वह उड़ती थी तो तितली लगती थी / ज्योति चावला
हुआ कुछ यूं कि उनकी शादी को लगभग दो बरस बीत चुके थे। कहानी के दोनों चरित्र यानी पति और पत्नी यानी स्त्री और पुरुष यानी विलासराव मांजरेकर और उषा मांजरेकर महाराष्ट्र के एक जिले औरंगाबाद के एक छोटे से गाँव के रहने वाले थे और पिछले कई सालों से काम-काज के सिलसिले में मुम्बई के पास स्थित नवी मुम्बई में बस गए थे। यहीं दोनों के परिवारों ने विलासराव और उषा के ब्याह की बात सोची, ब्याहा और अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए। इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट हो गया कि उषा तलपड़े से उषा मांजरेकर बनने की प्रक्रिया में विलासराव और उषा के बीच प्रेम विवाह जैसा कुछ नहीं हुआ। यानी यह शादी एक बगैर प्रेम की शादी थी-अरंेज मैरेज। यह सब बताने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है कि ये दोनों चरित्र मूलतः मराठीे थे या कोई और भाषा-भाषी, उनका विवाह एक प्रेम विवाह था या नहीं। बस बताने के क्रम में यूं ही यह सब यहाँ बता दिया गया है। ज़रूरत तो यह जानने की भी नहीं है कि ये दोनों चरित्र काल्पनिक थे या फिर वास्तव में इसी जीती-जागती दुनिया के।
उषा दिखने में बेहद खूबसूरत थी और विलासराव यानी विलास ठीक उसके विपरीत। उषा गोरी थी तो विलास काला। उषा सुंदर थी तो विलास संुदरता से तो कम से कम कोसों दूर था। उषा चहकती थी तो विलास गंभीर।
उषा हंसती थी तो पास के मंदिर की घंटियाँ जोरों से बजने लगती थीं। विलास उषा कि हंसी के निर्झर झरने में चुपचाप बहता जाता था। उषा ने आते ही विलास की ज़िन्दगी के ठहरे हुए पानी को एक कल-कल बहती नदी में बदल दिया था। वह रोज़ उषा कि हंसी की नदी में गोते लगाता रहता था। वह उषा के कान में धीरे से कहता था, 'तुम तो मेरी मोरनी हो।' और उषा पंख फैलाए पूरे आंगन में नाचने लगती थी। विलास देखता कि उषा के नाचते ही सब कुछ नाचने लगता था। आसमान से बारिश होने लगती थी। नाचते हुए उषा कि बड़ी आंखे और बड़ी-बड़ी हो जाती थी और उसकी आंखों के कजरारे कोर और कजरारे हो जाते थे। विलास धीरे-से हाथ-पैर बाँधे उषा कि आंखों में समा जाता था। उषा पलकें बंद कर लेती थी। इसी तरह उनके वैवाहिक जीवन का दिन-दिन बीत रहा था। उषा का यह जादू हर रोज और दूना हो जाता था और विलास अपने आंगन में हो रहे इस सारे जादू को अपनी आंखों में समेटे रोज काम पर चला जाता था।
विलास के उस दो कमरे के घर में सिर्फ़ उषा और विलास ही थे। विलास के माता-पिता उन दोनों को शहर में छोड़ वापस गाँव लौट गए थे। घर में एक छोटा-सा आंगन था और आंगन के ऊपर एक टुकड़ा भर नीला आसमान। उसी आसमान पर उषा रोज ब्रश से दिनभर आकृतियाँ उकेरती रहती थी और विलास के घर आने पर उसका हाथ थामे खींच कर उसे आंगन में ले आती थी। उंगली से आसमान की ओर संकेत करती थी और विलास उसके बनाए खूबसूरत रंग-बिरंगे चित्रों को उस टुकड़े भर आसमान पर एकटक देखता रहता था। वह उषा को अपनी बांहों में कस लेता और एक गुलाबी चुम्बन धीरे-से उसके सुनहरी माथे पर आंक देता। इस तरह उनके जीवन के दिन-दिन बीतने लगे।
बिलास और उषा यूं ही एक-दूसरे में डूबते-उतरते रहते थे। दोनों एक-दूजे से ऐसे एकमेक हो चुके थे जैसे नदी समुद्र में मिलकर हो जाती है। उषा दिन भर जो आकृतियाँ आसमान में उकेरती थी उसके बचे हुए रंग रात उन दोनों के बीच पसर जाते थे। विलास उषा कि बांहों में आकर अपने दिन भर की थकान भूल जाता था और उषा विलास के साथ जिए उन पलों को दिन भर के लिए सहेज लेती थी। विलास के आॅफिस चले जाने पर वह इन्हीं पलों के सहारे अपने दिन भर के अकेलेपन को काटती थी। आसमान में आकृतियाँ उकेरती थीं, बादलों पर रंगोली बनाती थी और उन बादलों को तहाकर अपने बटुए में रख लेती थी। विलास रोज उषा कि देह में अपने होने की सार्थकता को ढूँढता और रोज अपने जीवन केा उतना ही सार्थक पा खुद से रंज करने लगता। उषा का आना उसकी ज़िन्दगी में बहार का आना था।
विलास उषा कि हंसी को अपने कानों में और उसके चेहरे को आंखों में और इन दोनों को अपने दिल में बसाए घर से निकल जाता और नवी मुम्बई की लोकल ट्रेनों की भीड़-भाड़ और ठसम ठस्स में भी मीठी हवा का झोंका उसे चारों ओर से घेरे रहता। उषा कि बाहों का घेरा उसे इस बड़े शहर की बड़ी भीड़ से काट अपने दायरे में समेटे रहता। विलास अक्सर आॅफिस में अपने दोस्तों से कहता, "मेरे घर में एक बगिया है। उस बगिया में रंग-बिरंगें पंखों वाली एक तितली है। तुम कभी आना मेरे घर, मैं तुम्हें अपनी तितली से मिलवाउंगा। ' उसके दोस्त अक्सर ये सोचते कि इस शहरी ज़िन्दगी में, जहाँ लोगों को रहने भर की जगह मयस्सर नहीं, विलास के घर में एक बगिया भी है। वे अक्सर विलास की ऐसी बातों पर हंसते। लेकिन उसकी अगली पंक्ति तुम कभी आना मेरे घर..." उन्हें फिर से सोचने को मजबूर करती। विलास अक्सर कहता, वह तितली रोेज इन फूलों से रंग और खुशबू लाकर मेरी जेबों में भर देती है। विलास के चेहरे की मुस्कान और मन की शांति देखकर लोगों में उस तितली को देखने की लालसा बढ़ने लगती थी।
विलास और उषा एक-दूसरे में यूं ही दिन रात खोए रहते थे। यह उषा के प्यार की ताकत ही थी, जो विलास केा इतना खुश, इतना जीवंत बनाए रखती थी। विलास उषा के बालों को अपनी उंगलियों में लपेटते हुए धीरे-से बुदबुदाता, "काश मैं यूं ही जीवन भर तुम्हारी लटों में उलझा रहूँ।" विलास की होंठों की बुदबुदाहट से उषा के कानों और फिर पूरे बदन में एक सरसरी-सी दौड़ जाती। वह अपने कान की लवों को विलास के होंठों के थोड़ा और करीब खिसका देती। विलास उसी तरह फिर बुदबुदाता, "काश हम दोनों सदा यूं ही रहें।" उंषा के होंठ, उषा कि भवें, उषा कि आंखे और उषा कि देह फिर से मुस्करा देती। उषा कि इन सारी हरकतों से विलास की मदहोशी और बढ़ती जाती। वह फिर उसी तरह धीरे-से बुदबुदाता, 'काश! हम दोनों के बीच कभी कोई न आए।' और उषा झट से अपने दायें हाथ की प्रथमा उंगली को विलास के होंठों पर रख देती।
उषा माँ बनना चाहती थी। वह अपने भीतर विलास को पूरी तरह आत्मसात् कर लेना चाहती थी और यह तभी संभव था जब वह अपनी देह से विलास की संतान को जन्म दे। विलास की संतान की माँ कहलाए। वह इस एक और कड़ी के माध्यम से इस सम्बन्ध की कभी न खुलने वाली गांठ को और कस देना चाहती थी। वह माँ बन जाना चाहती थी। विलास को वह जीवन के सब सुख देना चाहती थी।
