वह चेहरा / रूपसिह चंदेल

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मध्य दिसम्बर का एक दिन. सुबह की खिली-खिली धूप और लॉन में पड़ी बेंचें. बेंचों पर बैठे कई चेहरे..... धूप में नहाये चेहरे.... धूप सेकते चेहरे. खिड़की का पर्दा उन्होंने थोड़ा-सा खिसका दिया था, जिससे लॉन का दृश्य स्पष्ट दिख रहा था. उनकी नजर एक चेहरे पर टिक गयी और वह गौर से उसे देखते रहे. चेहरे पर उम्र की लकीरें स्पष्ट थीं. उन्होंने कुर्सी एक ओर खिसकाई और खिड़की पर जा खड़े हुए.... निर्निमेष उस चेहरे को देखते हुए.

'वही हैं......लेकिन यहां क्यों ? ' मस्तिष्क में तंरगें दौड़ने लगीं. कुछ क्षण खिड़की पर खड़े रहकर वह कमरे में टहलने लगे सोचते हुए, 'मैं कैसे भूल सकता हूं उस चेहरे को. ढल गया है.... ढलना ही था. पचास से अधिक सालों की लंबी यात्रा.... पचीस साल जैसा कौन रहता है ! शरीर में स्थूलता भी है....अपने को देखो तपिश.... तुम क्या उतने ही स्लिम-ट्रिम हो.... बढ़ती उम्र में सभी के आकार-प्रकार - चेहरे बदलते ही हैं........'

वह एक बार पुन: खिड़की के पास जा खड़े हुए और देखने लगे. इस समय वह चेहरा किसी युवती से बातें कर रहा था....युवती, जो पचीस -छब्बीस के आसपास थी....उस चेहरे से मिलता -सांवला चेहरा, नाक नोकीली, होंठ पतले और आंखें छोटीं. लंबाई भी उतनी ही.....वह भी तो उस युवती जितनी लंबी थीं, लेकिन तब उनके नितंब छूते बाल थे, जैसे कि उस युवती के हैं, लेकिन अब वह बॉब्ड थीं.

'निश्चित ही यह वही हैं.....' वह अपनी टेबल के चारों ओर कमरे में कुछ क्षण तक टहलते रहे, ' क्या उन्हें मेरे बारे में जानकारी नहीं ? या उनकी स्मृतिपटल से मेरा नाम सदा के लिए मिट चुका है. लेकिन ऐसा संभव नहीं. हम दो बार मिले थे.... कितने ही पत्र लिखे थे एक-दूसरे को.' वह पुन: खिड़की के पास जा खड़े हुए, 'यह मेरा भ्रम नहीं....यह वही हैं .'

दरवाजे पर दस्तक हुई.

“कम इन “ वह तेजी से पलटे और कुर्सी की ओर ऐसे बढ़े मानो चोरी करते हुए पकड़े जाने का भय था .

कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. प्रवीण राय ने आहिस्ता से प्रवेश किया.

“यस प्रवीण.... इज एवरीथिंग फाइन !”

“जी सर. एक्सपर्ट्स डॉ. श्रेयांष तिवारी और डॉ. निकिता सिंह आ गए हैं. “

“और हेड साहब....डॉ. सच्चिदानंद पाण्डे ?”

डॉ. सच्चिदानंद पाण्डे विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष थे और विश्वविद्यालय या विश्वविद्यालय के किसी भी कॉलेज में शिक्षक के किसी भी पद के साक्षात्कार में उनका होना अनिवार्य था. यह विश्वविद्यालय का नियम था.

“उनके पी.ए. का फोन आया था सर कि वह कुछ देर पहले ही कार्यालय से निकले हैं......उन्हें पहुंचने में कम से कम आध घण्टा का समय लगेगा.”

“हुंह......” कुछ सोचने के बाद वह बोले, “ हेड साहब के आने तक प्रतीक्षा करना होगा.... डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता सिंह को मेरे यहां ले आओ.......”

“सर मैंने पहले ही उन्हें आपके यहां के लिए कहा था लेकिन दोनों सीधे गेस्ट रूम में जाते हुए बोले कि वहां उन्हें कोई कष्ट नहीं.....”

“ओ. के....” प्रवीण राय को सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए वह बैठ गए और बोले, “इन दोनों की जोड़ी जहां भी जाती है अपने कंडीडेट के लिए दबाव बनाते है....”क्षणभर चुप रहे, “ दरअसल हेड साहब सीधे व्यक्ति हैं..... वह सब कुछ जानते हैं, लेकिन नहीं मालूम किन कारणों से प्राय: इन दोनों को एक साथ विशेषज्ञ के रूप में रिकमेण्ड कर देते हैं.”

“सर, मुझे जहां तक जानकारी है.... जब भी डॉ. तिवारी से पूछा जाता है विशेषज्ञ के रूप में किसी कॉलेज में जाने के लिए उनकी शर्त होती है कि उनके साथ दूसरा विशेषज्ञ डॉ. निकिता सिंह होंगी तभी.... विश्वविद्यालय में उनके खिलाफ जाने की शक्ति किसी में नहीं है. हिन्दी के प्रतिष्ठित आलोचक हैं.... सत्ता में पैठ है और वी.सी. भी उन्हें मानते हैं .”

वह मुस्कराते रहे.

“सर, निकिता सिंह का कोई छात्र है....सुना है.... उनके निर्देशन में पी-एच.डी. कर रहा है और 'नेट' भी उत्तीर्ण है.....हो सकता है.....”

