वाचाल सन्नाटे / सूर्यबाला
मैं उन्हें बहुत पहले से जानती हूँ। ...
मेरे देखते-देखते कहानी बन गई वे।
कुल साढ़े छः सात मिनट की कहानी।
(साठ सत्तर साल लंबी ज़िन्दगी की।)
हकीकतों को कहानी बनते, कोई जलजले तूफान थोड़ी आया करते हैं।
बस जैसे-जैसे शक्कर खोरे सच, झुठलाते जाते हें, कहानियाँ बनती जाती हैं।
सामने सोफे पर बैठी हैं वे!
एक तरफ उनका स्ट्रोलर और शोल्डर बैग रखा है।
हल्के बादामी प्रिंट की साड़ी फब रही है, उनकी गेंहुई रंगत पर।
सफेद बालों के साथ एक शालीन सामंजस्य बिणती हुइ्र्र।
चश्मा भी गहरे रंग के बारीक फ्रेम वाला।
(टूटी कमानी वाला नहीं...)
हाथों में घड़ी और पैरों में बाटा सोल की चप्पलें और इस सारे कुछ के सेंटर-पॉइंट की तरह, गर्दन के नीचे, पतली चेन में झूलता पति के नाम वाला लॉकेट। ...
हम थोड़े अंतराल पर कुछ न कुछ बोल ले रहे हैं। कुछ भी कहना या पूछना... जिससे सन्नाटे का अंदेशा न रहे। लेकिन फिर भी सन्नाटा है। काफी सन्नाटा। वे खुद भी बोलने की कोशिश कर रही हैं लेकिन उनकी आवाज आधी से ज़्यादा गुम जा रही है... और सन्नाटा जैसे इसी की ताक में हो। मौका पाते ही चारों तरफ परस जा रहा है। एक बेहद वाचाल सन्नाटा। सबके ऊपर, सबके बावजूद और तब उनकी आवाज़ और ज़्यादा गुमी-सी लगने लगती है।
थकी भी तो बहुत हैं!
उनकी ट्रेन सुबह चार बजे ही पहुंच गई थी। मेरे पति पहुंचे तो वे उन्हें इसी तरह प्लेटफार्म की एक बेंच पर बैठी हुई मिली थीं।
'ट्रेन में भी काफी पहले से जगी रही होंगी आप! स्टेशन आने वाला होता है तो कहाँ सो पाते हैं... और प्लेटफार्म पर भी उतनी देर...'
' न... ही... सफर में निकलो तो ये सब थोड़े बहुत...? थकान के बावजूद, वे मुस्कराने और स्वस्थ दिखने की पूरी कोशिश कर रही हैं।
सोफे पर बैठे-बैठे नीचे रखे शोल्डर बैग की तरफ, उन्हें हाथ बढ़ाते देख, मैं जल्दी से पूछती हूं-क्या चाहिए? ... मैं निकाल दूं? ...
'यूं ही... देखना था, छोटी टॉवेल... इस्तेमाल के बाद रख दी है न!' ...
मैंने जल्दी से बैग खोलकर ऊपर से ही देखा है... 'रखी है न! ये क्या रही... आप भला भूल सकती हैं' ...
उनके चेहरे पर हल्की रौनक आई.
मैंने फिर सन्नाटा तोड़ा-'ये कह रहे थे, स्टेशन पर बहुत चलना पड़ा आपको' चलते-चलते ज़रूर थक गयी होंगी। '
'न, मैंने दवा खा ली थी प्लेटफार्म पर ही। ... बटुए में ही रखे रहती हूँ।' ...
मेरे पति टोस्टर में ब्रेड डालते हुए कहते हैं-
'आ... प भी कुछ खा लेतीं तो अच्छा था।'
उन्होंने दूध ब्रेड लेकर दुबारा गोलियाँ खा लीं... फिर थोड़ा इंतजार कर आहिस्ते से पूछा है...
'कब तक पहुंचा पाएंगे मुझे' ...
'बस-ये नाश्ता खत्म कर लें'-
वे जैसे अपने आप से कह रही हैं-
'बहू ऑफिस चली जाती है, साढ़े दस तक'-
' रीना तो वैसे भी चली गई होगी, आप के पहुंचने तक। सुबह के समय इस पूरे रास्ते पर ट्रैफिक पीक पर रहता है। ...
