वर्तमान की मायथोलॉजी है दक्षिण का सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :21 मई 2016
आदित्य चोपड़ा की फिल्म 'फैन' में शाहरुख खान की दोहरी भूमिकाएं थीं, जिनमें से एक भूमिका में वे बीस वर्षीय प्रशंसक के रूप में थे। शाहरुख खान ने इस भूमिका के लिए वजन कम किया, अपने ट्रेनर के साथ घंटों पसीना बहाया। साधन-संपन्न, समर्थ निर्माता आदित्य ने भी विदेश से मैकअप मैन को आमंत्रित किया। सारांश यह है कि परिश्रम किया गया, यथेष्ठ धन भी खर्च हुआ और परदे पर भूमिका का निर्वाह भी विश्वसनीय हुआ परंतु भारतीय दर्शक इस कदर सिनेमामुखी है कि वह सारे समय यह महसूस करता रहा कि यह भूमिका सितारा शाहरुख खान ही अभिनीत कर रहा है। मनोरंजन उद्योग यकीन दिलाने की कला है परंतु जब सितारामुखी दर्शक कुछ भी करने पर यह भूलने को तैयार नहीं है कि यह सितारा शाहरुख ही है, तब सारे जतन-यतन धरे रह जाते हैं। हमारे सिनेमा के साथ यह दुविधा हमेशा जुड़ी रहती है कि दर्शक सितारा छवि के कारण ही सिनेमाघर आता है परंतु वह सितारा छवि से कभी मुक्त नहीं हो पाता तो विश्वसनीयता कैसे जमेगी। इस व्यवसाय को मूवीज महज इसलिए नहीं कहते कि रीलें घूमती हैं, परदे पर छवियां थिरकती रहती हैं, वरन इसलिए कहते हैं कि सिनेमाघर में स्थिर बैठे दर्शक के दिल में भावनाओं का ज्वार जागता है। दर्शक हृदय को हिला देने के कारण व्यवसाय को मूवीज कहते हैं।
अब शाहरुख बौने की भूमिका निभाने जा रहे हैं, जिसके लिए फिर पैसा बहाया जाएगा, फिर घोर परिश्रम किया जाएगा परंतु दर्शक के दिल में सितारा छवि जस की तस रहेगी। यह व्यावसायिक सिनेमा की जन्मना दुविधा है। दक्षिण भारत के कमल हासन ने एक फिल्म में तीन फुटिया बौने की भूमिका पूरी विश्वसनीयता से निभाई थी। दक्षिण भारत में सितारा छवियां अधिक गहरी पैठी हुई हैं परंतु वहां का दर्शक सिनेमाघर में इस धारणा के साथ प्रवेश करता है कि वह परदे पर घटे हुए को यथार्थ मानेगा। वह अपने सारे संशय गेट के बाहर ही छोड़ देता है। शेष भारत के दर्शक इतने तन्मय नहीं हो पाते। यही कारण है कि दक्षिण सिनेमा का व्यवसाय अपने सीमित भूगोल के बावजूद शेष भारत से अधिक ही होता है। वहां के दर्शक का सितारा भक्ति भाव प्रबल है परंतु तर्क से छूट जाना भी वे बेहतर जानते हैं। वहां के दर्शक ने अपने सिनेमा को अपने वर्तमान की मायथोलॉजी बना लिया है। वहां सितारे पूजनीय हो चुके हैं। रजनीकांत गंजे हो चुके हैं और वे अपने यथार्थ के साथ ही समाज में आते-जाते हैं परंतु उनकी सितारा छवि इसके बाद भी खंडित नहीं होती। वे उम्रदराज होने के बाद भी अपना सितारा तिलस्म कायम रखे हुए हैं! यह एक अजूबा है।
वहां का दर्शक वोटर भी शेष भारत में चलने वाली लहरों से अछूता बना रहता है। वह अपने सिनेमाई सितारों और राजनीतिक सितारों में अंतर नहीं करता। उसकी निष्ठा और पूजा की तन्मयता बनी रहती है। दक्षिण में भव्य मंदिर हैं और वहां का वोटर ढाई बाय ढाई के वोट डालने के कैबिन को भी अपनी आस्था से मंदिर बना लेने की क्षमता रखता है। उन्होंने अपने राजनीतिक जोश को अपने दर्शक उन्माद का हिस्सा बना लिया है। इसी कारण दक्षिण भारत के चुनावी परिणाम भी शेष भारत से अलग आते हैं। जयललिता ने अपनी युवा अवस्था में सिनेमाई परदे पर हंटर वाली की भूमिका भी की है और आज उम्रदराज होने पर राजनीतिक परदे पर भी वे हंटर चला रही हैं। यह अजूबा भी गौरतलब है कि शेष भारत में अपनी तथाकथित धार्मिकता की छवि वाला राजनीतिक दल भी दक्षिण में जयललिता के तिलस्म को तोड़ नहीं पाता!
दक्षिण में जनमानस के लोहे की दीवार को खोलने के लिए अलग किस्म का खुल जा सिम सिम बोलना पड़ता है। यह बात उत्तर की मैडम समझ नहीं पा रही हैं। उनके पास एक आसान विकल्प यह है कि वे अपने पुत्र सहित केवल दल संचालन की भूमिका में रहेंगी, यह घोषणा करके अपने दल के अन्य युवकों को अवसर दें। उन्हें याद होगा कि एक बार बहुमत लाकर भी उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था और वे दिन ही उनकी लोकप्रियता के चरम दिन थे। भारतीय राजनीति में सत्ता-त्याग से बड़ा कोई मंत्र नहीं है। राष्ट्र के लिए और स्वयं उनके लिए लगभग डेढ़ सदी पुरानी कांग्रेस को नई ऊर्जा देने के लिए यही एक रास्ता है। उन्हें लोकप्रियता के रसायन को ठीक से समझना होगा। सत्ता त्याग का मंत्र ही एक अलग किस्म की परोक्ष सत्ता देता है।