उन्होंने प्रवीण की बात आधी-अधूरी सुनी. उस क्षण उनकी नजरें खिड़की से बाहर बेंच पर अखबार में झुके उस चेहरे पर टिकी हुई थीं. युवती अब वहां नहीं थी .

'युवती भी शायद अभ्यर्थी है.' उन्होंने सोचा.

“सर, फिर.....” प्रवीण के टोकने से वह अचकचा गए .

“हुंह.....यह हो सकता है. लेकिन डॉ. तिवारी दो अपने रखते हैं तब कहीं एक वेकेंसी निकिता सिंह को देते हैं . “

“सर “.

“प्राय: महिला अभ्यर्थी ही उनकी कंडीडेट होती हैं. उनके निर्देशन में पी-एच.डी करने वाली सभी लड़कियां ही हैं..... एकदम समाजवादी हैं डॉ. तिवारी. निकिता ने भी उनके निर्देशन में पी-एच.डी की थी..... उनके आलोचक इसे उनकी कमजारी मानते हैं तो मानते रहें. “ चुप होकर प्रवीण की ओर देखने के बाद वह खिड़की से बाहर लॉन की ओर देखने लगे. वह चेहरा उन्हें वहां नजर नहीं आया. 'कहां गई ? ' क्षणांश के लिए वह विचलित हुए, लेकिन तभी सामने बैठे अपनी ओर ताकते प्रवीण पर दृष्टि डाली और बोले, “लेकिन हम क्या करें प्रवीण?”

“क्या सर?”

“आपको बताया था.... मिनिस्ट्र्री से आए फोन के बारे में.... मंत्री जी किसी निरंजन प्रसाद में इंटरेस्टेड हैं.... मंत्री जी के मुंह लगे ज्वाइण्ट सेक्रेटरी का फोन था. दोनों ही बिहार के हैं. जे.एस. ने संकेत में यह भी कहा था कि निरंजन मंत्री जी का दूर का रिश्तेदार है.......”

“सर, हमें डॉ. तिवारी से पहले ही बात कर लेनी चाहिए और अपनी समस्या डॉ. पाण्डे को भी बता देना चाहिए .”

“प्रवीण, आप जानते हैं कि डॉ. तिवारी का कंडीडेट नहीं तो किसी का नहीं......उन पर मंत्री-संत्री का प्रभाव नहीं पड़ने वाला....... “

“सर, वेकेंसी भी एक ही है....एडहॉक भी नहीं....वर्ना डॉ. तिवारी के लिए एडहॉक का ऑफर दे सकते थे .”

“प्रवीण, “ वह कुछ गंभीर हो उठे, “आपको नहीं लगता कि यह सब कितना अनफेयर है.... मंत्री के कंडीडेट की बात हो या डॉ. तिवारी या डा. निकिता की या किसी अन्य के कंडीडेट की.... जो अभ्यर्र्थी दूर से आते हैं और कितनी ही बार उन्हें दूर शहरों में असफल साक्षात्कार के लिए जाना होता है....... उनके विषय में सोचो. अधिकांश बेकार और साधारण हैसियत के युवक.... ये तिवारी या मंत्री जैसे घड़ियाल उनकी नौकरियां निगल जाते हैं.....” उनका चेहरा लाल हो उठा.

“सर” प्रवीण ने चुप रहना ही उचित समझा क्योंकि वह स्वयं भी सिफारिश से नियुक्त हुआ था. लेकिन वह जानता था कि उसके सामने बैठे डॉ.तपिश.... उसके प्राचार्य एक मेरीटोरियस व्यक्ति थे और उन्होंने सिफारिश से नहीं अपनी योग्यता से प्राध्यापकी पायी थी और विश्वविद्यालय - कॉलेज की राजनीति के बावजूद वह इस पद पर पंहुचे थे... अपनी योग्यता के बल पर....

“ डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता सिंह के लिए जलपान की व्यवस्था.....” अपनी बात अधूरी छोड़ दी उन्होंने.

“सर डॉ. अनिरुध्द शुक्ल उनकी सेवा में हैं.”

“ओ.के.....” उन्होंने पुन: लॉन की ओर देखा. बेंचों पर बैठे अन्य लोग भी इधर-उधर जा चुके थे.... केवल एक वृद्ध पुरुष को छोड़कर .

“डॉ. पाण्डे के आते ही मुझे सूचित करना. उनके आते ही इंटरव्यू प्रारंभ कर देना है..... तब तक आप डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता सिंह का खयाल रखें.....” वह पुन: कुर्सी से उठ खड़े हुए और कमरे में टहलने लगे.

♦♦ • ♦♦

'लोग रिसेप्शन में बैठे होंगे....धूप में गर्मी बढ़ गयी होगी. मुझे रिसेप्शन की ओर जाना चाहिए.'

'लेकिन क्यों ?'

'शायद वह वहां मिल जांए. '

'मिल भी जाती हैं तो क्या तुम उनसे बात कर सकते हो इस समय. वह लड़की उनकी बेटी होगी.... यह तो अनुमान लग ही गया है. एक अभ्यर्थी की मां से बात करना....तपिश तुम प्राचार्य हो इस कॉलेज के.....'

