वह बच्चा / लाल्टू

Gadya Kosh से
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शबनम ने मुंह से पेंसिल निकालकर कापी में दस खड़ी रेखाएं खींची - समानांतर। फिर दस तिरछी रेखाएँ खींचने के लिए वह तैयार हो रही थी, तभी उसने उन दोनों को आते देखा। पेंसिल वापस मुंह में रख वह उनकी ओर देखने लगी। मर्द जींस पर लाल बुशर्ट पहना हुआ था। औरत कुर्ते पाजामे और रंगीन दुपट्टे में थी। वे दोनों चुपचाप आकर कक्षा में पीछे की ओर बैठ गए। मैडम, जो एक बाँह वाली कुर्सी पर बैठी कुछ सोच रही थीं, अचानक खड़ी होकर बोलीं, अरे ! आप लोग आ गए। अभी कुर्सियां मंगवती हूं आपके लिए।

मैडम ने थोड़ी देर पहले पान चबाया था। उनके बोलने पर सामने बैठी लड़कियों पर थूक के छींटे आ गिरे थे, पर वे इससे बेखबर अपनी कापियों और उन दोनों के बीच अपनी नजरें दौड़ा रही थीं। थोड़ी सी कानाफूसी भी शुरू हो गई थी, “कौन है रे ?”

“अरे ! वही पिछले साल भी आए थे - विज्ञान वाले सर और मैडम ?”

मर्द ने जैसे परेशान सा होते हुए कहा, “अरे नहीं, नहीं ! आप कक्षा जारी रखिए। हम यहीं ठीक हैं।”

शबनम अभी तक एकटक उस औरत की ओर देख रही थी। इतने सुंदर से चेहरे में भी कितना रूखापन है। होंठ हल्की सी मुस्कान में खुले हुए हैं, पर लग रहा है जैसे वह मन ही मन किसी को डाँट रही हो। विज्ञान वाले सर और मैडम के बारे में शबनम और उसके साथियों को विज्ञान कम और उनके हाव भाव अधिक याद रह गए थे। आज वैसे भी वे खाली हाथ आए लग रहे थे...

“ठीक है, तो दो मिनट पर कितनी दूरी तय हुई ?” मैडम की आवाज यूँ तैरती हुई आई जैसे अचानक घंटों बिजली जाने के बाद बत्ती पंखे चल पड़े। शबनम को याद आया कि उसे गोकुलदास के साईकिल चलाने का ग्राफ बनाना है। उसने कापी में देखा। उसने दस समानांतर रेखाएं खींची थीं - खड़ी। अब वह तिरची रेखाएं खींचने वाली थी - क्यों? पता नहीं आज उसके दिमाग में यह सवाल क्यों आया ! रोज तो चुपचाप सवाल हल करती रहती है बिना सोचे - बिना पूछे। वैसे वे हल होते न हों - यह अलग बात है। उसे उन दोनों पर गुस्सा आया। उनकी वजह से ही तो वह भूल गयी कि वह क्या कर रही थी।

पहली तिरछी रेखा खींचते हुए उसने एक बार फिर उस औरत की ओर देखा। उसे याद आया एक बार अपनी अम्मा के साथ जब वह इन साहब लोगों के घर गई थी झाड़ू लगाने, वहां भी ऐसी ही कोई औरत आई थी भोपाल से। उसने उसे बुलाया था, उसकी पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा था और फिर दीदी, मतलब साहब की बीबी से कुछ अंग्रेज़ी में बोलने लगी थी। यह औरत भी फर्राटे से अंग्रेज़ी में बोलती होगी। ये सब बड़े शहरों की औरतें पता नहीं कैसे अंग्रेज़ी बोल लेती हैं। यहां तो एक भी ऐसी नहीं मिलती।

“हाँ, दो मिनट में चालीस मीटर। अब आगे देखो चार मिनट में कितनी दूरी तय हुई ?” मैडम ने बोर्ड पर बनाए ग्राफ पर एक बिंदु अंकित करते हुए कहा।