'लेकिन आप तो अभी रहेंगी ही-वहाँ, उन लोगों के पास' ...
उन्होंने ढेर सारे अधूरे जवाब बुदबुदाये हैं, ... जैसे- 'हां' 'और क्या' , 'वो तो है ही' ... 'तो कितने दिन रहेंगी' ? ...
'देखो, कुछ दिन तो रहूंगी ही... जितने दिन भी... अभी कुछ ठीक नहीं' ...
मुझे वे एक ऐसी शिला लग रही थीं जिसे चारों तरफ से लहरें झिंझोड़ डाल रही हों और वह चूर-चूर, ध्वस्त होता अपना वजूद जी जान से बचाने में लगी हों-
चाय की आखिरी घूंट लेते-लेते मेरे पति ने यकबयक पूछा है -' रीना तो ऑफिस चली गई होगी-रौनक और शौनक भी तो...
जब आप पहुंचेगी तो घर में कोई होगा न! '...'
' हाँ... वह काम करने वाली लड़की कुंदा है न... वह होगी...
हमें बरबस एक कुटिल हंसी छूटी है... तो, कुंदा से मिलने की इतनी बेसब्री।
लेकिन मेरी हंसी बर्फ-सी जम गई है। ... उनके अंदर चलते मौन-संवादों का शोर बढ़ गया है, जैसे किसी किले में घमासान मची हो... वे दरवाजा पीट-पीट कर बाहर आना चाहते हैं लेकिन उन्हें सख्त मनाही है। दरवाजे पर 'उनका' सख्त, निःशब्द पहरा जो है।
उम्र के इस मुकाम पर, कोई आहट उनके अंदर की कहानी कह जाये यह उन्हें मंजूर नहीं। इसलिए साइलेंट स्ट्रोक की तरह संवाद अंदर चल रहे हैं-कि घर में कुंदा के साथ-साथ उनके बेटे की शौनक माँ पर गया है लेकिन रौनक बिलकुल बेटे पर... वैसा ही जगमगाता चेहरा... बोलती आंखें... देवदारू काया... शाम को लौटेगा रौनक... तस्वीर से बाहर आयेगा बेटा-
वरना बहू ने फोन पर कहा था-'हम सब ठीक हैं और यहाँ आपको लुकआफ्टर करने वाला भी तो कोई नहीं' ...
'ज़रूरत नहीं' उन्होंने धीमी आजिज़ी से कहा था-'गोलियाँ रहती हैं मेरे पास, अब' ...
यह कहते हुए, पिछली बार उमड़े अपने साइटिक के दर्द को सोच कर संकुचित हुई थीं वे।
'फिर भी... शौनक का फाइनल इयर है और... रौनक की टाइमिंग भी बड़ी' वियर्ड' है...
'कोई बात नहीं, फिर भी कुछ दिनों ही, रह लूंगी, बच्चों के और... तुम्हारे पास' ...
'मैं भी तो सुबह से शाम तक ऑफिस ही रहती हूँ... फिर... अकेली ही रहेंगी आप...'
'यहाँ... (इस बेटे के पास) भी अकेली ही हूँ।'
'तो फिर... आने का फायदा!' ...
फायदा! ... अचानक अंदर का शोर बढ़ गया है। लहरें भी एक साथ, शिला को पीटने पर आमादा है... 'फायदा' चिल्लाती हुईं... हाँ, फायदे हैं न, बहुत सारे... जैसे यही कि लोगों का यह भ्रम बना रहे कि उनकी दुनिया अभी भी अपनी जगह दुरूस्त है। जीवन में सारा दुर्भाग्य ईश्वरीय आघातों का ही है, शेष सब पूरी तरह सामान्य। इस पकी आयु में वह पूरी तरह बच्चों के सुरक्षा-वलय में अवस्थित हैं। सुखी सुरक्षित और सम्मानित, वह बच्चों के पास आ जा रही हैं... यहाँ से वहाँ... वहाँ से यहाँ... कहीं कोई उपेक्षा, अवहेलना या तिरस्कार नहीं है... सब जगह सम्मान और सुव्यवस्था है, समस्या कोई नहीं...