'प्राचार्य क्या इंसान नहीं ! उसके परिचितों के बच्चे साक्षात्कार में नहीं बैठ सकते? बात कर लेने से ही मैं उनकी लड़की का फेवर करने लगूंगा? मुझे उस लड़की का नाम भी मालूम नहीं.... जबकि मंत्री जी की तोप इन्हीं बच्चों के बीच कहीं समायी होगी.... तिवारी और निकिता सिंह की गन भी होगी कहीं...... इण्टरव्यू करने उधर से जाते हुए मैं उन्हें भलीभांति देख सकूंगा.....जरूरी नहीं कि वह मानसी ही हों.... हों भी तो वह मुझे पहचान लेंगी यह आवश्यक नहीं है.'

'फिर तुम उधर से जाना ही क्यों चाहते हो?' अंदर से आवाज आयी. 'पहचान लिए जाने के लिए ही न ! लेकिन क्या बात मात्र इतनी ही है ! क्या यह सच नहीं कि उनके पहचानने से तुम्हारा आहत स्वाभिमान संतुष्ट होगा. तुम उन्हें यह अहसास नहीं करवाना चाहते कि तुम इस कॉलेज के प्रिसिंपल हो ?'

'नहीं, ऐसा नहीं है.....इतनी पुरानी बात....तीस साल पुरानी....मैं तो भूल ही गया था..'

'नहीं तपिश....तुम उसे एक दिन...बल्कि एक पल के लिए भी नहीं भूले....भूल सकते भी नहीं थे.... वह पुन: खिड़की पर खड़े हो गए और बाहर देखने लगे. लॉन की एक बेंच पर वही अकेला वृद्ध व्यक्ति बैठा था और बेंच से कुछ हटकर एक कुत्ता अपना पेट, टांगें और मुंह ऊपर उठाये पीठ के बल निश्चल लेटा हुआ था. तभी दरवाजे पर नॉक हुआ .

“यस !” वह पलटे .

'सर, हेड साहब आ गए हैं....सीधे कांफ्रेंस रूम में.....आप भी......”

“ओ.के.” अभ्यर्थियों के नामों का फोल्डर टेबल से उठा वह डॉ. प्रवीण के पीछे हो लिए थे .

♦♦ • ♦♦
*

उन दिनों वह दिल्ली में विदेश मंत्रालय में अनुवादक थे. अपने को पी-एच.डी. के लिए पंजीकृत करवाने में दो बार असफल हो चुके थे. यह उन दिनों की बात है जब दूसरी बार विश्वविद्यालय ने उनके शोध विषय को खारिज किया था. वह परेशान थे और यह बात मानसी को बताना चाहते थे. बताना इसलिए चाहते थे क्योंकि पिछली मुलाकात में मानसी ने पहले विषय के खारिज होने के कारणों पर गहरी रुचि प्रदर्शित की थी और उसके हर प्रश्न के उत्तर में उन्होंने एक ही बात कही थी कि विश्वविद्यालय ने विषय के खारिज होने का कोई कारण उन्हें नहीं बताया....केवल सूचना भेजी थी. मानसी उद्विग्न थी और तब उन्होंने अनुभव किया था उनके शोध से शायद उसकी भविष्य की आकांक्षाएं जुड़ी हुई थीं. लेकिन 'संभव है यह मेरी अपनी सोच हो.... वह ऐसा न सोचती हो.' उन्होंने सोचा था.' यदि शोध नहीं कर सके और प्राध्यापक नहीं बन पाए तो क्या. जो नौकरी वह कर रहे हैं.... उसका भविष्य प्राध्यापक जितना आकर्षक न सही लेकिन बुरा भी नहीं. डिप्टी डायरेक्टर तो वह बन ही जाएगें.'

'लेकिन मानसी को बताना आवयक है. पिछले एक वर्ष से कभी एक बहाने तो कभी दूसरे वह शादी टालती जा रही थी. वह दूरदर्शन में प्रोग्राम एक्ज्यूक्यूटिव थी और प्रारंभ में उसका बहाना था कि वह दिल्ली में थे और दिल्ली में उसका स्थानांतरण कठिन था क्योंकि वहां पहले से ही अतिरिक्त प्रोग्राम एक्ज्यूक्यूटिव्स बैठे हुए थे, जबकि उनका लखनऊ स्थानांतरण संभव नहीं था. मानसी के स्थानांतरण के विषय में वह कमलेश्वर जी से मिले थे. कमलेश्वर जी उन्हीं दिनों दूरदर्शन में अतिरिक्त महानिदेशक के पद पर नियुक्त हुए थे. मुस्कराते हुए कमलेश्वर जी ने कहा था, “तपिश जी..... यह बड़ा काम नहीं है. शादी करो....स्थानांतरण की जिम्मेदारी मेरी.” कमलेश्वर जी ने उनकी आंखों में देखा, फिर मुस्कराये....एक मीठी मुस्कान और बोले थे, “भाई, पता कर लो....आपकी मंगेतर की कोई दूसरी समस्या तो नहीं....”

“ऐसा नहीं लगता सर....उसे दोनों के अलग-अलग शहरों मे रहने का भय ही सता रहा लगता है.”

“उन्हें बता दो कि मैंने आश्वस्त किया है....”

कमलेश्वर जी की बात बताने के बाद मानसी ने खत में लिखा, “तपिश, आपने पहले यह क्यों नहीं बताया था... अब एक साल के लिए मैं बंध गई हूं. मैंने यहां विश्वविद्यालय में मार्निंग शिफ्ट में उर्दू सार्टीफिकेट कोर्स में प्रवेश ले लिया है. एक जमाने से मैं उर्दू सीखना चाहती रही हूं.... एक वर्ष की ही बात है.....कमलेश्वर जी तो अभी आए ही हैं.... अभी रहेगें ही..... भले ही आई.ए.एस. लॉबी उनके खिलाफ है.......तो क्या आप एक वर्ष रुक नहीं सकते ?”

