वह रोज सन्नाटा बुनती थी / ज्योति चावला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह कहानी दिल्ली या दिल्ली जैसे ही किसी बड़े शहर की कहानी है। यहाँ की सड़कों पर दिन में बेहद ट्रेफिक रहता है। रात में जहाँ इस शहर का एक बड़ा हिस्सा थक-हार कर अपने दड़बे या दड़बे से कुछ बेहतर घरों में सोते हुए अगले दिन को थोड़ा और टाल देने की अपनी इच्छा को दिल में दबाए सो रहा होता है वहीं इस शहर का एक अपेक्षाकृत छोटा हिस्सा रात को ही दिन समझ अपने घरों से कहीं और जाने के लिए निकल रहा होता है। कुल मिलाकर यह चैबीसों घंटे जागने वाले एक शहर की कहानी है। इस शहर की तस्वीर कुछ यह है कि इसका एक हिस्सा सीलन भरे कोनों में सांस लेता हैं और एक हिस्सा बड़े-बड़े फार्म हाउसों में। इसी शहर का एक बीच का भी हिस्सा है जो अपनी लगभग पूरी ज़िन्दगी रेहन पर रखकर इन सीलन भरे कोनों से निकलने को बेचैन है। किसी भी बड़े शहर का मध्यवर्ग यानी छोटे कस्बों से कहीं ज़्यादा तेज दौड़ने की इच्छा पालने वाला मध्यवर्ग।

इसी शहर के ही कुछ आम लोगों की कहानी है यह जहाँ लोग सीलन भरे कोनों से दो बेडरूम के फ्लैट में जाने को बेचैन रहते हैं और जिनके सपनों में भी ऐसे छोटे लेकिन उनके लिए उनकी कल्पना से परे घर आते हैं जिसकी दीवारों को वे कभी नेरोलेक पेण्ट तो कभी एशियन पेण्ट से सजा रहे होते हैं जो अपने घरों के फर्श पर ओरियण्टल गलीचे न बिछा पाने की अपनी इच्छा को दिल्ली हाट या ऐसे ही किसी हाट से खरीदी हुई खूबसूरत दरी के नीचे दबा देते हैं।

यह कहानी बड़े शहरों में कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होते जा रहे मध्यवर्ग के कुछ ऐसे पात्रों की कहानी है जो शहर की इन छोटी बस्तियों से निकलकर बड़े बडे बिल्डर्स की बनाई हुई सोसायटीज़ में जाने का दिन रात सपना देखते हैें और मन ही मन तय करते हैं कि इस बस्ती से एक बार निकलने के बाद वे इस बस्ती या इस बस्ती के लोगों से कोई सम्बंध नहीं रखेंगें और मन ही मन अपने और इन बस्ती वालों के बीच एक विभाजक रेखा खींच देते हैं और फिर सुकून की एक लम्बी सांस लेते है कि वे इन आम बस्ती वालों से कितना अलग हैं और किस तरह वे दूसरों के घरों में न झांककर केवल अपने आप से मतलब रखते हैं। इस तरह वे अपने आप को विकसित देश का विकसित तबका मान लेते हैं और मन ही मन यह प्रण ले लेते हैं कि वे अच्छी सोसायटी में जाकर छोटी काॅलोनियों में होने वाली सारी हरकतों से खुद को काट लेंगे।

चलिए, अब भूमिका बनाना छोड सीधा-सीधा कहानी के मूल मुद्दे पर आते हैं। कहानी में गिने-चुने पात्र है। या यह कहें कि यह कहानी किसी के जीवन पर नहीं सिर्फ़ कुछ देखे हुए दृश्यों की कहानी है। खैर, यह सब भी आप ही तय कीजिए कि इस कहानी के केंद्र में आखिर है क्या!

यह कहानी वास्तव में एक दम्पत्ति और उसके माध्यम से अनेक नव दम्पत्तियों की कहानी है। कहें कि बड़े शहर की एक नव दम्पत्ति की कहानी। कहानी में कुछ गिने-चुने पात्र हैं। कहानी की मुख्य पात्रा को क्या नाम दिया जाए और कहानी किस शैली में कही जाए इस पर विचार करने के बाद मैंने तय किया कि कहानी के पात्र को कोई नाम देने और उसे प्रथम पुरुष यानी अंग्रेज़ी के जीपतक चमतेवद में लिखने की बजाय क्यों न मैं ही कहानी की मुख्य पात्रा बन जांऊ! यूं भी मेरी इच्छाएँ भी बड़े शहरों के मध्यवर्ग से अलग कहाँ है!

तो चलिए अब सीधा कहानी पर आते हैं।

(1)

"हम्म! काफी खूबसूरत सोसायटी है यह!" कबीर ने कहा था। पचैडी चौड़ी सड़कें, करीने से बने घर, सुंदर पार्क, गेट पर सिक्योरिटी गार्ड। जैसेे ही हमारी टेक्सी ने गेट के आगे हाॅर्न बजाया, गार्ड ने बड़ा-सा गेट खोलते ही जोर से सेल्यूट ठोंका था और हमसे सोसायटी में आने का मकसद पूछकर, रजिस्टर पर एंट्री करवाकर बैरियर चढ़ा दिया था। हमें हाथ से अंदर जाने का इशारा करते हुए गार्ड एक बार फिर से मुस्कुराया था। हमें ऐसा लगा था जैसे पता नहीं अभी तक हम कहाँ भटक रहे थे। सभ्य लोगों के रहने का तरीका अलग ही होता है। कबीर जो अभी तक बड़ी सोसायटी में किराये का मकान लेने की मेरी जिद का विरोध करते रहे थे, उनके दिए हुए सारे तर्क इस समय उनके भीतर पिघल रहे थे। मैंने कबीर का चेहरा देखकर इस बात का अंदाजा लगा लिया था और मन ही मन अपने निर्णय पर इतरा रही थी। कबीर ने किट्टू को अपनी गोद में और कस लिया था ऐसे जैसे उसकी गोद में सिर्फ़ हमारी बेटी नहीं बल्कि एक राजकुमारी बैठी हुई हो।

दरअसल मेरी सरकारी नौकरी हुए पूरे डेढ़ साल होने को आए थे और इन डेढ़ सालों में किट्टू ढाई साल की होने को आई थी। पूरे पांच साल संघर्ष करते-करते अब जाकर मेरी नौकरी हुई थी। एक बड़ी सेंट्रल युनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर। क्लास वन की जाॅब। कबीर के संघर्ष के दिन अभी बाकी थे। नौकरी से पहले हम एक छोटी-सी काॅलोनी में छोटे से किराये के घर में ंरहते थे। वहीं हमारी किट्टू का जन्म हुआ। किट्टू के जन्म के बाद नौकरी को लेकर हमारी चिंता बढ़ती जा रही थी। लेकिन एक साल के अंदर-अंदर एक खुशनुमा हवा के झोंके की तरह यह नौकरी हमारी ज़िन्दगी में आई थी।

