वर्तमान हरियाणा का साहित्यिक अवदान / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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प्रथम नवम्बर, 1966 ई-को, सत्रहवें स्वतंत्र राज्य के रूप में, स्वाधीन भारत के मानचित्र पर उदित, वर्तमान हरियाणा का इतिहास-भूगोल तो मात्र 50 वर्ष पुराना ही है, लेकिन, प्रस्तुत लेख में, हमारा उद्देश्य गत लगभग एक हज़ार वर्ष में, राष्ट्रीय स्तर पर रचित हिन्दी-साहित्य की समान्तरता में, प्रागैतिहासिक काल से लेकर अब तक, हरियाणा के हिन्दी-साहित्य, विशेषकर वर्तमान हिन्दी-साहित्य, की प्रमुख उपलब्धियों को मूल्यांकित-रेखांकित करना है, ताकि इस प्रदेश के साहित्यिक अवदान को हिन्दी-साहित्येतिहास में समुचित स्थान मिल सके.

आपगा, दृषद्वती और सरस्वती नदियों के मध्यवर्ती / तटवर्ती भूखण्ड 'हरियाणा' को आदि-सृष्टि का उद्गम-स्थल माना जाता है। संसार के प्राचीनतम-उपलब्ध ग्रन्थ ऋग्वेद में (8-25-22) हरियाणा प्रदेश का स्पष्ट उल्लेख हुआ है—"ऋज्रमुक्षण्यायने रजतं हरयाणे। रथं युक्तम् असनाम सुषामणि।" दिल्ली के निकट सारवान गाँव में की गयी खुदाई से प्राप्त एक प्राचीन शिलालेख (विक्रमी संवत् 1385, फाल्गुन शुक्ला-सप्तमी, मंगलवार) में इस प्रदेश को 'धरती का स्वर्ग' कहा गया है—"देशो {स्ति हरयाणाख्यः पृथिव्याँ स्वर्ग सन्निभः।" संस्कृत वाघ्मय के अनुसार, यह भूमि तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है। यही वह क्षेत्र है, जो संसार में 'बहुधान्यक' संज्ञा से अभिहित हुआ है। यहाँ प्रवहमान सदानीरा सरस्वती को 'विष्णु की जिह्वा' और 'ब्रह्मा की पुत्री' कहा गया है। मानव जाति की उत्पत्ति जिस वैवस्वत मनु से हुई बतायी जाती है, वह इसी प्रदेश के राजा थे और 'अवन्ती सुन्दरी कथा' के अनुसार, स्थाण्वीश्वर (थानेसर-कुरुक्षेत्र) के निवासी थे। इसी प्रदेश के 'सन्निहित सरोवर' में वह अण्डा विद्यमान था, जिससे प्रजापिता ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए थे—"यस्मिन् स्थाने स्थितं हयण्डं तस्मिन् सन्निहितं सरः। अण्डमध्ये समुत्पन्नां ब्रह्मा लोकपितामहः॥" और उन्होंने इसी क्षेत्र के पृथुदक् नगर (पिहोवा) में अवस्थित ब्रह्मयोनि-तीर्थ के तट पर चतुर्वर्ण की रचना की थी। हरियाणा की उत्तर-पूर्वी सीमा में अवस्थित शिवालिक-उपत्यका से पिंजौर-कालका के निकट प्राग्हड़प्पा, हड़प्पा और परवर्ती-हड़प्पा संस्कृति के जो जीवाश्म / अवशेष / उपकरण मिले हैं, उनसे भी इस क्षेत्र में आदिमानव के प्राचीनतम अस्तित्व पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है। वाग्देवी-वीणावादिनी सरस्वती की भी इस भूमि पर विशेष अनुकम्पा रही है। फलस्वरूप चिन्तन और सर्जन की इस आदि-भूमि पर 'ऋग्वेद' आदि वेदों, वेदांगाें, महाभारत (भगवद्गीता सहित) , मारकण्डेय, वामन आदि पुराणों, सांख्यदर्शन, अष्टाध्यायी, नाट्यशास्त्र, मनुस्मृति और कादम्बरी आदि महान् ग्रन्थों का प्रणयन हुआ, विश्वविख्यात विद्या-केन्द्रों / ऋषि-कुलों की स्थापना हुई और साहित्य-कला का बहुमुखी विकास हुआ। संक्षेप में, आर्य संस्कृति, वैदिक वाघ्मय और ब्राह्मण-साहित्य की ज्ञानपीठ के रूप में ख्याति-प्राप्त यह प्रदेश, निस्संदेह, अनादि काल से ही चिन्तन-सृजन और भारतीय अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं साहित्य का सर्जक-पालक रहा है।यदि हरियाणा में रचित हिन्दी-साहित्य के सन्निकट साहित्यिक परिवेश पर दृष्टिपात करें, तो सर्वप्रथम हमारा परिचय 'प्रियदर्शिका' , 'रत्नावली' और 'नागानन्द' के प्रणेता हर्षवर्द्धन से होता है। कुरुक्षेत्र-सम्राट् हर्षवर्द्धन का युग (606-646 ई-) भारतीय इतिहास का गौरव-मानदण्ड माना जाता है। जहाँ उन्होंने स्वयं कालजयी साहित्य का सर्जन किया, वहीं अन्य साहित्यकारों को भी प्रेरित-प्रोत्साहित किया। 'कादम्बरी' , 'हर्षचरित' और 'पार्वती परिणय' का प्रणेता बाणभट्ट इसी राज्य का निवासी और हर्षवर्द्धन का दरबारी कवि था। बाणभट्ट-पुत्र भूषण भी एक प्रतिभाषाली साहित्यकार था। 'मयूरशतक' , 'सूर्यशतक' और 'मातंगदिवाकर' का रचयिता मयूर यहीं का रहने वाला था। नाटककार धावक भी हर्ष की राजसभा का सदस्य था। इसी सभा के एक-और सदस्य गुणप्रभ (बौद्ध विद्वान् वसुबंधु के शिष्य) द्वारा रचित 'तत्त्वसंदेश शास्त्र' अपने समय की एक अत्यन्त प्रसिद्ध कृति है। गुणप्रभ के शिष्य मित्रसेन ने ही ह्वेनत्सांग को बौद्ध धर्म में दीक्षित-पारंगत किया था। बाणभट्ट ने अपने 'हर्षचरित' में हरियाणा के पुष्पदन्त-कृत 'महापुराण' का तो उल्लेख किया ही है, यहाँ के वायुविकार (प्राकृत-कवि) तथा वेणीभारत (लोकभाषा-कवि) की भी चर्चा की है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि हिन्दी-साहित्य के शुभारंभ की पूर्व-संध्या तक हरियाणा में साहित्य-सृजन की एक सुदीर्घ-समृद्ध परम्परा विद्यमान थी।