“मैं तो रुका हुआ हूं ही..... लेकिन मेरे घरवाले....उनका धैर्य चुका जा रहा है .” उन्होंने मानसी को लिखा था .

“मैंने अपने डैडी से बात की है. वह आपके डैडी को मेरी समस्या से अवगत करवा देंगे.” मानसी ने इस पत्र में आगे लिखा, “समय निकालकर आकर मिल लें......पत्रों में बातें हो नहीं पातीं.”

“कोशिश करूंगा.” उन्होंने उसे लिख तो दिया था लेकिन लखनऊ जाने का प्रयास नहीं किया और न ही मानसी का उसके बाद कोई पत्र आया. शोध के अपने नये विषय की तैयारी और रूपरेखा प्रस्तुत करने की चिन्ता में वह इतना डूबे कि वह उसे पुन: पत्र लिख नहीं पाए. इस बार विषय प्रस्तुत करते ही निर्णायक समिति की बैठक हुई और उनका विषय पुन: खारिज कर दिया गया. विश्वविद्यालय का पत्र थामें वह कितनी ही देर तक यह सोचते रहे थे कि उन्हें मानसी को यह सूचना देना ही चाहिए. और उन्होंने उसे अंतर्देशीय पत्र लिख दिया था.

पन्द्रह दिन के अंदर ही उत्तर आया, “आपका मिलना आवश्यक है . जितनी जल्दी संभव हो....”

उन्होंने उसके ऑफिस के पते पर पत्र लिख दिया कि वह अमुक तिथि को अमुक ट्रेन से लखनऊ पहुंचेंगे....सुबह दस बजे उसके कार्यालय में मिलेंगे .”

“कार्यालय नहीं.....इंडियन कॉफी हाउस....ग्यारह बजे.... मेरे कार्यालय के निकट ही है....सुबह ग्यारह बजे ....मिस नहीं करेंगे .” मानसी ने तुरंत लिख भेजा था.

♦♦ • ♦♦

निश्चित तिथि को ठीक ग्यारह बजे सुबह वह कॉफी हाउस में थे. पांच मिनट ही हुए थे उन्हें वहां पहुंचे कि उन्होंने एक युवक के साथ सड़क पार करते हुए मानसी को देखा. टेबल पर बैठने के लिए उन्होंने कुर्सी को हाथ लगाया ही था कि रुक गए और बाहर निकल आए. उनकी दृष्टि युवक पर टिकी हुई थी, मानसी जिससे हंसकर कुछ कह रही थी. युवक लंबा....पांच फीट आठ इंच के लगभग.....स्लिम...गोरा....एक वाक्य में... सुन्दर था .

'ऑफिस का कोई कलीग होगा.' उन्होंने सोचा, 'कहीं जा रहा होगा.'

लेकिन युवक कहीं नहीं गया. मानसी के साथ रहा. मानसी ने दूर से ही उन्हें देख लिया था और उनकी ओर हाथ का इशारा कर कुछ कहा. उन्होंने मानसी के संकेत के बाद युवक को हंसते देखा था .

“सॉरी....मैं दस मिनट लेट हूं.” उनके निकट पहुंच मानसी बोली .

वह चुप रहे. उनकी नजरें युवक पर गड़ी थीं.

“ओह ! “ मानसी ने उनके भाव पढ़ लिए, “यह हैं मनीष तिवारी....आकाशवाणी में हैं....प्रोग्रैम....”

“एक्ज्यूक्यूटिव....” मानसी से शेष शब्द मनीष तिवारी ने झटक लिया और उनकी ओर हाथ बढ़ा बोला, “आपसे मिलकर प्रसन्नता हुई .” “थैंक्स.” मंद स्वर में वह बोले थे .

“मैं चलता हूं मानसी.....आफ्टरनून आकर केस डिस्कस कर लूंगा....नो हरी.....”

“अरे यार.....ऐसी भी क्या जल्दी है ! तपिश जी क्या सोचेगें ? एक कप कॉफी पीकर चले जाना.” मनीष की ओर देख मुस्कराती हुई मानसी बोली, “अरे हम लोग यहीं खड़े रहेगें या बैठेगें भी.....”

“हां.....हां....क्यों नहीं......” और वह अंदर की ओर मुड़ गए तो मानसी और मनीष भी उनके पीछे हो लिए थे. जिस मेज पर वह बैठने जा रहे थे.... वह अभी भी खाली थी.

बैठने के बाद उनके बीच देर तक चुप्पी पसरी रही . चुप्पी को ताड़ती हुई मानसी ने पूछा, “कॉफी लेंगें  ?”

“कॉफी हाउस में बैठे हैं तो वह तो लेना ही है........इस मुलाकात को यादगार भी तो बनाना है.” उन्हें अपनी बात अटपटी लगी, लेकिन बात जुबान से रपट चुकी थी. संभालने का प्रयत्न करते हुए उन्होंने तत्काल जोड़ा, “ मनीष जी का साथ होने से इसे यादगार मुलाकात ही कहूंगा....”

मनीष के चेहरे पर मुस्कान तिर गयी .

