई कुछ क़रार के कतरे तो हैं मगर यह ज़्यादा समय के लिए नहीं है। एक रचनाकार इन सभी स्थितियों से गुज़रता है। परखता है, बनता है, बिगड़ता है, निखरता है, संवरता है, संवारता है। रचनाकार समाज में रहता है, समाज की बातें करता है। मगर समाज से परे सोचता है। वर्तमान कहानियों में रिश्तों के हर एक रंग देखने को मिल जाते हैं। यहाँ ‘वंदना राग’ की कहानी ‘कान’ का ज़िक्र लाजिमी हो जाता है। किस तरह से एक कॉलेज में शिक्षा के साथ-साथ सम्बंध व्यापार को बढ़ावा मिलता है और उसका एक नया स्वरूप सामने आता है। एक ऐसा स्वरूप जिसमें आकर्षण तो है मगर कहीं गहरे में जा कर अफसोस भी है। ‘अजय नावरिया’ द्वारा रचित कहानी ‘एक देर शाम’ गाँव और शहर दोनों को अपने में समेटे हुए है या यूँ कहिए कि कहानी का फैलाव शहर और गाँव दोनों को ढ़ाँप लेता है।
सौ फीसदी सच है कि समाज में होने वाली तब्दीली की रफ़्तार बहुत कम होती है। मगर आज कल इस रफ्तार में कुछ तेज़ी आई है। बात चाहे शहर की हो या गाँव की, चेतना के स्तर पर दोनों जगह बदलाव देखने को मिलता है। यह और बात है कि गाँव की अपेक्षा शहर में बदलाव की दर ज़्यादा है। यह बदलाव हर तरह से दिखाई देता है। मैं यहाँ अपने क़लम की ज़बान पर ‘प्रभात रंजन’ की कहानियों का ज़िक्र करना चाहूँगा। इनकी कहानियों में आज का युवा साँस लेता है। और जब उसे साँस लेने में तकलीफ महसूस होती है तो वह गाँव से शहर की ओर अपना रूख़ कर लेता है। शहर की ज़हरीली हवाएं अपने नाख़ून से उनके सपनों को नोचने लगती है। फिर युवा अपने आप को ग्रामीण परिवेश में ढालने की कोशिश करता है। गाँव में रह कर भी वह शहरी मिज़ाज को भूलने में नाकाम साबित होता है। यही वजह है कि शहर की विद्रुपताएं, शहर की गंदगी, शहर से ग्रसित युवाओं की नसों में ख़ून बन कर रेंगती है। और फिर ख़ून का यह बदरंग, बदनाम कतरा वक़्त-बेवक़्त कभी राजनीति, कभी शिक्षा, कभी संस्कृति तो कभी सोच के सामने उभर कर अपना रंग निखारने की कोशिश करता है। कुछ कहानियाँ जैसे ‘बोलेरो क्लास’, ‘फ्लैशबैक’, ‘इजी मनी’, ‘लाइटर’, ‘बदनाम बस्ती’ और ‘मिस लिली’ आदि में ग्रामीण राजनीति के रंग बोलते हैं। वहीं ‘मोनोक्रोम’, ‘सोप-ऑपेरा’, ‘पर्दा गिरता है’, ‘सोनाली और सुबिमल मास्टर की कहानी’ आदि में रिश्तों की तल्ख़ बुनावट के साथ-साथ शहर का मंज़र भी नज़र आता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि कहानियों के दरीचे से वक़्त और माहौल झाँकता हुआ दिखाई देता है।
कह सकते हैं कि वर्तमान कहानीकार एक ऐसी स्थिति से गुज़र रहा है जहाँ उसकी आँखें शहर की रंगीनियों में मजबूरन उलझी हुई हैं। वह जो कुछ भी देखता है। बयान करता है। हाँ, कुच ऐसे कहानीकार जिनकी जड़ें अब भी गाँव में फैली हुई हैं। वह अपनी कहानियों में गाँव का ज़िक्र करता है। गाँव की समस्याओं, वहाँ के लोग, वहाँ की हवा, वहाँ का माहौल, वहाँ के रंग, वहाँ की तकलीफें, वहाँ की राजनीति, वहाँ के व्यवसाय, वहाँ की मिट्टी आदि के बारे में चर्चा करता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज के गांव शहरग्रस्त हो गये हैं। हालांकि गांव में अब भी अंधविश्वास, पूजा-पाठ, संकीर्ण मानसिकता, आदि मौजूद है। इन बातों की तरफ बार-बार रचनाकारों की नज़र मुड़ती है, फिसलती है, टूटती है और टूट कर कुछ लिखने पर मज़बूर करती है। या यूँ कहिए कि शहर में बस जाने के बावजूद उसके अंदर जो एक गाँव अब भी कहीं बसा हुआ है। बार-बार उस गाँव की याद उसके ज़ेहन को ज़ख़्मी कर जाती है। वह शब्दों के मरहम अपनी चोट पर मल रहा होता है। इसी दर्मियान कुछ सूखे अक्षर काग़ज़ पर जमा होते चले जाते हैं। और एक कहानी की शक्ल तैयार हो जाती है। जो कहानीकार शहर में रहते हैं। उनके साथ मौसम का व्यवहार भी अलग होता है। शहर में कुछ ख़ास तरह की दिक्कतों के बावजूद वह शहर की ज़हरीली हवा में साँस लेता है। हवाओं पर लिखे हुए आवाज़ों को देखता है, पढ़ता है। उसे पहचानता है। उसे पहनता है। फिर समाज को एक नई पहचान देता है।