वाइफ़ स्वैपी / चित्रा मुद्गल
सामने बैठे मेजर अहलूवालिया सुधीश के गोल्फ की तारीफ कर रहे थे, “अब भी खेलता है...”
“फुरसत गोल्फ के मैदान में ही गुजरती है, एक पाँव शिमला में ही रहता है,” वह प्रशंसा को पचा नहीं पाई, अनजाने रूखी हो आई।
मेजर ने खिन्नता को थपकाया, “भई पुराना इश्क है, पुरानी शराब सा...”
जवाब उसके होंठ पर बेचैन हुआ मगर एक लंबे निश्वास में खामोश हो आया। बहुत कुछ ऐसा है जो भीतर उबलता रहता है मगर सुधीश से सामना करने से कतराता है। जरूरत भी महसूस नहीं होती...
“भीतर... बैठक में चलकर बैठें?” उसने आग्रह किया। मेजर की नजर घाटियों में उलझी हुई थी। घाटियों में संवला आई सांझ सांकल खटका रही थी और सघन चीड़ों के बाजुओं से एकाएक आजाद हुई हवा में बर्फीला कटाव घुल आया था, जो रह-रहकर सिहरा रहा था!
“चलिए वरना आपके कुल्फी बनने का अंदेशा है साहब! मगर एक शर्त पर!” मेजर अहलूवालिया बेतकल्लुफ हुए। “शर्त... कैसी ?” वह हैरत से सिमटी।
“सुधीश की अनुपस्थिति के बावजूद मैं ड्रिंक लूंगा... केवल चाय पर नहीं टलने वाला...”
भीतर बैठते ही उसने सुखराम से हीटर लगा देने के लिए कहा और अपने लिए शॉल भी मंगवाई।
“क्या बनवाऊँ ?” वह मेजर साहब से मुखातिब हुई। उसे अच्छी नहीं लगती सुधीश की गैर हाजिरी में उसके दोस्तों की आवभगत !
“क्या है ?”
“मैं नहीं बता पाऊंगी, बाबूराम के जिम्मे है सुधीश का बार !” उसने बाबूराम को पुकारा।
“रम में कॉन्टेसा है ?” उन्होंने बाबूराम से पूछा।
“है न साब।”
“तो मेरे लिए एक लार्ज पेग कॉन्टेसा का, गुनगुने पानी में... और आप ?”
“मैं सॉफ़्ट ड्रिंक लूंगी...”
“ठंड में सॉफ़्ट ड्रिंक, मजाक कर रही हैं? सॉफ़्ट ड्रिंक से काम नहीं चलेगा। कॉन्टेसा लीजिए... कॉन्टेसा का पंख की छुअन-सा चढ़ता सुरूर, बात ही कुछ और है उसकी।”
“रम कड़वी लगती है...”
“सुधीश के साथ ली होगी”
“चलिए, आपके साथ लेकर देख लेते हैं !” अंदाज भाया उसे।
उन्होंने ही पास खड़े बाबूराम को समझाया, “मेमसाब के लिए चिल्ड सोडे में एक पेग कॉन्टेसा !”
“शादी से पहले सुधीश ने बताया था कि उसका ब्याह एक खिलाड़ी सुंदरी से हो रहा है, जो बास्केटबॉल चैंपियन है। एम आई राइट ?”
“जी... कभी थी !” उतरी मुस्कान धकियाती हुई वह उनकी स्मृति पर विस्मित हुई। 19 साल पुरानी बात ! उसे खुद ही अब याद नहीं कि वह कभी खेला करती थी और बहुत अच्छा खेला करती थी। सोनू, मोनू जब भी अपनी जीत के प्रशंसा पत्र और ट्रॉफी उसके हाथों में लाकर थमाते हैं तो कही किसी फाइल में दबे पड़े उसके अपने प्रमाणपत्र फड़फड़ाने लगते हैं। जी करता है कि दौड़कर उन्हें निकाल लाए और धूल झाड़ सोनू, मोनू को दिखाए, उन्हें चमत्कृत कर दे।
... ‘चिल्ड’ सोडे की चुनचुनाहट में रम के गहरे घूँट का मौसम ही बदल गया ! समझ नहीं पाई। सोडे की पहल है या मेजर साहब के संग-साथ का मनुहार !
