वसंत-पंचमी निराला की स्मृतियों का समारोह / राजकमल चौधरी
अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त
अभी न होगा मेरा अन्त
हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त
अभी न होगा मेरा अन्त ।
और, वसन्त पंचमी आ गई है। निराला की जन्मतिथि। और, पन्द्रह अक्टूबर भी हर साल आता रहेगा। — निराला का मृत्यु-दिवस। साहित्यिक क्षेत्रों में जन्मोत्सव मनाया जाएगा, मृत्यु शोक किया जाएगा। लेकिन केवल साहित्यिक क्षेत्रों में ही। क्योंकि वसन्त पंचमी निराला की जन्मतिथि है। हिन्दी के महाप्राण महाकवि की जन्मतिथि। निराला — अपनी कविता के आदि से अन्त तक वसन्त और फूलों और वर्षा और बादलों और भाषा और आख्यानों और मुक्त गान और मुक्त विहंगों का ही कवि बना रहा। प्रथम गौरव ने या प्रकृति और विश्व के प्रति निस्सीम प्रेम ने उसे अनास्था और पराजय और मृत्यु की कविता लिखने नहीं दिया। वैसे, समय पराजय और मृत्यु की कविता का था, और अब तो वसन्त और फूलों के गीत गाने का मौसम कहीं नहीं रह गया है। मौसम नहीं रह गया है कि—
पुष्प-पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूँगा मैं
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं
जैसे विचार-खण्डों की अभिव्यक्ति क्या, प्रतीति भी हो सके। फूल नहीं है; और दैनिक जीवन की साधारणतम लालसाएँ तक रक्त में भीगी हुई है और नवजीवन तो कहीं नहीं है, आत्मा में भी नहीं, कल्पना में भी नहीं; जैसे अचानक ही यह समस्त सृष्टि अत्यन्त वृद्धा और अत्यन्त कुरूपा और अत्यन्त भयदायिनी हो गई है। और अमृत?
समुद्र-मंथन की पौराणिक किम्वदन्तियों के सिवा, और निराला की कविताओं के सिवा अमृत कहीं नहीं है। फिर, आज का कवि अमृत कहाँ से लाएगा? वह तो ख़रीदता है अपमान और घुटन और कुण्ठाएँ और गलाज़त और मज़बूरियाँ और किसी दफ़्तर में या किसी दुकान में ग़ुलामी ! निराला आज का कवि नहीं था। इसीलिए, निराला बीत गया।
अभी उस दिन पन्द्रह अक्टूबर था। निराला को बीते ज़्यादा दिन नहीं गुज़रे हैं, मगर लगता है, पूरा एक युग बीत गया। यों, हम लगभग साल भर से आशा कर रहे थे कि आज, न कल, निराला महाप्रयाण करेंगे। हम ऐसा नहीं चाहते थे, फिर भी, हम ऐसा चाहते थे। हम ही क्या, जिन्होंने निराला की रचनाएँ पढ़ी थीं, पास से या दूर से भी निराला के हिमालय व्यक्तित्व को देखा था, और इस के साथ ही निराला की तड़प, वेदनाएँ, क्षण-क्षण की मृत्यु, विक्षिप्तता, निराला के अहम् का विस्फोट, और निराला का आत्म-संहार जाना-पहचाना था, वे सारे लोग चाहते थे कि निराला को मुक्ति मिल जाए। निराला को मुक्ति मिल जाए दार्शनिक विक्षिप्तता से, आत्म-संहार से, आत्मा की प्रज्ज्वलित ज्वालामुखी से। निराला को मुक्ति मिल गई। हिन्दी काव्य-प्रवाह का एक सम्पूर्ण युग बीत गया।
और, अब निराला के देहावसान के उपरान्त, साहित्यिक क्षेत्रों में बड़ी सरगर्मी आ गई है। निराला की स्मृतियों और निराला के संस्मरणों और निराला के प्रति श्रद्धांजलियों की सरगर्मी किन्तु केवल साहित्यिक क्षेत्रों में। निराला की मृत्यु के शोक में स्कूल-कॉलेज नहीं बन्द हुए, साधारण जनता ने शोक-सभा नहीं की, किसी शासनिक प्रवक्ता या राजनीतिक अधिनेता ने दो शब्दों में भी शोक प्रकट नहीं किया, श्रद्धांजलि अर्पित नहीं की। उसने भी नहीं, जिस के लिए अपने हाथों से चाय बनाकर निराला दारागंज की अपनी कोठरी से आनन्द-भवन के शानदार महल तक दौड़ गया था — स्नेहवश, किसी स्वार्थवश नहीं ! निराला को किसी शोक-सभा और श्रद्धांजलि-समारोह की आवश्यकता नहीं थी। 1954 में कलकत्ते में निराला का अभिनन्दन किया गया था। उस समय निराला विक्षिप्त नहीं, बीमार थे और पूर्णत अन्तर्मुख हो चुके थे। अचानक गले में पड़ी मालाएँ उतारकर उठे, और मंच से उतरकर चले गए। और, जैसे अपने-आप से ही बोले, Mr One! You cannot make us wooden headed Mr Second! You cannot catch us with gold.