शादी के दो बरस यूं ही बीत गए। इन दो बरसोें में विलास दिन-रात उषा के प्रेम में डूबा रहा और उषा यूं ही उसके जीवन में रंग भरती रही। दो साल तक उन्हें वास्तव में किसी की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। एक-दूसरे से पल भर भी दूर रहने की कल्पना से दोनों ही भीतर तक सिहर जाते।
इन दो बरसों में विलास का प्रमोशन हुआ। विलास के अन्य सहकर्मियों में से किसी का भी प्रमोशन पिछले चार सालों से नहीं हो पाया था। एक दिन विलास के बाॅस ने चपरासी को भेजकर विलास को अपने कमरे में बुलाया। जिस समय चपरासी विलास को बुलाने आया विलास उस समय काम में डूबा हुआ था। उसके कानों के भीतर कोयल कूक रही थी। चपरासी ने आकर विलास से कहा था, "विलास साहेब, आपको बड़ा साहेब बुला रइच हैं! विलास साहेब चलिए, आपकेा साहेब बुलाता है!" विलास फाइलों पर झुका था। उसके हाथ तेजी से काम कर रहे थे। लेकिन उसकी पूरी देह मुस्कुरा रही थी। जब दो बार बुलाने पर भी विलास राव मांजरेकर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, तब चपरासी ने हाथ झाड़कर विलास को धीरे से झकझोरा। विलास के कान में बैठी कोयल अचानक चुप हो गई थी।
विलास बाॅस के कमरे के बाहर खड़ा था। दरवाजे पर नामपट्टी यानी नेमप्लेट लगी हुई थी। लकड़ी की भूरी पट्टी पर काले अक्षरों से नाम लिखा हुआ था, "श्री दिवाकर बासु।" विलास ने मन में सोचा, दिवाकर बासु श्री है या नहीं, यह तो हम सोचेंगे ना! यह खुद को खुद ही सम्मान बख्शे हुए है। फिर अचानक उसने अपनी गर्दन को धीरे से झटक कर इन फालतू बातों को दिमाग से झाड़ दिया। उसका ध्यान अभी भी कान के भीतर बैठी कोयल पर ही था। कोयल अब चुप हो गई थी। उसकी चुप्पी विलास को पसंद नहीं थी। उसने धीरे से दरवाजे को धकेला और अपने बाॅस से भीतर आने की इजाजत मांगी। अपनी आदत से उलट दिवाकर बासु, श्री दिवाकर बासु आज खुश थे। विलास को देखते ही बोले, 'आओ बाबू मोशाय, हमको तुम्हारा ही इंतजार था। "चाय की चुस्की लेते हुए ठीक बंगाली अंदाज में उन्होंने विलास से पूछा,' तुम चाय खाएगा?" और फौरन खुद को सही किया, "मेरा मतलब तुम चाय पीओगे?" विलास ने औपचारिकतापूर्वक न में सिर हिला दिया। दिवाकर बासु ने बिना एक भी मिनट गंवाए एक लिफाफा विलासराव की ओर बढ़ा दिया, "बधाई हो। आपका प्रमोशन किया जाता है।" प्रमोशन मिलते ही विलास की तनख्वाह तो बढ़ी ही, एक बड़ा घर भी मिल गया। खबर पाते ही विलास के कान के भीतर दुबक कर बैठी कोयल फिर से हरकत में आ गई। बाॅस ने देखा, विलास सिर से पांव तक संगीत की किसी धुन पर झूम रहा है।
विलास ने घर आते ही यह खबर उषा को दी। उसने धीरे से उषा के कान में बुदबुदाया, 'मोरनी हो तुम, मेरी मोरनी।' उषा मोरनी बन नाचने लगी। आंगन पर बारिश होने लगी। आसमान पर बिखरे सारे रंग घुल-घुलकर उषा और विलास पर बरस रहे थे। विलास के घर में रंगों का मेला लगा था।
इस बड़े घर में मोरनी के नाचने के लिए और ज़्यादा जगह थी। आंगन से दिखने वाला आसमान का टुकड़ा बड़ा हो गया था। अब इस बड़े आसमान के टुकड़े को रंगने के लिए ज़्यादा रंगों की ज़रूरत थी। पुराने रंग अब इस नए घर में कम पड़ने लगे थे। उषा ने एक दिन विलास से कहा, "मैं इतने बडे घर में दिन भर अकेली रहती हूँ। मन उक्ता जाता है। आप दिन भर बाहर रहते हैं ... यह बड़ा घर मुझे खाने को दौड़ता है।" विलास ने देखा, मोरनी के पंख थक गए हैं।
शादी से पहले उषा एक नौकरी करती थी। शादी के कुछ ही दिन पहले उषा ने वह नौकरी छोड़ दी थी। विलास के आई-बाबा कि यह इच्छा थी कि उनकी बहू उनके बेटे के घर को संभाले। उन्होंने उषा के घर वालों से कह भी दिया था, 'आप तो जानते ही हैं हमारे घर में किसी चीज़ की कमी नहीं। विलास की नौकरी भी बढ़िया है... उषा कमाकर क्या करेगी! बस, बहू तो अपनी गृहस्थी बढ़िया से संभाले, हमें और कुछ नहीं चाहिए। बहू से नौकरी करवाने का हमें कोई लालच नहीं!' उषा के आई-बाबा को उन लोगों की बात खूब जंची थी-'कितने भले लोग हैं न सोचिए तो! पैसा-रोंकड़ा का कोई लालच नहीं!' आई ने यह कह कर दोनों मुट्ठियाँ अपने माथे के दोनों ओर सटा कर उषा कि नज़र उतार ली थी।
आज उषा को बैठे-बैठे वह बात याद आ गई थी। विलास के गले में दोनों बांहें डालकर उसने धीरे से विलास से पूछ लिया था, 'आप कहें तो मैं फिर से नौकरी ज्वाइन कर लूं...?' दोनों के बीच एक सन्नाटा-सा खिंच गया था और फिर विलास ने ही उस चुप्पी को तोड़ा था-'उषा, तुम तो मेरी मोरनी हो। तुम नहीं जानती कि तुम्हारे पंखों में कितने रंग हैं।' विलास ने उषा के गोरे मासूम चेहरे को अपने हाथों में भर लिया था। 'तुम्हारे ये सारे रंग सिर्फ़ मेरे लिए हैं...मैं चाहता हूँ तुम्हारे ये रंग हमेशा यूं ही बने रहें। बाहर की दौड़-धूप में इनकी यह चमक फीकी पड़ जाएगी मेरी मोरनी... और मैं ऐसा बिल्कुल नहीं चाहता।' यह कहकर विलास ने उषा के माथे को धीरे से चूम लिया था और उषा के माथे पर लगी कुमकुम की बिंदी अपने घेरे से थोड़ी बाहर फैल आई थी। उषा के मासूम चेहरे पर उसकी मासूमियत अभी भी वैसी की वैसी थी।
विलास ने महसूस किया था उषा को अब किसी के साथ की ज़रूरत है। उसने धीरे से कहा, " मैं तुमसे तुम्हारी जैसी एक बिटिया चाहता हूॅं। उषा फिर से मुस्कुराने लगी थी। विलास ने उषा के मन की बात कह दी थी। उषा को हंसता देख विलास के कानों में बैठी कोयल फिर से कूकने लगी थी।
उषा ने विलास से कहा नहीं था, लेकिन वह बेटा चाहती थी। ठीक विलास जैसा और विलास उषा से बेटी चाहता था। वैसी ही सुंदर, उतनी ही चंचल, मोरनी की तरह नाचने वाली। उसने सोच लिया था वह अपनी बेटी का नाम रिमझिम रखेगा। रिमझिम और मोरनी के साथ ने ही उसके मन को यह नाम सुझाया था। उषा विलास के इस निर्णय से खुश थी। घर में बच्चा होगा, तो खुशियाँ दुगुनी हो जाएंगी। उषा के अकेलेपन को भी एक साथी मिल जाएगा।
उनके दरवाजे पर एक दस्तक हुई तो थी
विलास और उषा कि ज़िन्दगी में सचमुच नई खुशी ने दस्तक दी थी। उषा को उस सुबह उल्टी हुई थी। उसका सिर भारी था और कमजोरी महसूस हुई थी। विलास उषा कि यह हालत देखकर घबरा गया था और आनन-फानन में उसने टैक्सी बुला ली थी। इतनी खराब तबीयत में भी विलास ने देखा, उषा के होंठों के कोरों पर हल्की मुस्कान छिपी थी। विलास सब समझ नहीं पा रहा था।