“आप नहीं खेलते ?” बात कहीं से तो शुरू करनी थी।
“खेलता हूं...”
“क्या ? क्रिकेट, हॉकी, टेनिस, गोल्फ... ?”
प्रत्युत्तर में बैठक की छत से एक जोरदार ठहाका टंग गया, पत्थर की दीवारों में चकरी-सा भँवर लेता।
वह भौंचक-सी मेजर अहलूवालिया का चेहरा देखती रह गई। क्या कुछ ऐसा-वैसा सवाल कर दिया उसने ! “मैंने कुछ...” अटपटाहट झेली न गई उससे।
“आप भी... भला बताइए, इस उम्र में अब क्रिकेट, हॉकी... ? भई, सच तो यह है कि बची खुची जिंदगी को अलमस्ती से जीना चाहते हैं, उन्मुक्त परिंदों-से बिचरते हुए... जीवन रस का घूँट-घूँट पीते हुए... और इसके लिए हम दोस्त अकसर नए-नए खेल ईजाद किया करते हैं। पिछले दिनों हमारे विशेष क्लब में जिस खेल की तरंगें तरंगित हो रही हैं उसे कहते हैं...” मेजर अहलूवालिया ने ठिठककर उसकी आंखों में बहुर आए कोतूहल के चरम को टटोला, “जरा बूझिए तो ?”
कंधे उचकाकर उसने विवशता जाहिर की।
“उसे कहते हैं ‘वाइफ स्वैपी’ यानी कि पत्नियों की अदला बदली ! सुना है ?”
“नहीं तो...” विचित्र लगा खेल का नाम !
अपने गिलास का लंबा घूँट भर उन्होंने उसके गिलास पर नजर डाली और उसे ज्यों का त्यों पाकर खिन्न हुए, “ठंड में इस कदर ठंडापन बरदाश्त करवाना क्या खूबसूरत सोहबत के प्रति ज्यादती नहीं है हिमानी ?”
“न, न... ऐसी बात नहीं, सुनने में डूबी हुई हूं,” गिलास को होठों से लगा उनके उलाहने के अंतिम शब्द से उपजी छुअन को भी जबरन घुटका उसने। नाम के कितने चेहरे होते हैं। किसी और के स्वर की हथेली पर ठुड्डी टिका वे कितने अनछुए अर्थों के पृष्ठ खोल बैठते हैं।
“हाँ तो मैं ‘वाइफ स्वैपी’ के बारे में बता रहा था। होता यह है कि महीने के आखिरी शनिवार की शाम हमारे क्लब की प्रतीक्षित ड्रिंक, डांस, डिनर पार्टी आयोजित होती है। देर रात तक जश्न ए हंगामा चलता रहता है साहब ! अंत में एक बड़े-से बियर जग में चिल्ड बियर की बोतलें उंडेली जाती हैं। उफनती झाग में सभी सदस्य हौले से बियर जग में गिरा देते हैं। फिर हममें से कोई एक सदस्य छड़ी के सहारे बियर जग में पड़ी चाभियों को उलट-पलट कर मिक्स करता है। फिर बारी आती है चाभी उठाने की। कायदा यह है, जो सबसे पहले चाभी डालेगा, वही सबसे पहले चाभी उठाएगा...
“... सांस रोके, धड़कते दिलों से हम सभी चाभी उठाने की अपनी बारी का बेसब्री से इंतजार करते हैं, क्योंकि जिस भी गाड़ी की चाभी हमारे हाथ लगेगी उस गाड़ी के मालिक की पत्नी यानी कि उनकी मलिका-ए-आलम हमारी उस खुशनुमा रात की लॉटरी होंगी...
“... सभी सदस्य चाभियाँ उठा लेते हैं तो मत पूछो हिमानी ! खुशी की चीखों से सारा हॉल गूंज उठता है, मानो उनके हाथ अचानक कोई गड़ा खजाना लग गया हो। जाम बनते हैं, चियर्स फॉर वाइफ स्वैपी के नाम पर टकराए जाते हैं। जाम खत्म होते ही चाभी वाली गाड़ी की मालकिन लजाती शरमाती आपकी बगल में आकर खड़ी हो जाती है और...” उसने टोका, “पत्नियाँ आपत्ति नहीं करतीं ? भारतीय संस्कार आड़े नहीं आते ?”
