वसंत का दैवीय स्वरूप / कुँवर दिनेश

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भारतीय दर्शन के एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान देते हुए, स्वयं को विभिन्न रूपों में प्रकट किया है और उन्हीं में से एक है- ‘ऋतूनाम् कुसुमाकर:’ अर्थात् ‘मैं ऋतुओं में वसंत हूँ’। यह उद्घोष, प्रकृति के साथ ईश्वर के गहन संबंध और विशेष रूप से वसंत ऋतु के दिव्य और दैवीय स्वरूप को दर्शाता है। यह एक ऐसा संदेश है, जो न केवल वसंत ऋतु के महत्त्व को दर्शाता है; बल्कि जीवन के हर पहलू में भगवान की उपस्थिति को भी दर्शाता है।

यह ऋतु प्रकृति के नवजीवन का समय होता है। प्रकृति अपनी पूर्ण सुंदरता में खिल उठती है। पेड़ नए पत्तों से आच्छादित हो जाते हैं, रंग-बिरंगे फूल चारों ओर अपनी सुगन्धि फैलाते हैं और वातावरण में एक नई ऊर्जा का संचार होता है। पृथ्वीसूक्त में धरा को वसंत जैसे अनुपम उपहार प्रदान करने के लिए स्रष्टा का आभार व्यक्त किया गया है। पुराणों में वसंत को कामदेव के साथ जोड़ा गया है, जो पृथ्वी में जीवन का संचार करने और इसकी निरंतरता को बनाए रखने वाले देव हैं।

वसन्त के दैवीय प्रभाव से ही प्रकृति एवं मनुष्य-जगत् में विशेष गुणों का सन्निधान होता है: ‘काकः कृष्णः पिकः कृष्णः कः भेदः पिककाकयो। वसंत समये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः॥’ यानी कौवा काला है, कोयल भी काली है, कौवे और कोयल में अंतर क्या है? वसंत ऋतु आने पर कौवा कौवा और कोयल कोयल होती है। कौवा और कोयल दोनों काले रंग के होते हैं, परन्तु वसन्त ऋतु के आगमन पर कोयल का विशिष्ट गुण, उसकी मीठी कुहूक सुनाई देती है, और तब स्पष्ट हो जाता है कि कोयल कौन है और कौवा कौन।

वसंत केवल एक ऋतु नहीं, प्रत्युत दिव्य चेतना की अभिव्यक्ति है। ऋतुचक्र में वसन्त के रूप में, श्रीकृष्ण यह भी संदेश देते हैं कि परिवर्तन जीवन का एक अभिन्न अंग है। शीत ऋतु के उपरांत वसंत ऋतु का आगमन सुनिश्चित है। इसी प्रकार जीवन में सुख-दु:ख की आवृत्तियों का चक्र चलायमान रहता है। हमें सुख-दु:ख में समभाव से इन परिवर्तनों को स्वीकार करना चाहिए और आशावादी दॄष्टिकोण अपनाना चाहिए। वसंत का आगमन हमें यह स्मरण कराता है कि जीवन सतत आगे बढ़ता है और हर अंत एक नए आरम्भ का संकेत होता है।