वह सक्षम थी / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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वह अपने रूम कम आफिस में बैठा रिपोर्ट तैय्यार कर रहा था। क्या लिखकर भेजना है, निर्णय नहीं कर पा रहा था। कोई कायदे की खबर हाथ नहीं लगी थी। कोई सार्थक खबर वह कल से प्रेषित नहीं कर पाया था। लखनऊ से दैनिक राष्ट्र संदेश के सम्पादक का फोन भी आया था। खबर भेजों। कल से आज तक डाक-डिब्बे में भी कोई खबर सूचना नहीं पड़ी थी। कोई भी खबर भेज दो तो, सम्पादक महोदय संतुष्ट नहीं होते। कहते है छपने लायक खबर भेजा करो।

वह इस छोटे शहर में दैनिक राष्ट्र संदेश का प्रतिनिधि है। उसे बड़े मौके से यह जगह मिल गई थीं शहर के बीचों-बीच सदर बाज़ार में। नीचे सर्राफें की दुकानंे है और ऊॅपर उसका रेजीडेंस कम आफिस कार्यालय। उसने छज्जे पर बोर्ड लगा रखा है और जीने पर एक पोस्ट बॉक्स। जिसमें स्थानीय नागरिक खबरें शिकायत आदि डाल सकते है। यह काफी लम्बी मार्केट हैं, करीब-करीब आधा कि0मी0 तक सीधी। मकानों में नीचे के पोर्सन में ज्यादातर दुकानें हो चुकी है, एक्का-दुक्का को छोड़कर जिन्होनें अब भी उन्हें बैठक बना रखा है। कुछ मकानों में नीचें उॅपर दुकानें है। एक वी-मोल है और कई प्रोडेकस के शो रूम भी है। वी-मोल अभी-अभी खुला है, जो उसके काफी करीब है। यह छोटा शहर सुप्तावस्था से निकल रहा था। यह एक मंत्री का गृहनगर भी था जहॉं से वह हरदम जीतते रहते थे, परन्तु स्थानीय विधायक विरोधी पार्टी का रहता था, इसलिए राजनीतिक खंीच-तान चला करती थीं। बाहर का ईलाका सई नदी का खादर था। जहांॅ अपराधिक प्रवृत्तियाँ अक्सर घटित होती रहती थी।

वह न्यूज जुटाने के उद्देश्य से निरउददेश्य निकल पड़ा। सदर बाज़ार पूरा पार करते-करते वह दायें मुड़कर हरदेव बाज़ार की तरफ निकला। वहॉ फर्नीचर की एक बड़ी-सी दुकान में चढ़ गया। दुकानदार कोई मिया साहब थे, लम्बी सफेद दाढी और सर पर स्कल टोपी. अब्दुल वहाब, साहब उन्होंने ऐसी ही अपना परिचय दिया। पहले तो वह उसे ग्राहक समझे परन्तु बाद में जब उन्हें पता चला कि वह पत्रकार है, तो मायूस हो गये। उन्होने फरमाया 'इस शहर मंे क्या न्यूज है? सब बेकार है। लोग अपने कौम के नहीं। अब देखो अपनी ही कौंम का मुख्य सरकारी बैंक का मैनेजर है, किसी काम का नहीं। कहता है पिछले लोन का भुगतान करो तब नया लोन देगा। अरे! भई अगर इतने ही पैसे होते तो भुगतान करने के लिये तो नया लोन क्यों मांगते? अपने बिजनेस के लिये लोन मांग रहे हैं। है ना, नाइंसाफी? जब धन्धा चल रहा होता तो बैंक से लोन की ज़रूरत ही क्या है? बेकार है ऐसा आदमी। कुछ उसके विषय में निकालिये। लिख दीजिये, कामचोर हैं मुफ्त की सरकारी रोटियाँ खा रहा है।' फिर वहाब साहब की नजर सामने पड़ी, 'अब ये जो सामने मोहतरमा को देख रहे हैं।' अपने दो बच्चों के साथ चाट खा रही है। इनके पति इंजीनियर साहब अपने नये घर के लिये सारा फनीचर्स, मेरे यहॉ से उधार पर ले गये थे। साल भर में आधा पैसा ही वापस किया था कि उनका इन्तकाल हो गयाँ। बाकी पैसा डूब गयाँ। मोहतरमा से कहते है, तो कहती है उन्होने सारा भुगतान कर दिया था। अब इनसे क्या फौजदारी करें? दुकानदारी में उधारी तोड़कर रख देती है। मगर इस छोटे शहर में बिना उधारी के बिजनेस नहीं। '

उसका ध्यान उधर गया, जिधर बहाव साहब ने अंगुली उठायी थी। एक अच्छी लड़की या स्त्री दो बच्चों के साथ जो शायद नौ-दस एवं चौदह-पंद्रह के होगें, बड़े मगन से चटखारें लेकर चाट खानेें में मशगूल थे, उन्हें बहाव साहब की कोई परवाह नजर नहीं आ रही थी। जबकि उनके बीच के दूरी 10-15 फीट से ज़्यादा की नहीं होगी। वह वहाँ से उठ आता है, बिना किसी आश्वासन के. उसका प्रयोजन निष्फल हो गया था। वह लौट आया, बिना किसी न्यूज के. आते ही वह-वह निढ़ाल गिर पड़ा बेड पर।

वह अभी-अभी आयीं थी। लगता है, जीना जल्दी-जल्दी चढ़ कर आयी है। इसलिए सांसे भी लम्बी-लम्बी ले रही थीं। आते ही उसने हाथ मिलाया और बिना कोई परिचय दिए वह सामने पड़े सोफे पर बैठ गई थी। वह उत्सुकतावश उसे देख रहा था। उसके लिए वह अनजान व अपरिचित थी। वह एक लड़कीनुमा औरत थी। एक नवयौवना का आभास देती हुयी। सुन्दर और आकर्षक थी वह अनुमान लगाने में असमर्थ रहा था कि वह शादी-शुदा है कि सिंगल। उसके इस आफिस कम रेजीडेंस में कोई स्त्री, लड़की कभी नहीं आयी थी। आने वाले कुछेक परिचित थे, जो कभी-कभी ही आते थे। वह अक्सर इस जगह कम मिलता था क्योंकि न्यूज कलेक्ट करने के लिए वह हर समय भटकता रहता था।

उन्होंने सोफे पर कुछ बेचैनी से करवट बदली और यकायक बोली 'पत्रकार, साहब ज़रा देखिये तो! बाहर तो कोई नहीं है? वह अचकचाया, वह कैसे जान पायेगा कि बाहर वह किसके लिए कह रही है? फिर भी वह उठा, उसने बाहर झांका और इधर-उधर देखकर बोला,' आप किसके लिए कह रही है? 'यहॉं तो मुझे कोई संदिग्ध नजर नहीं आ रहा है, जो इधर तांक रहा हो।'

'तो चला गया होगा, या फिर वह देख नहीं पाया होगा, मुझे यहॉं आते।' वरना वह काफी देर से मेरा पीछा कर रहा था। बड़ी मुश्किल से मैं डाज देकर यहॉं आ पायी हॅू। '

'मेरे पास कोई काम था आपको?'