आपको यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि हिन्दी में साहित्य-सृजन का श्रीगणेश भी हरियाणा से ही हुआ है। संवत् 1015 के आस-पास अपभ्रंश के अन्तिम और पुरानी हिन्दी के प्रथम कवि के रूप में जिस पुष्य / पुष्प / पुष्पदंत का नाम लिया जाता है, वह रोहतक के निवासी थे। चार ग्रन्थों (महापुराण, जसहरचरिउ, णायकुमारचरिउ, देशज शब्दों का एक कोश) के प्रणेता महाकवि पुष्प जैन-मतावलम्बी ब्राह्मण, महान् पण्डित और प्रतिभाषाली कवि थे तथा अपने नाम के साथ 'अभिमानमेरु' , 'काव्यरत्नाकर' व 'कविकुलतिलक' आदि विशेषण लगाते थे। श्री अगरचन्द नाहटा ने श्रीधर (बारहवीं शती-उत्तरार्द्ध) को हिन्दी का प्रथम कवि माना है। चार तीर्थंकरों (चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ एवं वर्द्धमान महावीर) पर चार चरितकाव्य लिखने वाले श्रीधर ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि वह हरियाणा के निवासी हैं, अग्रवाल-कुल में जन्मे हैं और विल्होदेवी-गोल्ह की संतान हैं। इधर पण्डित चन्द्रकांत बाली ने फरीदुद्दीन शकरगंज (शेख-उल-इस्लाम मौलाना दीवान बाबा फरीद-उद्-दीन गंज-ए-शकर सुलेमान अजोधनी) उर्फ़ बाबा फरीद (तेरहवीं सदी) को हिन्दी का प्रथम कवि घोषित किया है। प्रिय पाठक, यदि आप भी इस मत के समर्थक हैं, तो चलिए मेरे साथ हाँसी शहर (िज़ला हिसार) । 'चार कुतुब' देखकर आपको स्वयं ज्ञात हो जायेगा कि शेख फरीद के रचना-मानस और 'सलोकों' के निर्माण में हरियाणा की कितनी बड़ी भूमिका है! कुल मिलाकर, कहना मैं केवल यही चाहता हूँ कि हिन्दी का प्रथम रचनाकार हरियाणा-अधिवासी था।

वर्तमान हरियाणा के साहित्यिक परिदृश्य की झलक पाने से पहले प्राचीन हरियाणा के उन महान् हिन्दी-हरियाणवी साहित्यकारों के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अनिवार्य हो जाती है, जिनके कृपा-प्रसादस्वरूप वर्तमान पीढ़ी ने चलना-बढ़ना सीखा है। इन प्रमुख मनीषियों में, कालक्रमानुसार, सर्वश्री पुष्पदंत, श्रीधर, शेख फरीद, महाकवि सूरदास, कुछ अंशों में गोस्वामी तुलसीदास भी, ग़रीबदास, गुलाबसिंह, संतोखसिंह, निश्चलदास, साहिबसिंह 'मृगेन्द्र' , अल्ताफ हुसैन 'हाली' पानीपती, अहमदबख्श थानेसरी, शम्भूदास, बालमुकुन्द गुप्त, माधवप्रसाद मिश्र, विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक, तुलसीदास शर्मा 'दिनेश' और लखमीचन्द आदि गण्य हैं। अब मैं वर्तमान हरियाणा के उन प्रमुख हिन्दी-साहित्यकारों की उपलब्धियों को रेखांकित करना चाहता हूँ, जो उन्हें राष्ट्रीय हिन्दी-साहित्य में उचित स्थान दिलाने में सर्वथा समर्थ-सक्षम हैं—

1-सर्वश्री विष्णु प्रभाकर, निशांतकेतु, यशपाल वैद, राजेन्द्रमोहन भटनागर, चन्द्रकांता, सुनीता जैन, अमृतलाल मदान, राकेश वत्स, स्वदेश दीपक, ज्ञानप्रकाश विवेक, विकेश निझावन, रामनिवास 'मानव' , घमण्डीलाल अग्रवाल, माधव कौशिक, रोहिणी अग्रवाल और भगवानदास मोरवाल आदि का, अपने-अपने क्षेत्रें में, राष्ट्र स्तरीय योगदान जग-जाहिर है। इसलिए इन्हें हरियाणा की हदबंदी में ही जकड़े रखना न्यायोचित नहीं है। इन पर तो अलग से विस्तृत चर्चा-परिचर्चा अपेक्षित है। फिर भी, इनमें से दो-चार साहित्यकारों का यथाप्रसंग उल्लेख किया जा रहा है।