शबनम ने समझ लिया कि अब मैडम ने काफी दूरी तय कर ली है। वह अब कुछ नहीं समझ पाएगी। उसे लगा जैसे वह मैडम की ओर ध्यान देती रहे, तो रो पड़ेगी। झट से उसने किताब के पन्ने पलटकर मानो पागलों की तरह हाथ से निकल चुकी मैडम को पकड़ने की कोशिश की।

किताब में बने एक ग्राफ के पास एक लड़की की तस्वीर है। वह लड़की कह रही है, 'अरे वाह ! चार मिनट में साठ मीटर आ गई।' उसके मुस्कराते होंठ अजीब से बिखरे हुए हैं। चोटी सामने की ओर लटकी हुई है।

शबनम को लगा जैसे वह तस्वीर उसकी है। अपनी शक्ल के बारे में सोचते हुए वह सड़क की ओर देखने लगी। सड़क मैदान के उस पार थी। मैदान मतलब स्कूल के साथ सटी खाली जमीन। कक्षा मकान के आंगन में ही लगती है, इसलिए जब भी जिसकी इच्छा, सड़क पर चलते लोगों को देख सकता है। मैदान खुला है, घास बिल्कुल नहीं है, वहां भी लोग आते जाते रहते हैं। शबनम ने उस चलती फिरती दुनिया को देखा और सोचा अगर यह भीड़ अचानक बेजान हो जाए, सभी लोग पत्थर की मूर्तियाँ बन जाएं, तो कैसा लगेगा। ऐसा क्यों नहीं होता कि किसी एक दिन लोग जहां हैं, वहीं खड़े रहें, निस्तब्ध, हर रोज उन्हें चलते फिरते रहना जरूरी क्यों है !

शबनम को सड़क की ओर एकटक देखते उस मर्द ने देख लिया। उसी ने मैडम की ओर संकेत किया और मैडम ने तुरंत चीखकर पूछा, “शबनम ! चार मिनट में कितनी दूरी तय हुई ?”

वह मर्द झेंप सा गया। शबनम को लगा जैसे मैडम का इस तरह डांटकर पूछना उसे भी अच्छा नहीं लगा। अब वे दोनों उसकी ओर ताक रहे थे। वह क्या जवाब दे।

“साठ मीटर, मैडम”, उसके मुंह से निकला। मैडम खुश हो गई, हालांकि उनको पता भी न था कि शबनम को अभी तक यह मालूम नहीं था कि आँकड़ों की तालिका कहाँ बनी है। शबनम फिर से अपनी कापी में तिरछी रेखाएं खींचने लगी थी।

“अच्छा तुम लोग आगे के सभी बिंदुओं को ग्राफ पर दिखाओ और ग्राफ बनाकर दिखाओ,” कहती हुई मैडम दीवार से सटकर लड़कियों का चक्कर काट कर उन दोनों के पास आई।

“सचमुच, कैसे पढ़ा लेती हैं आप इतने सारे बच्चों को इतनी छोटी सी जगह में ?” मर्द ने कहा। वह औरत अभी भी उसी रूखेपन से मुस्करा रही थी।

“अब देखिए, इसी में चल रहा है। कुल हमारे पास सात कमरे हैं। दो शिफ्ट में मिडिल स्कूल में बारह सौ लड़कियां और दूसरी शिफ्ट में हाईस्कूल भी साथ लगता है।”

“हां, सरकार तो बस लड़कियों के लिए वजीफाओं की घोषणा करती रहती है, पर उनके बैठने की जगह की चिंता उनको क्यों हो ? इससे वोट थोड़े ही मिलेंगे।”

शबनम ने वजीफे की बात पर ध्यान दिया। उसे अभी तक यह यकीन नहीं होता कि जो भी पैसे उसे मिलने लगे हैं, वह सरकार एक दिन वापस नहीं ले लेगी।

तभी दो लड़कियां मैडम के पास अपनी कापियाँ लेकर आईं। मैडम ने गंभीर आवाज़ में कहा, “इकाई लिखो अक्षों पर। पैमाना तो दिखलाया ही नहीं तुमने...।”

वे दोनों अपने कागज़ों में कुछ नोट कर रहे थे। अचानक उस औरत ने पूछा, “अच्छा, ये लड़कियाँ आपसे सवाल क्यों नहीं पूछ रहीं ? आपसे डरती हैं क्या ?”