डाॅक्टर उषा को चेकअप के लिए भीतर ले गई। भीतर उषा कि जांच चल रही
थी और बाहर विजिटिंग चेयर पर विलास बैठा हुआ था। अचानक उसने ध्यान दिया उसके कानों में बैठी कोयल जैसे कहीं दुबक-सी गई है। वह आज कूक नहीं रही थी। उसे लगा कि कहीं उसकी भी तबीयत खराब न हो। उसे लगा कि काश यह डाॅक्टर उसकी भी जाँच कर ले। डाॅक्टर के केबिन की दीवार परएक छोटे से गोल-मटोल बच्चे की तस्वीर थी। विलास की नजर भटकते-भटकते उस तस्वीर पर जा टिकी। विलास ने देखा कि उस तस्वीर में बच्चा उसे देखकर मुस्कुराने लगा था। बच्चे की आंखों में एक शरारत थी-ऐसे जैसे वे कह रही हों, उषा को क्या हुआ है, मैं सब जानती हूॅं।
डाॅक्टर और उषा चेकअप रूप से बाहर आए। उषा कि आंखें मुस्कुरा रही थीं। विलास ने देखा उषा कि आंखें बिल्कुल तस्वीर में बैठे उस बच्चे जैसी हो गई हैं। वह यह देखकर चैंक गया। इससे पहले कि वह अपनी कोयल की चुप्पी के बारे में डाॅक्टर से कुछ कहता, डाॅक्टर बोली, इनका हीमोग्लोबिन लो है। आपको खास ख्याल रखना होगा। ' ब्वदहतंजनसंजपवदे! ल्वन ंतम हवपदह जव इम इसमेेमक ूपजी ं इंइलण्ष् अब तस्वीर वाला बच्चा हंसने लगा था। विलास की नजर उस बच्चे पर जा टिकी। कानों में दुबकी कोयल भी चहक कर बाहर आ गई थी और फिर से कूकने लगी थी। डाॅक्टर विलास और उषा को सब कुछ समझाकर अपने काम में लग गई। विलास के कानों में बच्चे की हंसी और कोयल की कूक की आवाज गूंज रही थी। लेकिन वह हैरान था कि डाॅक्टर और उषा इस सारी बात से जैसे बिल्कुल अनजान थीं।
उषा अब पहले से ज़्यादा खुश रहने लगी थी। वह विलास के जाते ही आंगन भर आसमान पर रंग-बिरंगे चित्र उकेरने लगती थी। उसे लगता कि इस पूरी प्रक्रिया में अब वह अकेली नहीं है। उसे झुकने में परेशानी होने लगी थी और उसके पेट में बैठी उस छोटी-सी जान ने जैसे सब कुछ समझ लिया था। अब उषा रंग भरती और वह नन्हीं जान उसे रंग और ब्रश पकड़ाने में मदद करती। वह विलास के जाने के बाद दिन भर खुद को अकेला महसूस नहीं करती थी। वह नन्हीं जान हर समय उसके साथ रहती। वह जब भी अकेली होती, उसे धीरे से पुकारती और वहाँ से जवाब पाकर खुश होती। वह अपनी होने वाली संतान केा कहानियाँ सुनाती। वह उसे विलास के बारे में बताती। वह उसे इस घर के भीतर होने वाले जादू के बारे में अक्सर बताती। उषा उसे यह भी बताती कि कैसे वह कभी चुपके से मोरनी बन जाती है, कैसे उसके पंख निकल आते हैं और वह तितली बन जाती है और तो और उसने एक राज़ की बात भी बताई थी उस नन्हीं जान को। वह बात जो उसने कभी विलास को भी नहीं बताई कि विलास के कानों के भीतर जो कायेल रहती है, वह और कोई नहीं बल्कि खुद उषा ही है। ये सारी बातें सुनकर उस छोटी-सी जान को बहुत आश्चर्य हुआ था। उसकी आंखें इस आश्चर्य में खुली की खुली रह गई थीं और उसकी इस हरकत को देख उषा ने उसे धीरे से चूम लिया था।
उषा और उस नन्हीं जान के बीच यह लुका छिपी, ये शैतानियाँ यूं ही चलती रहती यदि उस दिन वह घटना न घटी होती। उषा को उस दिन सुबह से ही उल्टियाँ हो रही थीं। उषा कि हालत देखकर विलास ने अपने बाॅस श्री दिवाकर बासु को फोन किया था और छुट्टी के लिए कहा था। दिवाकर बासु ने अपनी उसी रूखी आवाज में जवाब दिया था, "ठीक है मि। मांजरेकर, आप कल आकर केजुअल लीव अप्लाई कर देना।" विलास को फोन के इस ओर से ही दिवाकर बासु की रूखी, चिड़चिड़ी शक्ल दिखाई दे गई थी। वह सब कुछ भूलकर उषा कि सेवा में लग गया था। डाॅक्टर ने सख्त हिदायत दी हुई थी कि किसी भी स्थिति में उषा को डाॅक्टर की सलाह के बिना कोई दवा न दें। अभी सुबह के सिर्फ़ साढ़े आठ बज रहे थे। इतनी सुबह डाॅक्टर को फोन करना ठीक नहीं। वह कुछ देर और इंतजार करना चाह रहा था लेकिन उषा कि हालत सुधरने की बजाय बिगड़ रही थी। उसने हिम्मत करके डाॅक्टर को फोन लगा दिया। फोन में डाॅ। सीमा चक्रवर्ती का नाम ढूँढते हुए उसके दिमाग में चल रहा था, सीमा चक्रवर्ती मतलब बंगाली। कहीं इस डाॅक्टर का सम्बन्ध उस दिवाकर बासु तो नहीं। उसने डाॅ। चक्रवर्ती को फोन लगाया था और डाॅक्टर ने ठीक दस बजे उसे और उषा को क्लीनिक में बुला लिया था और तब तक के लिए दवा भी बता दी थी।
उषा का मन बहुत घबरा रहा था। विलास ने महसूस किया था कि जब-जब उषा उदास होती है तो उसके कानों में बैठी कोयल भी चुप हो जाती है।
विलास और उषा जब डाॅक्टर से मिलने उनके कैबिन में पहुँचे तो डाॅक्टर सीमा चक्रवर्ती अपनी चेयर पर बैठी थी और उन्होंने हाथ में पानी का गिलास उठाया था। घड़ी में दस बजकर पाॅंच मिनट हो चुके थे और विलास-उषा को इंतजार करते पूरे दस मिनट। डाॅ। चक्रवर्ती ने आते ही मीठी-सी मुस्कान फेकी और उन्हें कमरे में आने का इशारा किया। डाॅ। चक्रवर्ती की मुस्कान से विलास की चिंता और घबराहट हल्की-सी कम हुई। लेकिन डाॅक्टर का उषा को देखना अभी बाकी था।
डाॅ। चक्रवर्ती उषा को लिए चेकअप रूम में चली गईं। इस बीच के समय में विलास के दिल में न जाने क्या-क्या चल रहा था। दीवार पर उस गोल-मटोल बच्चे की तस्वीर अभी भी लगी हुई थी। वह बच्चा आज मुस्कुरा नहीं रहा था। विलास ने देखा, बच्चा आज गुमसुम है। वह मन में जैसे उस तस्वीर में बैठे बच्चे से बातें करने लगा, अच्छा बच्चू, आज मुस्कुराओगे नहीं। पिछली बार तो इसलिए मुस्करा रहे थे कि तुम सारा राज जानते थे और मुझे कनखियों से देख रहे थे। इस बार तो मैं सब जानता हूँ। अब तुम मुझे क्या बताओगे? इसीलिए शक्ल उतरी हुई है-है ना? उषा को सही हाथों में पहुँचाकर विलास कुछ शांत दिख रहा था। उसके और उस तस्वीर के बीच बातें कुछ और देर तक चलती रहतीं अगर डाक्टर और उषा इस बीच लौट न आते।
डाॅक्टर के चेहरे का रंग कुछ बदला हुआ लग रहा था। उषा कि प्रेग्नेंसी का यह छठा महीना था। डाॅक्टर ने विलास को फौरन उषा का अल्ट्रासाउण्ड करवाने की सलाह दी। अल्ट्रासाउण्ड करवाने के नाम से विकास थोड़ा चैंका तो लेकिन उषा और विलास दोनों उत्साहित हो गए। इससे पहले के अल्ट्रासाउण्ड में दोनों ने माॅनीटर पर पेट में पलने वाले बच्चे को शरारतें करते देखा था। विलास का कहना था, उषा यह तो बिल्कुल तुम्हारी ही तरह है। गोरी और खूबसूरत। देखो, उतनी ही चंचल भी दिख रही है। देखो तो, शरारती ने कैसे मुंह पर हाथ रख लिया है। उससे उलट उषा के मन में कुछ और ही चल रहा था उस वक्त। उसने बाद में विलास को बताया था, बेटा है मैंने देखा है ध्यान से। आपने देखा नहीं, वह मुझे देखकर मुस्कुराया भी था। वैसे भी आपको कैसे पता चलेगा? मेरो तो रोज उससे बातें होती हैं। रात को जब आप सो जाते हैं तो वह मुझे भीतर से पुकार कर जगाता है और फिर हम देर तक बातें करते रहते हैं।