2-जयनाथ 'नलिन' , हर दृष्टि से, हरियाणा के जयशंकर प्रसाद हैं।

3-पाश्चात्य जगत् में मुंशी प्रेमचन्द को सर्वप्रथम मान्यता दिलाने वाले और 'अमर कथाकार प्रेमचन्द: विशिष्ट जीवनी' , 'कलम का मज़दूर: प्रेमचन्द' , 'प्रेमचन्द की आत्मकथा' तथा 'प्रेमचन्द के जीवनीकार की आत्मकथा' आदि 81 विशिष्ट ग्रन्थों के प्रणेता मदनगोपाल के अनुपम योगदान की चर्चा करने के लिए चार-पाँच शोधप्रबन्धों की आवश्यकता पड़ेगी।

4-जीवन्त भाषा और परिष्कृत-परिमार्जित शिल्प के आधार पर हिन्दी गद्य-साहित्य को ठोस आधारभूमि प्रदान करने वाले मोहन चोपड़ा को हरियाणा का मोहन राकेश कहा जाता है।

5-कामायनी-पूर्व धरा के जन्म से लेकर मृत्यु तक का चित्रण होने के कारण छविनाथ त्रिपाठी-कृत 'धरा की यात्र' महाकाव्य, सहज ही, प्रसाद-कृत 'कामायनी' का रूप-विस्तार है और निस्संदेह, हिन्दी-साहित्य की अन्यतम उपलब्धि है।

6-वर्तमान हरियाणा के प्रथम राज्यकवि, हिन्दी-रुबाई के प्रवर्त्तक और हिन्दी-वृत्तकाव्य के प्रस्तोता उदयभानु हंस समकालीन हिन्दी-कविता के एक हीरक हस्ताक्षर हैं।

7-जब-जब पेप्सू, पंजाब और हरियाणा में, गुरुमुखी लिपि में, रचित हिन्दी-साहित्य की पहचान-परख और मूल्यांकन का अवसर आयेगा, श्री सत्यपाल गुप्त को सबसे पहले याद किया जायेगा।

8-हरियाणा की सांस्कृतिक पहचान को राष्ट्रीय मंच प्रदान करने वाले देवीशंकर प्रभाकर के दो उपन्यास— 'खड़गपुत्र' और 'गणपुत्र' —हिन्दी की ऐतिहासिक उपन्यास-यात्र के दो मील-पत्थर हैं।

9-गुरुमुखी लिपि में उपलब्ध हिन्दी-साहित्य, विशेषकर साठ हज़ार छन्दों पर आधारित 'गुरुनानक प्रकाश' और 'गुरुप्रताप सूरज' पर प्रकाशवृत्त केन्द्रित करने तथा इसी दिशा में आजीवन अनुसंधान-रत रहकर 'रीतिकाल का पुनर्मूल्यांकन' करने वाले जयभगवान गोयल को हिन्दी-संसार, चाहकर भी, भुला नहीं पायेगा।

10-'मैंने नहीं लिखा महाभारत' (साक्षात्कार) और 'महाकाव्य हज़रत मुहम्मद' सहित छब्बीस कृतियों के रचयिता सुगनचंद 'मुक्तेश' का यह कथन सही है कि अपने विशिष्ट प्रकार की ये दोनों रचनाएँ हिन्दी-साहित्य में पहली बार लिखी गयी हैं।

11-समकालीन कविता-परिदृश्य में 'सहज कविता' आन्दोलन के आरम्भकर्त्ता, पुरोधा-कवि और आद्याचार्य सुधेश को हर कोई जानता है।

12-हिन्दी उपन्यास-साहित्य के सृजन, शोध और समीक्षा में जीवन खपा देने वाले शशिभूषण सिंहल, संभवतः, विरले ही हैं।

13-हिन्दी-साहित्य के प्रत्येक काल के प्रेरणा-स्रोताें के अन्वेषण, अखण्ड वैचारिक सातत्य के प्रतिपादन, प्रवृत्तियों के सर्वांगीण वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक विवेचन-विश्लेषण, सांस्कृतिक एवं मूल्यात्मक दृष्टि के निर्वहण तथा पूर्ववर्ती हिन्दी-साहित्येतिहास-ग्रन्थों में रह गयीं ऐतिहासिक भूलों के निराकरण की दृष्टि से हरिश्चन्द्र वर्मा द्वारा लिखित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' , साहित्येतिहास-चिन्तन और लेखन को, एक सर्वथा मौलिक तथा अनुपम दृष्टि प्रदान करता है।

14-यश गुलाटी ऐसे प्रथम आलोचक हैं, जिन्होंने अपने 'कविता और संघर्ष चेतना' ग्रन्थ के माध्यम से 'प्रतिबंधित साहित्य' के ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक परिप्रेक्ष्य एवं महत्त्व की जानकारी हिन्दी-जगत् को प्रदान की है।

15-लीलाधर 'वियोगी' हरियाणा की वह महान् साहित्यिक विभूति हैं, जिन्होंने संस्कृत में उपलब्ध समस्त पुराणों / उपपुराणों को सबसे पहले हिन्दी में प्रस्तुत करके राष्ट्रव्यापी ख्याति अर्जित की है। महाकवि सूरदास पर प्रथम महाकाव्य—'सीही का संत'—लिखने का श्रेय भी आपको ही है। पुराख्यान और

