वह आदमी / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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महेश डलहौज़ी पहली बार आया था। अपनी शादी के तीस साल बाद। इससे पहले वह कई हिल-स्टेशन घूम चुका था, लेकिन डलहौज़ी के बारे में उसके मन में एक उजाड़ हिल-स्टेशन की छवि बनी हुई थी। इसलिए डलहौज़ी आना वह बार-बार टालता रहा।

डलहौज़ी में दाखिल होते ही उसकी छवि टूटने लगी। सड़कें किसी भी विकसित हिल-स्टेशन सी चिकनी और दोनों ओर हरे-भरे चीड़ के पेड़ थे। बीच-बीच में कच्चे पहाड़ दिख जाते थे। उन पर बने जल-बहाव के निशान यह संकेत दे रहे थे कि बारिशों में इन सड़कों पर भू-स्खलन आम बात होती होगी। हालाँकि कच्चे पहाड़ों को भी पेड़ लगाकर मज़बूती देने की कोशिश की गयी थी, लेकिन सम्भवतः वो कोशिश नाकाम रही।

घुमावदार सड़कों पर बलखाती गाड़ी के शीशे उसने खोल दिये और प्रदूषण-रहित हवा को अपने फेफड़ों में भरने लगा। साथ ही बैठी नीमा भी वही कर रही थी। किसी भी हिल-स्टेशन पर जाने का सबसे पहला अहसास महानगरों की प्रदूषण-भरी ज़िन्दगी से मुक्ति का अहसास होता है।

पठानकोट से डलहौज़ी पहुँचने में चार घण्टे लग गये। होटल में सामान लगा और फ्रेश होने के बाद भूख दस्तक देने लगी। ड्राइवर उन्हें गाँधी चौक ले गया। यहीं डलहौज़ी का मुख्य बाज़ार है। महेश गाड़ी से उतरकर किसी ठीक-ठिकाने जगह की तलाश करने लगा। ड्राइवर ने उसे शेरे पंजाब सहित तीन-चार रेस्तराँ के नाम बताये थे। वह और नीमा चौक के कॉर्नर पर बने क्वालिटी रेस्तराँ में घुस गये।

एक मेज़ पर महेश और नीमा आमने-सामने बैठ गये। रेस्तराँ की सजावट आकर्षक थी। हर कोने में अमूर्त पेंटिंग्स टँगी हुई अति-यथार्थवाद की दुनिया में ले जा रही थीं।

ठीक सामने वाली मेज़ पर महेश की नज़र गई तो वहीं ठिठकी रह गयी। उस मेज़ पर एक अनजान व्यक्ति बैठा था। उसे महेश ने पहले कभी नहीं देखा था। उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो बरबस महेश को उसकी ओर आकर्षित कर रहा था। महेश ने अपने आसपास नज़र घुमाकर देखा कि उसे कोई और भी देख-परख रहा है या केवल वही उसकी ओर आकर्षित हो रहा था। रेस्तराँ में अभी कुल चार-पाँच मेज़ों पर ही लोग जमा हुए थे और सभी अपने-अपने में व्यस्त। सामने कोने वाली मेज़ पर एक नव-विवाहित जोड़ा रोमांस में मशगूल था। दायीं ओर तीन विदेशी लड़कियाँ अपने आसपास से बेखबर नेटिव भाषा में बतिया रही थीं। पीछे की मेज़ पर एक अधेड़ पति-पत्नी और उनके दो बच्चे खाने के ऑर्डर पर एक-दूसरे से झगड़ रहे थे। किसी भी मेज़ पर महेश की नज़र एक-दो क्षण से ज़्यादा नहीं टिक रही थी। महेश की नज़र घूम-फिर कर उसी व्यक्ति पर केन्द्रित हो गयी।

महेश ने अनुमान लगाया कि उसकी उम्र साठ के आसपास होगी। सिर पर बाल कम और पूरी तरह पके हुए थे। गंदमी रंग और शरीर गठा हुआ लग रहा था। उसका चेहरा-मोहरा, बैठने का अन्दाज़ एक आकर्षक व्यक्तित्व का अहसास देता था। उसके हाव-भाव बता रहे थे कि वह भी यह बात जानता था। अपने व्यक्तित्व को लेकर शायद वह इतना आश्वस्त था कि वह अपने आसपास किसी को भी नहीं देख रहा था। कहीं उसके मन में यह भाव भी तैर रहा था कि दूसरों का ध्यान ही उस पर केन्द्रित होना चाहिए।