'अरे! नहीं। मैं तो उससे अपना पिंड छुड़़ाने के लिए, यहॉं पर आ गई हॅू। दर असल बाहर जो आपका बोर्ड लगा है, दैनिक राष्ट्र संदेश, उसी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं यहॉं सुरक्षित रहॅूगीे।' वह अभिभूत हुआ यह सुनकर। लोग पत्रकारों पर भरोसा करतें हैं।

'आखिर! वह है कौन? क्या कोई गुडंा या बदमाश?' वह खुद सिहर उठा था, यह सोच कर।

'नहीं-नही, वह तांे मोहल्लेे का एक बन्दा है, जो जबरदस्ती मेरी सहायता करने पर उतारू रहता हैं। ं' अपना घर देखता नहीं, मेरे पीछे मंडराने की कोशिश करता हैं। ' उसने राहत की सॉंस ली वह सहज हुआ और उसने देखा, वह भी निश्चिन्त महसूस कर रही है। उसने लड़के गोपाल को बुलाया और मैडम को पानी पिलाने को कहा। उसने बाहर से तीन चाय लाने को भी गोपाल से कहा।

गोपाल ने चाय और नमकीम लाकर उसके टेबुल पर सजा दी। उसने मैडम से अनुरोध किया। वह उठ कर टेबुल के पास पड़ी विजीटर्स चेयर पर बैठ गई. टेबुल काफी बड़ी थी कम्प्यूटर, फैक्स मशीन, प्रिंटर टेलीफोन को समेटने के बाद भी उसके पास लिखने पढ़ने और चाय-नास्ता के लिए काफी जगह बच जाती थी।

चाय पीते-पीते वह उससे पूरी तरह खुल गई थी और उसने अपना पूरा वर्णन कर दिया था।

उनका नाम शालिनी ककड़ है, वह बी0ए0 तक पढ़ी है। उनके पति संचार निगम में इंजीनियर थे जिनकी एक साल पहले मृत्यु हो चुकी है। उनके दो बच्चे है एक लड़की नाइन्थ में पढ़ रही है और लड़का सिक्थ में सेन्ट फिडलिस स्कूल लखनऊ में पड़ रहा है। उनका यहॉ पर कोई नहीं है। वह दोनों मेरठ के रहने वाले थे। दो खण्ड का मकान इंजीनियर साहब खरीद कर पहले ही दे गये थे, जो यहॉ से एक-दो कि।मी। की दूरी पर हैं उन्होने बताया कि 'शीघ्र ही उनकी अनुकम्पा के आधार पर संचार-निगम में नौकरी लगने वाली है। सारी जिम्मेदारियाँ उनके पर आ गई हैं। क्या करें भाई साहब सब करना पड़ता है। सारे कामों के लिये खुद ही सब जगह जाना पड़ता है और फिर ऐसे-ऐसे लोगों से पाला पड़ जाता हे कि कुछ कह नहीं सकते।'

'अब चलते हैं, देर हो रही है, रश्मि आ चुकी हो्रगी।' शायद उसने अपनी बेटी का नाम लिया था।

यह कहकर वह चल दी। सीढ़ियाँ उतरे-उतरते वह रूकी और वापस आ आयी। वह टेबुल पर अपने दोनों हाथों के सहारे झुकी।

'अरे। मैंने तो आपका नाम पूछा ही नहीं।' उसकी आंखें मेरे चेहरे पर गड़ी थी।

'मनीष जोशी।' उसकी जेब दिखाई पड़ रही थी। उसने अपनी निगाह उधर से हटाई और उसके चेहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश करते हुए जबाब दिया।

'मोबाइल नम्बर!' वह सीधी हो चुकी थी। उसने अपनंे मोबाइल पर मेरा नाम और सेल न0 दर्ज किया। एक रिंग करके नम्बर कन्फर्म किया और उसकी काल को रिसीव करने की ताकीद की। ज़रूरत पड़ने पर हेल्प करने का अनुरोध किया। उसने मुस्कराकर थैंक्स कहा और निकल गई.

सारा प्रकरण एक फ़िल्मी परिदृश्य की तरह मन-मस्तिष्क पर गुजर गया। उसे लगा उसे कहीं देखा है? कहॉ? उसका पत्रकार का खोजी दिमाग भी अनुमान लगाने में अपने को असमर्थ पा रहा था। उसने अपने आप को फिर से व्यवस्थिति किया और अपनी रपट तैयार करने में जुट गया।

मैडम शालिनी कक्कड़ ने उससे दोस्ती गांठ ली थीं उसके मोबाइल पर अक्सर उसकी काल आ जाती और बातें किया करती, बिना मतलब की, बेफिजूल। सिर्फ़ अपना रोना कि किस तरह वह इतनी छोटी उम्र और समाज की नजरों से बचते हुए अपनी जिम्मेदारियाँ निभा रही है और वह उसकी तारीफ करने में नहीं हिचकता थां। हफ्ते में एक दिन तो उसका व्यक्तिगत रूप से आना भी तय था, सिर्फ़ दिन निश्चित नहीं था। कभी-कभी ऐसे समय आती थी जब वह कमरे में नहीं होता था। कोई न्यूज कलेक्ट करने, या खबर की तलाश में, तो मायुस होकर लौट जाती थी। किन्तु गोपाल को सख्त हिदायत देकर जाती कि मनीष जी को बता ज़रूर दीजियेगा कि मैडम आयी थीं और फिर रात के सात-आठ के बीच में काल्स आना लाजिमी था। 'कहॉं चले जाते है?' एक काम था आपसे! खैर, छोड़िये कब आ रहे है। , मेरे घर? कई बार इन्वाइट कर चुकी हॅू। आप है कि सुनते ही नहीं। आते क्यों नहीं? क्या डरते है? ...उसे याद आया एक बार उससे बातचीत के दौरान, जब उसने कई बार अपने घर आने का अनुरोध किया था तो अनायास उसके मुहॅं से निकल गया था। 'मुझे आने में तो कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु आप अकेली रहती है, आपके आस-पड़ोस, घर-परिवार वाले देखेगें तो क्या कहेगें?' लोग हरदम ग़लत ही सोचते है? हम लोग चाहे जितने पाक साफ हों और वह सुनकर उसके मुॅह से बरबस यह निकला था अरे! नहीं ...ऐसा नहीं हैं ... और फिर वह चुप लगा गई थी। ...और उसने बात बदल दी थी।

'आऊॅंगा...आऊॅगा, जल्द ही आऊॅगा फुरसत मिलने दीजिये। यह शिकायत भी आपकी दूर करनी है।'

'अच्छा, आपको कौन-सा काम रहता है? पत्रकारों की मौज है, फिर भी आप व्यस्तता का बहाना बनाते रहते है। जब भी आपसे मिलती हॅू, आप खाली ही होतें है। भाई, आप सांय छैः एवं सात के बीच आ जाइयें, तब तक तो आप फ्री हो जाते हैं।'

'हम पत्रकार लोग कभी भी फ्री नहीं होते खबरे तो हर समय होती है। यहॉं तो हमारा कोई साथी भी नहीं है। बहुत कठिन ड्यूटी है।' ...