मिथकाधारित नौ खण्डकाव्यों / एकार्थकाव्यों के प्रणेता-रूप में भी आप प्रथम पंक्ति के प्रथम हिन्दी-साहित्यकार हैं। कथ्य की दृष्टि से यदि आप हरियाणा के नरेश मेहता हैं, तो शिल्प की दृष्टि से 'दिनकर' और धर्मवीर भारती की युगलमूर्ति हैं।

16-लगभग 100 विविध विधात्मक ग्रन्थों के माध्यम से हरियाणा के गौरवमय सांस्कृतिक इतिहास को पुनर्जागरित करने वाले जयनारायण कौशिक का एक-अकेला 'हरियाणवी-हिन्दी कोश' ही उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाने में समर्थ है।

17-हिन्दी काव्यशास्त्र की स्वतंत्र अस्मिता की पक्षधर और व्याख्याकार के साथ-साथ पुष्पा बंसल द्वारा रचित 'प्रतिवाद-पर्व' कथाकाव्य हिन्दी में एक सर्वथा नवीन विधा (नाटक$उपन्यास$काव्य) की प्रथम कृति है।

18-अमरीकी भाषाविद् ल्युओनार्ड ब्लूमफील्ड द्वारा प्रतिपादित भाषा-विश्लेषण की पद्धति पर आधारित देवीशंकर द्विवेदी-कृत 'भाषा और भाषिकी' हिन्दी का पहला मौलिक ग्रन्थ है। उनकी 'देवनागरी' पुस्तक भी, पहली बार, देवनागरी लिपि का मौलिक एवं सुचिंतित विश्लेषण प्रस्तुत करती है।

19-साहित्य की प्रायः सभी प्रमुख विधाओं में 250 से अधिक ग्रन्थों के प्रणेता और महाकवि सूरदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रथम उपन्यास— 'सूरश्याम' —के रचयिता राजेन्द्रमोहन भटनागर अकेले हरियाणवी / भारतीय हैं, जिन्होंने साधिकार विपुल साहित्य का सर्जन करके विश्व-मानवता की सोच और

वसुधैव-कुटुम्बकम् की भावना को, राष्ट्रीय स्तर पर, सशक्त वाणी प्रदान की है।

20-'कथा सतीसर' सहित दो दर्जन सर्जनात्मक ग्रन्थों की लेखिका चन्द्रकांता ने, काश्मीर की पृष्ठभूमि पर, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद एवं उग्रवाद को लेकर, जिस साहित्य का प्रणयन किया है, वह सचमुच अनुपम और अद्वितीय है।

21-सिद्धान्त एवं व्यवहार, दोनों ही दृष्टियों से, मधुसूदन पाटिल की व्यंग्यकारी के बिना, समकालीन हिन्दी-व्यंग्य की कहानी आधी-अधूरी ही रहेगी।

22-हिन्दी-नवगीत को राष्ट्रीय स्तर पर समृद्धतर करने में सर्वश्री कुमार रवीन्द्र, राधेश्याम शुक्ल और माधव कौशिक का नाम अग्रणी पंक्ति में लिया जाता है।

23-नन्दलाल मेहता 'वागीश' -कृत 'संस्कृति तत्त्व-मीमासा' ग्रन्थ इसलिए प्राथमिक श्रेय का अधिकारी है, क्योंकि इसमें संस्कृति-तत्त्व सम्बन्धी अवधारणाओं को तो पहली बार, विशुद्ध तत्त्व-मीमांसन की उत्तीर्णता पर, स्वरूपित किया ही गया है, साथ ही, संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों का भी निर्धारण किया गया है।

24-अस्सी से अधिक ग्रन्थों के रचयिता और विपुल ज्ञान-राशि के भण्डार बलदेवराज 'शान्त' की पहचान एक शब्द-साधक, भाव-शोधक और विचार-विश्लेषक के रूप में सर्वविदित है।

25-पदमश्री सुनीता जैन अपने 'सुनीता जैन: समग्र' (चौदह खण्ड) के साथ हिन्दी में सर्वाधिक लेखन करने वाली महिला-साहित्यकार हैं। सुनीता जैन ने नारी-मन के उन पहलुओं को समग्रता से छुआ है, जिन पर अब तक कुछ-नहीं या मात्र-सांकेतिक ही लिखा गया था। माँ का ऐसा वृहद् रूपक तो शायद ही किसी अन्य कवयित्री ने प्रस्तुत किया हो।

26-नाटक के प्रचलित-अप्रचलित रूप-रंगों एवं आकार-प्रकारों पर शताधिक नाटकों की रचना करके अमृतलाल मदान ने समय के साथ तो कदमताल की ही है, हरियाणा में सर्वाधिक नाट्य-रचना का कीर्तिमान भी स्थापित किया है।

27-"कानून का कबीर और 'अज्ञेय' का पट्ठा" (कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' ) तथा "वकील होते हुए भी इन्सापफ़ की चिन्ता" करने वाला ( 'अज्ञेय' ) विधि-श्री पवन चौधरी 'मनमौजी' हिन्दुस्तान की कानून-कचहरी की कीकर पर, हिन्दी-माध्यम से, विविध विधाओं के साहित्यिक फल-फूल उगाने वाला पहला हिन्दुस्तानी है।

28-लघुकथा सम्बन्धी चिन्तन-सृजन, स्वरूप-निर्धारण, शोधन-समीक्षण और सम्पादन-प्रकाशन के क्षेत्र में सर्वश्री रूप देवगुण और अशोक भाटिया की भूमिका सदैव अग्रणी रहेगी।

