वह द्वीप नहीं, उतंग लहरों पर सवार था / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 20 नवम्बर 2014
ख्वाजा अहमद अब्बास का जन्म 7 जून 1914 को हुआ अर्थात भारतीय कथा फिल्म के एक वर्ष बाद। अपने 73 वर्ष के जीवन में से 23 वर्ष शिक्षा प्राप्त करने में बीते। साहित्य और कानून की पढ़ाई की। अपने 50 वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने 73 किताबें लिखीं, 60 फिल्मों के लेखन-निर्देशन से जुड़े रहे तथा 50 वर्ष तक साप्ताहिक काॅलम लास्ट पेज लिखा। इन वर्षों में उन्होंने इतना काम किया जितना दर्जन लोग मिलकर नहीं कर सकते।
हरियाणा के पानीपत में ऐसे परिवार में जन्मे जिनके पूर्वज अयुब अन्सारी इस्लाम के जनक मोहम्मद साहब के साथी रहे और ख्वाजा अल्ताफ हुसैन "हाली' गालिब के शागिर्द और महान शायर थे। मां शिक्षाविद सज्जाद हुसैन की सुपुत्री थीं। धर्म, साहित्य और शिक्षा से जुड़े परिवार के अब्बास ने मार्क्सवाद को अपनाया जिसकी भौतिकवादी विकास धारणा में किसी अनन्य शक्ति का स्थान नहीं होता। अत: धार्मिक परिवार के इस ख्वाजा की अजान में मजदूर कृषक की वेदना ध्वनित होती है। मानवीय करुणा में उनकी आस्था थी। कानून की शिक्षा का उन्होंने यह इस्तेमाल किया कि जीवन की अदालत में वंचित वर्ग के लिए जिरह करते रहे और फिल्में भी ऐसी गढ़ीं कि इसे अदालत में साक्ष्य की तरह प्रस्तुत कर सकें। उनके कॉलम अदालत में प्रस्तुत अर्जियां थीं।
अब्बास साहब का मार्क्सवाद को समर्पण इस कदर था कि उन्होंने कभी बंगला, कार नहीं खरीदी। उनके व्यक्तिगत मित्रों में नेहरू, निकिता ख्रुश्चेव, बलराज साहनी, चेतन आनंद और राजकपूर थे परंतु उन्होंने आम आदमी की तरह ही जीवन बसर किया। साम्यवाद उनके लिए लाल टोपी या वेशभूषा नहीं थी, वरन् उनकी आत्मा का ताप था और उनकी तरह का जुनून व्यक्ति को किसी किसी क्षेत्र का मठाधीश बना देता है परंतु अब्बास तो मठाधीशों के मुखौटे गिरा देते थे।
बाॅम्बे क्रॉनिकल में उनकी फिल्म समीक्षा पढ़कर शांताराम ने स्टूडियो बुलाया, कि फिल्म निर्माण का व्यावहारिक ज्ञान उनकी समीक्षा को धार देगा परंतु अब्बास साहब की विचार मिक्सी में पिसकर यह अनुभव पटकथा बन उभरा जिसे शांताराम ने "डॉ. कोटनीस की अमर-कहानी' के नाम से रचा। चेतन आनंद की "नीचा नगर' उन्होंने लिखी और इप्टा के साथ जुड़कर अपनी लिखी "धरती के लाल' बनाई जिसका प्रदर्शन 1946 के सांप्रदायिक दंगों के कारण ठीक से नहीं हो सका। हिंदुस्तानी सिनेमा की एक निर्णायक घटना किसी पटकथा से कम रोचक नहीं। नरगिस से "आवारा' की जानकारी पाकर राजकपूर उनसे मिलने पहुंचे। उन दिनों अब्बास साहब अपने सहयोगी लेखक वीपी साठे के साथ शिवाजी मैदान क्षेत्र में श्मशान भूमि के निकट होने के कारण सस्ती होटल में लेखन का अलख जगाते थे। उन्हें मुर्दों से नहीं जीवित शैतानी फितरत इंसानों से डर लगता था और बाद के वर्षों में राजकपूर इस कदर अब्बासी थे कि यह संवाद "राम तेरी गंगा मैली' में 1985 में इस्तेमाल हुआ। बहरहाल आधी रात राज पहुंचे और अलसभोर में पटकथा सुनना समाप्त हुआ। सारी जेबें टटोलकर उनके पास एक रुपया चार आने निकले जिसे अग्रिम राशि के रूप में अब्बास ने स्वीकार। राज की आंखों में जुनून देख तो अब्बास साहब उन्हें "आवारा' मुफ्त में देते जिसे बनाने में दिग्गज मेहबूब खान संकोच कर रहे थे।
आरके स्टूडियो की स्थापना और "आवारा' की प्रदर्शन ऐतिहासिक घटना है क्योंकि सामाजिक प्रतिबद्धता का मनोरंजन इस फिल्म की अंतरराष्ट्रीय सफलता से सशक्त हुआ। अगर अब्बास ने राजकपूर को सामाजिक दृष्टि दी तो अमिताभ बच्चन को 1969 में "सात हिन्दुस्तानी' में प्रस्तुत किया। उन्होंने अनेक कलाकारों को अवसर दिया, पत्रकारों को प्रशिक्षित किया। अब्बास साहब ने भारत की पहली बहुसितारा फिल्म "चार दिल चार राहें' बनाई जिसमें पृथ्वीराज, राजकपूर, मीनाकुमारी, शम्मीकपूर, निम्मी जैसे दर्जन सितारों ने लगभग मुफ्त काम किया जो अब्बास साहब सार्थक सिनेमा के प्रति उनका आदर था।
अब्बास साहब की फिल्मों को व्यावसायिक सफलता नहीं मिली पर पटकथाओं पर राजकपूर ने सार्थक सफल फिल्में बनाईं। राजकपूर ने अपनी मनोरंजन शैली में बनाते हुए भी उनकी पटकथा के सत्व को नष्ट नहीं होने दिया। अब्बास ने कभी यह नहीं कहा कि राजकपूर का सिनेमा व्यवसायी है और राजकपूर ने पूरी जीवन अब्बास साहब को किसी चीज के लिए इनकार नहीं किया। राजकपूर का सिनेमा कभी अब्बास की महत्वाकांक्षा या सपना नहीं रहा और राजकपूर के लिए अब्बास महज लेखक नहीं एक द्वीप थे। अब्बास की आत्मकथा "आई एम नॉट एन आइैंड' थी, पर वे तो परिवर्तन की उतंग लहर पर सवार थे। अब्बास की मृत्यु 1 जून 1987 को हुई और राजकपूर की 2 जून 1988 को, मानो अब्बास को खाके सुपुर्द करने के बाद उन्हें जीना दुश्वार लगा।
अब्बास की मृत्यु के 27 वर्ष बाद भी उनके जन्मदिन पर जुहू की संकरी गली जहां अब्बास रहते थे, उनके प्रशंसक जुटते हैं और इस गली के ठीक सामने पांच सितारा होटल की खिड़की से कोई पूंजीवादी ये नजारा देखता है तो उसे समझ नहीं आता। वंचित व्यक्तियों के ख्वाजा की इस दरगाह को वह कैसे समझ सकता है।