वाटधान / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस ग्रन्थ के 53 आदि पृष्ठों में प्रसंगवश जिन वाटधान ब्राह्मणों का उल्लेख हुआ है उसके सम्बन्ध में लोगों के दिलों में जो एकाध शंकाएँ हुआ करती है उन्हें दूर कर देना जरूरी है। यद्यपि उन ब्राह्मणों से हमें कोई विशेष तात्पर्य नहीं है और न हमारे या किसी और के ही पास कोई ऐसा सबूत है कि उन्हीं के वंशज महियाल, तगे या भूमिहार आदि हैं और न हमने ऐसा स्पष्ट रूप से कहीं लिखा ही है। तथापि न्याय के नाते ही हमें ऐसा करना पड़ता है। न जाने क्यों कुछ दिनों से साधारणत: लोगों की यह धारणा हो चली थी कि राज्य, युद्ध या कृषि आदि ब्राह्मणों के धर्म नहीं हैं। फलत: इसी भ्रान्त धारणा के आधार पर कितने अनर्थ हो गए हैं जिनका दिग्दर्शन और इस धारणा का निराकरण ग्रन्थ में किया जा चुका है, अस्तु। इसी धारणा से लोगों का यह कहना हैं कि यदि वाटधान ब्राह्मण शुद्ध ब्राह्मण होते तो एक तो पांडव उनके साथ युद्ध कर उन्हें परास्त न करते। दूसरे वे लोग नजर देने के समय दरवाजे पर ही रोक न दिए जाते। भीतर यज्ञशाला में अवश्य जाने पाते। मगर वे रोके गए यह तो द्वारि तिष्ठंति वारिता:, प्रवेशं लेभिरे न च - वे दरवाजे पर ही रोक दिए गए, भीतर न जाने पाए, से स्पष्ट ही है। इसलिए मानना होगा कि वे शुद्ध नहीं, किंतु व्रात्य या पतित ब्राह्मण थे, जैसा कि उन्हीं श्‍लोकों की टीका में नीलकंठ ने भी अपने 'भारतभावप्रदीप' में लिख दिया है कि 'वारिता इत्येन तेषामत्यन्तहीनता दर्शिता - ’द्वार पर रोके जाने से उनकी अत्यन्त नीचता सूचित होती है।’ इसलिए वे ही ब्राह्मण थे जिनके बारे में मनु ने 10वें अध्याय में लिखा है कि:

व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टक:।

आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधा: शैख एव च॥ 21॥

‘यथा समय उपनयनादि संस्कार रहित जो पतित व व्रात्य ब्राह्मण हो उसके ही वंशज भूर्जकण्टक, आवन्त्य, वाटधान, पुष्पधा और शैख कहाते हैं।’

यद्यपि इस शंका का विचार कर के ही ग्रन्थ के उसी प्रसंग के 54 वें पृष्ठ में टिप्पणी दे दी गई है कि विचारवान उनके रोके जाने का असली कारण समझ कर शांत हो जावेंगे। मगर जिन्हें उतनी भी बुद्धि नहीं है और जिन्होंने महाभारतादि ग्रन्थ पढ़े भी नहीं हैं, उनके लिए उस विचार का स्पष्टीकरण किया जाता है। पहली शंका जो युद्ध के बारे में है उसका उत्तर तो यही है कि वे आततायी थे और आततायी के साथ युद्ध करने या उसे मारने में कोई दोष नहीं है, चाहे वह कोई भी हो। अतएव मनु ने (8-350, 351) लिखा है कि -

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।

आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन॥ 350॥

नाततायिवधो दोषो हन्तुर्भवति कश्‍चन॥ 351॥

‘गुरु, बालक, वृद्ध अथवा सर्व वेदशास्त्रज्ञ ब्राह्मण आततायी के चढ़ आने पर बिना विचारे ही उसे मार डाले। इससे मारनेवाले को कोई दोष नहीं होता।’ अब रही आततायी की बात। उसका स्वरूप वसिष्ठस्मृति (3-16) ये यों हैं -