आज फिर दोनों यह तय करेंगे कि पेट में बेटा है या बेटी। सच पूछो तो इसका उत्साह विलास को ज़्यादा था क्योंकि उषाा को तो सब पता ही था कि वह बेटा है। फिर भी उषा उसे देखने के लिए तो उत्साहित थी ही।
विलास ने अल्ट्रासाउण्ड रूम में जा कर रेडियोलाॅजिस्ट को डाॅ। चक्रवर्ती की दी हुई पर्ची थमाई। पर्ची देखकर उस रेडियोलाॅजिस्ट ने एक नजर पहले उषा को देखा और फिर एक नजर विलास को और उषा को बैड पर लेटने के लिए संकेत किया। वह कुछ बोली नहीं।
रेडियोलाॅजिस्ट शांत थी। उसने अल्ट्रासाउण्ड की प्रक्रिया शुरू कर दी और विलास को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। सब की नजर माॅनीटर पर थीं। वह रहस्यमयी दुनिया, जहाँ उषा और विलास का बच्चा इन दिनों रहता है, माॅनीटर की स्क्रीन पर उभर आई थी। विलास और उषा ने देखा, बच्चा एकदम शांत है, कोई हलचल नहीं हैं। 'लगता है सो रही है शैतान' , विलास एकबारगी बोला। उषा ने झट से सुधारा, 'रही नहीं रहा है। ... बहुत बदमाश है। दिन भर बदमाशी करता है। जब मैं सोती हूँ तो जागता रहता है और अब देखिए... कैसे आराम फरमा रहे हैं साहेब।' रेडियोलाॅजिस्ट ने एक पुर्जा तैयार करके विलास के हाथ में थमा दिया।
डाॅ। चक्रवर्ती के केबिन में इस वक्त चार लोग थे। डाॅ। चक्रवर्ती, उषा, विलास और तस्वीर में बैठा वह गोल मटोल बच्चा। विलास ने दखा, तस्वीर वाला बच्चा भी आंखे मूंद गहरी नींद में सोया हुआ है। विलास उसे देखकर मुस्कुरा दिया। " साॅरी, मि मांजरेकर, ष्ल्वनत बीपसक पर दव उवतमण्ष् डाॅ। चक्रवर्ती ने एक मिनट का भी समय नहीं गवांया था यह कहने में। एक पल को तो विलास को लगा जैसे डाॅ चक्रवर्ती ने उनके पैर के नीचे की जमीन खींच ली है। ... उषा के चेहरे का रंग एकदम फक्क पड़ गया था। यह सब एक साथ हुआ गिनने की कोशिश करें तो शायद गिनना मुश्किल हो कि इतनी सारी प्रतिक्रियाओं के घटने की पीछे आखिर कितने सेकेण्डस का समय था। डाॅ। चक्रवर्ती ने जैसे ही अपनी बात कही, विलास के पैर तले से जमीन खिसकी, उषा के चेहरे का फक्क पड़ जाना और उसी पल, ठीक उसी पल उषा का अपने पेट पर हाथ रखना। उषा ने पेट पर ऐसे हाथ रखा था जैसे वह अपने बच्चे की नब्ज टटोल लेना चाह रही हो और नब्ज ठीक मिल जाने पर डाॅ। चक्रवर्ती को झूठा और ग़लत साबित करना चाह रही हो।
विलास ने एक बार फिर महसूस किया था, उसके कानों के बीच बैठी कोयल कान में चुकुमुकू बैठ गई थी और एकदम से शांत हो गई थी। उसे लगा कि क्यों न वह एक बार अपनी कोयल की भी डाॅ। चक्रवर्ती से जांच करवा ले।
उषा को सहारा देकर विलास घर ले आया। कहना मुश्किल था कि इस खबर से दोनों में ज़्यादा दुखी कौन था।
विलास के घर की बगिया के फूल अब सूखने लगे थे। फूलोें ने दिनों तक अपनी प्यारी तितली का इंतजार किया था, लेकिन उसके न आने पर निराश होकर अपने रंग और अपनी खुशबू खुद ही त्याग दी थी। आंगन में भी अब कोई जादू नहीं होता था। उषा के पेट से जब डाॅक्टरों ने उस सो चुकी नन्हीं जान को निकाला था, उषा उस समय बेहोश थी। विलास ने देखा था, वह बच्ची थी, ठीक उषा जैसी, मासूम और खूबसूरत। मन में सोचा था उसने मैं न कहता था, बेटी होगी। उषा कि बेहोशी में उस बच्ची को वहाँ से हटा लिया गया था। विलास का बेटी के लिए सोचा नाम रिमझिम उसके दिल में ही रह गया था।
आंगन में होने वाला सारा जादू जैसे गायब हो चुका था। न अब फूल खिलते न फूलों पर तितली बैठती, न रिमझिम बारिश होती, न मोरनी नाचती, न ही अब विलास के कानों में कोयल ही कूकती थी। आखिर कोयल का इस सबसे क्या सम्बन्ध है, विलास अक्सर उषा से पूछने की कोशिश करता, लेकिन उषा कि उदासी देखकर अपने दिल को समझा लेता।
वक्त को तो बीतना ही था। लेकिन वह इतना धीरे बीतेगा, इसका अंदाजा नहीं था।
विलास रोज की तरह सुबह उठकर आॅफिस जाता और उषा रोज की तरह घर का सारा काम करती। विलास के लिए खाना पकाती, चाय बनाती, उसका टिफिन पैक करती। सब कुछ वैसा ही था, लेकिन कुछ भी वैसा नहीं रह गया था। उषा काम करते हुए जो बीच-बीच में चहकती थी, वह चहकना अब बंद हो गया था। विलास के कानों में गाने वाली कोयल बीमार पड़ गई थी। कोयल अब कूकती नहीं थी, आंगन में मोरनी नाचती नहीं थी, फूलों पर से तितली गायब हो चुकी थी। तितली के पंखों के सारे रंग फीके पड़ चुके थे। आॅफिस में विलास के चारों तरफ रहने वाला घेरा भी अब वैसा नहीं रह गया था। विलास के साथी अब विलास को देखते और बस देखते ही रह जाते थे। विलास मुस्कुराता नहीं था। कहीं कुछ घट गया था, कुछ ऐसा जिसे बदला नहीं जा सकता था।
उषा एकदम शांत हो गई थी। विलास ने कई बार सोचा कि वह उषा के कान में एक बार फिर से कहे-" उषा, तुम तो मेरी मोरनी हो। ' और हो सकता है उषा फिर से नाचने लगे। लेकिन ऐसा कहने की न विलास की हिम्मत हुई और न ही उषा मोरनी बनकर फिर नाची ही।
उषा कि ज़िन्दगी में समय अब पहले से भी धीरे-धीरे बीत रहा था। वह दिन भर घर में अकेली रहती। अब उससे बातें करने वाला भी उसके साथ नहीं था। आंगन में रखे उसके रंग, उसके ब्रश सूखने लगे थे। उषा आंगन में दिन भर बैठी आसमान की और ताकती रहती और बूंदे गिरने लगतीं। बूंदें आसमान से गिरती थीं या उषा कि आंखों से, पता करना मुश्किल हो गया था। उषा और उषा के हिस्से आया वह टुकड़ा भर आसमान दोनों एक दूसरे में इतने एकमेक हो चुके थे कि उषा के दुख में आसमान भी उसके लिए आंसू बहाता।
विलास को अल्ट्रासाउण्ड रूम का वह दृश्य याद आ गया, जब उसने और उषा ने पहली बार माॅनीटर पर अपने बच्चे को देखा था। दोनों कैसे मुग्ध से हो गए थे उस पर। , विलास को याद है, उस समय उषा कितनी खुश थी और उसने डाॅक्टर की आँख बचाकर एक नजर विलास को देख लिया था। जैसे वह आंखों से ही विलास का शुक्रिया अदा कर रही हो, जैसे वह कह रही हो कि अब हमारे आंगन में रंग अपने साथ और रंगत लाएंगे। जैसे वह कह रही हो कि देखो, अब हम दो से तीन हो जाएंगे। जैसे वह कह रही हो कि अब मुझे एक नया साथी मिल जाएगा। विलास आॅफिस की कुर्सी पर बैठे-बैठे मुस्कुरा दिया। विलास के साथियों ने एक बार फिर विलास को आॅफिस में बैठे हंसते देखा। लेकिन उन्होंने महसूस कर लिया था कि विलास की यह हंसी उसकी पहले की हंसी से कितनी अलग है।