29-लगभग दो दर्ज़न ग्रन्थों के प्रणेता, सिद्ध नाट्यसमीक्षक और प्रख्यात नाट्यकवि लक्ष्मीनारायण भारद्वाज ने आठ नाट्यकाव्य लिखकर एक नया राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया है।

30-कविता के रंगपाठ की परिकल्पना, सैद्धान्तिकी, प्रयोग और मंचन को हिन्दी-जगत् से परिचित करवाकर कँवलनयन कपूर ने राष्ट्रीय स्तर पर एक साहित्यिक धमाका किया है। 'लघुनाटक' एवं 'एकल पात्रीय नाटक' की अवधारणा, संरचना और प्रस्तुति-कला भी केवल इन्हीं के खाते में दर्ज़ है। सामाजिक प्रतिबद्धता से प्रारम्भ करके अध्यात्म के संदर्भों, रहस्यों और आयामों को उद्घाटित करने में भी आपकी अद्वितीय भूमिका है।

31-व्यक्तित्व और कृतित्व, उपलब्धियों और सीमाओं, सभी दृष्टियों से, बैजनाथ सिंहल हरियाणा के 'अज्ञेय' हैं।

32-लगभग बारह सौ पृष्ठों पर आधारित सतोष गोयल का 'हिन्दी उपन्यासकार कोश' , अकेला ही, उनकी राष्ट्रीय ख्याति के लिए पर्याप्त है।

33-व्यवस्था-विरोध के आदि-ग़ज़लकारों में गण्य चन्द्र त्रिखा को, उनके भारत-विभाजन सम्बन्धी साहित्य-सृजन के लिए, 'झूठा-सच' और 'तमस' की परम्परा में, अवश्यमेव याद किया जायेगा।

34-मध्यम वर्गीय परिवारों के जीवन्त चितेरे और 'पुष्पगंधा' पत्रिका के यशस्वी मालिक-प्रकाशक-सम्पादक विकेश निझावन ने हरियाणा की समकालीन हिन्दी-कहानी और कविता को राष्ट्रीय पहचान दिलाने में अपना स्मरणीय योगदान दिया है।

35-सोलह कविता-संग्रहों सहित लगभग तीन दर्जन ग्रन्थों के प्रणेता सुभाष रस्तोगी की कविता, समकालीन हिन्दी कविता-परिदृश्य में, एक प्रकाशवर्ष बनकर उपस्थित हुई है। सकारात्मक मूल्यबोध उनकी कविताई की विशिष्ट पहचान है और शब्द की क्रान्तिकारी भूमिका के प्रति वे अत्यधिक आश्वस्त हैं। इस दृष्टि से उन्हें, सहज ही, हरियाणा का अशोक वाजपेयी कहा जा सकता है।

36-अब तक विविध विधात्मक लगभग 100 कृतियों का प्रणयन कर चुके कथाकार-नाटककार मधुकांत की यह दिली-इच्छा है कि उन्हें स्वैच्छिक रक्तदान, अंगदान और स्वच्छ भारत-अभियान सम्बन्धी साहित्य-सृजन के लिए ही स्मरण किया जाय। ठीक भी है, क्योंकि अब यही लेखन उनकी राष्ट्रीय पहचान का आधार बन चुका है।

37-काव्य के अन्तर्गत ग़ज़ल, नवगीत और खण्डकाव्य-सृजन में सफलतापूर्वक कलम चलाने वाले माधव कौशिक आज ग़ज़लकार दुष्यंतकुमार के असली वारिस हैं। भाषा और शिल्प के सर्वाधिक-सार्थक प्रयोगकर्ता इस ग़ज़लकार ने, ग़ज़ल के लिए अब तक अनिवार्य समझी जाने वाली, इश्की-मुश्की शब्दावली का पूर्ण बहिष्कार किया है तथा उर्दू-अंगरेज़ी शब्दों से परहेज़ रखते हुए, आम बोलचाल की भाषा में, हिन्दी-ग़ज़ल को अभिनव कलात्मक ऊँचाई प्रदान की है। इसीलिए उनकी ग़ज़लाें की पहुँच अन्तिम पंक्ति के अन्तिम व्यक्ति तक है। बाल-साहित्य के अन्तर्गत दो ग़ज़ल-संग्रह और स्वगत-कथन शैली में दो खण्डकाव्य लिखने का प्रथम श्रेय भी माधव कौशिक को ही जाता है।

38-'हरियाणा में रचित सृजनात्मक हिन्दी साहित्य' और 'हरियाणा में रचित हिन्दी महाकाव्य' शोधप्रबन्धों पर क्रमशः पीएच-डी-और डी-लिट्, उपाधि-प्राप्त डॉ-रामनिवास 'मानव' हरियाणा के समकालीन सृजनात्मक हिन्दी-साहित्य के प्रथम शोधार्थी / अधिकारी विद्वान्, लघुकथा में 'समाचार-शैली' के प्रवर्त्तक और त्रिपदी काव्य-विधा के प्रतिष्ठापक कवि-आचार्य होने के साथ-साथ दोहा, बालगीत एवं लघुकथा-विधाओं के भी सशक्त राष्ट्रीय हस्ताक्षर हैं।

39-समकालीन हरियाणा में अब तक 30 महाकाव्यों का प्रणयन हो चुका है। इनमें से निरंजनसिंह 'योगमणि' , राणाप्रताप 'गन्नौरी' , छविनाथ त्रिपाठी, धर्मचन्द्र विद्यालंकार, लक्ष्मणसिंह, प्रेमनाथ 'प्रेमी' , जयनाथ 'नलिन' , भारतभूषण सांघीवाल, सारस्वतमोहन 'मनीषी' , लीलाधर 'वियोगी' और परमानंद 'अधीर' ने एक-एक, उदयभानु हंस, अमृतलाल मदान, सुगनचन्द 'मुक्तेश' और ब्रह्मदत्त 'वाग्मी' ने दो-दो_ रत्नचन्द्र शर्मा ने पाँच और पुरुषोत्तमदास 'निर्मल' ने छह महाकाव्यों की रचना की है।