अग्निदो गरदश्‍चैव शस्त्रापाणिर्धानापह:।

क्षेत्रदारापहत्तरा च पडेते ह्याततायिन:॥

‘घर जलानेवाला, विष देनेवाला, हाथ में हथियार ले कर चढ़ आनेवाला, धन हरनेवाला और जमीन और स्त्री को लूटनेवाला, ये छह आततायी कहाते हैं।’ इस प्रकार वाटधान ब्राह्मण और द्रोण, कृपाचार्य और अश्‍वत्थामा वगैरह भी आततायी श्रेणी में आ गए। इसी से धर्मप्राण युधिष्ठिर ने उन सभी के साथ युद्ध किया। यहाँ तक कि उन्हें मार भी डाला। इसीलिए अपने विद्यागुरु परशुराम जी के साथ 21 दिनों तक भीष्म ने युद्ध कर उनके दाँत खट्टे कर दिए और बड़े परिश्रम से किसी प्रकार युद्ध से हटाए जा सके। उन्होंने उद्योगपर्व (179-24) में स्पष्ट कह दिया है कि:

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।

उत्पथंप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।

‘यदि गुरु भी घमंड में चूर हो, विपरीत मार्ग पर चले और कार्य-अकार्य का विचार न करे तो उसको दंडित करना चाहिए और उसे छोड़ देना चाहिए।’

अब रही द्वार पर रोके जाने की बात। असल में यज्ञ का पूरा ब्योरा न जानने और वहाँ के पूर्वापर ग्रन्थ के न देखने से ही अथवा उसकी विस्मृति से ही लोगों को भ्रम हो गया है। युधिष्ठिर के यज्ञ के नजरों का वर्णन सभापर्व में ही है और वहाँ कहीं-कहीं लिखा है कि 'व्यापागच्छन्युधिष्ठिरम्' - 'लोग नजर ले कर युधिष्ठिर के पास गए।' मगर इसका आशय यह कदापि नहीं हैं कि नजरें युधिष्ठिर के हाथ दी जाती थीं। वह तो यजमान की दीक्षा ग्रहण कर यज्ञक्रिया में प्रवृत्त थे। उसका आशय सिर्फ यही है कि सभी नजरें युधिष्ठिर के ही लिए थीं। उस समय काम बाँट दिया गया था, जिसमें दुर्योधन के जिम्मे सिर्फ नजर (भेंट) लेने का काम था। जैसा कि 35वें अध्याय में लिखा है -

एवमुक्त्वा स तान्सर्वान्दीक्षित: पांडवाग्रज:।

युयोज स यथायोगमधिकारेष्वनंतरम्॥ 4॥

भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दु:शासनमयोजयत्।

परिग्रहे ब्राह्मणनामश्‍वत्थामानमुक्‍तवान॥ 5॥

दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वश:॥ 9॥

‘दीक्षा के बाद युधिष्ठिर ने लोगों को यथा योग्य कामों में पृथक-पृथक नियुक्‍त कर दिया। इसके अनुसार दु:शासन भोजन के अधिकार पर नियुक्‍त हुआ, अश्‍वत्थामा ब्राह्मणों के उठाने-बिठाने में और दुर्योधन सभी प्रकार की सर्वश: - नजरों के लेने में।’ इसी से दुर्योधन को पीछे ताप भी हुआ था; कारण, वह धन उसे असह्य हो गया। इसी दु:ख को उसने 49-50 अध्यायों में कुछ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नजरों का वर्णन करते हुए बताया है, जिसमें उल्लेख योग्य कांबोज देश के राजा, वाटधान देशीय ब्राह्मणों और समुद्र तथा सोम की अत्यन्त प्रसिद्ध और अभिषेकोपयोगी घृत, मधु, दही आदि वस्तुएँ 49वें अध्याय के 18-26 श्‍लोकों में लिखी है। अनंतर विशेषत: लोगों की भीड़ और शंखादि के शब्दों का वर्णन करते हुए सामान्यत: धन की बहुलता कही गई है और दुर्योधन ने कहा है कि मुझे चैन नहीं है, मेरे हृदय में आग लगी है - शांति न परिगच्छामि दह्यमानेन चेतसा।' फिर बदला लेने के लिए शकुनी के द्यूतवाली युक्‍ति बतलाने पर यह बात धृतराष्ट्र से कही गई है। धृतराष्ट्र और विदुर दोनों ने रोका है कि ऐसा न करो। मगर अन्त में धृतराष्ट्र के भी ढल जाने पर विदुर रंज हो कर भीष्म के पास चले गए हैं। इसके बाद 50वें अध्याय में विदुर की बात को विचार कर फिर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को रोका और दु:ख का वास्तविक कारण पूछा हैं। पर, दुर्योधन ने हठ कर अपना दुखड़ा सुनाना शुरू किया है। और साधारणतया अनाधिक्य दिखला कर कहा है कि मेरे जीने को धिक्कार है। क्योंकि धन का असह्य दु:ख तो था ही, सभा में मेरी हँसी भी की गई। यदि उस पर कुछ बोलता तो मारा जाता। ‘वहाँ तो इतना धन नजर के रूप में आया था कि उन अमूल्य रत्‍नों का आर-पार ही न था। मुझे ज्येष्ठ भ्राता समझ मेरे सत्कारार्थ युधिष्ठिर ने मुझे ही उन नजरों के लेने को नियत किया था। पर वह धन इतना अधिक था और उसे देख मुझे इतनी खिन्नता हो गई थी कि मेरा हाथ चलता ही न था। इससे दूर-दूर से आए हुए नजर देनेवालों को द्वार पर ही खड़े रह कर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी’ :