नीमा ने काम्बो खाने का ऑर्डर दे दिया था। काफी देर से फैली खामोशी को नीमा ने ही तोड़ते हुए पूछा-”उधर क्या देख रहे हो” दरअसल उस व्यक्ति की ओर नीमा की पीठ थी और वह उस व्यक्ति को नहीं देख पा रही थी।

“ऐसे ही...सोच रहा था रेस्तराँ में सिर्फ़ यही व्यक्ति अकेला क्यों है” कहते हुए महेश ने अपनी आँखों से ही उस व्यक्ति की तरफ इशारा किया। नीमा ने गर्दन घुमाकर उस व्यक्ति को देखते हुए कहा-”होगा कोई लोकल।”

“नहीं...सैलानी है...उसके कपड़े, उसके जूते और उसके चेहरे के भाव।”

तभी बैरे ने उस व्यक्ति की मेज़ पर चिकन टिक्कों से भरी प्लेट और उसके साथ एक नॉन लाकर रख दिया। वह अपने आसपास से उसी तरह से बेखबर उन्हें खाने लगा। महेश अभी भी उसे देख रहा था। उसे इस तरह किसी को देखना बेअदबी लग रही थी, लेकिन वह अपने आप को रोक नहीं पा रहा था।

महेश कहीं अन्दर ही अन्दर उस व्यक्ति के एकान्त से रश्क कर रहा था। इन दिनों उसके और नीमा के रिश्तों में एक तनाव आ गया था और वे उस तनाव को तोड़ने से मुक्त होने के लिए कुछ-कुछ दिनों के लिए दिल्ली से बाहर निकल आते थे।

महेश को कहीं ऐसा भी लगने लगा कि ज़रूर उस व्यक्ति के जीवन में भी कोई तनाव होगा और वह उस तनाव से मुक्त होने के लिए ही अपनी तरह से एकान्त जीना चाहता है। महेश नहीं जानता था कि एकान्त जीना क्या होता है। वह तो जहाँ भी जाता है, नीमा हमेशा उसके साथ होती है। वह कई बार साथ-साथ होते हुए भी एकान्त जीने की कोशिश करता लेकिन साथ-साथ रहते हुए, एक-दूसरे को टोकते हुए, एक-दूसरे का ध्यान रखते हुए क्या एकान्त जिया जा सकता था?

इसी प्रश्न को लेकर महेश के मन में कुछ केंचुए रेंगने लगे थे। एक-दूसरे से लिपटे हुए केंचुए। महेश उन केंचुओं की पकड़ में था कि वेटर ने मेज़ पर प्लेटें सजा दीं। महेश का मन उन केंचुओं की पकड़ से छूट झकाझक सफ़ेद प्लेटों में अटक गया। शायद उसे भूख सताने लगी थी।

वह व्यक्ति चिकन-टिक्कों की प्लेट खाकर नैपकिन से अपने होंठ साफ़ कर रहा था। थोड़ी ही देर में वह अपना बिल चुकाकर रेस्तराँ से बाहर चला गया, लेकिन महेश अभी भी उसके व्यक्तित्व में उलझा हुआ उसके एकान्त से ईर्ष्या कर रहा था।

कुछ देर बाद महेश के सामने खाना आ गया। उसका मन अभी भी चिकन-टिक्कों की प्लेट में उलझा हुआ था। उसने नीमा से यह बात कही। नीमा ने कहा-”अब वो मँगवाओगे तो यह कौन खायेगा।”

महेश चुपचाप परोसा हुआ खाना खाने लगा और थोड़ी ही देर बाद वे सुगन्धित सौंफ चबाते हुए रेस्तराँ से बाहर आ गये।