40-महाकाव्यों के ही समान रचे गये समकालीन 55 खण्डकाव्यों / एकार्थकाव्यों की प्रामाणिक सूची मेरे पास है। इस विधा की उपलब्ध कृतियों में रामनिवास 'मानव' , नरेन्द्र लाहड़, धर्मचन्द्र विद्यालंकार, माधव कौशिक, सुधेश और सुनीता जैन के दो-दो_ भगवानदास 'निर्मोही' और रत्नचन्द्र शर्मा के तीन-तीन_ राजेन्द्र 'नटखट' के सात और लीलाधर 'वियोगी' के नौ खण्डकाव्य / एकार्थकाव्य विशेष उल्लेखनीय हैं।

41-वर्तमान हरियाणा में दोहा-सतसई परम्परा भी खूब फल-फूल रही है। यही कारण है कि तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' की 'श्याम सतसई' के पश्चात् यहाँ हिन्दी / हरियाणवी में अब तक 50 से अधिक सतसइयाँ / दोहावलियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं। रक्षा शर्मा 'कमल' , महेन्द्र शर्मा 'सूर्य' , उदयभानु हंस, डॉ-सुधेश, मेजर शक्तिराज, राधेश्याम शुक्ल, डॉ-नरेश, लक्ष्मणसिंह, रामकुमार आत्रेय, लक्ष्मीनारायण 'लक्ष्मी' , हरिसिंह शास्त्री, श्यामसखा 'श्याम' , चतरभुज बंसल और पुरुषोत्तमदास 'निर्मल' की एक-एक_ बलदेवराज 'शान्त' एवं सत्यवीर नाहड़िया की दो-दो सतसइयों के साथ-साथ रामनिवास 'मानव' , हरेराम 'समीप' , रोहित यादव और राजेन्द्र 'नटखट' के सहस्राधिक-सहस्राधिक दोहे भी हमारी विशिष्ट उपलब्धि हैं। सारस्वतमोहन 'मनीषी' और हरिकृष्ण द्विवेदी ने तो पाँच-पाँच सतसइयों की रचना करके नये कीर्तिमान ही स्थापित कर दिये हैें। इसी क्रम में अमरीकसिंह, सतपालसिंह चौहान 'भारत' , नरेन्द्र आहूजा 'विवेक' , देवेन्द्र गोयल, घमण्डीलाल अग्रवाल, कमलेश सगवाल, प्रद्युम्न भल्ला, रघुविन्द्र यादव और कृष्णलता यादव प्रभृति दोहाकार भी अपने पाँव जमा चुके हैं।

42-इसी कड़ी में लगभग दो दर्जन 'नाट्यकाव्य' भी हमारी विशेष पँूजी हैं। इनमें से लक्ष्मीनारायण भारद्वाज के पाँच; कुमार रवीन्द्र के तीन; सुगनचन्द 'मुक्तेश' , वेद 'व्यथित' और अमृतलाल मदान के दो-दो तथा जयनाथ 'नलिन' -कृत 'तिमिर भँवर से उगा चाँद' राष्ट्रीय स्तर पर जाने जाते हैं। 'लम्बी कविता' के अन्तर्गत हरिश्चन्द्र वर्मा, कँवलनयन कपूर, कुमार रवीन्द्र, सुभाष रस्तोगी और विकेश निझावन ने सिद्धि प्राप्त की है।

43-नव्यतर विधाओं के अन्तर्गत, जहाँ तक आत्मकथा, यात्र, जीवनी, संस्मरण एवं साक्षात्कार आदि का प्रश्न है, यहाँ भी हरियाणा का रचनाकार बराबर अपनी उपस्थिति लगवा रहा है। दो दज़र्न से अधिक आत्मकथाकारों में सर्वश्री मदनगोपाल, उदयभानु हंस, पवन चौधरी 'मनमौजी' , स्वदेश दीपक, विष्णु प्रभाकर, सुमेरचन्द, लीलाधर 'वियोगी' , राजवीर देसवाल और शमीम शर्मा की आत्मकथाएँ ध्यान आकृष्ट करती हैं। यात्र-साहित्य के अन्तर्गत तीस ग्रन्थ तो प्रकाशित हो ही चुके हैं, पत्र-पत्रिकाओं में भी सर्वश्री राधेश्याम शर्मा, राजकिशन नैन और ओमप्रकाश कादियान आदि के हज़ारों-हज़ार पृष्ठ बिखरे पड़े हैं। पुस्तकाकार प्रमुख यात्र-साहित्य के अन्तर्गत मोहन चोपड़ा, सुगनचन्द 'मुक्तेश' , सुधेश, जयनारायण कौशिक, उर्मिकृष्ण, बी-डी-कालिया 'हमदम' , प्रदीप शर्मा 'स्नेही' और अनुराधा बेनीवाल की कृतियाँ गण्य हैं। हमारे यहाँ जीवनियाँ इतनी अधिक-मात्र में रची गयी हैं कि वे गणनातीत हैं। साक्षात्कार और संस्मरण-लेखन में, इस समय, मुझे सर्वश्री सुगनचन्द 'मुक्तेश' और सुभाष रस्तोगी के नाम याद आ रहे हैं।