निराला को इस 'मिस्टर वन' से घृणा थी, और यह 'मिस्टर वन' साहित्य और कला और संस्कृति के समस्त सृजन से दूर रहने वाली साधारण जनता है, जो तब निराला को नहीं पढ़ती थी, 'ब्लेक' सिरीज़ के जासूसी उपन्यास पढ़ती थी और पारसी थिएटर की औरतों के 'खेमटा' नाच देखती थी। निराला को इस 'मिस्टर सेकेण्ड' से घृणा थी, और यह 'मिस्टर सेकेण्ड' साहित्य को और साहित्यकार की ईमानदारी को सोने की ज़ंजीरों में क़ैद कर लेना चाहता है, ताकि ’वह तोड़ती पत्थर’, इलाहाबाद की सड़क पर और वह आता, दो टूक कलेजे को करता, पछताता और ’राम की शक्ति-पूजा’ और ’बादल राग’ नहीं लिखे गाएँ जाएँ, इनके बदले या तो ’गीतगोविन्द’ और ’भामिनी-विलास' के तर्ज़ की भोज लिखी जाए, या आधुनिक रघुकुल का वश स्तवन किया जाए।
निराला को इस 'मिस्टर वन' और इस 'मिस्टर सेकेण्ड' की दया और श्रद्धांजलि की ज़रूरत नही थी। किन्तु, जिन चीज़ों की उन्हें ज़रूरत थी, वह भी उसे कहाँ मिली। शायद उस का अहम् उसे दया और सहानुभूति और दान स्वीकारने से रोकता था। शायद यह शारीरिक आवश्यकताओं से ऊपर उठ चुका था, और लगातार बीमारियों और लगातार अभावों में भी यह कहने का साहस रखता था।
मेरे जीवन का है यह जब प्रथम चरण इसमें कहाँ मृत्यु, है जीवन ही जीवन अभी पड़ा है मेरे आगे सारा यौवन स्वर्ण-किरण-करलोलों पर बहता रे यह बालक-मन और, यह साहस ही निराला की हर प्रकार की उपेक्षा और हर प्रकार की यातनाओं में जीवित और आत्म सम्पूर्ण रखता था। आत्म सम्पूर्ण और आत्म तुष्ट, और अपराजित।
अपराजित-अज्ञेय निराला को रहना ही था, क्योंकि बंगभूमि की, तरल कोमलता और उत्तर प्राप्त का सबल पौरुष —दोनों ने मिलकर निराला के व्यक्तित्व का निर्माण किया था। विद्यापति और चण्दीदास का समर्पित पद-लालित्य, और तुलसी और कबीरदास का दुर्धर्ष काव्य-व्यक्तित्व — दोनों की परम्परा निराला की कविता को विरासत में मिली थी। और, निराला को मिली थी मनोहरा देवी के रूप में ऐसी जीवनसंगिनी, जिसने उसे हिन्दी से परिचित कराया, और प्रेरित किया कि हिन्दी को एक नया तुलसीदास मिल जाए, हिन्दी को एक रवीन्द्रनाथ मिले। चाँदनी रात में पति-पत्नी गंगातट की ओर घूमने निकल जाते थे, और वहीं फैली बालुकाराशि पर पत्थर के टुकड़ों से सीधी टेढ़ी लकीरें खींचकर मनोहरा देवी अपने कवि स्वामी को देवनागरी के अक्षर और शब्द सिखाती थी। बरसती हुई चाँदनी ...गंगा की शान्त-एकान्त लहरें ...वेदकालीन आर्य-ब्राह्मण की तरह व्यक्तित्व वाला पति उपनिषद्कालीन आर्य-ऋषि पत्नी की तरह दिखने वाली मनोहरा देवी ! निराला ने एक गीत लिखा।
शब्द के कलि-दल खुलें
गति-पवन-मर काँप थर-थर मीढ़ भ्रमरावलि
ढुलें
गीत-परिमल बहे निर्मल फिर बहार-बहार हो
स्वप्न ज्यों सज जाए
यह तरो, यह सरित, यह तट, यह गगन,
समुदाय
कमल-वलयित सरल दृग-जल हार का
उपहार हो
और, निराला ने ऐसे ही कितने गीत लिखे। कलियों के, पवन के, वसन्त के, स्वप्नों के, गगन के, नदी-तट के, और स्नेह के गीत। किन्तु, समय और परिस्थिति हर कुछ बर्दाश्त कर सकती है, स्नेही मन के भावुक गीत नहीं। मनोहरा देवी चली गईं। 1918 में उन्हें इंफ्लूएंज़ा के भयावह रोग का शिकार होना पड़ा। और निराला पागल हो गया। जिस गंगा-तट पर जैसे स्वप्नों की भीड़ सज जाती थी, वह श्मशान बन गया, और निराला पागल हो गया और गंगा में बहती जाती हुई लाशें खींचकर बाहर लाने लगा कि शायद यह लाश उस की मनोहरा की हो, उस की प्रियतमा की हो। निराला वनवासी राम की तरह बार-बार अपनी खोई हुई पत्नी का नाम ले-लेकर चीख़ता था, प्रत्येक शवदाह की ज्वाला में खड़ा होकर अपनी ज्वालामुखी को शान्त करना चाहता था, मगर, अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा!