“नॉट एटॉल... दे एन्जवाय ईक्वली ! हाँ... भारतीय संस्कार आड़े आते हैं तब-जब...” सहसा मेजर अहलूवालिया विचारमग्न-से हुए। फिर बोले, “पहली बार का वाकया सुनो। खासा दिलचस्प है। दरअसल असली खेल वही है, जो अकसर हमारे बीच दोहराया जाता है...
“हुआ यों कि चाभियाँ मिलाई गईं और, मेरे हिस्से में आई मिस्टर कुमार की गाड़ी की चाभी यानी कि बला के सांचे में ढली मिसेज कुमार ! मेरी पत्नी के हिस्से में आए मिस्टर सिंह यानी कि एक उद्योगपति कवि ! खैर, वो आलम ही कुछ और था, हम अलमस्त धुनकी में थे और मिसेज कुमार को अपने हिस्से पाने की खुशी में अंधे ! ध्यान ही नहीं दिया कि हमारी मेमसाब हैं कहाँ। सो हम तो अपनी किस्मत को सलाम ठोंकते गाड़ी ले उड़े। ऐंड आइ रियली टेल यू हिमानी...” मेजर साहब अपनी सेंध लगाती अर्थपूर्ण मुस्कान को जबरन बंधक बनाते हुए आत्मविस्मृत-से ठिठके, जैसे उन मादक क्षणों में वे एक बार फिर पहुँच गए हों, “... वह एक खूबसूरत रात थी, बेहद खूबसूरत, एक साथ हजारों सितारों की रून-झुन में डूबी, शी वाज वंडरफुल... वेरी कोऑपरेटिव...
“...हां तो साहब, दूसरा दिन इतवार था। जाहिर है, नींद का कोटा चढ़ती दोपहर तक पूरा होना था। मगर स्वयं रात भर जगने के बावजूद मेमसाब की आंखों में नींद कहाँ। दस नहीं बजने दिए और उठाकर बैठा दिया। लाड़ और मनुहारों की तड़ातड़ बौछार के बीच चाय पेश की गई। चाय खत्म होते-न-होते कटाक्षों के तीर छूटने लगे – ‘क्यों, कैसी कटी रात ? कैसा रहा गरमागरम साथ ? क्या-क्या किया ! बोलो न ?’ जल्दी उठाने का मकसद समझ में आ गया। बड़ा नाजुक मसला था। चेहरे पर लापरवाही का भाव ओढ़ मैंने बीवी को बाजुओं में समेट लिया, ‘छोड़ो भी, रात गई, बात गई। तुम तो मैडम अपने नाजुक हाथों से एक प्याला गरम चाय पिलाओ... इस राधेश्याम ससुरे को चाय बनाने तक की तमीज नहीं।”
“ऊं हू... इतनी बुरी भी चाय नहीं बनाता राधेश्याम जो पी न जा सके,” बीवी जी सीने में चेहरा रगड़ते हुए फुन्नाई, “बात टाल रहे हो तुम। बताते क्यों नहीं ?”
“क्यों अच्छी-भली सुबह का जायका खराब कर रही हो ?” मिसेज कुमार की पूनी-सी मुलायम देह की रेशमी रपटन का स्मरण करते हुए मैंने पैंतरा बदला, “सुनो डियर, आइंदा से हम ऐसी किसी बेशर्म पार्टी में शामिल नहीं होंगे, अपनी तो वही पुरानी ‘ब्रिज’ मंडली भली।”
“मन-मन भावे, मूंड़ी हलावै !” बीवी जी ने चोट खाई नागिन-सी फुंकार छोड़ी, “मिसेज कुमार की गाड़ी की चाभी हाथ लगते ही तुम खुशी से यूँ उछले थे मानो अंधे के हाथ बटेर लग गई हो।”
“झूठ... यह सच नहीं है !”
“यही सच है !”
“फिजूल बात का बतंगड़ बना रही हो तुम ! धुनकी में थे, सभी खुशी से उछल रहे थे, हम भी उछल लिए होंगे...”