“अब क्या पता ? जिज्ञासा की प्रवृत्ति इनमें जरा कम है!”

शबनम को यह अच्छा नहीं लगा। उसके मन में तो हजारों सवाल हैं। अगर वह पूछने लगे तो मैडम डाँट देंगी।

मैडम घूमकर वापस बोर्ड पर आ गई थीं। वे दो अब आपस में बातें कर रहे थे - अंग्रेज़ी में। शबनम ने सोचा कि हो सकता है ये लोग मैडम के दोस्त हों, नहीं तो इस तरह नीचे थोड़े ही बैठते। पर मैडम तो कितनी साधारण सी लगती हैं और ये लोग पैसे वाले लगते हैं। वैसे अच्छे लग रहे हैं स्वभाव से। अपने आस पास बैठी लड़कियों से बातें कर रहे हैं। दो एक लड़कियों को मदद भी कर रहे हैं ग्राफ बनाने में। शबनम इसी बीच अपनी आड़ी आड़ी तिरछी रेखाओं पर मन ही मन कूदने का एक खेल खेलने लगी थी। एक घर आगे बढ़े तो बीस मीटर दो मिनटों में।

तभी एक आदमी साइकिल पर आया और के बिलकुल पास खड़ा होकर साइकिल की घंटी बजाते हुए बोला, “आठवीं की कक्षा यहीं लगती है ?”

मैडम ने झल्लाते हुए कहा, “हाँ, क्या बाते है ?”

कक्षा के दूसरी ओर से तब तक रूपाली उठ खड़ी हुई थी। अच्छा, ये रूपाली के पापा होंगे, शबनम ने सोचा। रूपाली शर्माती सी चुपके से उठकर अपने जूते पहनकर पापा के पास जा खड़ी हुई।

वह आदमी जैसे कुछ देख ही न रहा हो, इस तरह उसने कहा, “जी, बिटिया का नाम कट गया ?”

“ओ, अच्छा ! भई, पंद्रह तारीख तक फीस देनी पड़ती है, इसने दी नहीं तो मैडम ने जैसा बोला है, वैसा हमने किया। मैडम ने कहा है कि पंद्रह के बाद फीस नहीं देने पर दो दिन तक लेट फीस लगाकर पैसे दो, नहीं तो नाम कट जाएगा।”

मैडम की मैडम मतलब बड़ी बहनजी...बाप रे ! शबनम कांप उठी। बड़ी बहनजी आतंक की प्रतिमूर्ति हैं। चाहे सब कुछ करवा लो, पर बड़ी बहनजी के पास मत भेजो !

रूपाली के पापा ने धीरे से कहा, “वो ऐसा है कि मैडम, उस वक्त पैसे नहीं थे..।” रूपाली सिर झुकाए खड़ी थी। शबनम को लगा कि वह रूपाली की जगह होती तो खड़ी नहीं हो पाती। शायद कहीं भाग जाती। या शायद कोई पत्थर उठाकर किसी को मार देती। पत्थर उठाने के खयाल से वह घबराई।

“आप जाइए, मैडम से बात कर लीजिए।” मैडम का गला नर्म हो आया था।

रूपाली और उसके अब्बा चले गए। गरीब होना कितना बड़ा झंझट है, शबनम ने सोचा। पैसे नहीं तो टाइम पर फीस नहीं दे सकते। टाइम पर फीस नहीं दी तो और पैसे दो। शुक्र है कभी शबनम ऐसी मुसीबत में नहीं पड़ी - वह तो अम्मी उनका इतना ध्यान रखती है इसलिए।

कुछ लड़कियाँ कापियाँ लिए मैडम तक आईं, तो मैडम ने उनको उन दोनों के पास भेज दिया। उन दोनों ने ध्यान से लड़कियों के ग्राफ देखे। औरत ने मर्द से कहा कि पैमाना बनाने में बार बार गलती हो रही है। मर्द ने मैडम से कहा और मैडम क्लास को समझाने लगी।

उस औरत ने धीरे से कहा, उस औरत ने धीरे से कहा, “होपलेस ! इस शिक्षा व्यवस्था का कोई सुधार नहीं हो सकता ?”