जैसे ही उसे मेरे सेलेक्शन की खबर मिली तो मैं बल्लियाँ उछल गई थीं। सच में यह सिर्फ़ एक नौकरी नहीं थी हमारा वर्तमान और भविष्य सब कुछ इसी से जुड़ा था। एक साथ कई सारी बातें एक ही पल में दिमाग में घूमने लगी थी। नौकरी के साथ ही मेरी कबीर से जिद थी कि अब हम इस छोटी-सी काॅलोनी में नहीं रहेंगे। मजबूरी में हमने जो दिन यहाँ निकाल दिए, वह ठीक है। पर अब हमें यहाँ नहीं रहना। जबकि कबीर का स्टैण्ड इससे ठीक उलट था। वे यहाँ कुछ और समय बिताकर कुछ पैसा जमा कर लेना चाहते थे ताकि हमारा और हमारी बच्ची का भविष्य सुरक्षित हो सके। वे इसी काॅलोनी में सस्ते दामों पर एक घर भी खरीदना चाहते थे।

डेढ़ साल की जद्दो जहद के बाद मैं आज कबीर को मना पाई थी और आज हम युनिवर्सिटी के पास बसी इस खूबसूरत सोसायटी में किराए का घर देखने आए थे।

गेट की उस घटना से ही मुझे एहसास हो गया था कि मैं कबीर को यहाँ किराए पर घर लेने के लिए मना लूंगी। हमारी पहले ही एक ब्रोकर से बात हो चुकी थी। उसने हमे दो चार घर दिखाए। अंततः एक घर पर आकर बात पक्की हुई। दस हजार रुपए किराया, बिजली पानी अलग। मकान मालिक को एडवांस देकर अगले शनिवार को शिफ्ट करना तय हुआ।

ब्रोकर को छोड़ हम बिल्डिंग से नीचे उतर आए और सोसायटी में घूमने लगे। सोसायटी में सारी बिल्डिंगें चार मंजिला थीं। हमने चैथी मंजिल का घर तय किया था। चैथी मंज़िल यानी बिल्डिंग की टाॅप फ्लोर। इस इमारत की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि एक फ्लोर पर चार घर होने के बावजूद चारों घर एक साथ नहीं थे। यानी दो घर एक साथ और बाकी के दो घर चार-पांच सीढ़ियाँ चढ़कर थे। यानी चैथी मंजिल पर होने के बावजूद दो घर हमसे और ऊपर थे। हम सोसायटी में घूमने लगे। किट्टू भी हाथ छुड़ाकर इधर-उधर भागने लगी। खुली-खुली जगह देखकर काफी खुश हो रही थी वह। कबीर भी उसे खेलते देख बहुत खुश हो रहे थे। अभी काफी समय था। हमने सोचा कि क्यों न थोड़ी देर पास के पार्क में बैठा जाए। किट्टू भी वहाँ आराम से खेल लेगी।

पार्क की बेंच पर कबीर ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था। "तुम ठीक ही कह रही थी राधा। कितनी ताजी हवा बहती है यहाँ और कितना खुला-खुला भी है। किट्टू के सही विकास के लिए यह एक अहम फैसला है।" कहकर कबीर ने मेरे हाथ को चूम लिया था। "यूं भी परिवार के लिए तुम्हारे लिए हुए निर्णय कभी ग़लत नहीं होते।" मैं जानती थी कि कबीर का पैसे जमा कर लेने का विचार हम सबके भविष्य के लिए ज़रूरी कदम है। पर फिर भी मैं चाहती थी कि जब आज इतनी अच्छी नौकरी हो गई है तो उसके स्टैण्डर्ड को भी मेंटेन किया जाए और फिर बच्ची की अच्छी परवरिश सबसे ज़्यादा ज़रूरी थी।

(2)

शनिवार की सुबह हम सामान लेकर अपने नए घर में दाखिल हुए। दो बेडरूम का बढ़िया फ्लैट था। एक बड़ा-सा हाॅल, डायनिंग एरिया, किचन, मास्टर बेडरूम के साथ अटैच बाथरूम, दूसरा बेडरूम और एक छोटी-सी बाल्कनी। पहले दिन से घर के हर कोने को सजाने के लिए नए-नए विचार दिमाग में आ जा रहे थे। बाल्कनी में ढेर सारे गमले होंगे। दीवारों पर मिट्टी के कुछ वाॅल हेंगिंग जो बालकनी में सुंदर भी लगें और धूप-बरसात में खराब भी न हों। ड्राइंग रूम में दो दीवारों के साथ सोफा, एक ओर दीवान जिस पर मसनद और कुशन होंगें। सोफे पर रखे कुशन दीवान के कुशन से बनिस्पत बड़े होंगे। ज़मीन पर सोफे और कमरे के रंग से मैच करती मोटी दरी, सेंटर टेबल और उस पर जूट के रनर और खिड़कियों पर हल्के पेस्टल रंग के परदे। बेडरूम के परदों का रंग ड्राइंग रुम के परदों की तुलना में कुछ गाढा होगा। दूसरे बेडरूम को किट्टू के अनुसार लगाने के लिए भी कई विचार आ-जा रहे थे। कुछ पेंटिंग्स मैंने सालों से संभाल रखी थीं, उन्हें भी अलग-अलग कमरों के हिसाब से फ्रेम करवा लूंगी। ड्राइंग रूम से लेकर किचन तक सब कु्रछ को सजाने संवारने के उत्साह से ही मन कुलांचे मार रहा था। सच, बरसों से ऐसे घर का सपना मैने मन में पाला हुआ था। शादी से पहले भी पुरानी बनावट का घर और उसके सीलन भरे कोने और उन कोनों में पलते-बढ़ते हम और शादी के बाद भी एक लम्बा संघर्ष। आज जैसे बरसों पुरानी कोई मन्नत पूरी हो गई थी। कबीर मजदूरों के साथ सामान लाने में जुटे थे और किट्टू को तो जैसे इतना सारा खुला सामान खजाने-सा नजर आ रहा था। सारे सामान के बीच बैठी जब उसने मुझे आवाज लगाई, "ममा मेरा डोरीमाॅन कहाँ है?" तब जाकर मैं अपने ख्वाबों की दुनिया से बाहर आई। इतने सारे सामान को समेटने की चिंता से ही मन घबराने लगा था। किट्टू सारे सामान के बीच ऐसी लग रही थी मानो मेरी खूबसूरत-सी गुड़िया जिस पर थोड़ी-सी धूल चढ़ आई हो।

सोसायटी का कम्पाउंड बहुत ही खूबसूरत था। एक बड़ा-सा गेट और उस गेट के भीतर पूरी एक दुनिया। छोटी-सी, सभ्य लोगों की दुनिया। जहाँ लोग तेजी से बात करना पसंद नहीं करते, हंसते हैं तो मुंह पर हाथ रख लेते हैं, रोते या तो हैं ही नहीं या रोते हैं तो बंद दरवाजों के पीछे जिसकी खबर साथ के पड़ोसियों तक को नहीं लगती। बेहद सभ्य सुसंस्कृत दुनिया। धीरे-धीरे हम इस नए घर में रमते जा रहे थे। रोज शाम को किट्टू को घुमाने पार्क ले जाते। आते वक्त तीनों आइस्क्रीम खाते, रात को खाना खाने के बाद स्ट्रीट लाइट्स के बीच टहलना बेहद अच्छा लग रहा था। बहुत अच्छा लगता जब हम ड्राइंग रूम की बड़ी-सी खिड़की खोले बैठे रहते और कबीर मुझे अपनी बांहों में भर लेते। कितनी निश्चिंतता थी यहाँ। कोई किसी के घर में नहीं झांकता। किसी के पास इतनी फुर्सत नहीं है कि किसी के ड्राइंग रूम में या बेडरूम मंें झांकता रहे कि कौन अपनी पत्नी को बांहों में भर रहा है और कौन अपनी पत्नी के गालों को चूम रहा है।

