वाग्देवी का तेज / अन्तरा करवड़े

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सुनहरी खिली धूप में श्यामा अपने कथित द्विवतीय काव्य संग्रह के लिये रूपरेखा बनाती हुई बैठी थी। तभी ड़ाकिया कुछ पत्र लेकर आया। उनमें से बाकी को छाँटकर अलग रखा¸ एक पर उसकी दृष्टि जड़ हो गई । ये क्या? उसका कलेजा धक्‌ से रह गया। उस सफेद पर सुनहरे रंग से छापे गये निमंत्रण पत्र के उन वाक्यों को वह एक साँस में पढ़ गई¸


"कवियत्री मंजूश्री के प्रथम काव्य संग्रह "अन्तर्मन" के विमोचन पर आपकी उपस्थिती प्रार्थनीय है।"


इन पंक्तियों का एक एक शब्द श्यामा को बींधता हुआ चला गया। यह मंजूश्री¸ यानी श्यामा के पिता कविवर्य कृष्णदास की सुशिष्या। अत्यंत सुंदर काव्यपाठ किया करती थी और समाचार पत्र के समीक्षकों द्‌वारा इसे समय समय पर अगली पीढ़ी की सशक्त दावेदार के रूप में भी निरूपित किया गया था। हर बार श्यामा इसके काव्य को¸ व्यवहार को स्वयं की प्रतिभा के समक्ष बौना साबित करने पर तुली रहती।


दोनों ने कृष्णदास जी के शिष्यत्व में ही साहित्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। श्यामा जहाँ अंकों में विजयी हुई वहीं मंजूश्री में थी नैसर्गिक काव्य प्रतिभा जिसका लोहा आज सभी मान रहे थे।


"इसका मतलब¸ पिताजी को पहले से ही मालूम था कि मंजूश्री का काव्य संग्रह भी उसी प्रकाशक के पास है जिसके पास मैंने दो महीने पहले मेरी काव्य पांडुलिपी भिजवाई थी!" श्यामा मन ही मन सोचने लगी। "तो क्या ये जानते हुए भी उन्होने मंजूश्री की कविता पुस्तक पहले छप जाने दी?" श्यामा रूआँसी हो उठी। किशोरवय से उसने जिस मंजूश्री को अपनी प्रतिद्वंद्वी मान रखा था वह आज उसके ही पिता की मदद से उसे नीचा दिखाने पर तुली हुई है।


वह तमककर पिता के समक्ष उपस्थित हुई। कृष्णदासजी यानी माता सरस्वती के परम्‌ भक्त। अपने निवास पर उन्होने संगमरमर की अत्यंत मनोज्ञ ऐसी माँ की प्रतिमा स्थापित की थी। उनका नियम था कि अपनी रचनाओं को पहले माँ को अर्पित करते और फिर वे किसी भी भाग्यशाली प्रकाशक के झोले में गिरती। इस उपासना के प्रखर तेज के फलस्वरूप आपकी रचनाएँ विश्वविख्यात और चिरनावीन्य लिये पाठकों के हृदय में अपना स्थान बना लेती थी। इस संपूर्ण सफलता का श्रेय वे माँ के तेज और कृपा को ही देते।


अपनी पुत्री श्यामा और शिष्या मंजूश्री के बीच एक अनकही सी अस्वस्थ प्रतियोगिता है इसका अंदाजा उन्हें काफी पहले हो गया था। परंतु वे इसे उम्र का तकाजा मान मौन बने रहे। मंजूश्री एक उत्कृष्ट कवयित्री के रूप में उभरने लगी थी और उनके शिष्यत्व को सार्थक करती हुई अपनी प्रत्येक उपलब्धी का श्रेय गुरू को देती हुई क्रमश: प्रगति कर रही थी। वहीं श्यामा में प्रतिभा कम और जुगाड़ की प्रवृत्ति ज्यादा थी। आज भी उसे सभी उसकी कविताओं के कारण कम और कृष्णदासजी की सुपुत्री के रूप में अधिक जानते थे।


अपनी प्रतिभा को प्रसारित करने के उद्‌देश से ही श्यामा ने दिन रात मेहनत करके¸ पिता के उपदेशों की अवहेलना करते हुए एक आधुनिक शैली का काव्य सृजित किया था। उनके लाख मना करने के बावजूद काफी मान मनौव्वल से उनका सिफारिशी पत्र एक बड़े प्रकाशक के लिये लिखवा दिया था। दो महीने बीत गये थे इस बात को और कोई उत्तर नहीं आया था। प्रकाशन योग्य न होने के बावजूद कृष्णदासजी के पत्र के उत्तर में स्वयं प्रकाशन कंपनी के मालिक का फोन उन्हें आया था जिसमें उन्होने याचनाभरे स्वर में इसके प्रकाशन में असमर्थता व्यक्त की थी। इधर श्यामा इसी प्रतीक्षा में थी कि कब उसका संग्रह प्रकाशित होगा और वह मंजूश्री से पहले प्रकाशित हो पाने के सुख का अनुभव करेगी।


"ये क्या है पिताजी?" श्यामा लगभग चीख ही पड़ी थी। "क्या आपको भी खबर नहीं थी इस आयोजन की?" श्यामा की माँ यह आवाज सुनकर पूजाघर में दौड़ी आई और आश्चर्यचकित हो पिता पुत्री का संवाद सुनती रही।


