वर्षारंभ / बालकृष्ण भट्ट
जीने की आशा भी क्या ही प्रलोभन है विशेषत: ऐेसे समय जब प्लेग ने भारत में अपनी प्रभुत्ता जमाए हुए निज दूत काल कराल को गेहे-गेहे जने-जने जासूमी के लिए नियत कर रखा है जो चुन-चुन कर उन्हीं को बटोरे लिए जाता है जो इस संसार में जीते रहते तो क्या-क्या न कर गुजरते। नव विकसित कलिका सदृश्य इस जीव लोक वाटिका को अपनी सुमधुर सुगंधि से सुगंधित करते निज कुल और जाति का बहुत कुछ गौरव बढ़ाते परंतु भारत के दुदैंव की महिमा के विस्तार की गीत कहाँ तक गाएँ मानुषी तथा दैवी विपत्ति सब ओर में इसे घेरे हुए है। कितने प्रिय बंधु सहृदय मित्रवर्ग जिनके साथ आज हम खेल-कूद रहे हैं आमोद-प्रमोद में लगे हैं कल वे केवल नाम मात्र को शेष रहे। ऐसे नाजुक समय में सब भाँति सही सलामत रह निर्विघ्न अपना जीवन सुख से बिताना सर्व नियंता कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ की क्या थोड़ी कृपा है। उसी कृपा का उद्गार यह भी है कि आज हम छब्बीसवाँ वर्ष समाप्त कर सत्ताईसवें में प्रवेश कर रहे हैं। अब यहाँ पर हमें कहना केवल इतना ही है कि अपनी और-और बहिनों के समान हमारी हिंदी के अभी वे दिन नहीं आए कि बंग भाषा और मराठी गुजराती की भाँति इसके प्रौढ़ पाठकों की संख्या उतनी हो कि जो हमारा उद्देश्य है और जैसा हमारा प्रौढ़ लेख होता है सब हिंदी पढ़ने वाले उसे समझ सकें और उसका यथोचित आदर करें। नहीं तो थोड़ी और अधिक सहायता मिलने से या पढ़नेवालों की कुछ और संख्या बढ़ जाने से हम इसे प्रतिमास समय से प्रकाशित कर उन्हें अपने लेख से विनोदित करते। इसलिए कि हम इधर-उधर की केवल गप्पमात्र से तो पत्र पूरा नहीं किया चाहते, अपिच हमारा उद्देश्य उन्हें प्रसन्न करने का है जो न साक्षर मात्र हैं वरन सरस और सहृदय हैं जैसा किसी का कथन है -
सरसा विपरीताश्चेत्सरसत्वं न मुंचति।
साक्षरा विपरीताश्चेद्राक्षसा एव केवलम्।।
सरस को उलट दो तो भी वह सरस कासरस बना रहता है पर साक्षर उलटो तो केवल राक्षस हो जाता है। किसी अच्छे लेखक का वह लेख ही क्या कि जो तीर सा हृदय में न जा चुभे और हर्ष गद्गद हो पढ़ने वाले ने प्रशंसा में मस्तिष्क न हिलाया जैसा महाकवि दंडी ने कहा है -
किं कवितस्तरय काव्येन किं कांडेन धनुष्मताम्-परस्य हृदये लग्नं न घूर्णयति यच्छिर:।