“खाना अच्छा लगा न?” नीमा ने ऐसे पूछा जैसे खाना उसी ने बनाया हो। “हाँ” संक्षिप्त सा जवाब देते हुए उसने ड्राइवर को गाड़ी लाने के लिए कहा। वहाँ से वे सुभाष बाउली और सतधारा देखने गये। दोनों ही जगहों पर कुदरत अपने हसीन यौवन का रंग बिखेर रही थी, लेकिन महेश का मन कुदरत के यौवन में अटकने के बजाय उस व्यक्ति में अटका हुआ था। उसने अपने मन को बार-बार समझाया भी कि वह उस अनजान व्यक्ति के बारे में इतना क्यों सोच रहा है। उसका मन था कि दिमाग के आदेश को नहीं मान रहा था।

महेश जहाँ भी जाता, उसकी नज़रें उस व्यक्ति को खोजतीं। उसने सोच लिया था कि वह उसे जहाँ भी दिखा तो वह उससे उसके बारे में पूछकर अपनी जिज्ञासा शान्त कर लेगा। अपनी इसी खोज में ही वह दो दिन लगातार उसी रेस्तराँ में खाना खाता रहा। उसे विश्वास था कि वह व्यक्ति भी फिर वहीं खाना खाने आयेगा। उसका विश्वास रेत की दीवार साबित हुआ।

दो दिन बाद महेश और नीमा डलहौज़ी से खज्जियार की ओर रवाना हो गये। खज्जियार की खूबसूरती के चर्चे भी उसने बहुत सुने हुए थे। लगभग एक घण्टा बाद वे खज्जियार की वादी में थे। उनके सामने हरा-भरा खुला मैदान खुलेपन की परिभाषा दे रहा था। मैदान के चारों ओर तीन स्तरों पर खड़े देवदार के ऊँचे पेड़ मैदान के व्यक्तित्व के तीन स्तरों का संकेत दे रहे थे। महेश अपने मन को उस मैदान से जोड़कर समझने की कोशिश कर रहा था। हवा में तैरती हल्की गुलाबी ठण्ड और चटख धूप सुहावने मौसन का पर्याय बन गयी थीं। वे दोनों खज्जी नाग का मन्दिर देखने के बाद खुले मैदान में ही बैठकर मौसम जी रहे थे कि महेश की नज़र फिर ठिठक गयी। उसने देखा कि उस मैदान के दूसरे छोर पर वही व्यक्ति अकेला एक कुर्सी पर बैठा था। उसने नीमा से कहा-”वही आदमी...तुम यहीं बैठो नीमा...मौसम का मज़ा लो, मैं उससे मिलकर आता हूँ।”

“मैं भी चलती हूँ न।”

“नहीं तुम बैठो...प्लीज़...थोड़ी देर में आता हूँ’, कहकर वह अपना कैमरा सँभालते हुए उस व्यक्ति के पास पहुँच गया।

वह व्यक्ति एक कुर्सी पर बैठा किसी लोकगायक से चम्बा का लोकगीत सुन रहा था। वह लोकगायक दायें हाथ में रबाब और बायें हाथ में खंजड़ी पकड़कर बजाता हुआ गा रहा था। महेश अपने कैमरे से उसे शूट करने लगा। उस व्यक्ति ने अभी तक महेश को देखा नहीं था। दो गीत सुनाने के बाद लोकगायक चला गया तो महेश ने उस व्यक्ति की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा-”हलो।”

“हलो”, उस व्यक्ति ने जवाब दिया। उसकी ‘हलो’ में निस्पृहता थी।

“आई एम महेश...महेश दत्त...” कहते हुए उसने अपना हाथ उस व्यक्ति की ओर बढ़ा दिया।

उस व्यक्ति ने क्षण भर महेश को देखा और फिर उसका हाथ थामते हुए बोला-”आई एम कैलाश...कैलाश खोसला।”

“आप डलहौज़ी में भी थे न...!” महेश ने अपने स्वर में आत्मीयता घोलते हुए पूछा।

“हाँ”, संक्षिप्त जवाब।

“अकेले हैं?”

“हाँ”, वही संक्षिप्त जवाब।

“मैं आपके पास थोड़ी देर बैठ सकता हूँ?”