उसने अपना घर का पता कई बार लिखवा दिया था और कहा था कि जब भी आइयेगा तो काल कर दीजियेंगा। तार घर के समीप ही उसका घर। वहॉं पहुचतें काल करियेगा, वह तारघर सें उसे रिसीव कर लेगी और घर ले आयेगी।

जब भी मिलती थी। इस बात का जिक्र ज़रूर रहता था कि उसकी नौकरी लगने वाली है बस एक-दो महीने की बात है फिर सारी प््रााबलम हल हो जायेगी और उसके बाद बातों का सिलसिला। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का विशेष रूप से लड़के के विषय में। ये बन जाये...बस फिर कोई चिन्ता नहीं है। उसने पूछा, 'लड़की को क्यों नहीं बाहर भेजा, किसी अच्छे इग्लिश मीडियम स्कूल में। यहॉं शहॉंजहॉंपुर में क्यों डाल रखा है।' उसने बताया तो वह उसकी सोच पर हसॉं 'लड़कियों को क्या ज़रूरत है? उनको को तो घर का काम काज ही करना है। उन्हें कौन-सी नौकरी करवानी है? वह यहीं पर ठीक है।' उसके मदद की लिस्ट लम्बी थी। ...लाकर दिलवा दीजियेगा...टैक्स रिटर्न भरवा दीजियेगा ...टी0डी0एस0 कितना कटेगा...अगर कई बैंकों में खातें रखे तो टैक्स नहीं पड़ेगा...कभी उसे हड़का दीजियेगा। ...कभी उससे मेरी सहायता को कह दीजियेगा। । वह जब भी मिलने आती थी एक-दो घंटे बिताकर ही जाती थी। ज्यादातर वह दोपहर में ही आती थी। उसे भी उसका सानिग्ध सुखदायी लगता था। एक सुखद-अनुभूति और काल्पनिक रोमॉटिकता का अहसास उस पर तारी हो जाता था। हालॉंकि इस तरह के अनुराग की कोई बात कभी भी नहीं होती थी। परन्तु उसकी उपस्थिति एक खुशनुमा माहोल को जन्म ज़रूर देती थी। वह उससे पूरी तरह से खुल गई थी, परन्तु अपनी समस्याओं का वर्णन और उनके सम्भावित निदान तक ही सीमित था उनका खुलापन। मनीष उसके प्रति एक प्यार भरे आदर भाव का अनुभव करता था जो अपना वैधत्व शालीनता से एवं हसीं-खुशी स्वीकार करके, समाज के झंझावटों एवं कुत्सित प्रवृत्तियों को दर किनार करते हुये, एक सफल सिंगल पेरेन्टहुड का निर्वाहन कर रही थी।

एक दिन वह जल्दी फ्री हो गया था। शाम के छै बज रहे थें और जाड़े का समय था। अँधेरा जल्द ही उतर आया था। उसने आज उसके पास जाने का निर्णय किया। दो-तीन दिन से न तो आयी थी ना उसकी कोई काल्स आयी थी। उसकी घर न आने की शिकायत दूर करनी थी। टाइम पास करना था और इतने दिनों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनुपस्थिति भी परिक्षित करनी थी। आज गोपाल भी नहीं आया था। वह सायं का खाना बनाकर चला जाता था। जो वह रात में निश्चिन्त होकर खाता था उसने सोचा उससे मिलकर वह लौटते वक्त होटल में खाकर आयेगा।

मनीष ने उसे तार घर पहुॅचने पर काल की। उसने मोबाइल आन रखने का आदेश देते हुये, उसी के जरिये रास्ता बताना जारी रखा। कई गलियों का चक्कर लगाते हुये आखिर में उसका घर प्रगट हुआ। उसने मेन गेट को न खोल कर कोई पिछला रास्ता, जो आफ-चंेक की तरफ खुलता था, वहॉं से दाखिला करवाया। वह घिनघिना गया, उस रास्ते से उसके घर प्रवेश को लेकर।

उसका मनीष का स्वागत करने का रिस्पांस इतना बेजान, बेरूखा और ठंडा था कि उसके आने का उत्साह चारों खानें चित जा पड़ा। वह बार-बार सशंकित ठंग से सामने वाले घर की तरफ देख रही थी कि कहीं उसे किसी ने देखा तो नहीं? उसने पूछा भी 'आप मेरे आने पर इतना भयभीत क्यों महसूस कर रहीं है?' 'अरे! मनीष जी आप नहीं जानते सामने वाले कितने दुष्ट है? बिना मतलब के इल्जाम लगाने में माहिर है। जब मैं पहले दिन आपके पास जिससे छुंपने के लिए आयी थी, वह बंदा सामने ही रहता है। वह व उसका परिवार अगर आपको देख लेगा तो हमें बदनाम कर देगा। मैंने उसकी शिकायत उसकी बीबी से कर दी थी, तो उसकी बीबी मुझ पर ही बिगड़ पड़ी कहने लगी कि' मैं ही ऐसी होऊॅंगी। 'मेरा आदमी ऐसा नहीं है। पहले तो मेरे आदमी को बुला-बुला कर फसॉती हो और उससे नौकरों की तरह काम करवाती हो अब उसी की शिकायत कर रही हो। मैंने तो पहले ही उनसे कहा था कि इसके चक्कर में मत पड़ों। परन्तु ये कहने लगे मानवता के कारण मदद कर रहा हॅू। अब तुम इन पर छेड़ने, परेशान करने का ंगंदा इल्जाम लगा रही हो। माफ करियेगा। मैं इनसे मना कर दूंगी। खबरदार, जो तुम्हारी सहायता के चक्कर में पड़े। होम करत हाथ जरत।'

शालिनी जी ने कहना जारी रखा, 'उसके बाद उसने पीछा करना और बिना मतलब बात करना तो छोड़ दिया। मैंने सांेचा था कि मुक्ति मिल गयी परन्तु वह अब भी घात लगायें रहता है, कभी कोई मौका हाथ से जाने नहीं देता है। कभी कोई सूत्र उसके या उसके परिवार के हाथ में पड़ गया तो मेरी इज्जत को तार-तार करनें में नहीं चूकेंगें ये लोग। सही बताती हॅू मनीष जी, अगर जरा-सी भी छूंट मैं उसे दे देती तो वह बंदा हर समय मेरे घर में ही बैठा मिलता।' वातावरण दुःश्चिंता से भर गया था और भारी हो गया था।