“हां, यह है. मनीष बहुत व्यस्त रहते हैं....कभी पकड़ में नहीं आते. आकाशवाणी की नौकरी......नाटक लिखते हैं....इनकी कई स्क्रिप्ट पर दूरदर्शन और आकाशवाणी ने नाटक तैयार किए हैं .”

“हुंह .” उन्होंने मनीष की ओर पुन: हाथ बढ़ाया.”मेरा सौभाग्य. आप जैसे कलाकार से मुलाकात का श्रेय मानसी जी को.... इनका भी आभार .”

“मानसी कुछ अधिक ही प्रशंसा कर रही हैं सर ! बस यूं ही कुछ उल्टा-सीधा लिख लेता हूं .”

“तपिश जी......ये संकोच करते हैं.....”

“हर बड़ा कलाकार अपने बारे में बताने या बताए जाने पर संकोच प्रकट करता है. बड़प्पन की यही निशानी है.” वह अब पूरी तरह खुल चुके थे.

“यू आर राइट तपिश जी.... मनीष जीनियस हैं, लेकिन मैं जब कहती हूं तो यह चिड़चिड़ा जाते हैं.”

उन्होंने देखा अपने को 'जीनियस' कहे जाने पर मनीष का चेहरा खिल उठा था. वह चुप रहे. कुछ देर बाद मनीष बोला, “मानसी की ज़र्रानवाजी सर.....लेकिन आप मुझे लेकर कोई गलतफहमी नहीं पालेंगे..... मुझ जैसे कलाकार-लेखक गली-कूंचों में एक खोजेंगे -- अनेक मिल जाएगें ....”

“आपने देखा इनकी विनम्रता.” तपिश की ओर देखते हुई मानसी बोली. वह तब भी चुप रहे.

“यार मनीष, कुछ और तारीफ तभी करूंगी .... जब कुछ पी लूंगी.” मानसी बोली.

“बेयरे को आवाज दो.....दो चक्कर काट गया और हम लोग बातों में लगे रहे .”

“जाकर आर्डर कर आता हूं .” मनीष जाने के लिए उठा, दो कदम बेयरे की ओर बढ़ा, फिर रुककर उनसे पूछा , “तपिश जी कुछ और लेगें.”

“नो थैंक्स.”

♦♦ • ♦♦

कॉफी पीकर मनीष तिवारी चला गया.

“तपिश जी, आपको कहीं कोई दूसरा काम है ?” मानसी ने पूछा .

वह अचकचा गए. सोचने लगे , “इसने मुझे बुलाया और अब पूछ रही है कि.....”

कोई उत्तर दिए बिना वह मानसी की ओर देखने लगे थे.

“सॉरी , मैंने यूं ही पूछा. कभी-कभी ऐसा होता है... लेकिन....” आगे कुछ न बोल वह कभी बेयरे की ओर देखती और कभी गेट की ओर.

तपिश को लगा कि शायद उसने किसी और को भी बुलाया हुआ है. कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने पूछ लिया , “किसी को आना है  ?”

“नहीं....कौन आएगा? “ मानसी फिर चुप थी और लगातार गेट की ओर देखती जा रही थी. तपिश भी उधर ही देखने लगे. तभी बेयरा आ गया.

मानसी का ध्यान गेट की ओर होने का लाभ उठा तपिश ने कॉफी के पैसे बेयरे को दे दिए .

“आपने क्यों दिए  ?”

“मुझे नहीं देना चाहिए था?”

“मेरा यह मतलब नहीं....”

“अगर आपको किसी की प्रतीक्षा नहीं तो हम उठें....डेढ़ घण्टा हो चुका है.... “

“हां.....लेकिन यहां तो लोग सुबह आकर शाम तक बैठे रहते हैं....”

“हां.....आं....लेकिन हमें अभी बूढ़ा होने में बहुत वक्त है .”

मानसी मुस्करा दी. उन्होंने ध्यान दिया, उसकी मुस्कराहट में उत्साह -प्रफुल्लता नहीं थी.

उठ खड़े होते हुए उन्होंने पूछा, “आपके पास अभी और कितना वक्त है....?”

“लंच तक आपके साथ रह सकती हूं... “

बाहर फुटपाथ पर पहुंच वह बोले , “फिर हम क्यों न हजरतगंज में चहल-कदमी करते हुए बातें करें....”

“जी...श्योर...”

♦♦ • ♦♦

दो बजे तक मानसी उनके साथ हजरतगंज में एक छोर से दूसरे छोर तक उलट-फेर कर टहलती रही. उन्हें आश्चर्य था कि जिस उद्देश्य से उसने उन्हें तुरंत आ जाने का आग्रह किया था उस पर चर्चा करने से वह बचती रही. उन्होंने जब अपने शोध विषय के निरस्त होने की चर्चा छेड़ी... उसने केवल , “ऐसा होता है... वह कोई मुद्दा नहीं .”

“फिर मुद्दा क्या है ?”

“मुद्दा....... कुछ है ही नहीं .”

“फिर....?”

“आपको लिखा था कि मैंने उर्दू कोर्स ज्वायन किया है.... उसे पूरा कर लेना चाहती हूं .”

“यह कोई आई.ए.एस., पी.सी.एस. जैसी तैयारी तो नहीं.” वह बोले. उनका स्वर कुछ ऊंचा था .

“आप इतनी उतावली क्यों दिखा रहे हैं?” मानसी के स्वर में चिड़चिड़ाहट थी .

वह हत्प्रभ थे. कारण वह पहले ही बता चुके थे. चुप रहे.

