वह भोजन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
शाम होते-होते एक गाँव में पहुँचे और जैसा कि उधर का कायदा है, किसी के दरवाजे पर न ठहर कर गाँव के बीच में बनी मिट्टी की धर्मशाले में जा ठहरे। नहीं खाने-पीने से कुछ मनहूसी तो थी ही। इतने में एक ने आके पूछा कि आप लोग कौन हैं। हमने बताया। उससे पूछने पर उसने अपने आपको ब्राह्मण बताया। फिर चला गया। हम भी सब आशा छोड़ सोने की कोशिश में मुँह ढँके पड़े थे। रात के नौ-दस बजे होंगे। अचानक उसने आके हमें जगाया और कहा कि चलिए भोजन कीजिए। उस समय की हम अपनी मनोवृत्ति का क्या वर्णन करें। हमने समझा कि यह भगवान हैं या कौन हैं। खैर, हम दोनों उसके घर गए। पहले तो गर्म पानी से उसने हम दोनों के पाँव धोए। इस प्रकार जाड़े के रास्ते की थकावट हटाई। फिर खाना परोसा। उसकी पत्नी ज्वार की पतली-पतली रोटियाँ बनाती जाती थी और गर्मागर्म रोटियाँ हमें वह ब्राह्मण देता जाता था। कुछ गुड़, कोई साग और कुछ ऐसी ही चीजें थीं जिनका उन रोटियों से मेल मिलता था। हमने खूब खाया-बहुत ज्यादा खाया। वह रोटियाँ इतनी मीठी लगीं कि अब तक भूलीं नहीं। एक तो भूख थी दूसरे उसकी अपार श्रद्धा थी। तीसरे उधर ज्वार ही ज्यादा होती है और वे लोग उसकी रोटियाँ बनाना जानते हैं। इन तीनों के करते उसमें मिठास बेहद था। भोजन के बाद हमने हृदय खोल के उस गरीब ब्राह्मण को आशीर्वाद दिया। जिंदगी में वह एक ही घटना थी और आशीर्वाद भी फिर हमने कभी किसी को उस प्रकार दिया ही नहीं। सिवाय एक और के जो आगे मिलेगा। फिर रात में धर्मशाले में सोए और सुबह चुपचाप रवाना हो गए।