विलास और उषा का रंगों से गहरा नाता हो गया था पिछले कुछ बरसों में। लेकिन ये न जाने कैसे रंग आए हैं दोनों की ज़िन्दगी में, जो सिर्फ़ उदासी ही बरसा रहे हैं। विलास ने महसूस किया था, कुछ रंग उदासी के भी होते हैं-फीके, नीरस, जड़ता भरे।
विलास उषा को फिर से पहले की तरह ही देखना चाहता था-वैसे ही मुस्कुराते-खिलखिलाते हुए, पलभर में तितली बन जाते हुए। वह चाहता था कि उषा फिर से मोरनी बन उसके आंगन में नाचे और आंगन के ठीक ऊपर टुकड़ा भर आसमान फिर से झूमकर आंगन पर बरसे। वे दोनों पहले की तरह यूं ही रंगों की बरसात में भीगते रहें। लेकिन यह शायद अब संभव नहीं था।
आखिर क्यूं संभव नहीं था यह सब...? विलास ने ठान लिया था कि वह उषा को फिर से पहले की तरह ही बना देगा। आज आॅफिस से घर लौटते हुए वह रोज की तरह उदास नहीं था। उसकी आंखों में चमक थी, चेहरे पर मुस्कान और दिमाग में एक नई तरकीब थी।
ं उषा ने जैसे ही दरवाजा खोला, विलास ने उषा के गाल को धीरे-से चूम लिया। उषा के चेहरे पर इससे पहले कि कोई भाव आता, विलास उससे पहले ही झट से आंगन की ओर बढ़ गया और एकटक उस टुकड़ा भर आसमान को देखने लगा। उषा भी उसके पीछे-पीछे आ गई थी। वह विलास को देखकर थोड़ी हैरान थी। विलास ने अपना बैग एक ओर दीवार से टिकाया और झाड़न लेकर आसमान के उस टुकड़े को झाड़ने-पोंछने लगा। अपने काम में इतना तल्लीन था विलास कि उसने देखा तक नहीं कि उषा किस तरह उसे एकटक देखती ही जा रही है।
सब काम निपटा जब विलास नीचे उतरा, तब तक शाम गहरा चुकी थी। आसमान पर तारे उगने लगे थे। उसने उंगली से एक तारे की ओर इशारा किया, 'देखा, मैं न कहता था सब कुछ वैसा ही हो जाएगा। देखो उषा, उम्मीद की एक किरण फिर से उग आई है, तुम्हारे हिस्से के आकाश में।' उसने उषा के चेहरे को अपने हाथों में भर लिया। उषा कि पलकों पर देर से टिके दो आंसू विलास की हथेलियों के बीच लुढ़क आए थे। उसने अपना सिर विलास के कंधे पर रख दिया।
उस टुकड़ा भर आसमान पर तारे फिर से जगमगाए थे
इस पूरे वाकये को लगभग एक साल बीतने को था। उषा और विलास दोनों ने अपने-अपने दिल को समझा लिया था। वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे बहुत कुछ बीत रहा था। बीत गया था। विलास दिन भर आॅफिस में काम के बीच बिताता। उषा दिन भर अपने अकेलेपन से लड़ने में बिता देती और फिर शाम को विलास घर लौटकर उषा के दिन भर के अकेलेपन, उसके खालीपन को अपने प्यार से भरने की कोशिश करता। वक्त यूं ही बीत रहा था...
और फिर एक बार उनके दरवाजे पर दस्तक हुई थी। उषा ने धीरे-से विलास के कान में कह दिया था, 'मैं फिर से अपने आंगन भर आकाष को रंगना चाहती हूँ विलास।' बहुत दिनों बाद विलास ने उषा कि आंखों और होंठों को साथ-साथ मुस्कुराते देखा था... शायद उषा कि पूरी देह मुस्कुरा रही थी। उषा खुश थी... लेकिन इस बार उसकी इस खुषी के रंग में एक और रंग भी था... डर का रंग... जो उसकी खुशी को खुलकर मुस्कुराने से रोक रहा था। विलास ने उषा कि आंखों में उस डर की हल्की रेखा को उभरते हुए देखा था। उसने उषा के माथे को चूम लिया, उसके दोनों हाथों को अपने हाथें में कसकर थाम लिया... वह एकटक उषा को देख रहा था, लेकिन कुछ कह नहीं रहा था। जैसे उसकी आंखे उषा को विश्वास दिलाना चाह रही थी, 'इस बार कुछ बुरा नहीं होगा, मैं तुम्हारे साथ-अपने साथ इस बार कुछ बुरा होने ही नहीं दूंगा।'
विलास उषा कि इस खुशी को सहेज लेना चाहता था। वह चाहता था उषा यूं ही मुस्कुराती रहे। उषा ने बासी पड़ चुके अपने रंगों को एक बार फिर भिगोया था। वह इन रंगों से अपने फीके पड़ चुके पंखों को रंग लेना चाहती थी। वह फिर से तितली बन जाना चाहती थी।
विलास भी फिर से खुश रहने लगा था। उसके दोस्तों ने एक बार फिर विलास के चेहरे पर उसकी खोई हुई मुस्कान को लौटते देखा। विलास ने एक बार फिर अपने दोस्तों से कहा, 'मेरे घर में एक छोटी-सी बगिया है। उसामें एक तितली रहती है। तुम आना मेरे घर, मैं तुम्हें दिखाउंगा।' विलास के दोस्तों को लगा, तितली लगता है फिर लौट आई है। विलास ने महसूस किया था, जिस दिन से उषा मुस्कुराई है-आंखों से होठों से, पूरी देह से, उसके कानों में भी उसी दिन से कोयल लौट आई है। कोयल उसके कानोे में फिर से कूकने लगी थी।
लेकिन इस बार आई ये खुशियाँ भी उम्र भर के लिए नहीं आई थीं। छठा महीना आते-आते वह नन्हीं जान फिर से उषा-विलास से रूठ गई थी। ठीक उसी तरह बच्चे को उषा के पेट से निकाला गया था और उषा कि बेहोशी में ही उसे वहाँ से हटा लिया गया। उषा अपने बच्चे की शक्ल तक नहीं देख पाई।
डाॅक्टर हैरान थी आखिर बार-बार ऐसा क्यों हो रहा था। पांच महीने तक सब ठीक रहता और छठा महीना आते-आते स्थितियाँ दूसरा ही मोड़ ले लेती थीं। डाॅक्टर ने विलास को बुला कर कड़ी चेतावनी दे दी थी कि अगले दो साल तक उषा का माँ बनना खतरे से खाली नहीं है। अगर इस बार ऐसा हुआ तो उसकी जान भी जा सकती है।
उषा का गर्भाशय कमजोर है। उषा सोचती आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? आखिर क्यों उसकी देह उसकी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी खुशी को सहेज कर नहीं रख पाती? कहाँ चूक हो जा रही है बार-बार! दोनों एक बार फिर से टूट चुके थे। इस बार पहले से भी ज़्यादा बुरी तरह से।
इस बार यह टूटन जितनी उषा में दिखाई दे रही थी, उससे कहीं अधिक विलास के चेहरे पर थी। विलास परेशान रहता, दिन-दिन भर उसे भूख न लगती। उषा जैसा टिफिन पैक करती, कई बार तो ठीक वैसे ही टिफिन लौट आता। वह अपना दुःख उषा को दिखाना नहीं चाहता था। लेकिन दुख ने उसे चारों ओर से ऐसे अपनी चपेट में ले लिया था कि वह चाहकर भी उसे छिपा न पाता।
उसने तो बस एक परी का सपना देखा था
वह सतरंगी पंखों वाली परी रोज उसके सपने में आने लगी थी। वह ज्यों ही सोने के लिए आंखे मींचता, उस परी के रंगीन पंख उसे अपनी ओर पुकारने लगते। उषा ने देखा था, कई बार रात को सोए-सोए विलास मुस्कुराता रहता। कई बार तो उषा ने उसे नींद में बड़बड़ाते हुए भी सुना था। होंठों को हल्का-सा खोले वह बुदबुदाता 'आओ न मेरे घर। मुझे कल से तुम्हारा इंतजार है... बोलो न कब आओगी?' उषा कई बार डर कर उठ बैठी थी। आखिर क्या है ऐसा जो नींद में भी विलास का पीछा नहीं छोड़ रहा?