“मैं समझती हूं... रुकना हमारे हित में है. आपको शोध के लिए पंजीकृत होने में सुविधा रहेगी.... तब तक कुछ काम भी कर डालेगें... मैं भी उर्दू में कुछ कर लेना चाहती हूं....”

“हुंह....” सामने से आ रहे व्यक्ति से उन्होंने अपने को बचाया.

“क्या आप नहीं चाहते कि आप जैसे प्रतिभाशाली युवक का स्थान किसी डिग्री कॉलेज या विश्वविद्यालय में है.... बुरा नहीं मानेगें.... आपने बताया था कि अच्छे अंको से आपने प्रथम श्रेणी पायी थी एम.ए. में .”

“जी.”

“फिर अनुवाद में प्रतिभा का क्षरण क्यों...?”

वह निरुत्तर रहे .

“अरे दो बज रहे हैं? ढाई बजे से मेरे एक कार्य का लाइव टेलीकॉस्ट है....मैं चलूं ?”

“श्योर .” उदासीन स्वर में वह बोले थे .

मानसी ने बॉय किया और तेजी से दूरदर्शन केन्द्र की ओर लपक गयी. वह देर तक खड़े उसे जाता देखते रहे थे. मानसी तो चली गई थी लेकिन उनके अंदर एक उद्वेलन छोड़ गयी थी....

उन्होंने रिक्शा पकड़ा और होटल लौट गए थे .

♦♦ • ♦♦

उनके पिता पारंपरिक सोच के थे और अपनी बढ़ती उम्र से चिन्तित. एक दिन वह दिल्ली आ पहुंचे और उन्हें धमकाने के अंदाज में बोले, “तपिश, मैं उस रिश्ते को तोड़ने जा रहा हूं.... हद ही हो गयी. तय हुए डेढ़ साल से ऊपर हो चुका है.... उनके बहानों का अंत ही नहीं.... मुझे तो दाल में कुछ काला नजर आ रहा है .”

“क्या ?” धीमे स्वर में उन्होंने पूछा था .

“यही कि वे लोग किसी आई.ए.एस. -पी.सी.एस. के चक्कर में हैं. वहां से उन्हें स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा होगा.... और तुम्हें उन्होंने स्थानापन्न के रूप में रखा हुआ है.”

“मैं भी जल्दी में नहीं हूँ.” उन्होंने उत्तर दिया था.

“तुम्हें जल्दी क्यो होगी? तुम्हारी छोटी बहन छब्बीस की हो रही है... तुम्हें यह पता नहीं होगा....? लेकिन मुझे उसकी चिन्ता भी करनी है.”

“डैडी...आप विपाशा की शादी की चिन्ता करें.... मैं फिलहाल शोध की चिन्ता करूंगा....”

“शोध-वोध...शादी के बाद भी होता रहेगा.”

“रजिस्ट्रेशन होने तक मेरे मामले को स्थगित कर देंगे तो मेरे हित में होगा.” उनके स्वर की निरीहता ने शायद पिता को सोचने के लिए विवश किया था. हथियार डालते हुए वह मरे-से स्वर में बोले थे , “तपिश, शादी की भी एक उम्र होती है... उसके बाद फिर समझौते ही होते हैं .” वह चुप रहे थे.

पिता गए तो वह शोध के लिए नये विषय के पंजीकरण की तैयारी में लग गए थे .

♦♦ • ♦♦

तीसरी बार शोध निर्णायक मंडल की बैठक छ: माह बाद हुई. उस बार उनका विषय पंजीकरण के लिए स्वीकृत हो गया था. जिस दिन यह बताने के लिए दफ्तर में उनके गाइड का फोन आया उसी दिन शाम घर पहुंचने पर डाक से आया उन्हें एक निमंत्रण पत्र मिला, जिसपर नजर पड़ते ही वह चौंके थे. उस पर 'मानसी और मनीष के नाम लिखे थे. कार्ड खोलने का मन न होते हुए भी उन्होंने उसे खोला....पढ़ा और एक ओर खिसका दिया. उसके दसवें दिन उन दोनों का विवाह होना था. देर तक वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा सोफे पर अधलेटे से बैठे रहे थे. पिछली मुलाकात के दृश्य तेजी से उनकी आंखों के सामने घूमते रहे थे.

'मानसी ने उन्हें केवल मनीष से मिलवाने के लिए बुलाया था....वह शायद इस विषय में बताना चाहती थी...फिर कहा कयों नहीं...' वह सोच रहे थे - 'कहना आवश्यक था? यदि तुममें समझने की क्षमता ही नहीं तब कहकर भी क्या समझ लेते? उसके परिवार वालों को भी इस बारे में जानकारी रही होगी. वे मनीष और उसके प्रेम संबधों के कारण उलझन में रहे होंगे. लेकिन मानसी ने उचित ही किया. यदि अपने परिवार के दबाव में वह उनसे विवाह कर भी लेती तो भी क्या वह मनीष को भूल जाती! तब क्या स्थिति बनती....नहीं उसने उचित कदम उठाया....' मुझे उसे बधाई देनी चाहिए.

और अगले दिन उन्होंने मानसी को बधाई का टेलीग्राम भेज दिया था .