उसने नाश्ते का इन्तजाम अच्छा किया था, दो-तीन तरह की मिठाई और नमकीन थी और उसके प्रिय समोसे भी। परन्तु उसने साथ खाने में कोई रूचि नहीं दिखाई, न ही उसकी दोनों सन्तानों ने साथ दिया। दोनों उसके अगल-बगल गार्डोंं की तरह खड़े रहे। उसने अपने को डायबिटिक बताया और सिर्फ़ चाय ली वह भी बिना चीनी की। उसे ताज्जुब हुआ जब वह वहाँ से पन्द्रह-बीस मिनट में ही विदा हो गया, बिना किसी ज़्यादा बातचीत के. सिर्फ़ उसने उसके घर परिवार के विषय में ही दरियाफ्त की, उसकी बीबी और बच्चें के विषय में। उसने कोई ऐसी वार्ता नहीं की जो ज़्यादा देर तक चले और उसने इस अवधि में ज्यादातर मौनता को प्रमुखता दी। वह बेरंग वापस आया और अपना रोष उसने अपने यहॉ पर आने के निर्णय को दी और अपने को जी भर के कोसा। नतीजा ये रहा कि वह बिना होटल गये वापस अपने ठिकाने पर आ गया। उसने अपने उपवास की आपूर्ति सिगरेट-चाय के द्धारा की।

सम्पादक का फोन आता रहता था, कुछ विज्ञापन बुक करने हेतु। छोंटे-मोटे विज्ञापनों से उनका पेट नहीं भरता थां। कोई बड़ा हाथ मारने के लिए अक्सर उलाहना दिया करते थे। उन्हें सरकारी विज्ञापन ज़्यादा से ज़्यादा चाहिए था। उसे और कुछ समझ में नहीं आया तो वह एक मुख्य राष्ट्रीयकृत बैंक में पहुॅच गया। मुख्य प्रबन्धक के कक्ष में पहॅुचा और अपना परिचय दिया, उन्होंने सामने बैठने का ईशारा किया, तो देखा वहीं पर श्रीमती शालिनी कक्कड़ विराजमान थीं अपने पूरे मनमोहने वाले अंदाज के साथ। उनसे भी हाय हैलो हुई. मगर उन्होने बड़े अनिच्छुक ढंग से और बिना अपनी गर्दन को जुम्बिस दिये हुएँ। मैंने अपने आने का उद्देश्य उन्हें बताया, तो मुख्य प्रबन्धक साहब श्री अबरार अहमद कुरेशी ने बड़े प्रेम से सेवा न कर-पाने की मांफी मांगी और कहा, 'अब शाखाओं को विज्ञापन का अधिकार नहीं है।' ये कार्य हेड-आफिस स्तर से होता या केन्द्रीय कार्यालय् द्वारा और फिर जब वे उचित समझते हैं, तभी विज्ञापन अपने आप देते हैं, किसी के कहने आदि से नहीं देते हैं। फिर भी उन्होने उसका स्वागत् चाय आदि से किया और अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखने का अनुरोध किया। इस बीच कब शालिनी जी खिसक गई, पता न चला। वह मैनेजर से मुखातिब था, 'जब भी अवसर आयेगा, वह अवश्य सूचित करेंगे, यथा कस्टर-मीटिंग के समय या अन्य कोई बैंक शाखा से सम्बन्धित कार्यक्रम में, किसी बड़े अधिकारी के विजिट के दौरान आपको सादर आमंत्रित किया जायेगा।' उसे वह बड़े भले आदमी प्रतीत हुए. वह उनके प्रति एक अच्छी भावना लेकर निकला।

बैंक गेट से बाहर निककलते हुए, फिर उसकी मुलाकात शालिनी जी से हो गई. शायद वह उसका ही इन्तजार कर रही थी। उन्होने उसे आवाज दी।

'मनीष जी आपका काम हुआ।'

'नहीं। परन्तु है बड़े भले आदमी। उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं था, वरना वह ज़रूर मदद करते। कितना अच्छा एवं मीठा बोलते हैं?' वह विद्रुपता से हंसी, 'मेमने की शक्ल में' भेड़िया है, यह मैंनेजर। सिर्फ़ मीठा बोलता है और भीतर कितना कुत्सित है, आप क्या जानें? '

'आप जानती हैं' उसे उसकी जानकारी पर संदेह हुआ।

' हॉ, उसने स्वीकारात्मक अभिव्यक्ति की।

'कुछ बतायेंगीं या ऐसे ही।'

'यहाँ, नहीं। चलते हैं। पास में' दीवान साहब रेस्टोरेन्ट है, वहीं बैठते हैं। '

वह दोनों कोने की एक टेबुल पर बैठ गये और उसने स्नैक्स और काफी का आर्डर दिया। वह फाइव स्टार होटल का रेस्टोरेन्ट था, पब्लिक नहीं के बराबर थी। बाहर दोपहर की गर्मी सर-चढ़कर बोल रही थी, उसे वातानुकूलन की ठंडक में काफी राहत मिली। परन्तु दिमाग में हलचल मची हुई थी। वह काफी उत्सुक था, परन्तु वह अनिर्णय में आ गयी थी। उसने उतावलापन दिखाया, तो फिर वह असमंजस की स्थिति से बाहर निकली और उसने भूमिका सहित कहना शुरू किया।

'मेरा यहॉ पर बहुत पुराना खाता है, लाकर है। मैंने लाकर में आर्नामेंट के अलावा रसीदें, मियादी, एन0एस0सी0 आदि कई चीजें रख रखी हैं। यह मेरा अलग खाता है। मेरे पति का खाता अलग बैंक में है जहॉ उनकी सैलरी आती थी, अब मेरी पेंशन आती है। यहॉ मेरा आना-जाना ज़्यादा रहता है। पहले मैं काउन्टर पर आकर कार्य करवा लेती थी। जब से ये मुल्ला जी आये हैं, ये मुझ पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हो गये और अपने चैम्बर में ही बैठकर मेरा सारा बैंक वर्क करवा दिया करते है। , परन्तु मेरे लिये ये अतिरिक्त सदासयता दिखाते थे और खुद उस अधिकारी से लाकर की लेकर मुझे ऑपरेट करवा दिया करते थे। इस तरह से कोशिश भी करते थे कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा इनके पास रूकॅू। उस प्रयास में यह चाय, काफी, कोल्ड डिंक्स ज़रूर पिलाकर ही मुझे भेजते थे। मैं इनके व्यवहार से काफी प्रभावित थी। व्यवहार से और सज्जन्नता और हेल्पिंग नेचर में अभिभूत थी। अक्सर मुल्ला जी मेरी हर तरह की प्रसंसा करते थे, मेरे रूप सौंदर्य, शालीनता और नेचर, व्यवहार की। कभी-कभी ईशारों-ईशारों में प्यार का आग्रह भी छिपा रहता था। मैं जानबूझ कर उपेक्षा करती थी और प्रतिवाद् स्वरूप कुछ कहती नहीं थी।' ...कुछ देर वह रूकी फिर उसने कहना शुरू किया ...'एक दिन मुझे बैंक आने में काफी देर हो गयी। पब्लिक डीलिंग समाप्त हो गयी थी परन्तु चीफ साहब ने मेरे ऊॅपर अहसान किया और लाकर ऑपरेट कराने चल दिये। मैंने महसूस किया कि उस दिन वह कुछ अतिरिक्त मेहरबान और मुलायम थे। लाकर खुलवाने के दौरान उनका मन मेरे ऊॅपर इतना फिसला कि वह अपना आपा खो बैठे और मुझे पीछे से भींच लिया। मैं हतप्रभ रह गयी। दुख और क्रोध से मैंने उन्हें इतने जोर से धक्का दिया कि वह लाकर रूम में गिर पड़ें मैं चिल्लाती और हल्ला मचाती कि मेरे पैरों पर गिर पड़े और ऑसुओं से युक्त माफी मांगने लगे और मुल्ला जी ने उठकर जल्दी से भागकर अपने चैम्बर में शरण ली। मैंने भी बवाल मचाना उचित नहीं समझा। हर हाल में बदनामी तो स्त्री की ही होती है और उसे ही ग़लत समझा जाता है। मैं चैम्बर में पहॅची तो फिर चुपके से हाथ जोड़कर मॉफ करने का अनुरोध करने लगे। इस घटना को घटित होने में सिर्फ़ पांच मिनट से ज़्यादा का समय नहीं लगा। किसी और को आभास भी नहीं हुआ कि इतना गम्भीर कुछ घटित हो चुका है मैं सोचा था कि अपना सारा एकाउन्ट बंद कर दूंगी लाकर सहित और उस बैंक में चली जाऊॅगी जहॉ मेरे पति की पेंशन आती है। परन्तु यह सोचकर रह गयी कि कहीं लोग कुछ अनुमान न लगा लें और एक ही जगह सारा पैसा रखना ठीक भी नहीं है। क्योंकि सारा बैकं स्टाफ पूछेगा ज़रूर, क्या कारण है? इतने पुराने बैंकिंग सम्बन्ध क्यों समाप्त कर रही हैं क्या असुविधा है? आदि-आदि।'