44-हरियाणा में, बालसाहित्य भी प्रभूत मात्र में लिखा गया है। इस कार्य में हमारे शताधिक साहित्य-सेवी लगे रहे / हुए हैं। फलस्वरूप सर्वश्री विष्णु प्रभाकर, इन्द्रा 'स्वप्न' , हेमराज 'निर्मम' , हरिश्चन्द्र वर्मा, उर्मिकृष्ण, राजेन्द्रमोहन भटनागर, राजकुमार निजात, रामनिवास 'मानव' , मधुकांत, श्रीनिवास वत्स, माधव कौशिक, केशवचन्द्र वधावन, रामकुमार आत्रेय और कमला चमोला आदि-आदि द्वारा रचित बाल-साहित्य अपनी राष्ट्रीय पहचान बना चुका है। हमारे घमण्डीलाल अग्रवाल तो बाल-साहित्य के पर्याय ही हैं। उनके द्वारा अब तक लिखित / सम्पादित 66 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, जो स्वयं में एक कीर्तिमान है।

45-नव्यतम विधाओं (नारा, क्षणिका, द्विपदी, त्रिपदी, तिक्का, हाइकु, माहिया, ताँका, सेदोका, चोका, हाइबन, गद्यकाव्य और काव्योक्ति आदि) में भी हरियाणा का योगदान सराहनीय है। 'त्रिपदी' में जहाँ रामनिवास 'मानव' ने अपनी पहचान बनायी है, वहीं 'हाइकु' में डॉ-सुधेश, हरेराम 'समीप' और जयभगवान गुप्त 'राकेश' के अतिरिक्त, सुदर्शन रत्नाकर सहित, लगभग दो दर्जन महिला-रचनाकारों की भरी-पूरी भीड़ जुटी हुई है। 'काव्योक्ति' के अन्तर्गत 758 छन्दों पर आधारित, डॉ-मक्खनलाल तँवर की, 'बेटी-सतसई' स्वयं में एक कीर्तिमान है। सरोज दहिया के 'हाइबन' अलग-से ध्यान आकृष्ट करते हैं। इन विधाओं, विशेषकर 'गद्यकाव्य' , 'हाइकु' , 'तांका' और 'चोका' आदि के अन्तर्गत कुमुद बंसल ने एक विशिष्ट सिद्धि प्राप्त की है—पीरी पाई है। इस दृष्टि से उनके आधा दर्जन से अधिक संकलन ('जीवन-कला' , 'तोड़ो जंज़ीरें' , 'सम्बंध-सिंधु' , 'स्मृति-मंजरी' , हे विहंगिनी',' झाँका भीतर'आदि) रेखांकित किये जा सकते हैं। ं इन विधाओं पर, अपने सम्पादन में,' हरिगन्धा' का एक विशेषांक (275, जुलाई 2017) निकालकर आपने ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य किया है।

46-हरियाणा का महिला-लेखन भी पर्याप्त समृद्ध है और इसकी गूँज-अनुगूँज राष्ट्रीय स्तर पर कभी-भी, कहीं-भी, सुनी जा सकती है। वर्तमान हरियाणा में इन महिला-रचनाकारों की संख्या लगभग एक शतक तक पहुँच चुकी है। वरिष्ठ लेखिकाओं में सर्वश्री इन्द्रा 'स्वप्न' , शकुन्तला ब्रजमोहन, चन्दनबाला जैन, सुधा जैन, रक्षा शर्मा 'कमल' , उषा अग्रवाल, उर्मिकृष्ण, चन्द्रकांता, सुनीता जैन, सुदर्शन रत्नाकर, सावित्री वाशिष्ठ, संतोष गोयल, कमलेश मलिक, कमला चमोला, मुक्ता, कमल कपूर, गार्गी, संतोष धीमान और शील कौशिक आदि उल्लेखनीय हैं। भारी-भरकम प्रशासनिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए स्तरीय साहित्य-सृजन के लिए समय निकाल लेना खाला जी का घर नहीं है। हरियाणा में यह चमत्कार कर-दिखाया है सर्वश्री कुमुद बंसल, सुमेधा कटारिया, सुमिता मिश्रा और धीरा खण्डेलवाल ने। कश्मीरीदेवी यदि दलित साहित्य का सर्जन कर रही हैं, तो शमीम शर्मा हरियाणवी हास्य-व्यंग्य के निखार-प्रसार में जुटी हुई हैं। नयी पीढ़ी में गण्य सर्वश्री संतोष गर्ग, आशमा कौल, ज्ञानीदेवी, मनजीत शर्मा 'मीरा' , इन्दु गुप्ता, आशा खत्री 'लता' , रश्मि बजाज, राजवंती मान, अंजु दुआ जैमिनी, मीनाक्षी जिजीविषा, मंजु दलाल और किरण मल्होत्र प्रभृति समकालीन समस्त सरोकारों पर केन्द्रित विविध विमर्शीय साहित्य-सृजन में रत हैं। प्रोपफ़ेसर रोहिणी अग्रवाल के विशिष्ट अवदान को रेखांकित किये बिना इस संदर्भ में पटाक्षेप संभव नहीं है। स्त्री-विमर्श को पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पुनरीक्षण स्वीकार करते हुए रोहिणी अग्रवाल ने हिन्दी-आलोचना में पुरुष-वर्चस्व को तोड़ा है। आप अपनी कहानियों और आलोचना के माध्यम से स्त्री-विमर्श की सैद्धांतिकी तो गढ़ती ही हैं, शुष्क कही जाने वाली हिन्दी-आलोचना में सर्जनात्मकता को गूंथकर उसे आस्वाद्य भी बनाती हैं। इस दृष्टि से, राष्ट्रीय स्तर पर, अंगुलियों पर गिने जाने वाले रचनाकारों में, रोहिणी अग्रवाल का एक सम्मानित स्थान है।