(3)

किट्टू का बस चले तो मेरी जान ले ले। ढाई साल की हो गई लेकिन खाना खाने में आज भी आनाकानी करती है। उसे खाना खिलाना तो मुझे कई बार अपनी नौकरी से भी मुश्किल काम लगता है। हालांकि युनिवर्सिटी बगल में है लेकिन फिर भी आने-जाने का टाइम है और किट्टू है कि कुछ समझती ही नहीं। उसे खिलाने के लिए सुबह से लेकर शाम तक कटोरी लिए उसके पीछे-पीछे घूमती रहती हूँ मैं। क्या-क्या तरीके नहीं अपनाए उसे बहलाने के लिए। अपने ऊपर वाले फ्लैट को जाने वाली सीढ़ियों में बैठकर उसे खाना खिलाती हूँ और इस बीच उसकी पाॅएम्स सुनने-सुनाने और कहानियाँ गढ़ने की प्रक्रिया चलती रहती है। कई बार तो सामने वाली आंटी दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है और हम मां-बेटी के बीच चल रहे इस तमाशे को देखकर हंसती रहती हैं। दरअसल पूरी बिल्डिंग में सोलह घर हैं। एक फ्लोर पर चार घर और फ्लोर भी इतनी खूबसूरती से बनी हुई है कि चार फ्लैट होने के बावजूद आमने-सामने दो ही घर हैं। यानी उसी फ्लोर के दो घर छः-सात सीढ़ियाँ चढकर। बेहद खूबसूरत बनावट। यही सब देखकर तो कबीर भी आकर्षित हो गए थे। सोलह घरों में देखकर लग गया था कि सभी घरों में लोग रहते हैं केवल हमारे फ्लोर पर ऊपर के दो घरों में ंसे एक को छोड़कर। आते-जाते सबसे दुआ सलाम हो जाती थी। कभी सब्जी या दूध लेने उतरते तो एक दूसरे से बातचीत भी हो जाती। हमारी बिल्डिंग में लगभग सभी लोग नौकरी शुदा थे। कुछ सरकारी नौकरी में तो कुछ प्राइवेट में।

सब लगभग एक ही समय पर आॅफिस के लिए निकलते और लगभग एक ही समय लौटते और उसके बाद घरों में कैद। फिर तो बस आप और आपका परिवार। सोसायटी में एक त्ॅ। थी यानी रेजिडेण्ट्स वेलफेयर एसोसिएशन। हर महीने इसके लिए फंड कलैक्शन होता और हर बड़े त्यौहार पर एक भव्य-सा समारोह जिसमें सोसायटी भर के लोग खास तौर पर बच्चे बढ़ चढ़ कर भाग लेते। नया साल भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता। रात भर हंगामा होता, सब साथ में खाना खाते, एक दूसरे से मिलते-जुलते, बधाई देते, एक ही सोसायटी में रहने की ज़रूरी औपचारिकता निभाते और फिर उसके बाद मौज मस्ती में पूरी शाम बीत जाती। इन त्यौहारों पर मिलने के कारण दो-एक दिन की गर्मजोशी रहती और उसके बाद माहौल फिर से वही हो जाता। यानी आप अपने घर और हम अपने घर। इन सब स्थितियों में जो और एक बात थी वह यह कि कोई किसी से कितनी भी बात कर ले लेकिन एक-दूसरे के निजी मामलों में कभी दखल नहीं देते। कबीर और खास तौर पर मुझे यह बात बहुत अच्छी लगती। ऐसे वक्त में अक्सर हमें अपनी पडोस वाली मिसेज मल्होत्रा कि याद आ जाती और हम खूब हंसते। दरअसल मिसेज मल्होत्रा हमारे पुराने घर में हमारी पडोसन थी। उनका दिन-रात बस एक ही काम रहता था कि मोहल्ले में कौन कितने बजे लौट रहा या रही है, कौन कहाँ जा रहे या रही हैं। किसके घर में क्या चल रहा है, किस की नौकरी लगी और कौन पढ़ने के नाम पर घर से बाहर निकलता या निकलती है और बाहर ऐश करते हैं। कबीर उनसे हमेशा डरे रहते। वे अक्सर कबीर से पूछती, "आपको घर पर ही देखा है कई बार। क्या बात हैं भाई साहब? नौकरी वगैरह नहीं करते क्या?" और फिर जरा-सी बात पता चल जाने पर मोहल्ले भर में खबर करती जैसे उन्हें यह काम जिम्मेदारी के रूप में सौंपा गया हो और जब तक उन्हें तसल्ली नहीं हो जाती तब तक छोटी से छोटी बात का प्रचार करती रहती। कबीर अक्सर उनके बारे में कहते कि भारत के सरकारी दफ्तरों को मिसेज मल्होत्रा जैसे लोगों की सख्त ज़रूरत है जो बिना किसी लालच के जी तोड़ काम करते है। कबीर की इस बात पर हम खूब हंसते। यहाँ स्थिति इससे ठीक विपरीत थी। हालत यह थी कि आपके घर से अगर किसी के जोर से चीखने-चिल्लाने की आवाज आए, तब भी लोग घरों से बाहर झांकते तक नहीं। वे तब तक आपकी बात में नाक नहीं घुसेड़ेंगे जब तक आप उन्हें नाक घुसेड़ने के लिए आमंत्रित न करें और कई बार तो आमंत्रित करने पर भी लोग आपकी बातों में रुचि नहीं लेते। ऐसे जैसे न जाने कितने अधूरे काम उनके सिर पर हों और न हो पाने पर जैसे धरती तो आज पलट ही जाएगी। सब अपने-अपने सिर पर अपने-अपने हिस्से का आसमान लिए ही घूमते।

मेरी ढाई साल की किट्टू ने यहाँ के पूरे माहौल को बदलने की पूरी कोशिश की थी। वह रोज सीढ़ियाँ चढते हुए वन टू थ्री गिनती जाती और उसकी तोतली आवाज लोगों को आकर्षित करती रहती। धीरे-धीरे हम सबकी आपस में खूब बातें होने लगीं। किट्टू के साथ खेलने के बहाने या कभी उसके मुंह से पोएम्स सुनने के लिए बच्चे उसके साथ वक्त बिताते और फिर धीरे-धीरे हम सब का आपस में मेलजोल हो गया। लेकिन हमारे घर से ऊपर के दो घर इस पूरी प्रक्रिया से अनजान थे। हमसे ठीक ऊपर वाले घर यानी हमारे फ्लोर पर ही के चार-पांच सीढ़ी ऊपर के दो घरों में से एक में तो कोई रहता ही नहीं था। रहता ही नहीं था मतलब वह घर खाली था और उसके सामने वाला घर जो हमारे दरवाजे पर से ऊपर ठीक सामने दिखता था, उसमे लोग रहते तो थे पर किसी से बोलते बतियाते नहीं थे। ऐसे जैसे बोलना-बतियाना कोई बेहद गैर ज़रूरी काम हो।