इंगलैंड इत्यादि देशों में जिनके नमूने पर हम यहाँ पत्र आदि अनेक सभ्यता की बातों को चला रहे हैं वहाँ एक-एक पत्रसंपादक संपादकता की बदौलता इतने अमीर बन बैठे हैं कि वहाँ के नामी डयूक और बेरोग का मुकाबला अपनी सब बातों में कर रहे हैं और गवर्नमेंट 'राष्ट्र' का समाचार पत्र एक अंग माना जाता है। पत्र संपादक अपनी अनुमति से सल्तनत के इंतजाम में राजा को समय-समय पर बाधित किया करते हैं यहाँ भी कितने ऐसे भाग्यवान् हैं कि पत्र के द्वारा उनकी इज्जत है और धनी हो गए हैं। अंगरेजी राज्य की प्रथा के अनुसार यह एक उत्तम व्यवसाय या रोजगार समझा जाता है उसी के अनुसार वे वैसा लेख लिखते हैं और एडवरटाईजमेंट आदि के द्वारा खूब धन कमाते हैं। हम यहाँ अपने पास का कुछ गँवाते हैं तथापि निज भाषाक की उन्नति समझ नहीं निरस्त होते और सबके ऊपर तो लिखने का दुर्व्यसन हमें नहीं रहने देता। नई बार हमने चाहा कि इस पाशची कृत्य का समापन कर बैठें और इससे पिंड छुड़ाएँ पर कोई न कोई बात आ जाती हैं जिससे यावज्जीव के लिए यह गले का हार हो गया है अस्तु वर्षांरंभ के विनोद में पहले अपने पढ़ने-वालों को आज हम नई-नई उक्ति युक्ति के कुछ थोड़े से श्लोक उपहार की भाँति सुनाया चाहते हैं।
संत: क्वापि नसंति संति यदिवा जीवन्ति दुखेन ते। विद्वान्सोपि नसंति संति यदिवा मात्सर्यक्ताश्रये राजानो पिनसंति संति यदिवा तृष्णा धन ग्राहिणों। दातारोपिन संति संति यदिवा सेवानुकूला: कलौ।
इस कराल कलिकाल में ढूँढ़ो तो सच्चे भक्त जिनके आचरण वास्तव में सज्जनता के हैं कहीं नहीं हैं यदि वे हैं तो अनेक दु:ख सह कर ज्यों-ज्यों अपना दिन काटते होंगे। सच है चरित्र पालन करते भले लोगों की सरणी का अनुसरण सहज नहीं है लोहे के चनों का चबाना है किसे पड़ी है कि संसार के अनेक सुखों से वंचित हो संत बनने का हौंसला रखे। ऐसा ही सच्चे विद्वान् भी इस समय नहीं हैं जो हैं वे मात्सर्य पूरित ईर्ष्या द्रोह से भरे हैं अपनी विद्या के प्रकाश से दूसरे को दबाना यही उनका उद्देश्य है तत्व निरूपण जो विद्या का मुख्य फल है वहीं छू नहीं गया। एवं राजा भी नहीं हैं जो हैं भी वो तिल से तेल निकालने की भाँति केवल प्रजा को चूसा चाहते हैं तो भी तृष्णा उनकी नहीं बुझती। दाता भी इस समय न रहे जो हैं भी वो सेवा के अनुकूल फल देने वाले हैं उनकी बड़ी खुशामद करो तो 'अतिप्रसन्नो दमड़ीं ददाति' देंगे थोड़ा पर नाम इतना चाहेंगे कि उनके नाम की पटह ध्वनि हो जिसमें कमिश्नर और लाट साहब के कानों तक यह शब्द पहुँचे और उनके लिए कोई उपाधि का वितरण किया जाए। चुपचाप दे किसी मुहताज की जरूरत रफा कर देने की तो अब प्रथा ही न रही सच है 'तं धिगस्तु कलयन्नपि वांच्छामर्थिवागसवसरं सहते य:' उस दानी को धिक्कार है जो जान गया है कि इसे कुछ जरूरत है फिर अवसर देख रहा है कि मुँह खोल कर माँगे तो हम दें। दूर क्यों जाइये दानी होते तो हमारे पत्र की यह दशा क्यों रहती अस्तु।
विभीषयति शीतलं जलमहिर्वपुष्मानिव प्रलोभयति कामिनीस्तन इवास्तधूमानल:।
सुतासय इवत्विषो दिनमणे: सुखं कुर्वते कुटुंब कटु वागिवब्यथयते तुषारानिल:।