“यहाँ तो परंपरागत तरीका ही चल सकता है। शिक्षक भाषण दे और बच्चे रट लें। ग्राफ भी रट लें, हा, हा,” हँसते हुए मर्द बोला।

शबनम कुछ समझ नहीं पाई। उसे लगा कि उसे समझ में नहीं आता, इसलिए वे दोनों नाराज हो रहे हैं। उसे बड़ी शर्म आई।

“इनोवेशन नहीं, रिनोवेशन चाहिए यहां तो ! न बैठने की जगह, न ढंग का ब्लैक बोर्ड ! क्या सुधार हो सकता है यहां ?”

“अरे सुनो, लौटते वक्त याद दिलाना बाजार से सब्जी ले लेंगे।”

शबनम को उन पर दया आ गई। उसकी अम्मी उनके यहाँ काम करती होती, तो उनको सब्जी लाने की चिंता न करनी पड़ती।

शबनम को फिर एक बार चिंता हुई कि ग्राफ का अभ्यास उसे समझ में नहीं आया। उसके पास बैठी गौरी की कापी के एक पन्ने में ग्राप बना हुआ है और दूसरे में शुरू से अंत तक 'राम – राम' लिखा हुआ है। अलग अलग साइज में, अलग अलग कोण बनाते हुए 'राम राम'। शबनम ने सोचा कि शायद उसे भी अपनी कापी में खुदा का नाम लिखना चाहिए, शायद इससे कोई फर्क पड़े। हो सकता है कि तब उसे मैडम की सारी बातें समझ में आ जाए। घंटी लगने के बाद वह गौरी से पूछेगी कि राम राम लिखने से उसे क्या फायदा हुआ है या नहीं।

स्कूल का चपरासी मैडम को एक चिट दे रहा था। मैडम ने थोड़ी देर पढ़ा, फिर बोली, “सभी लड़कियाँ, ध्यान से सुनो। अरी, तुम लोग अपने पालकों से कुछ बोलती हो स्कूल के बारे में या नहीं - यहां बैठने की जगह नहीं है, पंखा नहीं है - यह सब बोलती हो ?”

कहीं से हाँ मैडम, कहीं से नहीं मैडम की आवाज़ें आईं। शबनम ने सोचा कि अगर वह हाँ कहे तो मैडम बिगड़ जाएंगी। उसने 'नहीं' कह दिया।

“अरी ! बोलना चाहिए न ? आएं !... आज शाम को पालकों की मीटिंग है मैडम के साथ। तुम लोग अब जब रीसेस में घर जाओगी, पालकों को कहना कि छह बजे मैडम से बात करें, बोलोगी सब ? बोलना कि स्कूल को कुछ सौ दो सौ रुपया दान करें - हाँ ?” मैडम मुस्करा रहीं थीं, जैसे उन्होंने कोई मजाक किया हो।

सौ दो सौ ? शबनम की अम्मी ने जब से उनके लिए वो सुभाष कालोनी वालों से सेकंड हैंड में टीवी लिया है, हर महीने सौ रुपए वेसे ही निकल जाते हैं। कितना रोई थी वह। उसके भाई बहन भी रोए थे टीवी के लिए। आखिरकार, अम्मी ने हँसकर वादा दे दिया कि ठीक है, ला देंगे। फिर साहब ने ही बतलाया था कि उनके दोस्त के यहां सेकंड हैंड में टीवी सस्ता मिल जाएगा और उसे महीने महीने रकम देनी होगी। तब क्या पता था कि सेकंड हैंड से तो न लेना अच्छा था। न तस्वीर ठीक से आती है, न आवाज़ । चित्रहार हफ़्ते में दो दिन ढंग से देख ले, इसकी भी गुंजाइश नहीं। बस अब सौ रूपए भरते रहो हर महीने !