“कोई ख़ास बात!” कैलाश ने सवाल के जवाब में सवाल ही किया।

महेश थोड़ा अचकचा गया। फिर भी उसने हिम्मत बटोरते हुए कहा-”नहीं...बस दो दिन पहले आपको डलहौज़ी में देखा था...क्वालिटी में...तभी से आपसे बात करने का मन कर रहा था।”

“बैठिए”

महेश के पास ही एक ओर पड़ी कुर्सी को खिसकाकर बैठ गया। दोनों के बीच एक अपरिचित खामोशी थी। लोकगायक के सुनाये गीतों की धुनें उस अपरिचित खामोशी में भी सुनाई दे रही थीं।

खामोशी में महेश ने ही सेंध लगाई-”सोच रहा था कि आप इतने खूबसूरत इलाके में अकेले...”

कैलाश की बड़ी-बड़ी आँखें महेश की ओर उठीं। महेश ने उन आँखों में समाई गहरी उदासी को पढ़ लिया, लेकिन किसी अयाचित टिप्पणी के डर से खामोश रहा।

“आप...” उस व्यक्ति की जिज्ञासा थी।

“नहीं...मैं अकेला नहीं...मेरी पत्नी है मेरे साथ...वो देखिए मैदान के उस ओर...”

“उन्हें भी साथ रखना चाहिए था न...उन्हें वहाँ क्यों छोड़ दिया।”

“दरअसल बात यह है मिस्टर कैलाश कि मैं दो दिन से यही सोच रहा था कि आप किसी तरह से अपना एकान्त जीते हुए यहाँ से वहाँ घूम रहे हैं...ऐसा होता है न कि हर आदमी कभी पूरी तरह से मुक्त होकर जीना चाहता है...अपने में...अपने साथ...अपने एकान्त के साथ।”

कैलाश की आँखों में समाई उदासी और भी गहरी हो गयी। अब उसकी आवाज़ में भी केवल उदासी झलकने लगी थी-”आप बहुत लकी हैं मिस्टर महेश कि आप अपने पार्टनर के साथ घूम रहे हैं।”

“तो क्या आपका पार्टनर...!”

“था...हम दोनों भी जहाँ जाते...हमेशा साथ-साथ ही जाते थे...शहर में या शहर से बाहर...एक-दूसरे से प्यार करते हुए...लड़ते हुए...मनाते हुए...”

“तो...”

“बस चार साल पहले...मेरी पत्नी गीता डेंगू की गिरफ़्त में ऐसी फँसी की लाख कोशिश करने पर भी वह बची नहीं...बहुत प्यार करती थी वो मुझसे...तब से अकेला हूँ...इधर-उधर भटकता हुआ...जिसे आप एकान्त कह रहे हैं न वो मेरा एकान्त नहीं, अकेलापन है...मैं अपने अकेलेपन से लड़ने के लिए...उसे तोड़ने के लिए नयी-नयी जगहों पर जाता हूँ...नए पहाड़, नये-नये मौसमों से मिलता हूँ...अपना एकान्त तो आप कहीं भी और किसी के साथ रहते हुए भी जी सकते हैं...लेकिन अकेलापन बहुत मारक होता है मिस्टर महेश...अकेलापन जब आदमी में उतरता है तो उसे अन्दर तक तोड़ देता है...और मैं टूटना नहीं चाहता। अपने-आप को बचाकर रख सकूँ, इसीलिए यहाँ-वहाँ...इस शहर से उस शहर...और फिर मुझमें जीने की एक नयी ऊर्जा आ जाती है...उसी ऊर्जा के सहारे अपने काम पर लौटता हूँ...” कहते-कहते कैलाश की आवाज़ कुछ काँपने लगी थी। उसकी आँखें पनीली हो गयी थीं। उसने जेब से अपना रूमाल निकाला और उससे अपनी पनीली आँखों को ढक लिया।

महेश को अपने पूरे परिवेश में स्तब्धता का अहसास हो रहा था। उसे कैलाश ने एकान्त और अकेलेपन की समझ दे दी थी।

यह बिना कुछ कहे उठा और हल्के-हल्के कदमों से नीमा के पास लौट आया। उसने देखा कि नीमा की आँखों से झाँकता इन्तज़ार उसी को खोज रहा था।

महेश ने पलटकर देखा...कैलाश वहाँ से जा चुका था।