वो तो, उनकी बहू रीना का फ्लैट दूर पड़ता है, रौनक, शौनक की टाइमिंग काफी 'वियर्ड' है... और हमारा घर स्टेशन के पास है... इसलिए 'उन लोगों' को स्टेशन बुलाना ठीक नहीं समझा उन्होंने... बल्कि उन्हें खुद ही स्टेशन आने से रोक दिया... और मुझसे फोन करके पूछ लिया कि क्या मेरे पति विमलेंदु जी उन्हें स्टेशन से अपने घर ला सकते हैं?
(ट्रेन सुबह चार बजे ही पहुंचती है, लेकिन इसकी कोई बात नहीं... यह ट्रेन ज्यादातर लेट रहती है। नहीं भी रही तो वे मुसाफिरों की मदद से उतर कर किसी बेंच पर बैठ जायेंगी। सुबह का समय भी कितना अच्छा रहता है। -वे खुले में बैठी रहेंगी। ... विमलेंदु जी को स्टेशन पहुंचने के लिये जल्दबाजी करने की ज़रा भी ज़रूरत नहीं। वे इंतजार कर लेंगी। ... एकाध घंटे भी।) ...
इसी बहाने मेरे पास भी रह लेंगी दो-ढाई घंटे। बाद में
विमलनेंदु जी जब ऑफिस जाने लगे, उन्हें भी साथ लेते जायें... उनके ऑफिस से शायद दूर नहीं है 'उन लोगों' का फ्लैट... बहू चली गई होगी तो कुंदा होगी ही घर में...
' अरे बिलकुल-बिलकुल... हमारा खुद भी तो कितना मन है आपको देखने का। कितने सालों पहले की मिली हूँ आपसे-जब कंपनी के परचेज यूनिट की लॉचिंग हुई थी... जब आपने सुनहले जरी बॉर्डर की बैंजनी साड़ी पहनी थीं। ... जब हेल्थ मिनिस्टर ने काले ग्रेनाइट पर लगी गुलाबी डोरी खींची थी...
और भी कि जब सीनियर साइंटिस्टों की सेमिनार में डी.के. आपको भी मनाली ले गए थे और उन्हें मिला फूलों का गुच्छा सगर्व, सस्मित, उन्होंने आपको थमा दिया था। पूरे हाल में जोरदार तालियाँ बजी थीं... खचाखच फोटो खिंचे थे। तब का मैंने आपको देखा है... तब ये बच्चे छोटे थे, या नहीं थे... तब सिर्फ़ आप और डी.के. थे... बैंजनी साड़ी और फूलों के गुच्छे के साथ। ...
'विमलेंदु जी के ऑफिस से ज़्यादा दूर नहीं है न! ... उन्हें परेशानी तो नहीं होगी?' ...
(एक क्रूर सच, हवा में उड़ेगा, 'और हुई तो!' का चांटा मारता गुज़र जाता है।)
'असल में इसी से उन लोगों को स्टेशन आने के लिये मना कर दिया था कि जब विमलेंदु जी के ऑफिस के पास ही है तो बेकार में उन्हें' ...
'और क्या... अरे लीजिए' ... मैं मुस्तैदी से आगे बढ़ कर उनकी किलेबंदी में मदद का हाथ बढ़ाती हूँ-'कुल चार छः किलोमीटर ही तो है इनके ऑफिस से उन लोगों का फ्लैट... आज बस पौनेक घंटे जल्दी निकल लेंगे तो टाइम से ऑफिस पहुंच जाएंगे... कोई परेशानी नहीं' ...
उनके झंवाये चेहरे ने जैसे किसी उजाले का आभास पाया है।
' और फिर, आप यह क्यों नहीं सोचतीं कि इस बहाने आप हमारे पास भी कुछ घंटों को आ गईं...
'हाँ यही तो' ... उनकी थकी आंखें मेरा शुकराना अदा कर रही है। '
मैंने दुबारा उन्हें, उनके दलदल से निकाल कर, बाहर समतल, सूखी जमीन पर खड़ी करने की कोशिश की है...