हमें इस नए घर में आए पूरे छः महीने हो चले थे और इन छः महीनों में हम यहाँ रहने के आदी हो चुके थे। हम आसपास के माहौल को पहचानने लगे थे। दूध-सब्जी से लेकर कपड़े इस्त्री करने वाले तक सब कुछ का अंदाजा हो गया था। लेकिन न जाने क्या बात थी कि सब कुछ पहचानने के बाद भी किसी भी चीज से जुड़ाव नहीं हो पा रहा था। हर चेहरे पर एक अजनबीयत तारी रहती थी।


(4)

जैसा कि अपार्टमेंट्स में होता है हमारे और हमारे सामने वाले घर के बीच थोड़ी-सी जगह है। यह जगह मेरी किट्टू के लिए प्ले ग्राउंड की तरह है। वह यहीें गोल-गोल घूमती रहती है। यहीं बैठकर मैं उसे खाना खिलाती हूँ और यहीं पर सामने वाले घर में रहने वाली बुजुर्ग आंटी हम दोनों को देखती और हमारी बातें सुनकर मुस्कुराती रहती हैं। वे कभी गेट खोलकर किट्टू से बात करने लगतीं तो कभी जाली वाले बंद दरवाजे से ही उसे देख कर खुश होती रहतीं। किट्टू को खाना खिलाने की रोज-रोज की मेरी मेहनत देख वे मुझे समझाने की कोशिश करतीं कि सभी बच्चे ऐसे ही करते हैं। बच्चे तो ऐसे ही चंचल होते हैं। जो खाए खिला दिया करो। वे अपनी बातों में अक्सर अपने बेटा बेटी के बचपन में पंहुच जातीं और बतातीं कि कैसे उनके बच्चे तो उनके पडोसियों के घर ही खाकर आ जाया करते थे। बच्चे माँ बाप को तो तंग करते ही हैं और यह भी कि मैं इन छोटी-छोटी बातों से घबराया न करूं।

मै भी यही चाहती थी कि मेरी बच्ची भी आसपास सबके घर जाए, खेले, खाए-पिए जैसे हमने अपने बचपन में किया लेकिन यहाँ कोई किसी को अपनी निजी ज़िन्दगी में घुसने की स्पेस नहीं देता। सामने वाली वह आंटी भी नहीं जो मुझे रोज इतनी सीख देतीं और हम मां-बेटी के रिश्ते पर मुस्कुराती रहती थीं। शायद सबने अपने-अपने दायरों में कैद रहना जान लिया था। उस बुजुर्ग पीढी ने भी जो कि इस सबकी अभ्यस्त नहीं थी। शायद वे डर रहीं थीं कि मैं इस बात का बुरा न मान जाऊँ। लेकिन मैं तो दिल से ऐसा चाहती थी कि मेरी बेटी भी मेरे जैसा उन्मुक्त बचपन जिए।

(5)

ऊपर वाला घर हमारे लिए एक रहस्य लोक की तरह था। हमें यहाँ आए हुए लगभग सात महीने हो चले थे। लेकिन इन सात महीनों में यह दावा नहंीं कर सकती कि इस घर में कितने लोग हैं। भले ही बिल्डिंग के अन्य लोगों से भी बातचीत कम ही होती थी लेकिन जाने अनजाने सब एक-दूसरे के बारे में काम भर जानकारी रखने लगे थे। मसलन घर में कितने लोग हैं, कौन नौकरी शुदा है। बच्चे कितने हैं, कहाँ नौकरी करते हैं इत्यादि। लेकिन वह एक ऐसा घर था जिसके बारे में कुछ भी अनुमान लगाना मुश्किल था। जैसे पूरी बिल्डिंग से कटा, जैसे पूरी सोसायटी से कटा, जैसे पूरी दुनिया से कटा हो वह घर। मेरी बेटी अक्सर खेलते-खेलते ऊपर पंहुच जाती और आंटी-आंटी बोलकर दरवाजा खटखटाने लगती लेकिन अंदर से कोई आवाज न आती। जब दो-तीन दिन तक कोई हलचल न हो तो आप अंदाजा लगाने लगते हैं कि यहाँ कोई नहीं रहता होगा। लेकिन फिर अचानक एक दिन घर की लाइट जली हुई नजर आ जाती और फिर यह भ्रम टूटता कि घर में कोई नहीं है। अक्सर मैं अपनी बेटी को पकड़ने या फिर उसके फेंके हुए खिलौने उठाने ऊपर जाती तो न चाहते हुए भी मेरी नजर उस घर पर पड़ ही जाती। दरवाजे पर आए दिन एक पर्ची चिपकी हुई नजर आती। उन घरों के दरवाजों में दो दरवाजे थे। एक लकड़ी का और दूसरा लोहे का जिसमें जाली लगी हुई थी। जाली वाले लोहे के दरवाजे में बीच में लोहे की एक चैड़ी पट्टी थी जिस पर कुंडी लगी हुई थी। उसी लोहे की चैड़ी पट्टी पर स्क्वायर आकार के नोट पैड में से, जिसमें कि एक तरफ चिपकाने के लिए गांेद लगी होती है एक पृष्ठ आए दिन उखाड़कर वहाँ चिपकाया गया होता था। उस पर्ची पर बाहर की दुनिया वालों के लिए एक संदेश होता। मसलन आज दूध न दें, चार दिन तक अखबार न डालें, कूड़े के पैसे अगले हफ्ते ले जाएँ। कूड़ा फेंकने, अखबार लेने, दूध लेने के लिए भी वे लोग दरवाजा खोलते होंगे इस पर भी हमें शक था। मैं अक्सर इस बात का कबीर से जिक्र करती तो वे यह कहकर टाल देते कि "जब तुम पुरानी काॅलोनी में थी तब भी तुम्हें शिकायतें थीं कि लोग बेवजह घरों में झांकते हैं और अब यहाँ भी तुम्हें इस बात से दिक्कत है कि लोग अपने घरों में ही कैद क्यों रहते हैं? अरे भई उनकी ज़िन्दगी है, वे चाहे जो करें हमें उससे क्या!"