शीलतता के वर्णन का यह श्लोक बहुत ही सामायिक और अच्छी उक्ति युक्ति का है। ठंडा पानी जाड़े के दिनों में फुफकारता हुआ देह धारी सर्प की भाँति डर दिखाता है। दूसरा चरण किंचित अश्लील है इससे उस का अर्थ छोड़ देते हैं। आगे कहता है कि दिन मणि सूर्य का प्रकाश वैसा ही सुख देता है जैसा पुत्र के जन्म में सुख मिलता है। अंत का चरण बहुत का ही प्राकृतिक है तुषार के कणों से मिली हुई ठंडी हवा वैसा ही दु:ख देती है जैसा कुनबे के लोगों की कड़ुई बोल।
नोपदेशं न नियमं न दाक्षिण्यं न साधुताम्।
स्मरन्ति जन्तब: कामं कामस्य बश भागता:।।
जंतु मात्र काम से पीड़ित हो न किसी के उपदेश पर कान देते हैं, न कोई नियम उनको नियमबद्ध कर सकता है, न चतुराई है, बड़े-बडे चतुर चूक जाते हैं, न साधुता निभ सकती है।
अप्यस्ति कश्चिल्लोकेस्मिन्येन चित्तमदद्विप:
नीत: प्रशम शीलेन संयमालान लीनताम।
कवि कहता है ऐसे मनुष्य संसार में कहीं कोई है जिसने मन मतवाले हाथी को अत्यंत शांति शील हो संयम Controle के दृढ़ खूँटे में बाँध रखा हो। सच है 'मनो नियस शिक्षायां मुनयोपिन पंडिता:' मन को नियम के बाहर न होने की शिक्षा देने में साधारण मनुष्यों की कौन कहे मुनियों की अकल भी गुम हो जाती है।
दुखिता: पर दु:खेषु निर्लोभा दुर्लभेषुच।
विपक्षेषु क्षमावंत: संत: सुकृत हेतव:।
ऊपर के इस श्लोक में शिष्टता शराफत या भलमनसाहत का अंत है संत जो सुकृत के सेतु हैं पराए के दु:ख में दु:खी दुर्लभ पदार्थ के सुलभ होने में भी निर्लोभ और शत्रु पर भी क्षमाशील होते हैं।
धनोदय सममुत्सिक्ता सौजन्य तटपातिनी।
लोलं कलुषयत्येव मानसं श्री तरंगिणी।
ऊपर के श्लोक में लक्ष्मी के साथ नदी का रूपक श्लेष गर्भित अच्छा निभाहा गया है।
प्रजां विनाशयत्यादौ प्रविष्टौ हृदि मन्मथ:।
दक्षो गेहं समायाति दीपं निर्बाप्य तस्कर:।।
इश्क चुं दर सीन आयद अक्लरा औवल रबूद
दुज्द दाना रकुनद औवल चिरागे खानेरा।
नासौजयी जितो येन नक्रव्यालमृगाधिपा:।
जितं तनैब येन दांतो मारस्त्रिलोक जित।।
महंगो अजदहाओ शेर नर मारा तो क्या मारा।
बड़े मूँजी का मारा नफ्स अम्मारा को गर मारा।।
बर्द्धंते मुखसादृश्यमवाप्य हरणीदृश:
धीयते तुत्तुला मेतुमुभयोरक्षमो विधु:।।
मह शुद तमाम ताचो रुखे ऊशवद न शुद। काहीद बाज ताख में थब्रू शवद न शुद।
लोको मद्युगजन्मा कृत कृत कर्मा नमूत धर्मा इतिहेतो
रिव कलिना वलिनासंपीडयते साधु:।
लोग मेरे युग में जन्म ले बहुधा सतयुग का काम कर रहे है मेरा। कलियुगी धर्म उनमें नहीं आया इसीलिए मानो बलवान् कलि से साधु जन पीड़ा पाते हैं।
भूतिर्नीच गृहेषु बिप्रसदने दारिद्रयं कोलाहले,
स्वल्पायु: सुकृती च पातक कृतामायु समानां शतम्।