...उसने मनीष को कुछ पूछने से पहले ही मुल्ला प्रकरण फिर चालू कर दिया। 'मुल्ला जी के दो-दो बीबियाँ हैं। एक आजमगढ़ के किसी गांव, तहसील में रहती है इनके पैतृक निवास पर पहली वाली। जिससे इनकी शादी बचपन में हो गई थी, उससे दो बच्चे हैं और दूसरी टीचर हैं। बनारस में। जब ये वहॉ पोस्टेड थें। उससे इश्क हो गया। जब गांव वाली बीबी को पता चला तो सरे आम उसने इनकी चप्पलों से पिटाई की थी। परन्तु क्या हुआ उससे भी शादी कर ली उससे तीन बच्चे हैं इसके सारे बच्चे बीस से पच्चीस साल तक के हैं। अरे! इनको तो चार बीबियों तक रखने की इजाजत है।'

'अरे! कहॉ, निन्नावे प्रतिशत के पास तो एक ही बीबी है। छूट चाहें जितनी हो। एक को निभाना मुश्किल हैं' उसने प्रतिवाद् किया।

'मनीष जी, यही एक प्रतिशत वाले तो घातक हैं, जिसमें यह मुल्ला जी, मतलब चीफ मैंनेजर भी है।'

' तो, आपको तीसरी बनाना चाहता था? उसने परिहास किया।

'मेरी चप्पल है, उसके लिए.' उसने अपने एक पैर की चप्पल थोड़ी खिसकाकर संकेत किया। फिर वह हल्के से मुस्करायी और उठ दीं। 'अब चलना चाहिए, मनीष जी.'

वह बिल भुगतान करने लगा और शालिनी जी बाहर निकल कर खड़ी हो गयी। वह भुगतान करके बाहर आया तो देखा शालिनी जी नदारत थी। उसने दूर तक दृष्टि दौड़ाई तो पाया वह किसी रिक्शे में बैठी जा रही थी और रिक्शा एक फर्लांग का रास्ता पार कर चुका था।

वह एस0पी0 आफिस गया हुआ था। कोई खबर मिलने वाली थी। डी0एस0पी0 मि0 संतोष द्विवेदी जो सूचना अधिकारी थे वहीं प्रेस वाले को खबर देते थें। उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती थी और मनीष का अच्छा परिचय हो गया थां। वह उसके ही शहर के रहने वाले थे। काफी यंग थे अभी-अभी पहली पोस्टिंग पर शाहजहॉनपुर ज्वाइन किया था। अभी तक उनमें पुलिसिया रंग नहीं चढ़ा थां। वह हठ-पूर्वक मनीष को थोड़ी देर और रोक लेते थे और अपने शहर आदि की याद ताजा कर लेते थे।

वह उनके केबिन में इधर-उधर की बातों में मशगूल था कि शालिनी जी ने वहॉ अनुमति लेकर प्रवेश किया। वह किनारे की कुर्सी पर बैठा था, उसकी नजर प्रथम दृष्टयाँ उस पर नहीं पड़ी। जब वह कुर्सी पर विराजमान हो गयी तब उसे देखकर अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ। द्विवेदी जी को आश्चर्य हुआ, यह जानकर कि शालिनी जी उसे भी अच्छी तरह जानती हैं। अभी बातचीत का नया सिलसिला पुनः चालू ही हुआ था कि पुलिस गार्ड द्विवेदी जी को बुलाकर ले गया कि एस0पी0 साहब ने तलब किया है।

वह दोनों अकेले रह गये तो आपस में मुखातिब हुए. उसने शालिनी जी से पूछा-'कैसे?' उसने कहा कोई काम नहीं है। सिर्फ़ जान पहचान हैं मुलाकात करने आ गई हॅू। शालिनी जी फिर वहाँ टिकी नहीं। द्विवेदी जी के आने से पहले ही निकल ली। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि शालिनी जी जा चुकी हैं। उन्होने बताया कि जब भी वह पन्द्रह-बीस दिनों में आती है, एक-आध घंटे से पहले कभी नहीं जाती है। कारण यह है कि उन्हें अपने मकान का उॅपरी पोर्शन पुलिसिया जोर से खाली करवानां है। एक स्कूल टीचर अपनी बीबी बच्चों के साथ रहता है। कहती है कि वह उॅपर से इन्हें झांकता रहता है। उसका चरित्र सही नहीं है। कम्पलेंट लिखकर देगी नहीं। ऐसे ही उसे हड़काइये, जिससे कि वह उनका मकान खाली करके चला जाये। वास्तव यह चाहती है कि वह खाली कर दे तो वह अपना पोर्शन दुगने किराये पर उठा दे। मैंने कहा एक बार दोनों का आमना-सामना करवां देते हैं, उसके लिये भी तैयार नहीं है। बताइये ' किस आधार पर उससे मैं इनका मकान खाली करवा दॅू। कोई शराफत है? असल में मेरा एक मित्र टेलीकाम इंजीनियर है यहीं पर। इनके पति कभी उसके साथ थे। एक दिन उसकों लेकर आ गई, तब से परिचय हो गया। परिचय क्या हुआ? मेरी जान खाये रहती है उससे मकान खाली करवाइये। अब बताइये मैं क्या करूॅ? बिना मतलब गैर कानूनी कार्य क्यों करूॅ? परन्तु इसे तो अपनी धुन है। आ जाती है बन संवर कर लुभाने और अपना उल्लू सीधा करने। चाहें जितनी उपेक्षा करो। बैठी रहती है। हिलती नहीं है, जब तक झूठा आश्वासन न दे दो। अगली बार फिर इसका उलाहना सुनो। अभी किसी पुलिस इंस्पेक्टर, सब-इंस्पेक्टर के चक्कर में पड़ी होती तो खा-पीकर इनकी छुट्टी कर देता। फिर भी पिंड छुड़ाने की गर्ज से मास्टर को बुलाकर कह दिया है। उसने भी आश्वासन दिया है कि वह उनका पोर्शन जल्दी ही छोड़ देगा, जैसे ही उसे कोई नया मिल जायेगा। असल में उसका स्कूल इनके घर से पास पड़ता है, इसलिए वह अनिच्छुक था, छोड़ने को। खैर मेरे कहने से मान गया है, जल्दी ही छोड़ देगा।