ज्येष्ठोऽयमिति मां मत्वा श्रेष्ठश्‍चेतिविशांपते।

युधिष्ठिरेण सत्कृत्य युक्तो रत्‍नपरिग्रहे॥ 22॥

उपस्थित:नां रत्‍नानां प्रेष्ठानामर्वंहारिणाम।

नादृश्यत पर: पारो नापास्तत्र भारत॥ 24॥

नमे हस्त: समभवद्वसुतत्प्रतिमृह्णत:।

अतिष्ठन्त मयि श्रान्ते गृह्य दूराहृतं वसु॥ 25॥

फिर 51वें अध्याय में अपने देखे मुख्य-मुख्य धनों के नाम सुनाने लगा है :

यन्मया पण्डवेयानां दृष्टं तच्छृणु भारत।

आहृतं भूमिपालैर्हि वसुमुख्यं ततस्तत:॥ 1॥

नाविदं मूढमात्मानं द्ष्ट्वाहं तदरेर्धानम्।

फलतो भूमितो वापि प्रतिपद्यस्व भारत॥ 2॥

यह वर्णन पूरे 51वें और 52वें के 40 के श्‍लोकों में पूरा हुआ है। इसी वर्णन प्रसंग में नजर दाताओं के द्वार पर ही रोके जाने के कारण की बात भी आ गई है। बात यह है कि जब दुर्योधन बड़ी-बड़ी कीमती नजरें लेते-लेते कुछ तो परिश्रम और कुछ भीतरी जलन से थक गया और फलत: उसका हाथ रुक गया तो नजरवाले गृह के द्वार पर बड़ी भीड़ हो गई और लोगों ने द्वारपालों को दिक करना और पूछना शुरू कर दिया कि हम लोग कब तक यहीं बाहर ही खड़े रहेंगे, भीतर जाने क्यों नहीं देते हो? तो उन्होंने सबको सुना दिया कि अपनी-अपनी पारी आने पर बाहर ही नजरें दे कर आप लोग भीतर जाने पावेंगे, यह महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा है :

