वसीयत / मधु संधु
ऐसा नहीं था कि यह सम्पदा उसने अपनी कमाई से बनाई थी। यह उसे मायके से भी नहीं मिली थी। इसे पति के पत्नी प्रेम का उपहार भी नहीं कहा जा सकता था। बस हुआ यूं कि दिवालिये पति के पास जायदाद समेटने के लिए कानून का यही एक मात्र चोर दरवाजा बचा था।
सोचती कि संतान स्नेह ने पति के रेगिस्तानी स्नेह दारिद्रय को ढाँप लिया है। उस रोज अस्पताल का कामन वार्ड कचहरी का प्रांगण बन गया, जब बड़े बेटे ने अस्पताल में हार्ट अटैक से मरणासन्न पड़ी माँ के हस्ताक्षर अदालती कागजों पर करवा स्वयम् को माँ का एक मात्र वारिस घोषित कर दिया।
अब नाते-रिश्ते के लोगों और पड़ोसियों को फर्ज अदायगी के नाम पर मात्र मनोरंजन करना था। मज़ा लेना था। छोटे बेटे के पहुँचते ही इस कार्यक्रम का लाइव प्रसारण अस्पताल में बेहोश पड़ी माँ के बिस्तर से गाँव के बड़-पीपल के पेड़ तले तक होने लगा।
वहाँ से सही सलामत घर पहुंची माँ ने ज़िंदगी के इस रफ-एंड-टफ पक्ष से दो-चार होने पर कोई भी वसीयत न करने का निर्णय लिया। अब दोनों बेटों के पास किसी भी अंतिम हार्ट अटैक की प्रतीक्षा के इलावा कोई विकल्प न था।