“सच कहूँ अनु... कोई औरत थी जो पल्ले पड़ी ! पाइरिया है उसे। मुँह खोलती है कि ढक्कन खुल जाता है...”
“छोड़ो झांसे, मुझे बहलाने से रहे तुम,” अविश्वास से पत्नी ने सिर झटका, “मेरी निगाह तो तुम्हीं पर गड़ी हुई थी। भूलकर भी तुमने मेरी ओर नहीं देखा... कैसी बेशर्मी से मिसेज कुमार की कमर में हाथ डाल चल दिए थे तुम !”
अपने पैंतरे को कुछ और तराशने की कोशिश की मैंने। पत्नी के रेशमी बालों को उंगलियों से उलझाते हुए बोला, “प्लीज अनु, समझने की कोशिश करो, कभी झूठ बोला है तुमसे जो अब बोलूंगा ? मानता हूँ, सभी कहते हैं, कि मिसेज कुमार बला की खूबसूरत हैं। होंगी ! मुझे नहीं लगतीं - नहीं लगतीं। लाख भौंहे नुचवा वे अपने नख-शिख तीखे कर लें, मगर चेहरे पर तुम-सा सलोनापन कहाँ से लाएंगी...”
“वो तो तुम सही कह रहे। वाकई अचरज होता है यह देखकर कि उनके क्लब में दाखिल होते ही सारे मर्द बीवियों को छोड़ उनके इर्दगिर्द मक्खियों-से भिनकने लगते हैं। आखिर क्या है उस घमंडिन में, सिवा एक गोरी चमड़ी के !”
“बिलकुल सही,” चैन की सांस ली मैंने।
“तो... कुछ नहीं किया !”
फिर वही सवाल ! मन किया – उसे परे धकेल धाड़ से कमरे से बाहर निकल जाऊँ। मगर यह सोचकर गम खा गया कि धैर्य छोड़ना विषबीज की जड़ें सींचना होता। बोला, “कुछ नहीं।”
“फिर रात भर करते क्या रहे...”
“बातें। वह अपने विद्यार्थी जीवन के रस भरे किस्से सुनाती रही और मैं सुनाता रहा अपनी-तुम्हारी मोहब्बत की छुपा-छुपौवल।”
“हाथ-वाथ भी नहीं पकड़ा... किस-विस ?”
“इतना हिम्मती मैं नहीं हूँ कि तुम्हारे अलावा किसी और को छू भी सकूं...”
“फिर झूठ...”
“नहीं सच, एकदम सच।”
“खाओ मेरी कसम !”
“तुम्हारी कसम।”
“ऊं... ऐसे नहीं, मेरे सिर पर हाथ रखकर कहो।”
“तुम्हारी कसम,” मैंने उसके सिर पर हाथ रख दिया। उसके चेहरे पर आश्वस्ति कौंधी।
अब मैंने उसे कुरेदा, “हमारा हाले-दिल तो पूछ लिया जनाब आपने, कुछ अपने बारे में भी बताइए... कवि के साथ कैसी मस्ती मारी.. ?”
“माइगॉड !” पत्नी ने खिन्नी के धोखे में मुंह आई निबौरी-सा कड़वा मुँह बनाया, “वो आदमी है कि पाजामा ! जानते हो कहाँ ले गया मुझे ? मौर्या शेरटन ! ऐसी सहमी हुई थी कि उसकी गाड़ी में पाँव देते ही सीधा हनुमान चालीसा का जाप शुरु कर दिया। क्षमा मांगी। रावण हर के नहीं ले जा रहा। सीता माता स्वेच्छा से उनके संग जा रही हैं। स्वेच्छा से न जा रही होतीं तो उसकी गाड़ी में चढ़ने से मना न कर देतीं ? कैसे मना करतीं। पति इच्छा को जो अपनी इच्छा बना लिया था। सतीत्व का धर्म, उनका धर्म। सो मन ही मन प्रभु को पुकारा। ऐसा चक्कर चलाओ प्रभु कि पति की इच्छा भी पूरी हो जाए और सतीत्व का सत् भी न टूटे। प्रभु ने फौरन मंत्र दिया। कवि की कविताओं की प्रशंसा शुरू कर दो। सब भूल चित-पट हो जाएगा। वही किया। हनुमान चालीसा पूरा करते ही कवि की कविताओं की प्रशंसा शुरू कर दी। विभोर कवि महाशय आनन फानन आत्म इतिहास के गलियारों में प्रविष्ट हो गए, पहली कविता कैसे, कब लिखी गई और कब, कहाँ पढ़ी, छपी, सराही गई, ब्यौरेवार बताने लगे। बस फिर क्या था, द्रौपदी की चीर-सी असमाप्त कविताएँ सुबह पाँच बजे तक सस्वर पाठ होती रहीं - रात बीत गई...”