तत्रस्था द्वारपालैस्ते प्रोच्यन्ते राजशासनात्।

कृतकाला: सुवलयस्ततो द्वारमवाप्स्यथ॥ 19॥

इस श्‍लोक के 'कृतकाला:' पद का अर्थ नीलकण्ठ ने भी 'पारी आने पर' ही किया है -'कृतकाला: कृतप्रस्तावा:।' बस, इसी 51-52 अध्याय के बलिके लगातार वर्णन प्रसंग के वाटधान देशीय ब्राह्मणों के भी नजरों का वर्णन आया है, जो 51वें के 5-7 श्‍लोकों के हैं। इससे स्पष्ट है कि द्वारपालों ने जो पारी-पारी से दे कर भीतर जाने को कहा है वह सभी के लिए हैं, न कि केवल किरात, दरद, काश्मीर आदि के निवासियों के ही लिए हैं। कारण प्रसंग और सिलसिला एक ही हैं और उसी सिलसिले में सभी आए हैं। हाँ 49वें अध्याय के प्रासंगिक वर्णन का यदि इस सिलसिले से कोई सम्बन्ध न हो तो कोई बात भी नहीं है। मगर वही बात फिर 51, 52 में कही गई है। जबकि 50वें अध्याय के 24वें श्‍लोक में दुर्योधन ने साफ-साफ कह दिया है कि मेरे हाथ रुक जाने से लोगों को ठहर कर इंतजार करना पड़ता था और वहाँ पर नीलकंठ ने भी इसे स्वीकार किया है कि : ‘समभवत् समर्थो नाभवत् अतिष्ठन्त प्रतीक्षा कृतवंतो वसुन आहत्तरारो वसु दातुम्’। तो फिर समझ में नहीं आता कि उन वाटधान ब्राह्मणों के ही द्वार पर रोके जाने का नीलकंठ ने भी दूसरा अभिप्राय क्यों निकाला, न कि औरों के रोके जाने का भी? द्वारि तिष्ठंति वारिता:, प्रवेशं लेभिरे नच, ‘ये अथवा एतदर्थक दूसरे शब्द पूर्वोक्‍त दो अध्यायों के लगभग 6, 7, 13, 15, 18, 24, 29, 31 तथा 6, 12, 35, 37 श्‍लोकों में 12 बार आए हैं और कई बार 'वलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:’ यह आधा श्‍लोक ही आया है। शल्य भगदत्त और पूर्वदेशीय सभी राजाओं के लिए भी यही शब्द आए हैं। चोल और पांडय देशीय राजाओं के लिए भी लिखा गया है कि उन्हें प्रवेश न मिला - 'चोलपांडयावपिद्वारं न लेभाते ह्युपस्थितौ।' फिर रोके ही जाने से और लोग हीन न हो कर केवल वाटधान देशीय ब्राह्मण ही क्यों हीन समझे जावे? और नीलकण्ठ की इस अकांड तांडव कल्पना में प्रमाण ही क्या? किसी-किसी का यह भ्रम कि उनकी नजरें भी कबूल न हुईं, निर्मूल हैं। क्योंकि वे लोग सोने के कमण्डलु वगैरह लाए थे और वे घृतपूर्ण भी थे, जैसा कि 'कमण्डलूमुपादायजातरूपमयान्शुभान' श्‍लोक और उसकी नीलकंठी टीका 'कमंडलूनिति घृत पूर्णानिति द्रष्टव्यम्' से स्पष्ट है कि वह हैं अभिषेक सामग्री जिसके लानेवाले सिर्फ वाटधान ब्राह्मण ही थे, जैसा कि नीलकण्ठ ने स्वयं माना है। फिर उसका इनकार कैसे किया जा सकता था? यह कहना तो निरी मूर्खता है।

उक्‍त श्‍लोक के 'दासनीया:' शब्द को देख कर किसी-किसी का यह अनुमान है कि वे ब्राह्मण ही दास योग्य थे। इसीलिए नीच माने गए। मगर यह भी भ्रम ही हैं। 'दासनीयाश्‍च' में जो उस शब्द के साथ 'च' है जिसका अर्थ 'और' है, उससे स्पष्ट है कि उन ब्राह्मणों के सिवाय दास योग्य शूद्रादि भी उनके साथ थे, जो नजरों को साथ में ढो कर लाए थे। इसे नीलकंठ भी मानते हैं। एक बात और है। वहाँ पाठ-भेद है। वह शब्द तीन ढंग का मिलता है, दासनीया, दाशनीया: और दर्शनीया:। इसमें 'दर्शनीय' पाठ में तो दर्शन योग्य यह अर्थ सुगम ही हैं, मगर दासनीय या दाशनीय का अर्थ दास योग्य न हो कर 'बड़े-बड़े दाता' यही अधिक उचित है। जैसे प्रवचनीय, मोहनीय, कोपनीय आदि शब्दों के अर्थ 'प्रवचनकर्ता या पढ़ानेवाला' इत्यादि होते हैं जैसा कि न्याय दर्शन के वात्स्यायन भाष्य के चतुर्थाध्याय के प्रथमाद्दिक के 6ठे सूत्र के भाष्य की तात्पर्यटीका में श्री वाचस्पति मिश्र ने लिखा है। उसी प्रकार 'दाशृ या दाष्ट' दाने धातु से 'अनीयर' प्रत्यय कर्ता में कर के 'बड़े-बड़े दाता' यही अर्थ ठीक होगा।

एक शंका लोगों को और भी होती है। लोगों का कहना है कि वाटधान, वाधीक, गंधार आदि देशों में ब्राह्मण रहते ही नहीं। इसका कुछ उत्तर तो ग्रन्थ में ही दिया जा चुका हैं। भरत को ननिहाल से लाने के लिए दूतों के जाने के प्रसंग में अयोध्या कांड में वाल्मीकि जी लिखते हैं-’दूत लोग वाधीक देश के वेद पारंगत और अंजली से जल पीनेवाले ब्राह्मणों को देखते हुए उस देश के बीच मार्ग से सुदामा पर्वत को गए’ :