शबनम ने एक बार सोचा कि वह आज अम्मी को कहे कि छह बजे बड़ी बहनजी से आकर मिले। क्या बोलेगी अम्मी बड़ी बहनजी से ? अम्मी शायद बड़ी बहनजी की हर बात पर हँसती रहेगी ! अम्मी को बड़ा आश्चर्य होगा कि किस तरह बड़ी बहन जी इतनी सारी बातें कह सकती हैं ? अम्मी शायद बहुत खुश भी होगी कि बड़ी बहनजी वाले स्कूल में उसकी बेटी पढ़ती है। अम्मी की बात सोचते हुए उसे हँसी आ गई।

यह सब सोचते सोचते कब उसकी नजरें फिर मैदान पार कर सड़क पर चली गई थीं, उसे पता भी न चला। अचानक उसने देखा कि सड़क के ठीक बीचों बीच एक बच्चा चल रहा है। बहुत ही छोटा बच्चा। अरे, वह गिर गया। अरे! कोई उसको उठाए तो ! उधर से साइकिलें आ रहा हैं। अभी थोड़ी देर पहले कैसे एक एक कदम चल रहा था। हाय ! क्या पता कोई गाड़ी आ जाए। जाने कहाँ देखा है उस बच्चे को उसने ! इतनी दूर से भी बहुत जाना पहचाना लग रहा है। वह उतावली होने लगी। मैडम से कहे क्या कि वह बच्चा सड़क पर इस तरह गिरा हुआ है ? वह चिंता से छटपटाने लगी। अम्मी होतीं तो तुरंत दौड़कर उस बच्चे को उठा लेतीं। वह क्या करे ! वह एक टक उस बच्चे की ओर देख रही थी। इतनी दूर से वह बच्चा कितना असहाय लग रहा है। वह बच्चा चलती साइकिलों, ठेलों के बीच बैठा हुआ है। कोई नहीं सोच रहा कि उसको उठाकर किनारे रख दिया जाए। शायद उसका कोई न कोई, माँ बाप, भाई बहन, कोई तो होगा आसपास। क्षण भर के लिए यह सोचकर वह आश्वस्त हो गई। दूसरे ही क्षण वह फिर परेशान होने लगी।

अचानक बिजली की कौंध सा उसे याद आ गया कि उसने इस बच्चे को कहाँ देखा था। अरे ! रोज तो टीवी पर आता है वह ! भारत का झंडा जब लहराता है और वे सब बैठे यह सोचते रहते हैं कि साहब जैसा रंगीन पर्दे वाला टीवी होता तो उन्हें तीन रंगों में वह झंडा दिखता ! और कितना बढ़िया म्यूज़िक आता है उसके साथ। फिर तिरंगे के निचले बाएँ कोने में वह बच्चा उठ खड़ा होता है। टीवी पर धीरे धीरे दौड़ता है और ठीक बीच में आने के बाद वह बड़ा दौड़ाक बन जाता है। अंत में जैसे आसमान से तैरते हुए अक्षर आते हैं 'मेरा भारत महान'।

वह उठ खड़ी हुई। टीवी का संगीत उसके कानों में गूंज रहा है - मेरा भारत महान ! हां, हां वही तो है - वह जो बच्चा दौड़ता है झंडे के इस ओर से उस ओर। वह बच्चा तो बाद में हाथ में मशाल लिए बड़ा दौड़ाक बनता है, पर यह बच्चा टीवी वाले बच्चे की तरह बड़ा होकर दौड़ाक नहीं बनेगा रे ! वह तो अभी यहीं किसी गाड़ी से कुचला जाएगा रे।

“क्या बात है री ?” मैडम की आवाज उसे नहीं सुनाई पड़ी। मैडम कुछ और कह रही थीं। पीछे से उनकी आवाज धावा करती आ रही थीं। पर वह अब दौड़ रही थी। उसे चारों ओर से सुनाई पड़ रहा था - मेरा भारत महान।

लड़कियों और मैडम की मिली जुली आवाज का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। वह एक मन से मेरा भारत महान के उस बच्चे की ओर दौड़ती रही।