♦♦ • ♦♦

उसके बाद जीवन कुछ यूं बदला कि उन्हें पता ही नहीं चला. वह निरंतर सफलताओं के सोपान चढ़ते रहे... पी-एच.डी. सम्पन्न होने से पहले ही उस कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हुए....और आज वह उस कॉलेज में ही प्राचार्य थे. उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा....वक्त भी नहीं था देखने का...वक्त शादी करने के लिए भी नहीं निकाल सके....काम-शोध...और उसी दौरान दो वर्षों के लिए वह हिमाचल विश्वविद्यालय के वी.सी. भी रहे.... केवल दो वर्षों के लिए... दो वर्षों बाद पुन: अपने पद पर वापस लौटे. उन्हें कभी किसी की कमी खटकी भी नहीं. अपने अधीनस्थों और विद्यार्थियों को अपना परिवार समझा और सभी के लिए दरवाजे खुले रखे. आज वह दिल्ली के सर्वाधिक प्रतिष्ठित प्राचार्य के रूप में जाने जाते हैं.

लेकिन मानसी उन्हें कभी याद नहीं आयी ऐसा नहीं था. काम के बीच कभी अचानक खाली होते तो सोच लेते....मानसी उनके जीवन में आयी पहली और अंतिम लड़की थी.... भले ही उसके पिता ने उसे खोजा था और बाकायदा उनकी 'रिंग' सेरेमनी हुई थी. उसके बाद वह उससे दो बार ही मिले थे.... कुछ पत्राचार हुआ था.... तब वह उसके विषय में ही सोचते रहते थे.... सपने बुनते रहते थे. अकेले रहते थे... दफ्तर के बाद मानसी उनके साथ हाती थी... लेकिन जब सब समाप्त हुआ उन्होंने अपने को इतना समेटा कि मानसी भूले-भटके कभी उनके मानस पटल पर विचरण कर जाती और तब वह - “आपने उचित निर्णय लिया था मानसी” अपने को उसकी स्मृति से मुक्त कर लेते, 'लेकिन उसके जाते-जाते यह भी कहते, “यदि आपने वह निर्णय न किया हेता मानसी तो मैं आज जो कुछ हूं वह नहीं होता .”

♦♦ • ♦♦

साक्षात्कार प्रारंभ होने से पूर्व उन्होंने अभ्यर्थियों के नामों पर दृष्टि डाली और अभीप्सा तिवारी, लखनऊ पर अटक गए. सब कुछ उलटता-पलटता नजर आया. 'हर अभ्यर्थी को जानकारी होती है कि जिस कॉलेज में वह साक्षात्कार के लिए जा रहा है वहां का प्राचार्य, विभागाध्यक्ष और विश्वविद्यालय का विभागाध्यक्ष कौन है. अभीप्सा यदि मानसी की बेटी है तब मानसी को भी ज्ञात होगा , फिर उसने मुझे एप्रोच क्यों नहीं किया? करती तो क्या तुम उसके लिए कुछ कर देते  ! डॉ. तिवारी और डॉ. निकिता और मंत्रालय.....क्या वह इतना आसान होता.' उन्होंने सोचा 'आवश्यक नहीं मानसी को पता ही हो.... मेरे नाम के कितने ही लोग हो सकते हैं. फिर उसने तो यही सोचा होगा कि मैं सरकारी बाबू था.... आज भी कुछ पदोन्नतियों के बाद वहीं होऊंगा....' क्षणांश के लिए रुककर पुन: सोचा, 'यह भी संभव है वह मानसी हो ही न....'

वह कुछ और सोचते कि अभ्यर्थियों को बुलाये जाने के लिए प्रवीण ने पूछा और उनसे पहले डॉ. पाण्डे ने सिर हिलाकर अनुमति दे दी.

अभीप्सा तिवारी को जब बुलाया गया तब वह कुछ विचलित हुए. एक बार उनके मन में आया कि वह उससे कुछ न पूछकर केवल उसके पेरेण्ट्स के विषय में पूछें, लेकिन तत्काल अंदर से आवाज आयी, “ डॉ. तपिश....क्या मूर्खतापूर्ण बात सोचने लगे.... इतना भावुक होकर अपने पद की गरिमा क्यों घटाने पर तुले हुए हो  ?”

अभीप्सा ने चयन बोर्ड के सभी सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर दिए और सही-बेहिचक. लखनऊ विश्वविद्यालय से उसने प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया था, नेट उत्तीर्ण थी और पी-एच.डी. कर रही थी. अभीप्सा एक हलचल थी उनके अंदर. उसके अतिरिक्त दो अभ्यर्थी और भी थे जिन्होंने सभी के प्रश्नों के सही उत्तर दिए थे. लेकिन उन दोनों के बजाय घूम फिर कर उनके दिमाग में अभीप्सा की नियुक्ति घूम रही थी. 'अभीप्सा ही क्यों?' मन के एक कोने से प्रश्न उठा, 'दूसरे अभ्यर्थी इसी विश्वविद्यालय के छात्र हैं.....उनमें कोई कमी भी नहीं है....फिर तपिश तुम अभीप्सा के बारे में ही क्यों सोच रहे हो! मानसी से जुड़ा अतीत तुम्हें परेशान कर रहा है?'

उन्होंने विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष और डॉ. तिवारी की ओर दृष्टि डाली. डॉ. तिवारी साक्षात्कार समाप्त हो जाने के बाद डॉ. निकिता सिंह से फुसफुसाकर कुछ कह रहे थे और वह स्वीकृति में सिर हिला रही थी. कांफ्रेंसरूम में सन्नाटा देर तक चहलकदमी करता रहा. बीच-बीच में कुछ कागजों की सरसराहट की आवाज हो जाती. तभी उन्होंने धण्टी बजायी. वह सन्नाटे को तोड़ना चाहते थे. गेट पर तैनात चपरासी दौड़ता हुआ आया .