फिर, निराला के पूज्य पिता, पण्डित राम-सहाय त्रिपाठी का देहान्त हुआ। 1930 में निराला ने अपनी कन्या, सरोज का विवाह किया, और कुल पाँच ही वर्ष के उपरान्त क्षय रोग से वह भी चल बसी। सरोज की मृत्यु ने निराला को तोड़ दिया। साहित्य को सरोज-स्मृति' की महान् कविता मिली, लेकिन निराला को क्या मिला? विक्षिप्तता और आत्मदाह।
विक्षिप्तता इसलिए कि समवर्ती समाज ने निराला को नहीं समझा, उसके काव्य को और उसके अहम् को और उसके व्यक्तित्व को नहीं समझा। आत्मदाह इसलिए कि कवि के पास, स्रष्टा के पास आत्मदाह के सिवा होता ही क्या है?
आत्म-संहार हम सभी कर रहे है, साहित्य-सृजन के कार्य में लगे हुए हम सभी लोग ! हम सभी पीड़ित है कि मिस्टर वन और मिस्टर सेकेण्ड को हमारी कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष आवश्यकता नहीं है। और, निराला की पीड़ा और हमारी पीड़ा में फ़र्क़ यही है कि निराला के पास अपराजय अहम था, जिसने उसे टूटने को मजबूर किया, लेकिन कभी किसी क्षण झुकने नहीं दिया। और, हमारे पास अहम नहीं है, आत्म-ज्ञान नहीं है, आत्म दर्शन नहीं है। हम झुकते हैं, और टूटते हैं, और फिर भी जीवित रहते हैं, और हँसते-मुस्कुराते हैं और स्वयं को कवि और सर्जक और समाज का प्रवर्त्तक मानते हैं।
और, वसन्त पंचमी आ गई है। निराला की जन्मतिथि। और, पन्द्रह अक्टूबर भी हर साल आता रहेगा। निराला का मृत्यु-दिवस। साहित्यिक क्षेत्रों में जन्मोत्सव मनाया जाएगा, मृत्यु शोक किया जाएगा। लेकिन, निराला को साहित्य में सही स्थान नहीं मिलेगा, पाठकवर्ग का सही सम्मान नहीं मिलेगा — क्योंकि, निराला ने पाठ्य पुस्तकों के लिए कविताएँ नहीं लिखी, साहित्य की अकादमियों और सरकार का सम्मान पाने के उद्देश्य से साहित्य नहीं रचा, आर्थिक योजनाओं की पूर्ति के लिए निराला-साहित्य का कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि, निराला विक्षिप्त हो कर सड़कों पर घूमता था, रुपए पैसों की उसने कभी चिन्ता नहीं की, मॉडर्न लेखक बनकर जीना उसे नहीं आया। क्योंकि, निराला अपनी विक्षिप्तता की स्थिति में बार-बार एक पंक्ति दुहराते थे —
I am not subject to the limitations of my audience, I am making an example of playing the same card in life and literature और, जीवन और साहित्य में ताश के एक ही पत्ते खेलने से पागलपन न मिले, पीड़ाएँ न मिलें, अकालमृत्यु न मिले, तो और क्या मिलेगा?
निराला को मृत्यु मिल गई, लेकिन सतत प्रयत्न कर के भी क्या उनके साहित्य को मृत्युमुख किया जा सकेगा?