वर्तमान महादुर्भिक्ष / बालकृष्ण भट्ट
वर्तमान महा-दुर्भिक्ष क्यों पड़ा क्यों इसके कारण हैं और कैसे इसका निवारण हो इत्यादि बातों पर ध्यान देने से यही मन में आता है कि हमारे ही करमों का फल है। जहाँ हम सब ओर से कसे हुए हैं किसी ओर हाथ-पाँव नहीं फैला सकते वहाँ दैव ने भी यही चाहा कि इनको अभी भरपूर दण्ड नहीं मिला इतने पर भी ये लोग बेहया जिन्दगी से जीते ही हैं तो अब इनको कोढ़ में खाज पैदा कर दें। समझदार के लिये जरा इशारा काफी होता है। किसी अंश में कहीं पर कुछ भूल-चूक बन पड़ने पर उस भूल की सजा पाय फिर वह वहीं से सुधरने लगता है और आगे को उस भूल के डांडे नहीं जाता जो उसको क्लेश और दु:ख का बाइस हुई हैं। यहाँ शताब्दी पर शताब्दी बीत गई और बीतती जाती हैं पर हम नित्य नीचे को गिरने और झुकने के सिवाय ऊपर को गरदन उठाते ही नहीं। हजार वर्ष के ऊपर हुआ मुसलमानों के यहाँ आने के पहले से हमारी दुर्गति ही होती गई पर हमारा कभी एक दिन भी न इस बात पर ध्यान गया कि देश में जातीयता और सहानुभूति बढ़ाने के क्या उपाय किये जायें जिसमें हमारी बढ़ती हुई दुर्गति का रोक हो। अस्तु मुर्दे को क्या कफन भारी होता है इन बुरे दिनों को भी किसी तरह झेल डालेंगे पर जैसी दैव की इच्छा है कि अब भी ये सुधरें कोढ़ साफ कर आगे को कदम बढ़ाने के लिये सीधी राह पर आय कुछ तरक्की करें सो न होगा। हम जो हैं वही रहेंगे एक नहीं हजार ऐसी आफतें आया करें हम अपने कुसंस्कारों को न बदलेंगे न जानवर से आदमी बनेंगे वरने जो आज पाव भर बिगड़े हैं तो कल सेर भर बिगड़ने का हौसला बाँधेंगे। विधिनियोग दैव की इच्छा क्या है इसे कौन जान सकता है कि हिन्दुस्तान का एकबारगी रसातल मग्न न कर मुर्गबिस्मिल की भाँति भोगाय-भोगाय धीरे-धीरे क्यों मारता है। पहले तो हिन्दुस्तान शैतान की आंत-सा कुछ ऐसा लंबा-चौड़ा है कि यहाँ प्रतिवर्ष इसके किसी न किसी प्रान्त में अवर्षण और अकाल बना ही रहता है। जब रेल न थी तब जिस हिस्से में अकाल होता या वहीं के लोग उसका सुख-दु:ख भोग लेते थे अब रेल हो जाने से जहाँ अच्छी बरसात हुई है और सुकाल रहना चाहिये वहाँ का अंत भी उसी दुर्भिक्ष पीड़ित प्रान्त में खिंच जाता है इसलिये देश भर में एक-सी महँगी सदैव बनी रहती है। सो दैव ने इस साल ऐसे दुर्भिक्ष को हम लोगों के बीच भेजा जिसने पटना से पेशावर तक, अवध, राजपूताना, मध्यप्रदेश, बहुत-सा हिस्सा मन्दराज बम्बई और बंगाल का भी आक्रमण कर रखा है। पृथ्वी जो नौदुलही-सी सब ओर हरी-भरी जल मग्न जलाशयों से सुहावनी मालूम होती थी वह अब रंडापे का दुख झेलती बेवा की भाँति रंज और गम के आलम में भरी हुई उदास मालूम होती है। नदियाँ नव युवती की कटि भाग की भाँति पतली पड़ गई। ताल तलैयाँ सूख कर परपट मैदान हो गईं। खेत सब खेतिहारों को अपने साथ लिये उस बेवा के मातम में साथ दे रहे हैं आसमान में बादल सपने के खयाल हो गये।
पन्द्रह या बीस वर्ष के उपरांत इस तरह के अवर्षण और दुर्भिक्ष की तो मानों पारी-सी बँध गई है। 18 या 19 वर्ष पहले सन् 76 और 77 में इस तरह का दुर्भिक्ष पड़ चुका था इतने दिनों बाद अब फिर मानो उसकी बारी आई है किंतु इस साल का दुर्भिक्ष करालता में पहले वाले से बढ़ा हुआ है। बहुधा इस तरह के दुर्भिक्ष एक या दो वर्ष पहले सुकाल होने के उपरांत होते थे तब अन्न का संचय रहने से अकाल का क्लेश लोगों को कम अखरता था। इस बार एक्सपोर्ट की कृपा से सालों पहले से गेहूँ यहाँ का विलायता ढो गया जिससे वंचित अन्न अब यहाँ रही नहीं जाता बल्कि दो वर्ष पहले से अतिवृष्टि अनावृष्टि ने अन्न की पूरी पैदावारी को भी रोक रखा। बड़ी आशा थी कि दो वर्ष से अकाल और मँहगी है इस वर्ष खूब गन्ना पैदा होगा। कृषकों का सब दुख दूर हो जायेगा। कौन जानता था कि ईश्वर का ऐसा प्रबल प्रकोप है कि परसी थाली आगे से छीन ली जायगी। यदि भादों का झूरा न पड़ता तो इतना अन्न पैदा होता कि दो वर्ष की कसर मिट जाती पर प्रजा की खोंटी कमाई और राजा की नीयत पर रूठ दैव ने चाहा कि हम सुख और आराम से दिन काटें गुड़ दिखा कर ढेला मारा।