मनीष को वह अब बोझ लगने लगी थी। एक अव्यक्त बोझ। बिना उसको चोट पहॅुचाये, वह उसे उतार फेंकने को उद्घृत था। उसकी वजह से उसका काम प्रभावित हो रहा था। फिर भी उसका इन्तजार रहता था। उससे सम्बन्धों के द्वन्द या विसंगतियों से उलझता जा रहा था। मन-मस्तिष्क एक अजीब-सी जकड़न का शिकार था। उसका सही परिप्रेक्ष्य में आकलन नहीं कर पा रहा था। उसकी सहानुभूति उसके प्रति समाप्त प्रायः थी और उसके पास बैठने का आकर्षण नगण्य होता जा रहा था। सब कुछ टहरा-ठहरा-सा था।

वह आयी, पसीने से लथपथ थी। टीका-टीक दुपहरी थी। सूरज सर चढ़ कर बोल रहा था। उसने उससे हाथ मिलाया, तो पता चला कि हथेली तक गीली थी। हाथ फिसलते हुए मिले।

'कभी हाथ्ंा के अलावा और कुछ मिला लिया करो।' उसके मॅुह से वेशाख्ता निकला। एक मुस्कान के साथ।

'और क्या? ...क्या मतलब?' उसकी व्योरियाँ चढ़ी। वह सकपकाया और उसकी मुस्कराहट गायब हो गई.

'मतलब' ...कभी कभार गले भी मिल लिया करो। उसने निरर्थक स्पष्टीकरण दिया।

'गले...दोस्त, प्रेमी और पति से मिला जाता है।' सबसे नहीं।

'मैं तो दोस्त हॅू आपका।'

'नहीं...लड़कियों की दोस्ती सिर्फ़ लड़कियों से ही होती है। लड़के और लड़की में कोई दोस्ती नहीें होती है। यह ग़लत अवधारणा है।'

'तो, मैं क्या हॅू?'

'सिर्फ एक परिचित। एक अच्छे, भले इन्सान, बस...और कुछ भी नहीं।' उस पर मायूसी छा गई और उसने उसे अपने गिरफ्त में ले लिया था। उस पर उसके प्रति उदासीनता और निरपेक्षता पूरी तरह छा गई थी। परन्तु वह तुरन्त उबरा, थोड़ी देर शान्त रहा। उसने गोपाल को ठंडा लाने को बोला। उसके प्रति मुखातिब हुआ और बोला, 'हाँ, तो परिचित जी, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूॅ।' उसकी आवाज व्यंग्यात्मक थी परन्तु मुस्कराहट भरी। वह भी मुस्कराये बिना न रह सकी। उसने अपना उद्देश्य प्रगट किया।

वह अपने साथ एक डायरी लाई थी, जो उसके द्वारा स्वरचित कविताओं से भरी हुई थी। संख्या करीब-करीब तीस चालीस तक होगी और हर कविता तीन-चार पेज से कम नहीं थी। उसने उसे तुरन्त पढ़ने का दबाव बनाया और राय बताने का आदेश दिया। उसने माहौल सहज बनाने के लिए दो चार कविताऐं पढ़ीं और ऐसे ही कह दिया कि अच्छी है, ताकि वह पूरी तरह प्रसन्न हो सके. अब वह पीछे पड़ गई, मनीष जी, 'आप इसे अपने अखबार में भेज दो, छपने के लिये।'

'हमारा दैनिक अखबार है, उसमें साहित्य का कालम नहीं होता है।' उसने टालना चाहा।

'है...रविवार को एक पेज साहित्य का भी होता है। मेरे घर में' राष्ट्र संदेशं'नियमित आता है और मैं रोज पढ़ती हॅू।' वह फंस गया था। उसने उसे प्लेन पेपर दिया और कहा दो-तीन कविताऐं उतार कर और एक अनुरोध पत्र के साथ अपने स्तर से सम्पादक को भेज दो। उसने फिर अपना स्त्री हठ दिखाया। ' आप, अपनी सिफारिश से अपने द्वारा सम्पादक जी को भेजें, तब ज़रूर छपेगी। वह आनाकानी करता रहा परन्तु उसने उसे नहीं छोड़ा। मजबूरन उसे वही करना पड़ा जैसा वह चाहती थी। वह अत्यधिक प्रसन्न हुई और उसने उसे कई बार धन्यवाद् दिया।

शनिवार के दिन उसका मोबाइल बजा तो शालिनी जी थी। बोली ' आप तो हर शनिवार को घर लखनऊ जाते हैं, मुझे भी जाना है। बेटे की समर वेकेसन की छुट्टी हो रही हैं, उसे लाना है। आप कब जायेंगे? आपके साथ जाने में सुविधा रहेगी।

' मैं तो रात की सात-सवा सात की टेªन से जाता हूॅ लखनऊ दस चालीस पर पहॅुचती हैं। इतनी रात में हॉस्टल कब जायेंगी? वह बच्चा दे देंगंे? फिर रात में कब लौटेंगी? उसने आशंकायें व्यक्त कीं।

' मैं सब जानती हूॅ। रात में आपके यहॉ रूक जाऊॅगी और सुबह हॅास्टल से बच्चे को लेकर वापस। ठीक रहेगा ना? इसी बहाने आपकी वाइफ से मुलाकात भी हो जायेगीं। परिचय भी हो जायेगा।

'मगर आजकल मेरी पत्नी अपने बच्चे के साथ अपने मायके गई हुयी है। आप मेरे साथ एक रात अकेले रह लेंगी?' उसने झूठ बोलकर उसे ललकारा था।

'नहीं, ...तो नहीं जाऊॅगी। रविवार को सुबह ही निकलूॅगी और सायं तक वापस शाहजहॉपुर आ जाऊॅगी।'

'फिर, संडे फोन कर दीजियेगा, कब आ रही हैं? मैं आकर रिसीव कर लूॅगा। हॉस्टल चल कर बच्चे को ले लेंगे और घूम फिर कर वापस।'

'इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। यह सब करने के लिये मैं अकेले ही सक्षम हॅू।' उसने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया। उसे सफलता मिली थी उसे चिढ़ाने, झुझलाने और अपने घर से दूर रखने में।