लेकिन सच बात तो यह है कि कबीर भी इस बात से हैरान तो थे ही। सुबह रोज गाड़ी साफ करने वाला आता, तो वह घंटी बजाकर सबसे गाड़ी की चाबी और पानी की बाल्टी ले जाता, थोड़ी देर बाद कूडे वाला घंटी बजाकर और आवाज लगाकर सबसे कूडा निकालने के लिए कहता। कई बार देर हो जाने पर वह दोबारा घंटी बजाता। लेकिन मैं जब भी उस घर की ओर देखती कि कम से कम कूड़ा फेंकने या चाबी देने के लिए तो कोई बाहर आएगा तब उस दरवाजे पर पानी की बाल्टी पर गाड़ी की चाबी लटकी हुई और एक ओर थैली में बंधा कूड़ा ही दिखाई देता। उस घर में लोग रहते हैं या मशीनें? सवाल दिमाग मंें टंगा ही रहता। आए दिन दरवाजे पर या ऊपर जाने वाली सीढ़ियों की दीवार पर, या फिर छत पर लगे लोहे के दरवाजे पर कोई न कोई चिट लगी दिखाई दे जाती। मसलन 'ऊपर या नीचे जाते वक्त सीढ़ियों की बत्ती बुझाना न भूलें' , 'लोहे के दरवाजे को खींच कर जोर से बंद कर दें। उसका हवा में जोर से बजना दरवाजे के लिए और हमारे लिए भी हानिकारक है' आदि आदि। कोई भी बहाना उन्हें किसी से बात करने के लिए प्रेरित नहीं करता था। सब कुछ के लिए कागज की एक चिट ही काफी है।

खैर... जैसी उनकी मर्जी। इसमें किया भी क्या जा सकता है!

बातों बातों में तो मैं आपको बताना ही भूल गई कि आज मेरी किट्टू का जन्मदिन है। पूरे तीन साल की हो गई किट्टू आज। कितने मेहमान आने वाले हैं और मैं तो अपने पड़ोसियों को भी बुलाउंगी। आखिर यही सब तो बहाना होता है सबसे सम्बंध बनाने का। ...घर में कितना काम बिखरा पड़ा है और मैं यहाँ खड़ी होकर आपसे बातें कर रही हूँ। असल में मैं यहाँ आ तो गई हूँ लेकिन देर तक खड़े होकर लोगों से बातें करने की अपनी पुरानी और छोटी काॅलोनियों वाली आदत को छोड़ ही नहीं पा रही हूँ।

...अभी चलती हूँ बहुत देर हो रही है। फिर मिलती हूँ।

(6)

कल किट्टू का जन्मदिन था। बहुत खुश थी वह। बहुत सारे तोहफे जो मिले थे उसे। कबीर उसके लिए दो पहियों वाली साइकिल लाए थे। नानी, मासी, बुआ, चाचा सब आए थे। सबकी ओर से ढेर सारे तोहफे मिले कल उसे। आज हम सब मिलकर छुट्टी का मज़ा लेंगे। वीकेंड पर जन्मदिन आने से यह बहुत फायदा हुआ। कल दिन भर की थकान आज संडे को दिन भर उतारी जा सकती हैं।

बिल्डिंग के भी सब लोग आए थे कल घर। सब मतलब किसी के घर से कोई बच्चा, या सिर्फ़ पति-पत्नी, या फिर पति या पत्नी। लेकिन कुल मिलाकर काफी अच्छा रहा। आपसे मिलने के बाद कल सबको शाम के लिए बुलावा देने चली गई थी। काफी लोगों ने शाम को आने का वायदा किया। एकाध परिवार का पहले से ही वीकेंड का प्लान था। तो वे नहीं आ पाए। मैं ऊपर वाले घर में भी गई थी जन्मदिन का न्यौता देने। पता नहीं क्यों घंटी बजाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सौभाग्य से आज कोई पर्ची भी नहीं चिपकी थी दरवाज़े में। खैर, मैंने घंटी बजाई। एक बार तो घंटी बजाने पर कोई आवाज भीतर से नहीं आई। कोई हलचल नहीं हुई। दोबारा घंटी बजाने पर अंदर से एक आवाज़ आई। "कौन है?" एक औरत की आवाज थी। मैंने जवाब दिया, "जी, दरवाजा खोलिए! मैं आपकी नेबर हूँ। नीचे चैदह नम्बर में रहती हूँ।" मुझे अपना परिचय ऐसे देने में बहुत अजीब लग रहा था। "जी कहिए!" दरवाजा खुला था। लेकिन पूरा नहीं। सिर्फ़ लकड़ी का दरवाजा खोलकर वह औरत जाली के बंद दरवाजे से ही मुझसे मुखातिब थी। मुझे इस तरह अपरिचय की-सी स्थिति लगी। जन्मदिन के लिए इनवाइट करने में मुझे अजीब-सा लग रहा था। क्या करूं? कुछ समझ नहीं आ रहा था। लगा कि फंस गई। अगर वह दरवाजा खोलकर बात करती तो शायद कुछ बात हो पाती। सीधा-सीधा आंखें मिलने से ही तो अच्छा संवाद हो पाता है।

"हैलो! मैं राधा कपूर हूँ। आपके फ्लोर पर ही रहती हूँ। यहाँ चैदह नम्बर में।" मैंने उंगली से अपने घर की ओर इशारा किया जैसे वहाँ अपने रहने का सबूत दे रही हूँ। "आज मेरी बेटी का जन्मदिन है।" सुनते-सुनते उसने दरवाजा खोल दिया। अब उसके चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कराहट खिंच आई थी। लेकिन यह मुस्कान इतनी लम्बी भी नहीं थी कि मेरी झिझक को पूरी तरह से दूर कर दे। हाँ इससे स्थिति कुछ आसान ज़रूर हुई थी। "आज शाम को आप हमारे घर इनवाइटेड हैं।" जैसे मैंने एकबारगी ही कह दिया था।

लगभग चालीस के आसपास की वह औरत। बेहद छोटे-छोटे बाल। ऐसे जैसे सिर पर अभी कुछ दिन पहले ही उगना शुरू हुए हों। सभ्य से नैन-नक्श। बड़ी-बड़ी आंखें। कद लगभग पांच फुट दो इंच। नीले रंग की टी शर्ट और बरमूडा पहने। उसने मुझे अंदर आने के लिए नहीं कहा। हल्की-सी मुस्कान लिए जिसमें अपरिचय ही अधिक था, वह दरवाजे पर खड़ी रही। "ब्वदहतंजनसंजपवदे जव लवन डेण् ज्ञंचववत! ठनज ूम ूवदष्ज इम ंइसम जव बवउमण् प्ष्उ ेवततल! ॅमष्तम ंसतमंकल मदहंहमकण्" कहकर उसने एक ही झटके में सारी उम्मीदों को फिर से बंद कर दिया। उसने मेरी बेटी की उम्र पूछी और एक बार फिर से उसके लिए बधाई दी। जिस अपरिचय को लेकर मैं गई थी उसी अपरिचय को लेकर वापस लौट आई।

ॅम ूवदष्ज इम ंइसम जव बवउमण् प्ष्उ ेवततल! " इससे यह तो पता चल ही गया था कि उस घर में एक से अधिक लोग रहते हैं।

(7)