कई बार तो उषा को शक भी हुआ। आखिर किसे अपने सपनों में याद करते रहते हैं विलास? वह खुद को और अपनी किस्मत को दोष देती, यह सब मेरी ही वजह से है। आखिर इनका भी क्या कुसूर है। मैं शायद अब इनके दिल से उतर गई हूँ। उसे खुद पर गुस्सा आता। वह दिल ही दिल में विलास से माफी मांगती रहती। ... लेकिन कुछ भी हो जाए, वह अपने विलास केा किसी के साथ सांझा नहीं कर सकती... नहीं-नहीं वह विलास को कहीं नहीं जाने देगी। किसी के पास नहीं और फिर न जाने क्या-क्या उसके दिल में आकार लेता रहता। इसी उहापोह में कब उसकी आँख लग जाती, उषा को कुछ याद नहीं रहता।
अब वह हर दिन विलास को खुश रखने की कोशिश करती। वह जानती थी कि विलास ही उसके जीवन की एकमात्र खुशी है। वह विलास का किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी। छुट्टी के दिन वह घर का सारा काम निपटा विलास के पास आकर बैठ गई। वह आज दिन भर अधिक से अधिक समय विलास के साथ बिताना चाहती थी। विलास भी शायद यही चाहता था। उषा को चुपचाप अपने पास बैठा देख विलास को अच्छा लगा था। उसने अपना सिर चुपके से उषा कि गोद में रख दिया। वह उषा के आंचल में छिप जाना चाहता था... उषा को विलास पर सचमुच बेहद प्यार आ रहा था। वह विलास के बालों को सहलाने लगी। उसकी उंगलियाँ विलास के चेहरे से खेल रही थीं। विलास की आंखों के कोर भींग आए थे। जैसे किसी सूखे हुए नदी के सोते को उम्मीद की एक किरण दिख गई हों। उसके होंठ हिले, 'उषा मुझे एक बिटिया दे दो। उषा मुझे एक परी दे दो।' वह उठ कर बैठ गया और उषा के गोरे चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया। "मुझे अपनी जैसी एक गुड़िया दे दो उषा।" उषा ने विलास को इतना असहाय, इतना कमजोर पहली बार देखा था और अपने आप को इतना गरीब भी। वह फूट-फूट कर रो पड़ी। दोनों एक-दूसरे के आंसुओं में बह जाना चाहते थे। दोनों आज जी भर रो लेना चाहते थे।
उषा जान गई थी कि विलास ने इस गम को अपने दिल से लगा लिया है। वह किसी भी कीमत पर विलास को खोना नहीं चाहती थी। लेकिन वह असहाय थी, वह कर भी क्या सकती थी। कैसे वह विलास को गुड़िया ला दे। कैसे वह उसकी ज़िन्दगी को खुशियों से भर दे।
कहानी का केंद्र अब बदल रहा था
बच्चे को पाने की इच्छा जितनी घनी उषा के दिल में थी, यह टीस जितनी ज़्यादा उषा को उठती थी, अब उससे ज़्यादा वह टीस विलास के भीतर उठ रही थी। बच्चे के बिना घर उसे सूना-सूना लगता था। वही घर जो अभी तक उषा के होने से बगिया-सा महकता था, उसमें अचानक वीराना पसरने लगा था।
उषा दोनों के बीच पसरते जा रहे सन्नाटे को तोड़ना चाहती थी। वह विलास को खुशियाँ देना चाहती थी।
एक ख्याल पिछले कुछ दिनों से उसके दिमाग पर दस्तक दे रहा था। शायद यही एक रास्ता है, जो हम दोनों की ज़िन्दगी में फिर से खुशियाँ भर सकता है। उसके मन ने कहा। आज विलास के आॅफिस से लौटते ही वह यह बात विलास को बताएंगी। विलास की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा। कितना खुश होंगे वे! यही सोच उषा मन ही मन मुस्कुराने लगी। उसके दिल-दिमाग से जैसे कोई बोझ उतर गया। आज पहाड़-सा लम्बा दिन विलास के इंतजार में और लम्बा लग रहा था। लेकिन आज का यह दिन रोज दिन-सा बोझिल नहीं था, उसने महसूस किया।
रात खाना खाने के बाद जब दोनों बिस्तर पर आए, उषा ने सोचा यही सही वक्त है। 'क्यों न हम एक बच्ची गोद ले लें!' अपनी बात के दौरान ही उषा विलास के चेहरे पर आने वाली मुस्कान का इंतजार करने लगी थी। विलास के चेहरे का रंग बदला भी था, लेकिन वैसा नहीं जैसा उषा ने चाहा था। यह क्या कह रही हो उषा! बच्चा गोद ले ले, क्यों? उषा चैंक गई थी। विलास इस बात पर इस तरह चैंकेगा, उषा को विश्वास नहीं था। 'क्यों, यह आप पूछ रहे हैं विलास? आप नहीं जानते कि क्यों हमें बच्चा गोद ले लेना चाहिए! ... तुम ही तो कहते हो विलास कि तुम्हें एक गुड़िया चाहिए।'
'मैं चाहता हूँ गुड़िया।' इस बीच विलास कुछ संयमित हो गया था। 'लेकिन शायद तुमने ध्यान से सुना नहीं उषा। मुझे गुड़िया चाहिए ठीक तुम्हारी जैसी! ऐसी ही खूबसूरत और प्यारी गुड़िया।' 'लेकिन ...' उषा ने कुछ कहना चाहा, 'नहीं उषा, ऐसा सोचना भी मत।' कहकर विलास उठ कर चला गया। उषा ने विलास को मनाने की बहुत कोषिष की, लेकिन सब बेकार। विलास के एक वाक्य ने उषा के सारे सपनों पर जैसे पानी फेर दिया था। जैसे एक ही वाक्य में विलास ने उषा कि किस्मत का फैसला कर दिया था। उषा सोचती है " कितनी रूखी हो गई थी विलास की जबान उस एक खास वाक्य में। ऐसी रूखी, जैसी उसने कभी नहीं सुनी थी विलास के मुंह से।
विलास को उषा से, उसकी देह से उसके जैसी अपनी बेटी चाहिए थी। बेटी, जो उषा और उसके प्यार की उपज हो, या कहें कि उषा और विलास की देह के सम्मिलन का परिणाम।
वक्त बीतता गया और इस बीच उषा एक बार फिर उम्मीद से ना उम्मीद हो गई। पूरे आठ वर्ष बीत गए थे उषा-विलास की शादी को और पिछले लगभग पांच-साढ़े पांच वर्षों से उषा कि देह पर दवाओं के प्रयोग चल रहे थे। आए दिन कोई न कोई टेस्ट होते रहते। इस बीच विलास ने डाॅक्टर भी बदले और एक बार तो शहर भी। लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा। ईश्वर ने शायद उषा कि के लिए फैसला बहुत पहले ही ले लिया था। विलास ही था जो जान बूझकर भी इस सच को अनदेखा करता जा रहा था।
ऐसा नहीं था कि विलास का उषा के प्रति प्रेम कम हो गया था। यूं कहें कि प्रेम की तपिश अब कम पड़ने लगी थी। शादी के इन साढे़ आठ सालों में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ उन दोनों के बीच, जो वे चाहते थे लेकिन बहुत ऐसा भी घटा, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी।
इस कल्पना न किए हुए में भी बहुत कुछ सकारात्मक था और बहुत कुछ नकारात्मक। विलास ने शादी के बाद उषा जैसी खूबसूरत और प्यार करने वाली पत्नी की कल्पना तो की थी, लेकिन उसकी उषा खूबसूरत मोरनी, रंग-बिरंगे पंखों वाली तितली होगी, यह कल्पना नहीं की थी। उषा ने भी यह कल्पना तो की ही थी कि शादी के बाद पति-पत्नी में मनमुटाव भी होंगे लेकिन यह कल्पना नहीं की थी कि उसे इतना चाहते वाला विलास उसकी किसी एक बात पर या कहें कि इच्छा पर इतना बिफर जाएगा।
कुछ ऐसा ही किया था विलास ने जब अपनी देह पर चल रहे प्रयोगों के एक लम्बा समय बीत जाने के बाद उषा ने एक दिन अब कुछ भी न सहने की ठान ली थी। उसने विलास से कहा, था-" कितने बरस हो गए विलास इस बात का इंतजार करते कि हमारे आंगन में भी किलकारियाँ गूंजेंगी। मेरे तुम्हारे सजाए इस घर को वह परी कुछ और रंगों से भरेगी... मैं तो इंतजार करती रही विलास कि आसमान के टुकड़े को रंगने के लिए जो रंग मैं इतनी खूबसूरती से बरसों सहेजती रही, उसे कोई अपनी नन्हीं उंगुलियों से और मासूम शैतानियों से फैलाएगा या फैलाएगी और फिर टुकड़ा भर आसमान के नीचे की यह टुकड़ा भर जमीन भी रंगों से नहा उठेगी...पर अब और कितना इंतजार विलास...! '
इस बीच विलास उषा के पीले पड़ चुके चेहरे को बड़े गौर से देख रहा था। जैसे ढलता सूरज फिजाओं में पीलापन या कि उदास पीलापन उषा के ही चेहरे से ले जाता हो। 'कितना कुछ बीता है इतने बरसों में तुम पर ... तुम्हारे दिल पर ... मुझ पर ... मेरे दिल पर ... उषा कुछ ठहरी थी यहाँ... मेरी देह पर! पर अब अपनी देह पर और प्रयोग मैं नहीं सह सकती विलास!'