दुर्नीतिं तव वीक्ष्य कोपदहनज्वालाजटालोपिसनें।
किं कुर्मो जगदीशं यत्पुन रहं दीनो भवानीश्वर:।
नीचों के घर में संपत्ति कर्मनिष्ठ ब्राह्मण के घर में दरिद्रता के कारण काँव-काँव, भला काम करने वाले अल्पायु पाप कर्म करने वाले सौ वर्ष तक जीते रहें यह तुम्हारी दुर्नीति देख क्रोध की अग्नि में जलते हुए है जगदीश हम क्या कर सकते हैं इसलिए हम दीन अकिंचित्कर हैं और आप सब भाँति समर्थ ईश्वर हो।
प्रभवार्थाय लोकस्य धर्म प्रबचनं कृतम्।
यस्यात् प्रभव संयुक्त: सधर्म इति निश्चय:।।
लोगों के प्रभाव अर्थात् वृद्धि के निमित्त धर्म का प्रवचन किया गया है। तात्पर्य यह कि जिससे जन-समूह का उद्भव और उनकी उत्तरोत्तर सब तरह बढ़ती और तरक्की होती रहे वही धर्म है तो निश्चय हुआ कि जिसके आचरण या अनुष्ठान से हम सब लोगों के उद्भव या उत्तरोत्तर भलाई में बाधा हो वह धर्म नहीं कहा जाएगा हमारे यहाँ के धर्म धुरीण जो धर्म को छीले डालते हैं पंक्ति में बैठे सह भोजन में महा अधर्म मानते है और इस अपनी बात के पोषण में अनेक धर्म शास्त्र के वचन पढ़ते हैं और सिद्ध कर देते हैं कि इससे बढ़ के अध:पात और सदेह नरक जाने के लिए और कोई दूसरा पाप ही नहीं है। हाँ हम भी यह मानेंगे कि किसी पतित शूद्र अथवा आधार भ्रष्ट के साथ सह भोजन क्या बल्कि ऐसों से संभाषण और संसर्ग में भी महापाप है किंतु जो अपने सजाति हैं बंधु हैं एक ही सभा या कमेटी के मेंबर या सभासद हैं जिनके हम एक-एक रगो रेशे से वाकिफ हैं उनके साथ सह भोजन में हिचक कितना समाज को जर्जरितं और छिन्न-छिन्न करने वाला है। बताइए यह उस कोटि का धर्म है जिससे हमारा प्रभव या उत्कर्ष हो सकता है। आठ या नौ वर्ष की लड़की ब्याहना समाज में कितना धर्म माना गया है कि जिसके पुण्य की सीमा नहीं है किंतु यह प्रत्यक्ष है कहाँ तक हम गला फाड़-फाड़ चिल्लाते रहें कि हमारी हिंदू जाति जो इस भाँति तेजोहत और सब तरह पर हीन-दीन हो गई उसका मुख्य कारण यही महा अधर्म है। जिसे हमारी अंध परंपरा का बड़ा धर्म और कल्याणकारी मान रही है छुआ-छूत स्पर्शास्पर्श का विचार हिंदू धर्म का मूल और स्वतंत्र स्वरूप है और जिस बुनियाद पर यह विचार कायम किया गया है कि हेय या दूषित तथा अपवित्र पदार्थ या मनुष्य की विद्युत शक्ति उसमें से निकल अपने में फैलती है सो बात विलायत की बनी चीजों में कितनी अधिक पाई जाती है। हम लोग विलायती चीजों की सुंदरता बारीकी और चटकीलापन पर प्रलोभित हो देश का धन फेंकते हुए उनके संग्रह में तन, मन से तत्पर रहते हैं। विलायत की बनी तंजेब आबरवां साटन आदि कपड़ों को बड़े शौक से जब पहनते हैं उस समय नवाबजादों को भी अपने आगे तुच्छ मानते हैं। ऐ चीजों