वसीयत / सरस्वती माथुर
विशाल की बुआ रामदेवी कच्ची उम्र में ही विधवा हो गयीं थी। ससुराल अमीर था पर वह वहाँ टिक नहीं पायीं -एक बड़ी जायदाद लेकर वह अपने बड़े भाई के पास रहने आ गयीं थीं।एक पुत्र की माँ भी थी वे जिसे मामा ने पढ़ाया और अमेरिका भेजा, पढ़ाई के बाद धूमधाम से शादी भी की। एक बड़ी कंपनी में वह नौकरी पर भी लग गया था पर बुआ की उसकी पत्नी से निभी नहीं। इसी दौरान भाई भी गुज़र गये।
एक दिन विशाल की पत्नी सुुजाता ने शिकायती लहजे में कहा-- "यह अपने बेटे के पास क्यों नहीं जा रहीं वापस?"
"बहू से पटरी नहीं बैठ रही उनकी सुुजाता, मैं बुआ से बहुत प्यार करता हूँ, हमें उन्हें निभाना ही पड़ेगा।"विशाल ने अपना फ़ैसला सुना दिया।
"और कोई बात नहीं विशाल हमारे पास केवल दो कमरे हैं जबकि उनकी ख़ुद की इतनी बड़ी कोठरी है -परिसर में दो घर बने हैं ..."बात अधूरी छोड़ कर सुुजाता चुप हो गयी।
एक दिन तेज़ बुखार आया और बुआ शांत हो गयीं। दाह संस्कार के समय बेटा बहू भी पहुँचे। तभी बुआ के रिश्ते के एक वक़ील देवर ने उनकी वसियत खोल दी।जानकी परिसर में बनी अपनी कोठरी का एक हिस्सा वह विशाल के नाम लिख कर यह आग्रह कर गयीं थी कि मेरे क्रियाक्रम के तुरंत बाद विशाल वहाँ शिफ़्ट कर ले, मेरे मन को इसी में सुख मिलेगा वरणा मेरी आत्मा को बहुत ही कष्ट होगा। विशाल ने वसीयत सुनकर जैसे ही बुआ के बेटे बहू की ओर दृष्टि घुमाई - देखा, दोनों की निगाहें झुकी हुई थी और सुुजाता की आँखों से टपटप आँसू बह रहे थे।