“घर छोड़ने आए तो अश्रु विह्वल थे। बोले, जीवन संगिनी को तुम-सी चुटकी भर भी रसज्ञता मिली होती तो मेरा कवि कर्म सार्थक हो गया होता...”
मैंने ताली बजाई, “वाह भाई वाह ! कवि के साथ जुगलबंदी में तुम भी किस्से-कहानी के फंदे बुनने लगीं ? कोई विश्वास करेगा ! वह सा..ला घाघ है, घाघ। औरत देखते ही लार टपकने लगती है उसकी। बड़े दिनों से मौके की ताक में था। कब खेल शुरू हो और हरामजादे को मेरी गाड़ी की चाभी हाथ लगे...”
“आई स्वॅर... कुछ नहीं किया उन्होंने। कुछ करना भी चाहते तो मैं इतनी गिरी हुई नहीं हूँ कि उन्हें करने देती...”
“झूठ... गाड़ी की चाभी हाथ लगते ही पट्ठे ने लपक कर तुम्हारा हाथ नहीं चूम लिया था ?”
“हाँ... बस उतना भर ही...”
“मेरी आँखों में देखकर कहो, चुंबन शुंबन भी नहीं लिया उसने और...”
“और क्या ?”
“झूले नहीं डाले... पींगे-शींगे...”
“छि: कैसी बेहूदी बातें कर रहे हो... तुम्हारे अलावा किसी और का स्पर्श भी बरदाश्त नहीं मुझे।”
“यानी... कुछ नहीं हुआ...”
“कुछ नहीं...”
“रखो मेरे सिर पर हाथ और खाओ कसम अपने सुहाग की कि तुमने उस गैंडे को कुछ नहीं...”
“सुहाग की कसम !” बेहिचक पत्नी ने हाथ मेरे सिर पर रख दिया... !”
वाक्य पूरा होते ही अचानक बैठक की छत से एक और छतफोड़ ठहाका टंग गया। बड़ी देर तक झूलते झूमर-सा झूलता रहा... झूलता रहा...
फिर अस्फुट-से स्वर में शेष हंसी को कंठ में भींचते हुए से बोले, “सिर पर हाथ तो रखवा लिया था मैंने हिमानी ! पर मन ही मन चौंकन्ना हुआ। कहीं उसने भी सिर पर हाथ रखकर कसम वैसे ही तो नहीं खाई जैसे मैंने खाई थी ? हाथ तो रख दिया था सिर पर, लेकिन ईश्वर से क्षमा मांगते हुए, कि यह जो कसम मैं खा रहा हूँ, उसकी सुख-शांति के लिए खा रहा हूँ... कि अगर मैंने उससे सचाई कबूल दी तो सारी आधुनिकता के बावजूद हमारी जिंदगी निश्चित ही नरक हो उठेगी...”
...बाबूराम को पुकारकर मेजर ने अपने लिए एक और लार्ज पेग बना लाने के लिए कहा। फिर उसकी ओर झुककर उससे पूछा “हिमानी आप... ?”
इनकार में उसने सिर हिला दिया, “यही ज्यादा लग रहा है !”
उन्होंने कुर्सी के हत्थे से टिकी उसकी निश्चेष्ट औंधी हथेली पर अपनी हथेली रख दी, “देखो हिमानी, साथ दिया है तो साथ देना होगा... अच्छे खिलाड़ी बीच मँझधार में से चप्पू नहीं फेंकते...”
... उनकी हथेली की गिरफ़्त में उसकी हथेली चीड़ के डोरिहा पत्तों-सी थरथराई !