उन्हीं की बनाई हैं जिन्हें हम शास्त्र के अनुसार अपवित्रता का आलय मानते हैं और गो-भक्षक मान जिनसे हम घिनाते हैं। सोचने की बात है कि क्या ये विलायती चीजें उनसे अधिक पवित्र हैं जिनका संपर्क हम अपने खान-पान आदि में बरकाते हैं और उनके साथ एक पंक्ति में बैठ भोजन में हिचकते हैं। यों तो एक अन्न को छोड़ जो इसी देश की पैदावरी है। बाकी वस्तु अपने रोजमर्रे के बर्ताव की सब देशक की बनी हम कोई नहीं बर्तते। उसमें कई एक चीजें विशेष लक्ष्य के योग्य हैं। जैसा केरोसनतेल, मोमबत्ती, साबुन दियासलाई इत्यादि। इन चीजों के बर्तन में हमारे धर्मधुरीणों को तनिक भी आगा पीक्षा नहीं होता यहाँ तक कि मन्दिरों में जो परम पवित्र स्थान है वहाँ भी चबी की बत्ती स्थान को पवित्र कर रही है। दियासलाई जो हमारे धर्मनिष्ठों की पूजा की झोलियों में बँधी रहती है फास्फोरस की बनती है, जो हड्डी का सत्त है, और अभी किसी को इसकी अपवत्रिता का ख्याल नहीं होता। पवित्र साबुन का पोतना तो फैशन में दाखिल हो गया है। केरोसीन तेल दुर्गंधपूरित और महाव्याधि जनक होने पर भी कोई घर न बचा जहाँ यह काम में न लाया जाता हो। बड़े-बड़े श्रोत्रिय आचारवानों के रसोईघर और देवस्थानों में जलाया जाता है पर विचार कर देखो तो यह कैसी अपवित्र और रोग पैदा करनेवाला वस्तु है। हम लोग जो अपने को आर्य कहते हैं उनके लिए ऐसी निकृष्ट वस्तु का स्पर्श भी सर्वथा हेय है। अस्तु हम ऊपर लिख आए हैं जिससे हमारे प्रभाव या उन्नति में बाधा पहुँचे वह धर्म नहीं है। इन विलायती चीजों के बर्तने से हमारे देश का वाणिज्य बिलकुल मिट गया। तिजारत के द्वारा देश का धन इंग्लैंड, जर्मनी, अमेरिका, जापान आदि देशों में ढोया चला जा रहा है। हम लोग यहाँ' तक निर्धन हो गए कि बहुधा लोग केवल जून खाते हैं तो दूसरी जून के लिए उन्हें बड़ी चिंता और फिक्र करनी पड़ती है तो सिद्ध हुआ कि विदेश की बनी चीजों को काम में लाय हम कितना और कैसा भारी अधर्म कर रहे हैं पर हमारे धार्मिकों की समझ में किसी हीन जाति के लोटे में पानी पी लेना तो बड़ा अधर्म है पर इसमें कोई अधर्म नहीं है वरन् विलायती चीजों की नफारत मोहित हो। जब उसे अपने काम में लाते हैं उस समय अपने सौभाग्य की सीमा मानते हैं। कणाद का सूत्र है 'यतो अभ्युदय नि: श्रेयस् सिद्धि सएव धर्म:' जिससे अपना अभ्युदय और कल्याण हो वही धर्म है। विदेश की बनी चीजों को काम में लाने से अभ्युदय कैसा बल्कि कहाँ तक हमारा अकल्याण और हानि है इसे बार-बार कहना केवल पिष्टपेषण मात्र है। बहुधा ऐसे काम जो धर्म के आभास में प्रत्यक्ष अधर्म हैं उन पर हमें बड़ी श्रद्धा है पर कितने काम जो वास्तव में धर्म है जिनके न करने से