"देखो श्यामा! तुम अन्यथा न लो। इस प्रकाशक ने स्वयं ही मंजूश्री को अपना प्रस्ताव भेजा था। उसने स्वयं बड़ी मेहनत की है इस संग्रह के लिये।" कृष्णदासजी कातर स्वर में बोले।


"नहीं पिताजी। मैं कुछ नहीं जानती। उससे पहले मेरा संग्रह प्रकाशित न हो इसलिये आपपर उसने दबाव ड़ाला होगा और आप अपनी बेटी का हित छोड़ उसी के हित में चल रहे है। यहाँ तक कि मुझे तो आज यह निमंत्रण पत्र देखकर मालूम पड़ रहा है।" श्यामा असंयत सी बोलती जा रही थी।


"मैं कुछ नहीं जानती। यदि मंजूश्री से पहले मेरा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ तो मैं आपको कभी क्षमा नहीं करूंगी।"


"श्यामा!" कृष्णदासजी और उनकी पत्नी का युगल स्वर गूँजा। लेकिन तब तक श्यामा वहाँ से जा चुकी थी।


"हे माता! कैसा धर्म संकट है।" कविवर्य ने माँ के समक्ष हाथ जोड़े।


"कोई धर्म संकट नहीं है आपके समक्ष।" उनकी धर्मपत्नी का दृढ़ स्वर गूँजा। "इस समय आपका सही धर्म है अपने पिता होने का लाभ पुत्री को देना। आज के जमाने में कैसे कैसे मंत्रीपुत्र¸ नायक पुत्र अपने स्थानों पर जमे हुए है।"


"लेकिन रूक्मिणी उस प्रकाशक का स्पष्ट उत्तर आया है कि श्यामा का संग्रह छपने योग्य नहीं है। मैं अपनी माँ को क्या जवाब दूँगा?" उन्होने पुन: याचक की भाँति माँ सरस्वती की शांत प्रतिमा को निहारा।


आनेवाले दस दिनों तक यही पाप मन में पाले कविवर्य उस प्रकाशक को मनाते रहे। अपनी ओर से कुछ कविताएँ¸ श्यामा ने लिखी है कहते हुए उसके पास भिजवाई और उसे जबर्दस्ती इस संग्रह को जल्द से जल्द छापने को राजी किया।


मंजूश्री के संग्रह का लोकार्पण समारोह तीन दिन बाद था जब श्यामा के हाथों में उसका छपा हुआ संग्रह था। आनन फानन में तीसरे ही दिन यानी मंजूश्री के समारोह से एक दिन पूर्व की तिथी श्यामा के संग्रह के लोकार्पण समारोह के लिये चुनी गई। पानी की तरह पैसा बहाकर सारी तैयारियाँ की गई। उपहार देकर समीक्षकों की उपस्थिती तय की गई। आनेवाले साहित्यप्रेमियों के लिये भोज भी रखा गया था। श्यामा अत्यंत उत्साहित थी और अपनी माँ के साथ मिलकर अपने परिधान¸ भाषण आदी की तैयारी कर रही थी।


लेकिन कृष्णदासजी उस दिन के बाद से अपनी माँ से दृष्टि मिलाकर बात नहीं कर पाए थे। आयोजन के दिन घर से प्रस्थान करते हुए वे दुखी मन से माँ के समक्ष खड़े थे। मन हुआ कि फूट फूटकर रो लें। अपने किये का प्रायश्चित्त कर ले। परंतु समय ही नहीं था। बड़ी हिम्मत कर उन्होने माँ के मुखारविंद की ओर दृष्टिपात किया। वह प्रखर तेज और तीक्ष्ण दृष्टि उन्हें असहनीय जान पड़ी।


समारोह स्थल खचाखच भरा था। कविवर्य को सभी शुभचिन्तक बधाई दे रहे थे। श्यामा को भी वह सब कुछ मिल रहा था जिसकी लालसा में उसने वर्षों बिताए थे। आयोजन शुरू होने को था। तभी विचारमग्न से कविवर्य को एक परिचित कंठस्वर सुनाई दिया।


"प्रणाम गुरूजी!"


वह मंजूश्री थी। जब आर्शीवाद लेकर उठी तब कविवर्य को लगा जैसे उसके मुख पर आज कुछ ऐसा भाव है जो उन्होने अभी अभी कहीं देखा है। वे बेचैन हो उठे। कार्यक्रम शुरू हुआ। वे मंच पर अपने स्थान पर विराजे। श्यामा का काव्यपाठ शुरू हुआ। वह अपने पिता की लिखी कविता को अपनी कह सबके समक्ष पढ़े जा रही थी¸ वाहवाही ले रही थी। तभी कविवर्य का ध्यान पुन: मंजूश्री के मुख पर गया और उनके मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी।


आज मंच की साम्राज्ञी अवश्य श्यामा थी। लेकिन मंजूश्री के मुख पर था उसी वाग्देवी का तेज जिसे कविवर्य ने यहाँ आने से पूर्व अपनी माँ के मुख पर देखा था।


और वे मन ही मन अगले दिन के आयोजन की रूपरेखा बनाने लगे थे।