विलास की नजर अभी भी उषा के चेहरे पर ही थी, पर जैसे वह कुछ सुन नहीं रहा था। सिर्फ़ उसके चेहरे को एकटक देख रहा था, देखता जा रहा था। उषा को अचानक लगा, शायद विलास कुछ सोच रहा है। 'क्या सोच रहे हो...' , ।कहकर उषा ने जैसे अपने मन के हाथों से उसे झकझोरा था और विलास एकदम चैंक गया था। ...'बाहर सूरज ढल गया क्या ...' विलास ने अचानक पूछा था। यह हमारी बातचीत में अचानक सूरज कहाँ से आ गया? उषा कुछ झुंझला-सी गई थी। यूं ही! तुम्हारा चेहरा देखकर ऐसा लगा। "उषा ने सोचा, यह विलास आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं। उषा ने दिमाग को झटकते हुए जैसे एक बार फिर शुरुआत की थी," विलास मैं जानती हूँ आपको भी एक संतान चाहिए और मुझे भी... और अब शायद इस घर को एक बच्चे की बेहद ज़रूरत है। 'वह थमी थी पल भर, "हमें एक बार फिर से बच्चा गोद लेने के बारे में सोचना चाहिए। जानते हो कितने लोग है ऐसे इस धरती पर, जिनकी औलाद नहीं होती, तो क्या वे हमारी तरह घुट-घुट कर जीवन जीते हैं विलास?' उषा लगातार बोलती जा रही थी। विलास केा बोलने के लिए शायद वह जगह देना नहीं-नहीं चाहती थी, ' उधर आई-बाबा परेशान रहते हैं, इधर दिन-दिन भर मैं घर में दीवारों को ताकती रहती हूँ कि... तुम्हारा अधूरापन भी किसी से छिपा नहीं है विलास।" विलास की चुप्पी देखकर उषा को लगा शायद विलास भी इस बात पर मन बना रहा है। शायद अपने इतने सालों की गलती का पश्चाताप है विलास को। लेकिन फिर भी देर आए दुरुस्त आए। अभी भी बहुत देर नहीं हुई है। अभी भी एक नई शुरुआत की जा सकती है। लेकिन विलास शायद एक लम्बी सांस ले कर कुछ और कहने के लिए तैयार था,
'देखो उषा, जीवन में कुछ चीजें ऐसी हैं जिनसे मैं समझौता नहीं कर सकता, कर ही नहीं सकता और फिर तुम तो एक औरत हो। तुम ही सोचों कि क्या दूसरे की संतान को तुम अपना प्यार दे पाओगी? उसने अपना हाथ उषा के पेट पर रख दिया, हमारी संतान, हमारी अपनी परी यहाँ से आएगी, तुम्हारी अपनी कोख से। विलास और उषा कि देह से जन्मी बेटी। ... मुझे अपनी बेटी चाहिए उषा! तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करती और फिर उसने उषा का पीला उदास चेहरा अपने हाथें में ले लिया, " तुम निराश क्यों होती हो उषा! इतनी जल्दी उम्मीद छोड़ दोगी तो कैसे चलेगा! अभी तो हमारी शादी को दस ही बरस हुए हैं। तुम भी जवान हो, मैं भी जवान हूँ। आखिर कमी कहाँ आई है कोई!' उषा विलास के इस पागलपन पर हैरान थी। 'अपनी संतान से आखिर मतलब क्या विलास का! अब अगर मैं बच्चा पैदा नहीं कर सकती तो इसमें मेरा क्या कुसूर है!'
उषा को विलास के प्यार पर अब शक होने लगाा था। उसे लगने लगा था कि विलास ने एक अस्तित्वहीन, रक्त मज्जा से बनी उषा से प्यार किया था, जिसके लिए उषा कि तकलीफ, उसके दैहिक कष्ट, उसकी मानसिक दशा कोई अर्थ नहीं रखती और फिर विलास का वह वाक्य अभी तक उसके कान में गूंज रहा था, 'इतनी जल्दी उम्मीद छोड़ दोगी, तो कैसे चलेगा।' इसका क्या मतलब था आखिर विलास कहना क्या चाह रहे थे। क्या उनके दिमाग में फिर कुछ चल रहा था। क्या फिर कोई प्रयोग होना था उसके शरीर पर्! उषा ने खुद को आइने में देखा, सिर से पांव तक! उसके चेहरे का रंग ही पीला नहीं पड़ा था इन बरसों में, बल्कि उसका शरीर भी पहले से कितना फूल गया था। जैसे एक सूजन-सी आ गई हो उसके पूरी देह पर! वह जानती थी यह सब उन दवाओं का असर है, जो पिछले कितने सालों से एक नाउम्मीद-सी उम्मीद में वह खाती चली आ रही है। क्या विलास को यह भी नहीं दिखता कि इतने बरसों में उसकी अपनी उषा कितनी बदल गई है। यह कैसा पागलपन सवार है उसके दिमाग पर।
उसके पंखों में अब जान कहाँ थी
उस दिन विलास अपने और दिनों के मूड से कुछ अलग-सा था। पिछले कुछ दिनों से लगातार विलास उखड़ा रहने लगा था। अगर कैलेण्डर पर समय और तारीख निर्धारित करनी हो, तो शायद यह वही दिन था जिस दिन एक लम्बे समय बाद उषा ने विलास को एक बार फिर बच्चा गोद लेने की सलाह दी थी। उषा विलास के सामने उस दिन लगभग गिड़गिड़ाई थी और विलास उसके ठीक विपरीत और उखड़ा-सा हो गया था। शायद उसने ऐसा इसलिए किया था ताकि उषा उससे फिर बच्चा गोद लेने की बात करने की हिम्मत न कर सके। उषा विलास के इस बदले स्वभाव को देखकर शायद हैरान रह गई थी। उसने अपने जीवन में कभी भी विलास के इस रूप की कल्पना नहीं की थी।
विलास बात-बात पर नाराज हो जाता था। जिस उषा के हाथ के खाने की तारीफ करते वह थकता नहीं था, उसी उषा के हाथ का खाना विलास के गले से उतरता नहीं था। 'क्या बनाया है यह उषा!' और उषा के कुछ जवाब देने से पहले ही वह बोल उठता! 'गले से उतरता ही नहीं है। खुद ही देखो खाकर,' इससे पहले कि उषा खाकर देखती विलास थाली को लगभग धकियाता हुआ उठकर चल देता। घर के हर काम में उसे कभी दिखाई देने लगी थी। वही घर जो उसे रंगों की बगिया दिखता था, अब उसमें सिर्फ़ कमियाँ ही कमियाँ थीं। शायद रंगों से विश्वास उठ गया था विलास का।
उषा कि आंखों के कोरों में भी जैसे पानी की बूंदों ने अपनी जगह लगभग तय कर ली थी। न जाने कौन-सी बात हो जाती और उषा कि आंखें छलक जातीं और कभी-कभी तो न छलकने पर भी आंसुओं की उपस्थिति उसकी आंखों में बनी ही रहती थी। उषा सोचने लगी थी कि आखिर विलास का यह कौन-सा रूप है और अगर है तो कहाँ छिपा रखा था विलास ने उसे इन दस सालों तक। शादी के दस साल तो काफी होते हैं एक दूसरे को जानने के लिए और जब मैं यह दावा करने लगी थी कि मैं विलास को पूरी तरह जानती हूँ, तब विलास अचानक इतना कैसे बदल गए! वह समझ ही नहीं पा रही थी विलास को और उसके इस बदलाव को।
और फिर एक दिन विलास बहुत बदला हुआ नजर आया। अपने इन पिछले दिनों के व्यवहार से बिल्कुल अलग। विलास उस दिन खुश था। उषा ने जब दरवाजा खोला, तो दरवाजे पर जैसे दूसरे ही विलास को पाया। वह मुस्कुरा रहा था। उसकी आंखों में शिकायत भी शायद कुछ कम थी। उसे जैसे पंख लग आए थे। विलास के इस बदलाव को देखकर उषा जितनी खुश थी, उससे कहीं ज़्यादा हैरान थी। विलास की इस खुशी से कुछ खटका था उसके भीतर। ऐसा उसके जीवन में पहली बार हुआ था कि विलास की खुशी ने उषा को भीतर तक भिगोया नहीं था। उषा ने यह भी महसूस किया था कि विलास की यह खुशी वही नहीं है, जो पहले हुआ करती थी। शायद इसीलिए कुछ डर गई थी वह।