हमारी तरक्की और अभ्युदय में बाधा है उसे अपेक्षित किए हैं। प्रिय पाठक महोदय आप हमारे इस लेख को विक्षिप्प्रलाप न समक्ष विचार के देखिए तो एक-एक पद एक-एक अक्षर ठीक और उचित कह सकते हो पर यह इस समय ऐसा असाभ्य रोग हो गया है कि इस रोग के हटाने की कोई उपाय हुई नहीं जब हम सीते-जागते प्रतिक्षण विदेशी वस्तुओं को काम में लाते निमेष मात्र भी बिना उनके नहीं रह सकते तब कौन आशा है कि इससे हम सब सकते हैं। नीतिज्ञ लोगों का सिद्धांत है 'व्यापारे बसते लक्ष्मी' सो विदेशों वस्तुओं के बर्ताव से हमारे देश का व्यापार ही न रह गया तब लक्ष्मी कहां रहीं समुद्र पार के देशों में इस समय व्यापार है इसलिए लक्ष्मी भी हमसे विदा हो सात समुद्र पार जा मनमाना विहार कर रही है। वहाँ के निवासियों को देवदूत और फरिशते बना रखा है। वे प्रतिदिन हमारे लिए नए-नए प्रकार का अनुशासन स्वर्गीय आज्ञा के समान हमें सुनाया करते हैं। जिस आज्ञा के एक-एक अक्षर में महारानी का वैभव और उनके अखंड प्रताप उद्गार भरा हुआ है। लक्ष्मी देवी का अपमान रूप महापाप कलुषित हम लोग इस अधर्मानुष्ठान के प्रायश्चित में हजारों बार गंगा स्नान करते हैं। अनेक जप तप व्रत संयम से तन सुखाए डालते हैं पर यह घोर पाप किसी तरह दूर नहीं होता और इस पातक का फल दरिद्रता हमारा दामन नहीं छोड़ती। किसी ने कहा तुम पेड़े छील-छील और लड्डू उबाल-उबाल कर खाया करो तो यह पाप दूर हो जाए, किसी ने कहा तुमने ऋषियों की प्रणाली छोड़ दिया है केवल वेद को इलहाम मान आर्ष ग्रंथों को पढ़ा करो और पोप लीला में मत फँसों तो इस अधर्म का बोझ हलका हो जाय, किसी ने कहा जगत् त्राणकर्ता प्रभु ईसा की शरण गहो, किसी ने कहा सेरों साबुन देह में मलते चुटिया कटाय तुम साहब लोगों में दाखिल हो अपने नाम के आगे मिस्टर लिखा करो, किसी ने कहा जात-पाँत का झगड़ा छोड़ अलाय-बलाय जो कुछ मिला करे सब कुछ खा पी लिया करो, किसी ने कहा विलायत जाय नौरांग ललना को अपनी अर्द्धांगिनी बनाओ। My sweet heart, my better half कहते हुए सदा अपनी श्रीमती का मुँह जोहते रहो, किसी ने कहा विधवाओं को पकड़-पकड़ ब्याह डालो, किसी ने कहा ब्याह करते जाओ और औलाद पैदा करते रहो पिल्लों की सृष्टि से भारत को भर दो, किसी ने कहा सोशल कांफ्रेंस के मेंबर हो गायकवाड़ के धेला बन पुरानी रीति नीति को तहस-नहस कर डालो। इत्यादि-इत्यादि यह कि मरता क्या न करता जिसने जो कहा हमने वही किया पर बूँद के चूके को घड़ा ढरकाने की भाँति किसी से कुछ न हुआ और न वह पाप हमसे दूर हटा। तो निश्चय है कि अब आगे को हमारा प्रसभ काहे को कभी होगा। हम हमेशा ऐसे ही गुलाम और दास बने रहने को ईश्वर के यहाँ से चुन लिए गए हैं।