जब देश में भरपूर धन था बहुत से द्वार जीवन पार करने के खुले थे, केवल खेती और जमीन की पैदावरी एक मात्र सहारा न था, देश की बनी चीजें काम में लाई काम में लाई जाती थीं, विलायत ने हर एक बात में पंजा नहीं फैला रखा था, बात-बात में टैक्स और चुंगी की इतनी भरमार न थी। व्यापार यहाँ का बहुत अच्छी दशा में था। गवर्नमेंट ने सब कुछ अपने हाथ में नहीं कर लिया था। विलायत में रुपया ढो जाने के इतने द्वार न थे। उस समय ऐसे-ऐसे अकाल लोगों को नहीं अखरते थे। अस्तु, इस अकाल की पीड़ा से हम सबों को बचाने को अब गवर्नमेंट का क्या कर्तव्य है। पहली बात गल्ले की रफ्तनी बिलकुल बन्द कर दी जाय और आगे से गेहूँ यहाँ का विलायत न जाया करे। जब तक दुर्भिक्ष है तब तक गल्ले की चुंगी छोड़ दी जाय, मालगुजारी माफ कर दी जाय या घटा दी जाय। जब यह निश्चय है कि खेती ही यहाँ का प्रधान व्यवसाय है और उसी पर न जानिये कितने करोड़ आदमियों का जीवन है तब उसकी तरक्की का उपाय सोचना तो गवर्नमेंट का पहला काम है। यहीं की धरती है कि प्रतिवर्ष कई करोड़ का धन, उगल देती है जिसे अंगरेजी हिकमत भी जरब न पहुँचा सकी। हिकमत ने यहाँ की दस्तकारी इत्यादि को बेकदर कर खाक में मिला दिया पर खेती में किसी तरह का खतरा न पैदा कर सकी। जैसा सरकार हिकमत को और-और बातों में लड़ाये हुए है वैसा ही यूरोप और अमेरिका की तरह हिन्दुस्तान में भी कृषिविद्या का स्कूल क्यों न खोला जाय। ब्रह्मा के परदादा के समय में भी जो तरीका हल चलाने का रहा वही अब भी जारी है। उसमें जरा भी अदल-बदल न की गई। पढ़े-लिखे लोगों का ध्यान भी इधर नहीं जाता। ये वे ही खेतिहर हैं जो हमको जिलाते हैं पर गँवार और दिहकानी कह सभ्य समाज वाले जिनसे घिनाते हैं और अपने से अत्यन्त निकृष्ट जिन्हें मानते हैं। बड़ा-बड़ा क्लेश उठाय ये बेचारे यदि अन्न न पैदा करें तो इनकी सभ्यता की हिमाकत सब धरी रह जाय। हमारे पढ़े-लिखे लोग डिगरी पासकर नौकरी के लिये दर-दर मारे फिरते हैं और कृत कार्य नहीं होते। खेती की स्वच्छन्द व्यवसाय समझ क्यों न अपनी बुद्धि का प्रकाश इस ओर लगावें। अफसोस की बात है कि खेती जो जीवन की मुख्य उपाय है वह इन भुक्खड़ और अज्ञ किसानों के हाथ में रख दी गई है। अमेरिका में खेती की तरक्की इसी से है कि वहाँ के किसान लियाकत तथा धन में यहाँ ताल्लुकेदारों को मोल ले सकते हैं। खेती हमारे देश की बहुत गिरी दशा में है, खेतिहार जितना परिश्रम करते हैं उतना फल उसका उन्हें नहीं मिलता इसका यही कारण है कि खेती के औजार इत्यादि और खाद तथा आबपाशी का क्रम अमेरिका के खेतिहारों की अपेक्षा यहाँ बहुत घटा हुआ है। अमेरिका के किसानों को इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती जैसा यहाँ के खेतिहर करते हैं और फायदा इनसे वे लोग बहुत अधिक थोड़े ही परिश्रम में उठाते हैं।
बड़े-बड़े शहरों से अंधे, लूले, लंगड़े, कंगले अपाहिजों के लिये लंगरखाने और देहातों से ठौर-ठौर रिलीफ वर्क गवर्नमेंट ने खोल दिया है। बस इतने ही से समझ लिया कि दुर्भिक्ष पीड़ा में कमी हो जायेगी। 'अति प्रसन्तो दमड़ीं ददाति' लूले, लंगड़ें, अपाहिजों तथा कंगालों को तो और-और भी सहारे हैं। शहर में बहुतेरे धर्मशील मुट्ठी बाँटा करते हैं जिससे उन्हें अपना पेट भरने में कसर नहीं रह जाती। उनको अकाल की पीड़ा से बचाने की सरकार ने कौन-सा उपाय सोचा है जो किसी से कभी माँगते नहीं जिन मध्यम श्रेणी वालों को माँगना मर जाने के बराबर है। उनके लिए अच्छा उपाय यही होगा कि सरकार अन्न खरीद बाजार भाव से डेहुड़ा सवाई सस्ता उनके हाथ बेंचे। अभी तो रिलीफ फण्ड का न जानिये कितना रुपया सरकार के पास जमा है वही इसमें लगा दे नहीं तो 200 रुपये से अधिक तनख्वाह वालों से रुपया सैकड़ा महीने में जब तक अकाल है काट लिया करें और उसे दुर्भिक्ष पीड़ितों को दिया करें।
जुलाई-अगस्त, 1896 ई.