सुबह-सुबह आॅफिस जाने के समय हमारे घर में बड़ी बुरी हालत होती है। किट्टू और मैं साथ में निकलते है। मुझे उसे क्रैच छोड़ते हुए आॅफिस जाना होता है। कबीर भी आजकल हमारे साथ या हमारे निकलने की थोड़ी देर बाद ही निकल जाते हैं। सबका टिफिन पैक करना, किट्टू को तैयार करना, खुद तैयार होना, घर समेटना न जाने कितने काम होते हैं। सच तो यह है कि आॅफिस पंहुचकर ही मुझे कुछ देर का आराम मिलता है। किट्टू भी जानती है कि अब के निकले शाम को ही ममा-पापा से मुलाकात होगी, इसलिए वह दिन भर की मेहनत सुबह ही हमसे करवा लेती है। ब्रश करना, नहाना, खाना-हर चीज में कोई न कोई जिद। पांच मिनट का काम पंद्रह मिनट में करना। समय कहाँ चला जाता है, पता ही नहीं चल पाता। गाड़ी में भी मेरा ध्यान उसे नाश्ता करवाने में ही रहता है। "मैं पौधों में पानी डालूंगी। अपने आप ब्रश करूंगी, यह नहीं पहनूंगी, दूध नहीं पिउंगी।" जिद की लम्बी लिस्ट। ऊपर वालों ने भी अपनी सीढियों में ढेर सारे पौधे लगा रखे हैं। यहीं पौधों को पानी देते हुए एक दिन मैंने उस औरत को देखा था। यह उस दिन घर में मिली पहली औरत से अलग थी। उससे थोड़ी लम्बी। उम्र में भी लगभग चार-पांच साल बड़ी। लेकिन कपड़े पहनने का अंदाज बिल्कुल वैसा ही था और चेहरे पर उदासीनता उससे भी ज्यादा। किट्टू उनके गमलों में भी पानी डालने की जिद कर रही थी। गैस स्टोव पर सब्जी चढ़ा कर मैं किट्टू के हाथ से पौधों में पानी डलवा रही थी और ऐन समय पर उसकी जिद। ऊपर वाले पौधोें में पानी डालने की। उसे समझाने की कोशिश में ही मेरा समय निकला जा रहा था कि तभी ऊपर वाला दरवाजा खुला और पानी की बाल्टी हाथ में लिए वह औरत बाहर निकली। वह पौधों में डालने के लिए खाद भी लेकर आई थी। पौधों में खाद डालने के साथ वह पानी भी डालती जा रही थी। इस समय हम दोनों अपने-अपने पौधों को सींचने की जुगत में लगे थे जब मैंने एक बार फिर शुरुआत की। "आप काफी ख्याल रखती हैं अपने पौधों का!"

जवाब में वह हल्का-सा मुस्कुराई थी। उन लोगों को बात करने की जैसे आदत-सी ही नहीं थी। मुझे लगा कि शायद मेरी कही हुई बात का जवाब कहीं वह कोई चिट चिपका कर तो नहीं देना चाहती। "मिस राधा, पौधों की तारीफ करने के लिए शुक्रिया!" मेरी आंखें न चाहकर भी दरवाजे पर चिपकने वाली चिट का इंतजार करने लगीं।

दिन भर आॅफिस में ढेर सारा काम रहता और घर आने के बाद घर में। कुछ और करने की फुर्सत ही नहीं मिलती थी। घर लौटते ही किट्टू की जिद कि उसे घुमाने बाहर ले चलो। मैं बैग रखती, मुंह हाथ धोती, पानी पीती और किट्टू को लेकर बाहर टहलने के लिए निकल पड़ती। रास्ते में ही कबीर से फोन पर बात हो जाती। कभी तो कबीर समय पर आ जाते और हम साथ में ही टहलने निकल जाते और कभी सिर्फ़ मैं और किट्टू। किट्टू को पार्क में अपनेे साथी मिल जाते। मेरी भी कुछ लोगों से किट्टू के चलते जान-पहचान हो गई थी। थोडी देर हाल-चाल पूछ कर सब अपने-अपने काम में रम जाते।

किट्टू कितना कुछ नया करने लगी है इन दिनों। घर-घर खेलना जानती है। खेल-खेल मेें मेरी मम्मी बन जाती है और फिर ठीक वैसा ही करने की कोशिश करती है जैसा मैं उसके साथ करती हूँ। पार्क में भी वह कभी मेरी नकल करती है। कभी माँ बन जाती है, कभी मेरी तरह बैग लेकर आॅंफिस जाती है, कभी फोन करती है। न जाने क्या-क्या! मैं सोचती हूँ कि क्या वह वैसे ही सोचती भी होगी जैसा इन दिनों मैं सोचती हूँ। मैं उस घर और घर में रहने वाले लोगों के बारे में सोचती हूँ कि आखिर वे किस ग्रह से आए हैं जहाँ किसी से बात किए बिना, सामाजिक हुए बिना जीवन चल जाता है और फिर कई बार यह भी सोचती हूँ कि कहीं मैं ही तो आउट डेटेड नहीं हो गई हूँ। हो सकता है कि विकसित दुनिया ऐसे ही चलती हो जहाँ एक दूसरे के बिना ही सब कुछ ठीक ठाक चलता हो और ये छोटे शहर, छोटी काॅलोनियाँ, छोटी बस्तियाँ विकास के रास्ते में रुकावट बन कर खड़े हों।

फिर मैं सोचने लगती कि वे लोग घर में एक दूसरे से कैसे बात करते होंगे। रसोई के बाहर चिट लग जाती होगी तारीख के साथ कि आज खाने में क्या बनेगा, लिखकर सूचित करें, या फिर फलां को पहले जाना है इसलिए फलां बाथरूम का पहले प्रयोग न करें या फिर यह कि कपडे़ सूख गए हैं, बाहर से उठा लें। मेरी कल्पना भी सोचते-सोचते न जाने कहाँ पंहुच जाती है। उधर देखिए, मेरी गुड़िया को। आज फिर घुटना छिलवा लिया है। रोज का काम है। गिरेगी और फिर रोएगी और फिर ऐसी शिकायत भरी नजरों से देखेगी जैसे मैंने ही उसे गिरा दिया हो। अब घर चलती हूँ। साढे सात बजने को आए हैं।

(8)

सच कहती हूँ बच्चों की यह उम्र बड़ी प्यारी होती है। सारी जिम्मेदारियों से परे। न खाने की चिंता, न कहीं जाने की जल्दी, न कुछ भी करने की हड़बड़ाहट। उन्हें कुछ भी करवाना है तो यह चिंता आपकी है, उनकी नहीं। आज कबीर के सब्र की परीक्षा थी। कबीर मुझे मजाक में रोज़ कहते तुम बेकार मेरी बेटी को बदनाम करती हो कि वह तंग करती है। यह कहकर दोनों बाप-बेटी एक तरफ हो जाते और मैं अकेली पड़ जाती। आज किट्टू को खाना खिलाने का काम मैंने कबीर पर ही छोड़ दिया था। कबीर अपने सारे ब्रह्मास्त्र निकालते जा रहे थे और एक-एक कर सारे ब्रह्मास्त्र चूकते भी जा रहे थे। हारकर कबीर उठ कर बाहर आ गए और फिर किट्टू की मन पसंद जगह पर उसे खाना खिलाने की हमारी जद्दोजहद शुरू हो गई थी। "चब्बी चीक्स, डिंपल चिन, रोज़ी लिप्स, टीथ विद इन।" उसका रिकाॅर्ड चालू था और बीच-बीच में फ्यूजन भी हो जाता जब इन पंक्तियों के बाद ही वह कूदकर "वन टू बकल माई शू" पर पंहुच जाती। हम दोनों ंउसकी हरकतों को देखकर हंसते जा रहे थे और वह खुश होकर और ज़्यादा ही बदमाशी करने लगती। कितनी बेफिक्री है इस उम्र में। वहाँ खुले में बैठकर ऐसा लगता कि इतने बड़े नीले आकाश के नीचे सिर्फ़ हम ही हैं और हमें कहीं से भी देखने वाला कोई नहीं। चारों तरफ दरवाजे तो हैं लेकिन इन दरवाजों से निकलता कोई नहीं, कोई भी नहीं। हम रात के नौ बजे अपने दरवाजे के बाहर सीढ़ियों में बैठे थे। ऊपर नीला आसमान था। मुझसे उलट कबीर को यह प्राइवेसी खूब अच्छी लगती। उसे अच्छा लगता कि कोई यहाँ उससे उसकी ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव के बारे में पूछने वाला नहीं है। किसी को उसकी निजी ज़िन्दगी की नाकामयाबी से कुछ लेना-देना नहीं है। कबीर को खुश देखना मुझे भी अच्छा लगता और खुले आसमान के नीचे अकेले होने के एहसास से हम भीतर तक भीग जाते।