दो तीन हफ्ते वह नहीं आयी थी। वह भी काफी व्यस्त था, अपने कार्य में। घटनाऐं तेजी से घट रही थीं। दिन भर भागदौड़ करता रहता, सायं को आकर रिपोर्ट बनाता फिर नेट द्वारा लखनऊ मुख्यालय को मेल करता। रात के करीब आठ तक बज जाते थे। उसका न आना काफी मुफीद रहा। उसका सम्पादक काफी संतुष्ट था उसके परफारमेंस को लेकर।

अब की बार जब वह आयी तो उसके चेहरे पर असंतोष की गहन पर्ते थीं। उसका गुस्सा फूट पड़ना चाहता था। उसने अबकी बार उससे हाथ भी नहीं मिलाया और सामने कुर्सी खींच कर बैठ गई. कुछ देर वह अपने दोंनों गालों पर हथेली रखकर टेबुल पर हांथ टिकाकर बैठी रही। शायद अपने गुस्से को काबू करने की कोशिश कर रही थी। उसका ध्यान इस ओर कतई नहीं जा रहा था कि इस पोस्चर में स्थितिप्रज्ञ होने से, उसकी जेब काफी गहराई तक दिखाई पड़ रही थी। चाहे-अनचाहे उसकी नजर बेर-बेर उस तरफ टिक जाती थी। उसने गोपाल को एक गिलास ठंडा पानी उसे पिलाने को कहा।

' क्या बात है आप कुछ परेशान हैं? अपनी समस्या, आप हमसे शेयर कर सकती हैं।

'मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी कि आप इस तरह धोखा देंगे।'

' मैंने क्या धोखा दिया?

'क्यांे ं? मेरी एक भी कविता' राष्ट्र संदेश'में नहीं छपी. आपने मुझे मूर्ख्र बनाया है, आपने मेरी कवितायें भेजी भी हैं कि नहीं?'

'अरे! भेजी हैं, मैडम सौ प्रतिशत भेजी है।'

यह देखिये। ' उसने डाक दिखार्इ्र। । ...अब कविता, कहानी या कोई समाचार छापना न छापना, सम्पादक के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसमें मैं क्या कर सकता हॅू, एक अदना-सा कर्मचारी?

' आप चाहते ही नहीं थे, वरना आप की बात कौंन मना कर सकता था? फिर मेरी कविताएँ कितनी अच्छी थीं? उसकी तो आपने भी प्रशंसा की थी। ...कहीं कुछ मिली भगत है। ...

उसने बहुत समझााने की कोशिश की थी, मगर असफल रहा। वह शंकाकुल थी। उसे यह अहसास हो रहा था कि मनीष का कुछ अतिरिक्त स्वार्थ है। उसने उसे सम्पादक का पता दिया और कहा, 'अब की बार आप स्वयं सीधे भेजें। मेरे ऊॅपर आपको भरोसा नहीं है।' वह बेमन से राजी हो गई थी, परन्तु उसका असंतोष बदस्ततूर जारी था। वह एक झटके से उठी और चली गई.

उसके जाते ही कुछेक मिनटों में, एक व्यक्ति ने आने की, मिलने की दरख्वास्त की। करीब चालीस-पैंतालीस का व्यक्ति था।

'वह गई, उसने पूछा।'

'कौंन?'

'वही जो आपके पास काफी देर से बैठी थी।'

'आप कौंन हैं? आप क्यू पंूछ रहे है ं?'

उसने अपना परिचय दिया। वह उसके सामने रहता है। उसके पास हिन्दुस्तान लीवर की एजेंन्सी है और इन्शोरेंस तथा एन0एस0सी0 आदि का एजेंट भी है। उसके भाई यहॉ पर बैंक में चीफ मैनेजर थे, आजकल वह मुम्बई में हैं पोस्टेड।

'ओह! तो आप हैं जो उसका पीछा करते रहते हैं और उसे परेशान करते रहते हैं।'

'अरे! आप भी उसके चक्कर में आ गये। बड़ी चालू चीज है।'

'क्या मतलब है आपका? क्या चलती है? शर्म आनी चाहिये। एक भले घर की महिला पर इस तरह का इल्जाम लगाते हो।'

'नहीं-मेरा मतलब ये नहीं था। आप कुछ ग़लत समझ गये? ये लोगों से परिचय बढ़ाती है और अपना काम निकलवाकर उससे बेरूखी से मॅुह मोड़ लेती है, जैसे उसे जानती ही न हो। ज़्यादा कुछ बोलो तो इल्जाम लगा देती है।' एक जवान विधवा पर बुरी नजर रखते हैं और आपके ग़लत ईरादे हैं। '

'अक्सर ऐसे लोग सोचते एवं करते होंगे, तभी तो।'

' ऐसा नहीं है। अब मुझे ही लो। इसके पति के डेथ के बाद, इसने कितनी मदद मांगी और मैंने की। इन्शुरेंस क्लेम, बैंक डिपाजिट, पोस्ट आफिस के क्लेम मैंने इसके साथ जाकर और अकेले में, कई सेटल करवाये। इसके पति कें आफिस में जाकर इसके टरमिनल बेनफिट रिलीज करवाएँ इसकी पेंशन रिलीज करवाई और तो और अनुकंपा के आधार पर इसकी नियुक्ति के लिये कितनी कोशिश की। उसके लिये कोर्ट-कचहरी जाकर प्रतिवेदन बनवाया और सम्मिट करवायाँ। इसके दौरान इसकी मुलाकात डीलिंग आफिसर से हुईं जो नियुक्ति आदि देखता है, तो मुझे काटकर उससे चिपक गई और मुझसे बोलना-चालना छोड़ दिया। जब मैंने उसके इस व्यवहार की आलोचना की, तो इसने मेरे बीबी-बच्चों से शिकायत करी कि मैं उसे परेशान करता हूॅं उसे रास्ते-विरस्ते छेड़ता हॅू और मेरी उस पर बुरी नजर है। जब तक इसके कार्य नहीं हुए थेे, भाई साहब, भाई साहब कह कर घर आ धमकती थी और मुझे लेकर ही किसी काम के लिए निकलती थी। हालांकि मेरे घर वालों कई बार दबे स्वरों में इतना सब फंसने के लिए मना किया था। परन्तु सहानुभूति के नाते मुझे ये सब उचित लगा था।

'चलिए मानवता के नाते, आपने जो मदद कर दी अच्छी बात है।' परन्तु अब जब उसे आपकी मदद नहीं चाहिए तो क्यों जबरदस्ती पीछे पड़े हो? '

'जब कोई किसी की इतनी मदद करता है, तो कम से कम उसका उपकार तो मानना चाहिए ना कि उस पर इल्जाम लगाकर उसे बदनाम किया जाये। अब ऐसे व्यवहार करती है जैसे मुझे जानती ही नहीं है और ऐसे छटकती है जैसे कि मैं कोई गुंडा-मवाली हूॅ। मैं एक बार उससे मिलकर पूछना चाहता हूॅ कि उसने ऐसा क्यों किया।' वह चुप लगा गया। वह उसे सन्तोष के दो शब्द भी न कह सका। सिर्फ़ यह कहकर रह गया, 'अच्छा ऐसा क्या?' मनीष विचारमान हो गया कि उस व्यक्ति की बात में कितनी सत्यता है?