47-हरियाणा में दलित-लेखन की जड़ें यहाँ के लोक-साहित्य में गहराई तक समायी हुई हैं। सांगों और गीतों पर आधारित एतद्विषयक एक दर्जन से अधिक भारी-भरकम ग्रंथावलियाँ, डॉ-राजेन्द्र बड़गूजर के सम्पादन में, प्रकाशित भी हो चुकी हैं। हिन्दी-माध्यम में रचित यहाँ का दलित-लेखन भी अपनी राज्य / राष्ट्र-स्तरीय पहचान बना चुका है। उल्लेखनीय दलित-लेखकों में सर्वश्री रामेन्द्र जाखू, धनसिंह, भगवानदास मोरवाल, कश्मीरीदेवी, अभय मोर्य, मक्खनलाल तँवर, रमेश मेहरा और राजेन्द्र बड़गूजर आदि गण्य हैं। कविवर प्रेमनाथ 'प्रेमी' द्वारा सन् 1992 में रचित 'प्रायश्चित' महाकाव्य वर्णभेद-विरोध की पृष्ठभूमि पर लिखा जाकर हरियाणा के दलित लेखन में एक मील-पत्थर सिद्ध हुआ है।

48-सर्वांगीण हरियाणवी लोक-साहित्य के रचाव-सजाव, उभार-निखार और प्रचार-प्रसार में सर्वश्री मदनगोपाल शास्त्री, भारतभूषण सांघीवाल, सुमेरचन्द, राजेन्द्रस्वरूप वत्स, कँवल हरियाणवी, जयनारायण कौशिक, लक्ष्मणसिंह, सावित्री वाशिष्ठ, रामकुमार आत्रेय, हरिकृष्ण द्विवेदी, सारस्वतमोहन 'मनीषी' , चतरभुज बंसल और अनिल 'पृथ्वीपुत्र' का अनन्य-अद्वितीय योगदान है। हरियाणवी भाषा और साहित्य के सर्वेक्षण-संकलन, शोधन-समीक्षण और लेखन-प्रकाशन में डॉ-पूर्णचन्द शर्मा, डॉ-बाबूराम एवं डॉ-राजेन्द्र बड़गूजर ने ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य किया है। हरिकृष्ण द्विवेदी-कृत 236 कुण्डलिया छंदों का संकलन 'धूप-छाम' , कँवल हरियाणवी का गज़ल-संग्रह 'तारे नवें-नवें से' और सुरेन्द्र आनन्द 'गापिफ़ल' के गीत, ग़ज़ल, नाटक और व्याकरण सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ वर्तमान हरियाणी की विशिष्ट पूंजी हैं। इस क्षेत्र में ।डॉ-महावीर शास्त्री ने तो एक नया कीर्तिमान ही स्थापित कर दिया है। इस दृष्टि से 'जय हरियाणा' और 'राणी माद्री' (महाकाव्य) , 'एक रपैया अर एक ईंट (नाटक) तथा' धणी होणै का मंतर' (लघुकथा) आदि कृतियाँ उल्लेखनीय हैं।

49-गत 50 वर्षों में हरियाणा में, हिन्दी और हरियाणवी में, स्तरीय भावानुवाद का भी उल्लेखनीय कार्य हुआ है। प्रमुख रूप से वाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता, दुर्गा सप्तशती और मुख्य उपनिषदों पर आधारित यह सामग्री सर्वश्री रामेश्वरदयाल शास्त्री, मदनगोपाल शास्त्री, सरिता वाशिष्ठ, सत्यवीर नाहड़िया, हरिकृष्ण द्विवेदी, लक्ष्मणसिंह, कँवलनयन कपूर, पुरुषोत्तमदास 'निर्मल' , भारतभूषण सांघीवाल, राजेन्द्र 'नटखट' , परमानन्द अधीर, मनोज भारत और महेन्द्रपाल सारस्वत द्विवेदी 'काण्व' हरियाणवी आदि के माध्यम से सामने आयी है।

प्रस्तुत आलेख के अवलोकन से, मेरा विश्वास है, आपके सामने यह तथ्य स्वयं उजागर हो जायेगा कि अखिल भारतीय स्तर पर रचित हिन्दी-साहित्य में काल और तद्गत यथार्थ की ऐसी कोई प्रवृत्ति, कथ्यगत कोई आयाम और शिल्पगत ऐसा कोई प्रयोग नहीं है, जो हरियाणा केे साहित्यकार के पास उपलब्ध न हो। आप यह भी मान जायेंगे कि राष्ट्रीय साहित्यिक परिदृश्य में, अनेकानेक स्थलों पर, हरियाणा के साहित्यकारों का क़द न-केवल बहुत ऊँचा उठा है, बल्कि अनेक बार तो वे पहल करने के अधिकारी भी बने हैं। समकालीन संदर्भों में राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की यह माँग है कि देश के प्रत्येक अंचल में रचित महत्त्वपूर्ण साहित्य-सम्पदा की गुणवत्ता / महत्ता को रेखांकित किया जाय और उसे भारतीय साहित्य की मुख्य धारा में सम्मिलित किया जाय। तभी, सही अर्थों में, 'सबका साथ: सबका विकास' की अवधारणा और 'भारतीय हिन्दी-साहित्य' की परिकल्पना साकार हो सकेगी।