इतने सारे बंद दरवाजों के भीतर एक बंद दरवाजा वह था जो कभी नहीं खुलता था। शायद मेरे इस 'कभी नहीं' में आपको अतिशयोक्ति लग रही हो लेकिन उसका खुलना इतना कम था कि मेरे जेहन में उस घर की तस्वीर जब भी आती तो बंद दरवाजों के साथ ही आती और ऐसा लगता जैसे बंद दरवाजों के पीछे कोई है तो सही लेकिन उनके होने का एहसास दुनिया को नहीं है और वे अपने इस न होने के एहसास के साथ ही उस बंद दरवाजे के पीछे रहते और खुश रहते हैं। कभी दरवाजा खुलता तो केवल कुछ लेने या देने के लिए सिर्फ़ एक अनजाना-सा हाथ बाहर आता जैसे यह सिर्फ़ एक हाथ ही हो, उसके पीछे कोई चेहरा न हो।

(9)

ऐसा नहीं हैं कि उस दरवाजे से लोग कभी निकलते ही नहीं थे। वे दो लड़कियाँ या कहूँ कि दो औरतें कभी-कभी ही घर से निकलतीं। एक हाथ में बड़ा-सा झोला थामे और दूसरी हाथ में गाड़ी की चाबी लिए। गाड़ी अक्सर छोटी उम्र की औरत ही चलाती और बड़ी अपने अकेलेपन और उदासी के घेरे में उसके पीछे चलती रहती। वे इतनी उदास थीं या मुझे ही भ्रम हो गया था कहना मुश्किल है। लेकिन उनकी उदासी का बड़ा-सा घेरा उनके निकलने के साथ ही उनके साथ निकलता और उस घेरे में सिमटी ही वे सीढ़ियाँ उतर जातीं। यह घेरा उदासी का था या उदासीनता का, जो भी हो, इतना बड़ा और घना ज़रूर था कि कोई चाह कर भी उनसे बात न कर पाता। उनका यह घेरा मुझे ज़रूर उदास कर जाता। मैं सोचने को मजबूर हो जाती कि आगे बढ़ने का मतलब, अपनी ही परिभाषा में कहूँ तो अधिक सभ्य होने का मतलब यूं अकेला या अपने आसपास की चीजों से उदासीन हो जाना है तो फिर मैं आखिर किस चमकीली दुनिया कि तरफ भाग रही हूँ? जिसमें चमक तो है लेकिन चमक की चादर को जरा-सा उठा कर देखा जाए तो वहाँ गहरा, डरावना अंधकार फैला हुआ है।


कल रात सोते-सोते बड़ी देर हो गई थी। हुआ कुछ यूं कि किट्टू कल क्रैच में काफी देर तक सोती रही। ज़्यादा सोने की वजह से उसे देर तक नींद नहीं आ रही थी। केयर टेकर ने मुझे पहले ही आगाह कर दिया था कि आज रात तो किट्टू आप लोगों को सताएगी। वही हुआ। खाना खाकर, रसोई संभालकर सारे काम करके जब सोने की तैयारी कर रहे थे कि उसने घोषणा कर दी कि कमरे की बत्ती नहीं बुझाई जाएगी। कबीर और मैं उसे बहकाने की कोशिश करते रहे लेकिन उसकी आंखों में नींद कहाँ थी!

" अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो... ममा आगे क्या होता है बोलकर-बोलकर आंखों तक आई मेरी नींद को भी पीछे धकेलने की पूरी कोशिश कर रही थी वह और फिर हारकर हम दोनों ने समझौता कर लिया कि उसे नींद आने तक हमें उसके साथ खेलना ही होगा। एक-डेढ़ घंटे की पूरी मेहनत के बाद जब वह थक कर सोई, घडी की छोटी सुई एक के आंकड़े को छूने को बेचैन थी। लगभग एक बज चुका था। आँख बंद करते ही कब नींद ने घेर लिया पता ही न चला।

"कबीर उठो, दरवाजे की घंटी बज रही है।" मैंने यह सपने में कहा था या सच में मुझे कुछ याद नहीं। थोड़ी देर बाद फिर से घंटी बजने की आवाज आई। अब मेरी नींद खुली। कबीर अब भी गहरी नींद में सो रहे थे। मैंने मोबाइल उठा कर टाइम देखा। सवा तीन बज रहे थे। लगा कि शायद मुझे धोखा हुआ है। इस समय दरवाजे पर कौन होगा। अभी तो सुबह नहीं हुई। नींद में डूबी मैं फिर आंखें बंद करने को हुई कि फिर एक बार घंटी बजी थी। यह धोखा नहीं है। मुझे विश्वास हो गया था। घड़ी में ंसमय देख कर मन और भी घबरा रहा था। आखिर इतनी रात गए कौन हो सकता है दरवाजे पर! मैने धीरे से कबीर को हिलाया, "कबीर, कबीर... उठो दरवाजे पर कोई है!" घड़ी में समय देख कर कबीर भी हैरान थे। हमने एक बार और घंटी बजने का इंतजार किया। अब थोड़ा-सा विराम देकर घंटी फिर बजी। हिम्मत करके हम दोनों बिस्तर से उठे। दरवाजा खोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कबीर ने पीप होल से झांका, दरवाजे पर कोई नहीं था। लेकिन बाहर रोशनी देखकर अंदाजा हो गया कि ज़रूर कोई बात है। मैंने भी खिडकी से झांका तो क्या देखती हूँ कि ऊपर वाले उस रहस्यात्मक घर का दरवाजा खुला हुआ है और छोटी वाली लड़की या औरत सीढ़ियों से उतर रही है। एकबारगी लगा कि अच्छा तो ये लोग सबके सो जाने के बाद उठते हैं और अपने ज़रूरी काम रात के अंधेरे में निपटाते हैं। उल्टे-सीधे खयालों का यह सिलसिला यूं ही जारी रहता अगर घंटी दोबारा न बज जाती। इस बार कबीर ने घंटी बजते ही दरवाजा खोल दिया। वह औरत लगभग हांफती हुई-सी हमारे सामने खड़ी थी। "भाई साहब मदद कीजिए। भैया को हार्ट अटैक हुआ है।"