“चाय “

“जी सर.” चपरासी के मुड़ते ही वह बोले, “किसके नाम पर विचार किया डॉ. तिवारी? “ उन्होंने विभागाध्यक्ष और डॉ. निकिता सिंह की ओर देखा.

“रंजना श्रीवास्तव.....”

“डॉ. साहब रंजना आधे प्रश्नों के उत्तर ही नहीं दे पायी थी.....' डॉ. प्रवीण राय विनम्रतापूर्वक बोले.

उन्होंने पुन: विश्वविद्यालय विभागाध्यक्ष की ओर देखा. वह चुप थे .

“सर.... डॉ. प्रवीण ठीक कह रहे हैं.” डॉ. शुक्ल की आवाज थी. डॉ. शुक्ल ने कुछ अधिक ही प्रश्न किए थे रंजना श्रीवास्तव से. उन्होंने उससे यह भी पूछा था कि पी-एच.डी. के उसके निर्देशक कौन थे! प्रश्न सुनकर पहले तो रंजना अचकचाई थी, फिर डॉ. तिवारी की ओर देखती रही थी. वे यह देखकर उलझन में थे कि वह उनकी ओर क्यों देख रही थी. जब डॉ. शुक्ल ने अपना प्रश्न दोहराते हुए कहा, “रंजना श्रीवास्तव, आप डाक्टर साहब की ओर क्यों देख रही हैं ? मेरे प्रश्न का उत्तर दें .”

“जी, डाक्टर साहब मेरे निर्देशक थे.” डॉ. तिवारी की ओर इशारा करती हुई रंजना बोली थी.

अब वह समझ पा रहे थे कि डॉ. शुक्ल ने सोच-समझकर उस लड़की से वह प्रश्न किया था. शुक्ल को पहले से ही जानकारी रही होगी और बोर्ड के सभी सदस्यों को इस प्रकार वह इस बात से अवगत करवाना चाहते होगें. शायद उन्हें यह भी जानकारी रही होगी कि डॉ. तिवारी रंजना श्रीवास्तव का ही चयन करना चाहेगें.

अभीप्सा के नाम का प्रस्ताव करने का विचार उन्हें त्यागना पड़ा था, क्योंकि डॉ. तिवारी डॉ. शुक्ल पर बरस पड़े थे. प्रवीण शुक्ल के पक्ष में बोल रहे थे और उनके तर्क थे कि जब रंजना श्रीवास्तव से अच्छे और उससे अधिक योग्य अभ्यर्थी हैं तब उसका चयन क्यो किया जाए !

डॉ. तिवारी और निकिता सिंह रंजना के पक्ष में अड़ गये. लगभग दो घण्टे तक बहस चलती रही. चाय के दो दौर समाप्त हो चुके थे . निष्कर्ष के लिए शुक्ल और प्रवीण उनकी और हेड की ओर देखने लगे थे. हेड ने पूरी तरह मौन धारण किया हुआ था. शायद उन्हें पहले से ही यह ज्ञात था कि तिवारी अपने कंडीडेट के लिए सदैव की भांति अड़ेंगे. तिवारी के आड़े आना उन्हें उचित नहीं लगा. उन्होंने चुप का विकल्प चुन लिया था. तपिश बहुत देर तक अपने प्राध्यापकों और डॉ. तिवारी के बीच छिड़ी बहस को सुनते रहे थे. उन्होंने विभागाध्यक्ष की ओर पुन: देखा. वह स्थितप्रज्ञ थे. अंतत: उन्होंने कहा, “डॉ. तिवारी, रंजना इस कॉलेज के लिए उपयुक्त नहीं रहेगी....उसके बजाय आप किसी अन्य के नाम पर विचार करें तो अच्छा होगा .”

“मैं किसी और के नाम की संस्तुति नहीं करूंगा. यदि आप लोग करना भी चाहेगें तो मैं हस्ताक्षर नहीं करूंगा. “डॉ. तिवारी ने उबलते हुए कहा. “मैं भी नहीं करूंगा .” डॉ. निकिता सिंह के स्वर में भी उत्तेजना थी .

और बोर्ड निरस्त कर दिया गया था.

♦♦ • ♦♦

जब कांफ्रेंस रूम से वह बाहर निकले अंधेरा हो चुका था. चपरासी, सेक्शन अफसर, दो क्लर्कों के अतिरिक्त चौकीदार ही वहां थे. टयूबलाइट्स और पीले बल्बों की रोशनी कॉलेज परिसर में फैली हुई थी. किसी से बिना कुछ कहे वह रिशेप्शन की ओर बढ़ गए. प्रवीण उनके पीछे लपके, लेकिन दूर से ही सूना पड़े रिशेप्शन को देख वह उल्टे पांव लौट पड़े थे अपने चैप्बर की ओर.

“सर, मैंने आपसे पहले ही कहा था....हमें दोबारा उसी प्रक्रिया से गुजरना होगा सर ..... छ: महीने लग जाएगें... लेकिन.....”

'हुंह....” विचारमग्न स्वर में वह बोले, “तो सभी चले गए?”

“कौन सर ?” प्रवीण ने उनके पीछे चलते हुए पूछा.

“कोई नहीं.”

और वह तेजी से अपने चैम्बर की ओर बढ़ गए थे.