'इतनी लंबी यात्रा के बाद भी एकदम फ्रेश दिखाई दे रही हैं आप' ...
वे हंसी-सी-'अपनी केयर लेनी होती है न इस उम्र में... जिससे दूसरे को परेशानी न हों' ...
मैंने उनकी जिजीविषा की टिमटिम लौ को लक्ष्य कर एक और दाद दी है-
'तभी तो एक अकेले, इतना लंबा सफर तय कर पाई हैं आप' ...
उनकी झुकी आंखें उठी हैं, ... जैसे किसी मरणासन्न परिंदे ने पंख फड़फड़ा कर, बचाने वाले के प्रति आभार व्यक्त किया हो।
'जी चलिये...' मेरे पति ब्रीफकेस लिये तैयार खड़े थे अब।
उन्होंने उठने से पहले फिर शोल्डर बैग की तरह हाथ बढ़ाया है-
'मैं देखे देती हूँ न... बताइये' ...
'कुछ नहीं... बस, देखना था, मैंने... पानी की बोतल भी रखी है न' ...
'हां-हाँ... ये क्या ऊपर से ही खड़ी बोतल दीख रही है।' ...
'हाँ, याद तो था कि... ढक्कन लगा कर रखी है... फिर भी' ...
उठते हुए उन्होंने फिर से खुद ही स्ट्रोलर खींच कर ले चलने का एक हास्यास्पद उपक्रम किया लेकिन मेरे पति ने तत्परता से स्ट्रोलर थाम, उनका शोल्डर बैग कंधे पर लटका लिया और मुझे उनका हाथ पकड़ कार तक ले आने का संकेत कर आगे बढ़ लिये।
कार तक पहुंचते-पहुंचते अचानक मेरे पति ने महसूस किया कि कमर के आस-पास उनकी शर्ट और पैंट बुरी तरह गीले हो गए हैं। बैग ठीक उनकी कमर पर ही लटका था। हमने जल्दी-जल्दी उतार कर देखा तो बोतल का पानी चारों तरफ फैल कर बैग के बाहर रिस रहा था...
अब तक उन्हें सब समझ में आ गया था। वे हतप्रभ विस्फरित आंखों से मुझे गीली, सूखी चीजें अलगाते और बैग से पानी उलीचते देख रही थी। ... पति को, छोटी टॉवेल से जल्दी-जल्दी अपनी शर्ट पैंट पोंछते तथा बोतल का बचा पानी फंकते भी। यद्यपि यह करते हुए भी हम दोनों अपने-अपने संवादों की बेहतरीन अदायगी किये जा रहे थे... जैसे-अरे पैंट-शर्ट का क्या है... अभी दम के दम ऑफिस पहुंचने तक सूखे जाते हैं... या फिर... आजकल पानी की बोतलें इतनी बेकार बन ही रही हैं कि कितनी ही सावधानी से बंद करो, ढक्कन की चूड़ियाँ ठीक बैठती ही नहीं...
पता नहीं पूरा दृश्य निरीह ज़्यादा था या हास्यास्पद... लेकिन मैंने आंखों की कोरों से भांपा, वे वापस उसी शिला में तब्दील होती जा रही थीं जिसके लिये, चारों तरफ से आती लहरों के थपेड़ों से अपने आप को बचाये रखना मुश्किल होता जा रहा हो-जैसे अस्तित्व बचाने की इच्छा और शक्ति भी अब लगभग निःशेष हो रहे हों-
तभी मेरे पति अचानक उनसे पूछ बैठे-ये खाली बोतल... फेंक दी जाये या रखनी है... आप कहें तो रख लूं या फिर' ...
'अरे नहीं'-उन्होंने भरपूर राहत और शक्ति बटोर कर कहा-'फेंक दीजिये-बिलकुल अभी... आप फेंक दीजिए' ...
फिर वे कार में बैठी और कार चल दीं। अंतिम बार, कार में बैठी उनके चेहरे की ओर देख कर मुझे लगा जैसे एक बार और अपना वजूद, टुकड़े-टुकड़े होने से बचा ले जाने में कामयाब हो गई हों। ... कम से कम खिड़की से झांकता उनका चेहरा यही बता रहा था। ...