उषा अब विलास के सामने बैठी विलास की खुशी की वजह टटोल ही रही थी कि विलास ने अपने आॅफिस बैग की जेब से दो हवाई टिकट निकाले और उषा के चेहरे पर उससे हवा करने लगा। ऐसे जेैसे इन टिकटों को ही अपने पंख मान उषा तितली-सी उड़ने लगेगी। उषा ने धीरे से पूछा था, "यह क्या है?" और विलास ने पूरे उत्साह से कहा था, " तुम्हारे दो पंख। अब तुम सचमुच उड़ सकोगी। 'विलास को याद आया कि कैसे एक बार उसने विलास से हवाई यात्रा करने की जिद की थी और विलास ने अपने हाथों से दो पंख बनाकर उसके मन को बहलाने की कोशिश की थी।' हम अब सचमुच हवा में उडेंगे ... समझी मेरी तितली। 'बड़े दिनों बाद आज उषा ने विलास के मुंह से अपने लिए तितली सुना था। उसके चेहरे पर एक मुस्कान आ गई ...' कहाँ की टिकट हैं ये? 'उषा ने विलास से पूछा कोलकाता के। हम लोग कोलकाता जा रहे हैं अगले हफ्ते। कोलकाता का नाम सुनकर उषा को रोमांच हो आया था और वह भी हवाई जहाज से।' मुम्बई से कोलकाता... बाप रे! कितनी दूरी है... कितना समय लगेगा? 'उषा ने खुशी से चहकते हुए पूछा,' बस तीन घण्टे' , विलास ने जवाब दिया। सिर्फ़ तीन घण्टे और सीधे मुम्बई से कोलकाता। इतने कम समय में इतनी लम्बी दूरी। उषा इस रोमांच में विलास से कोलकाता जाने की वजह पूछना भूल ही गई थी। रात उसे सपने में भी कोलकाता और कोलकाता जाते हवाई जहाज में बैठे उषा और विलास ही नजर आते रहे। कोलकाता उसने देखा तो नहीं था लेकिन टी.वी. में बहुत कुछ देखा उसके सपने से जुड़ गया और क्या पता, जिसे कोलकाता समझकर उसने सपने में देखा हो, वह कोलकाता न होकर मुम्बई का ही कोई कोना हो या फिर उसकी देखी-अनदेखी दुनिया का कोई हिस्सा। यूं भी सपनों की कोई सीमा थोड़े ही होती है। जिसे उसने कोलकाता कि सड़कों पर दौड़ती ट्राम समझा हो, वह वास्तव में मुम्बई की लोकल ट्रेन का कोई हिस्सा हो, जो कल्पना और सपनों के मिश्रण से कुछ और ही बन आई है। आज कई दिनों बाद उषा खुश थी और खुशी की वजह भी विलास ही लेते आए थे।
उषा इतनी खुश थी कि उसने विलास से कोलकाता जाने की वजह तक भी नहीं पूछी। वह यह सोचती रही कि शायद उषा कि उदासी देखकर विलास उसे खुश करना चाह रहे थे। आखिर प्यार तो करते ही हैं विलास उसे। तभी तो यह तय किया उन्होंने। आखि वह दिन आ ही गया, जब उन्हें कोलकाता के लिए निकलना था। फ्लाइट रात साढ़े ग्यारह बजे की थी, जिसके लिए घर से साढ़े सात बजे तक निकलना ज़रूरी था। रास्ते का ट्रेफिक और घण्टे भर की दूरी मानकर साढ़े सात बजे निकलना तय हुआ था ताकि किसी भी स्थिति में साढ़े नौ बजे तक एयरपोर्ट पहुँच जाएँ। उषा जब सुबह सामान पैक कर रही थी, तो हर दिन के अनुसार एक-एक जोड़ी कपड़े रखते जा रही थी और ऊपर से दो जोड़ी फालतू ताकि कोई परेशानी न हो। पूरे छः दिन का कार्यक्रम था। वह पूरे मन से सूटकेस में सामान संजों रही थी जब विलास ने उषा से कहा था कि वह अपनी सारी मेडिकल रिपोर्ट्स भी रख ले।
'मेडिकल रिपोटर््स-वह किसलिए विलास?' उषा को कुछ अटपटा लगा था।
'कोलकाता में एक बहुत चर्चित डाॅक्टर हंै-डा.ॅ मीनाक्षी सेनगुप्ता। गायनोकाॅलोजिस्ट। बड़ी दूर-दूर से लोग आते हैं अपना इलाज करवाने उनके पास। वह सुभाष को जानती हो ना, जो मेरे आॅफिस में है, उसके चाचा कि बेटी वहीं रहती है कोलकाता में। पूरे पंद्रह साल बाद गोद भरी है उसकी। अभी पिछले ही साल। मुझे पूरी उम्मीद है हम भी खाली हाथ नहीं लौटेंगे उषा...' यह कहकर वह जल्दी-जल्दी सामान सूटकेस में रखने लगा।
उषा को गहरा धक्का पहुँचा था। आखिर चाहते क्या हैं विलास? क्या करेगी कोलकाता या कहीं की भी कोई डाॅक्टर, जब कोई संभावना ही नहीं है। जब जानते हैं विलास तो क्यों हर पल मुझे मेरे अधूरेपन का एहसास दिलवाते रहते हैं... एक चलती-फिरती प्रयोगशाला बन गई है मेरी देह, जिसमें रोज कोई न कोई रसायन डालकर जांच करते रहते हैं विलास और हर बार असफल हो जाने पर अपने प्रयोग की सफलता के लिए नए जोश और उल्लास से भर जाते हैं।
मुम्बई की भीड़भाड़ और ट्रेफिक भरी सड़क छोड़कर जब उनकी टैक्सी एयरपोर्ट वाले रोड पर आई तो उसकी खूबसूरती देखने लायक थी। रात के अंधेरे में चमकती रोशनियाँ उसे और खूबसूरत बना रही थी। उषा अपने जीवन में पहली बार एयरपोर्ट जा रही थी, लेकिन इस वक्त उसका सारा उत्साह मर चुका था। सड़क पर बिखरी रोशनियाँ उसे लावारिस बच्चों-सी लग रही थीं, जिनसे उसने न चाहकर भी मुंह मोड़ लिया था। उसे लग रहा था कि ये काली चिकनी सड़कें उसे सांप की तरह निगल जाएंगीं। उसने आंखें मूंद लीं। घर से चलते वक्त भी उसने कुछ नहीं खाया था। उसके सूटकेस में सारे कपड़ों ओर गहनों के ऊपर उसकी मेडिकल रिपोर्ट्स रखी थीं ऐसे जैसे बेहद पंसदीदा किसी चीज को फंफूद मार गई हो। कोलकाता कि फ्लाइट एकदम सही समय पर थी। जब फ्लाइट ने रनवे से टेेक आॅफ किया, तब उषा कि आंखें मुंदी हुई थीं। विलास को लगा शायद उषा डर रही है। पन्द्रह मिनट बाद उसकी सीट पर एयर होस्टेस नाश्ता लिए खड़ी थी, लेकिन उषा उदास-सी जैसे बाहर काले अंधेरे आकाश में कुछ ढूँढ रही थी। खिड़की के पास बैठी उसकी नजरें बाहर तो थीं लेकिन बाहर नहीं थीं। विलास ने उसे नाश्ते के लिए पुकारा और उषा ने हाथ से कुछ न खाने का संकेत कर दिया। एयरहोस्टेस खाने की ट्राली लेकर जा चुकी थी, उषा बाहर अंधेरे में अपने उसी आसमान को देखने की कोशिश कर रही थी, जिस पर सालों वह अपने रंगों से अपनी कल्पनाएँ बुनती रही थी। उसने देखा कि जिस आसमान को उसने इतने रंगों से रंग दिया था, वह तो असल में कितना बेरंग है। यह उसके मन का वहम् ही था कि उसका आसमान रंग-बिरंगे रंगों से सराबोर है। उसे लगा कि कुछ चीजों पर कभी कोई रंग नहीं चढ़ता। यह सिर्फ़ हमारी कल्पनाएँ ही हैं कि हमने उसे बदल दिया। साथ की सीट पर बैठा विलास मैग्जीन पढ़ते हुए ब्रेड सेंडविच को धीरे-धीरे अपने दांतों से कुतर रहा था। कोलकाता अभी भी लगभग दो घण्टे की दूरी पर था।