उस व्यक्ति को निकले अभी कुछेक मिनट ही गुजरें होगे कि मैडम शालिनी कक्कड़ फिर हाजिर हो गईं। इस बार उनका चेहरा कुछ बुझा-बुझा-सा लग रहा था और उत्सुकता की लकींरें उनके मस्तिष्क में खिंची हुई थीं। उसने अबकी बार हाथ मिलाया और गोपाल को खुद पानी के लिये बोला। वह आश्चर्यचकित था, पहली बार ऐसा हुआ था कि वह एक दिन में दो बार आयी थी। अन्यथा, ज़्यादा ज़रूरत हुई तो मोबाइल पर बात कर लेती थी दिन से लेकर रात तक कभी भी।

'क्या कह रहा था, वह बंदा?'

'कौंन! उसने अनभिग्नता प्रगट की।'

'अच्छा, ज़्यादा बनो मत।' मैं सब देख रही थी, मैं कहीं गई नहीं थी, सामने सर्राफ की दुकान में बैठी थी। करीब एक घंटा से ज़्यादा बैठा था, तुम्हारे पास। मैंने उसे आपके पास आतें देखा था, तभी मैं वापस घर जाने से रूक गयी थी। यह वही बंदा है पड़ोसी, जो अक्सर मेरा पीछा करता है और किसी अकेले स्थान पर मुझे घेरने की कोशिश करता है। उसने एक सांस में सारा खाका खींच दिया था।

'कुछ नहीं। सिर्फ़ लकड़मंडी में कोई घटना, लड़ाई हुई थी, उसके विषय में सूचना दे रहा था।' उसने टालने की गर्ज से बहाना बनाया। परन्तु उसे मेरा बहाना हजम नहीं हो रहा था वह हर बार पूंछती रही और वह हर बार टालता रहा मना करता रहा। उसने प्यार-मोहब्बत, गुस्से में रोष में, अनुनय विनय में कई तरह से कोशिशें की परन्तु मनीष बड़ी चतुराई से उसे टालता जा रहा था। उसे उसके विषय में क्या कहा, जानने की आतुरता था, परन्तु वह अनभिग्नता प्रगट करता रहा कि उसने उसके विषय में कुछ कहा है। परन्तु उसे पक्का यकीन था कि वह बंदा ज़रूर उसके विषय में, सब कुछ बता गया होगा और ये पत्रकार का बच्चा उससे दुरांव-छिपांव कर रहा हैं इसी तकरार में आधा-एक घंटा बीत गये। वह असफल रही थी, मनीष से कुछ कबुलवाने में। वह खीजती झींकती चली गई और मन ही मन उसे कोसती-धिक्कारती। उसे यह बड़ा अजीब लग रहा था कि मनीष जी से उसकी इतनी अच्छी पुरानी जानपहचान के विपरीत उसके विरोधी को जो उन्हें जानता भी नहीं है, ज़्यादा तवोज्जोह मिल रही है।

इस घटना के गुजरे बामुश्किल एक हफ्ता भी नहींे गुजरा था कि सम्पादक जी का फोन आ गया। उसे तुरन्त लखनऊ बुलाया गया। उसने एक सामान्य काल समझी ओर प्रेस में अपनी उपस्थिति दी। परन्तु वहॉ माजरा कुछ दूसरा ही था। सम्पादक जी काफी गम्भीर और चिंतित थे। मनीष जोशी के नाम लिखित शिकायत आयी थी शाहजहॉपुर से। वह पत्रकारिता का काम छोड़कर किसी महिला के साथ घूम-फिर रहे हैं। उनका सारा समय उस खूबसूरत महिला के सान्निध्य में गुजर रहा है। वह पत्रकारिता की जिम्मेदारियों से विरत हैं और किसी घटना और खबर पर मौंजूद नहीं होते हैं। सिर्फ़ सुनी-सुनायी जानकारियों का प्रेषण कर देते हैं। कृपया उचित कार्यवाही की जॉय और कोई सुयोग्य प्रतिनिधि की नियुक्ति की जाय, जो घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देख सके और सार्थक तथ्यपूर्ण रिपोर्टिग कर सके. उसमें कई सर्राफा व्यापारियों के हस्ताक्षर थे। उसे खुद यह शिकायत पत्र पढ़ाया गया। उसने अपनी सफाई में काफी कुछ कहा, जिसे नहीं सुना गया। उसकी कोई दलील काम नहीं आयी।

सम्पादक ने उसे शाहजहॉपुर से हटाने का फरमान सुना दिया और वहॉ पर किसी नये नवयुवक की नियुक्ति कर दी, जिसने हाल ही में पत्रकारिता की डिग्री हासिल की थी। उस लड़के को उसे गाइड करने का आदेश भी दे दिया। मनीष की नियुक्ति यहीं पर, फिर उपसम्पादक का दायित्व सम्हालने को कह दिया, जिस सीट पर वह शाहजहॉपुर जाने से पहले था। उससे कहा गया कि वह सम्पादिकी अच्छी कर लेता है, पत्रकारिता से बेहतर।

एक बात उसे रह-रह कर खटक रही थी कि उसकी शिकायत कोई क्यों और कैसे कर सकता है? पत्र का मजमून और उसकी लिखावट उसके जेंहन में उतर रही थी। उसे ऐसा लगा कि ये लिखावट उसकी पहचानी की हैं परन्तु दिमाग में लिखावट की पहचान स्ट्राइक नहीं कर पा रही थी। अचानक वह उछल पड़ा अरे ये लिखावट तो मैडम शालिनी कक्कड़ की है। सारे हस्ताक्षर एक ही राइटिंग के हैं और मैडम की डायरी के पृष्ठ, उनकी कविताऐं और उनकी लिखावट सब एक जैसे ही है। वह सुनिश्चित हो गया था कि ये काम मैडम का ही है। उसे यह बड़ा अजीब लग रहा था कि कोई उसकी शिकायत करने के चक्कर में खुद को बदनामी में शामिल कर ले। ऐसा कैसे कोई कर सकता है? परन्तु सारे हस्ताक्षर उन्होने खुद बनाये है तो उन्हीं तक सीमित है? फिर भी उन्होने अपने को जिम्मेदार तो ठहरा ही दिया। उसने सोचा मैडम ने उसकी बुराई की परन्तु अनजाने में उसकी भलाई हो गई. वह अपने गृह नगर आ गया था बिना किसी प्रयास के. वह अपने बीबी-बच्चों के पास फिर से रह पायेगा। उसका जी चाहा कि शालिनी जी और सम्पादक जी को शुक्रिया अदा करे। परन्तु वह ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि दिल में एक कसक बहुत गहरें तक धंसी थी कि उसकी पोस्टिंग शिकायत और घृणित इल्जाम के चलते की गई. यह कमी उसे सालती जा रही थी।