वर्ष के अंतिम दिन का उत्सव / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 दिसम्बर 2018
वर्ष का अंतिम दिन आनंद और अवसाद की मिली-जुली भावनाओं का दिन है। आने वाला समय बेहतर होगा, इसी आशा का संचार हमें ऊर्जा देता है। 'अच्छे दिन आने वाले हैं' अब राष्ट्रीय मखौल का विषय बन चुका है। पश्चिम के देशों में यह दिन क्रिसमस की छुट्टियों का हिस्सा है। भारत की शिक्षा संस्थाओं में यह शीतकाल की छुट्टियाें का अंतिम दिन है।
आजकल छोटे परदे पर 'लेडीज स्पेशल' नामक सीरियल दिखाया जा रहा है। उसके एपिसोड में दिन-प्रतिदिन मुंबई लोकल ट्रेन में सफर करने वाले पात्र रेल के डिब्बे को सजाते हैं और वर्ष के अंतिम दिन का उत्सव चलती हुई ट्रेन में मनाते हैं। फिल्म 'जूली' में इस अवसर पर एक मधुर गीत 'ये रातें नई पुरानी/ आते आते-जाते कहती हैं कोई कहानी/ ये रातें …' बहुत पसंद किया गया था। अर्से पहले केंद्रीय मंत्री वसंत साठे भी टेलीविजन पर इस उत्सव के दिन शरीक हुए थे। डर के मारे वर्तमान मंत्री इस तरह की उत्सव प्रियता छुपाए रखते हैं। हाईकमान के कोड़े पर उन्हें तरह-तरह नाच के दिखाना पड़ता है। एक पत्रकार ने चुनाव पर केंद्रित अपनी किताब में लिखा कि एक मंत्री ने उन्हें उनके बंगले के पिछले दरवाजे से आने की हिदायत दी, क्योंकि अगले भाग पर उनके अपने नेता के गुप्तचर तैनात रहते हैं। भय के भव्य तनोबा के बीच सब कंपकंपाते नज़र आते हैं। ये गणतंत्र व्यवस्था के बुरे दिन हैं। राज कपूर की फिल्म 'श्री 420' में वर्ष की अंतिम रात के जश्न का दृश्य है। उस अवसर पर सटीक सार्थक गीत के बोल हैं 'हम भी तेरे हमसफर हैं...' इस गीत के बाद एक दृश्य है, जिसमें नायिका नायक के नैतिक पतन पर उसे लताड़ती है। वह अपनी अनैतिकता से कमाए हुए धन को उसके चरणों पर रखता है और हवा के झोंके से बिखरे हुए धन को समेटने के प्रयास में कीचड़ में लोटता-सा नज़र आता है। इसी दृश्य के अंत में एक और गीत है 'ओ जाने वाले हो सके तो मुड़कर देखते जाना' यह गीत 'मुड़ मुड़ के न देख' के जवाब के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनाड़ी' में ही इस अवसर का गीत था- '1956-1957-1958…' ये बोल थे। शाहरुख खान की 'हैप्पी न्यू ईयर' नामक फिल्म में भी इस दिवस के दृश्य हैं। कहा जाता है कि इस फिल्म की प्रेरणा उन्हें किशोर कुमार की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' से मिली थी परंतु उनके प्रयास से फूहड़ तमाशा बनकर रह गई। सचिन देव बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की रचना 'एक लड़की भीगी भागी सी/ सोती रातों में जागी सी...' के स्तर तक पहुंचना असंभव है। सारे प्रयास बौने ही सिद्ध होते हैं।
वर्तमान समय में सारे होटल, रेस्तरां और क्लब में भांति-भांति के कार्यक्रम होते हैं। जिसके लिए अग्रिम बुकिंग की जाती है। उम्रदराज लोग घर में ही टेलीविजन देखते हुए कुछ पकवान खाते हैं। उनके लिए यह वक्त यादों की जुगाली करने का है। दर्द की सेज पर पड़े-पड़े खोए हुए प्यार के नगमे गुनगुनाते हैं उम्रदराज लोग। उम्र का हिसाब किताब भी दिन-रात और वर्ष के पैमाने पर किया जाता है परंतु सार्थकता को मानदंड में शामिल नहीं किया गया है।
कितना अधिक समय कितनी निर्रथकता में जाया किया गया है। सच तो यह है कि हर क्षण सार्थक हो भी नहीं सकता। कुछ नहीं करना भी बहुत सार्थक हो सकता है। बर्टंेड रसेल ने इसी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए एक लेख लिखा था 'इन प्रेज ऑफ आइडलनेस'। साहित्य ऐसे ही लोग रचते हैं। अवचेतन के जलसाघर में सारे समय दमित इच्छाओं का रक्स (नृत्य) चलता रहता है। अधिकांश लोगों को वह सब नहीं मिलता है, जिसकी उन्होंने कामना की थी। आम आदमी जो हासिल हो जाता है, उसी में मगन रहता है। उसे निर्मम व्यवस्थाओं ने इसके लिए प्रोग्राम्ड किया है। 'भाग्य' की रचना भी इसी का हिस्सा है। समय की अवधारणा पर जावेद अख्तर की एक रचना का सार कुछ इस तरह है कि चलती हुई रेलगाड़ी से हम देखते हैं कि वृक्ष चल रहे हैं परंतु दरअसल, हम चलायमान हैं और वृक्ष स्थिर खड़े हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी तरह समय स्थिर रहता है और हम ही उसके सामने से गुजर जाते हैं।
बहरहाल, नव वर्ष के तीसरे या चौथे माह में लोकसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। यह चुनाव कई मामलों में निर्णायक सिद्ध हो सकता है। क्या कूपमंडूकता और अंधविश्वास तथा छद्म धार्मिकता कायम रखी जाएगी या तर्क सम्मत वैज्ञानिक सोच स्थापित होगा?