मैं और कबीर दौडकर उसके साथ हो लिए। आज उस घर का दरवाज़ा पूरी तरह खुला था और उस घर और मेरे बीच में कोई नहीं खड़ा था। लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों उस घर के भीतर कदम रखते हुए मेरे भीतर कुछ अजीब-सा घट रहा था। कुछ ऐसा जिसे शायद उस लड़की ने भी पढ़ लिया था। उसने हाथ के इशारे से हमें अंदर आने के लिए कहा। अंदर यानी उस कमरे की ओर जिसमें हमें ले जाना ज़रूरी था कबीर दौड़कर आगे बढ़ गए थे लेकिन मैं आगे बढ़कर भी शायद दरवाजे पर ही रह गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे मैंने किसी रहस्यलोक में कदम रख दिया हो जहाँ सब कुछ रहस्यमयी ही हो। मेरी आंखें एक बार फिर घर में यहां-वहाँ लगी पर्चियों को खोज रही थीं जिस पर घर वालों के लिए कोई संदेश हो। पूरा घर जैसे अंधेरे से उजाले और फिर अंधेरे की ओर खुल रहा था। मेरी नजरें एक तटस्थ निरीक्षक की तरह घर के हर कोने की पड़ताल कर रही थीं और अंदाज़ा लगाने की कोशिश कर रही थीं कि घर के किस कोने में कौन किस तरह रहते होंगें।

उस दिन पता चला कि उस घर में उन दो लड़कियों या कहें कि औरतों के अलावा उनका एक भाई और माँ भी रहते हैं। तब तक सामने वाले और नीचे वाले पड़ोसी भी आ चुके थे। ऊपर जाकर पता चला कि अस्पताल से एंबुलेंस वैन आ चुकी है और डाॅक्टरों की टीम काम में जुटी है। अंदर कमरे में पलंग पर विशालकाय एक आदमी बेहोशी की अवस्था में पड़ा है जिसे डाॅक्टरों ने एक दूसरे को आंखों ही आंखों में मृत घोषित कर दिया है। जिसे एक झूठी उम्मीद में बचाने की कोशिश में वे दोनों बहनें लगी हैं और जिसकी खबर उनकी माँ को नहीं है। डाॅक्टरों और एंबुलेंस की टीम ने उस विशालकाय आदमी को नीचे ले चलने के लिए इशारा किया, जिसे हाॅस्पिटल के स्ट्रेचर पर आठ-दस आदमियों की मदद के बिना नहीं ले जाया जा सकता था। एकबारगी फिर लगा कि आज भी इस घर को पड़ोसियों की या समाज की ज़रूरत न पड़ती यदि उनके भाई का शरीर इतना विशालकाय न होता या फिर अगर इतना एडवांस स्ट्रेचर होता कि मोटे स्थूलकाय आदमी को भी बिना किसी अतिरिक्त मदद के चार मंजिला इमारत से उतारा जा सकता।

और फिर हमने अस्पताल की टीम और पडोसियों की मदद से एक मृत आदमी को उन सीढ़ियों से उतारे जाते देखा। आज उस घर का दरवाजा पूरी तरह खुला था। घर में कितने सदस्य हैं इसकी खबर भी पूरी बिल्डिंग को हो चुकी थी। उस घर के ड्राइंग रूम से लेकर किचन तक का इंटीरियर सबके सामने था। घर की दीवारों पर सुंदर वाल हेंगिंग्स लगे थे, जो उनके अत्याधुनिक होने का पता दे रहे थे। दरवाजा पर और चैखट में भी सुंदर टनटनाती घंटियाँ थीं, जरे हवा के झोंके से बीच-बीच में बज जाती थीं। ये घंटियाँ घर में या आसपास होने वाली घटनाओं से इतनी निरासक्त थीं कि स्थिति कोई भी हो वे अपनी ही धुन में लगभग एक ही आवाज से बार-बार बज रही थीं। शायद अपनी इसी निरासक्तता से उस घर के सन्नाटे को तोड़ती थीं, जिसमें शोर तो होता था लेकिन कोई हरकत नहीं होती थी। मेरी नज़र डायनिंग एरिया में रखे एकदम नए नवेले, नए माॅडल के ट्रिपल डोर फ्रिज पर पड़ी जिसका विज्ञापन मैं पिछले कुछ दिनों से टी.वी. पर देख रही थी। बिल्कुल नया यानी लेटेस्ट माॅडल था यह। फ्रिज पर कंपनी के स्टीकर अभी तक चिपके थे। शायद दो-चार दिन पहले ही आया होगा यह और जिसे इन्हीं सीढ़ियों से इस चार मंज़िला इमारत की चैथी मंज़िल पर चढाया गया होता। लेकिन उन लोगों के भीतर का सच अभी भी ढंका-छिपा था। सीढ़ियों से नीचे उतर कर दोनों बहनों ने बिल्डिंग वालों के सामने शुक्रिया के लहजे में हाथ जोड़े और गाड़ी लेकर एंबुलेंस के पीछे-पीछे चल दीं घर में इंतजार करती बूढी माँ को छोड़कर। न एक बार कोई सोसाइटी वाला मदद का हाथ लेकर साथ चलने को तैयार हुआ और न ही उनकी आंखों में किसी से कोई अपेक्षा थी।

अचानक उस रात क्या हुआ था इसकी कोई खबर नहीं हुई। बिल्डिंग के लोग ज़रूरी इंसानियत निभाकर फिर से अपने-अपने बिलों में घुस गए थे और थोड़ी ही देर में फिर से बिल्डिंग सन्नाटे की काली चादर ओढ़कर सो गई थी। सब सुबह को थोड़ा और धकेल देना चाहते थे ताकि अधूरी रह गई नींद को इस धकेली हुई सुबह में पूरा किया जा सके। सबको देख कर हम भी भीतर आ गए। मेरा मन भीतर ही भीतर खुद को और सबको कोस रहा था। मेरी यादों के कैमरे में पिछली कोई रील चल रही थी जब मेरे पिता कि मृत्यु हुई थी। कैसे पड़ोस वाले अंकल की गाड़ी में बैठकर हम और माँ अस्पताल जाया करते थे। कैसे एक बार पैसे कम हो जाने पर हमारे एक दूसरे पड़ोसी ने झट से निकालकर पैसे माँ के हाथ में थमा दिए थे और माँ की आंखें भर आने पर उनके दिलासे ने उन्हें सहारा दिया था। सब कुछ जैसे आज खो-सा गया था। पिता कि मृत्यु पर कैसे पड़ोस की औरतों ने आ कर माँ को संभाल लिया था और एकबारगी हम सब भाई-बहनों को हमारा पूरा मोहल्ला अपने परिवार जैसा लगा था।

बिस्तर पर मैं और कबीर रात भर करवटें बदलते रहे और मेरे जेहन में ऊपर घर में अकेली रह गई बूढ़ी माँ घूमती रही। किट्टू अभी गहरी नींद में सो रही थी।