अवेक्ष्यांजलिपानांश्‍चब्राह्मणान्वेदपारगान।

ययुर्मध्येनबाल्हीकान्सुदामानंच पर्वतम्॥ 18। 68॥

कर्णपर्व के 42-43 प्रभृति अध्यायों में कर्ण और शल्य का परस्पर वाद-विवाद और हँसी-मजाक आया है और परस्पर एक-दूसरे को और उसके देशवासियों को भी नीच बनाने का यत्‍न किया गया है। वहाँ गंधार आदि अनेक देशों का नाम आया है। अन्त में शल्य ने डपट कर कहा है कि :

सर्वत्र ब्राह्मणा: सन्ति सन्ति सर्वत्र क्षत्रिय:।

वैश्या: शूद्रास्तथा कर्ण स्त्रिय: साधव्यश्‍च सुव्रया:॥ 42॥

रमन्ते चावहासेन पुरुषा: पुरुषै: सह।

अन्योन्यमवरक्षन्तो देशे देशे समैथुना:॥ 43॥

परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।

आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्यति॥ 44॥

सर्वत्र सन्ति राजान: स्वं स्वं धर्ममनुव्रता:।

दुर्मनुष्यान्निगृह्‍णन्ति सन्ति सर्वत्र धार्मिका:॥ 45॥

न कर्ण देशसामान्यात्सर्व: पापं निषेवते।

यादृशा: स्वस्वभावेन देवा अपि न तादृशा:॥ 46। 45॥

‘हे कर्ण सभी देशों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा सती स्त्रियाँ रहा करती है। सर्वत्र ही पुरुष लोग मैथुन करनेवाले और पुरुषों के साथ हँसी करनेवाले होते हैं। सभी दूसरों के दोष देखने में निपुण होते हैं। पर अपना दोष नहीं देखते अथवा देख कर भी भूल जाते हैं। सभी देशों में धर्मात्मा पुरुष एवं स्वधर्म पालक राजे रहा करते हैं जो दुष्टों का निग्रह करते हैं। ऐसा कोई भी देश नहीं जहाँ सबके-सब पापी ही हों। सभी जगह ऐसे बहुत से पुरुष होते हैं जैसे देवता भी नहीं होते।’ इसी प्रसंग में यह भी लिखा है, कि ‘उत्तर दिशा के देशों की रक्षा ब्राह्मणों के सहित भगवान चंद्रमा करते हैं - उदीचीं भगवान्सोमो ब्राह्मण: सहरक्षति।' 'उदीची' का अर्थ 'उत्तर के देश' ही हैं न कि उत्तर दिशा। क्योंकि देशों और वहाँ के निवासियों का ही प्रसंग है।

एक बात और भी है। यदि गंधार, मद्र, केकय आदि देशों में जो पश्‍चिम पंजाब में है और ये ब्राह्मण न रहते तो पांडु, धृतराष्ट्र और दशरथ के विवाह कैसे होते? क्या ये सब संस्कार बिना आचार्य, पुरोहित आदि के ही वहाँ के क्षत्रियादि के घर हो जाते थे? केकय देश से भरत के मामा युधाजित ने अपने गुरु ब्रह्मर्षि अंगिरा के पुत्र को रामचंद्र के पास कैसे भेजा था? जैसा कि वाल्मीकि रामायण (उ. कां. अ. 10) में लिखा है :

कस्यचित्त्वथ कालस्य युधाजित्केकयोनृप:।

स्वगुरुं प्रेषयामास राघवायमहात्मने॥ 1॥

गार्ग्यमंगिरस: पुत्रां ब्रह्मर्षिममितौजसम्॥ 2॥

‘कुछ दिनों बाद केकय देश के राजा युधाजित ने अंगिरा के पुत्र, गर्गहोत्री ब्रह्मर्षि और परम प्रतापी अपने गुरु को अयोध्या भेजा।’ सबसे बड़ी बात यह है कि उन देशों में सारस्वत और काश्मीरी आदि ब्राह्मण आज भी पाए ही जाते हैं।

एक बात यह भी देखने की है कि यदि वे वाटधान ब्राह्मण व्रात्य वा व्रात्यों के वंशज होते तो फिर उन्हें तो किसी भी श्रौतस्र्मात्त कर्म का अधिकार न होता, जैसा कि पूर्व परिशिष्ट में दिखलाया जा चुका है। मगर वे लोग नीलकंठ के अनुसार ही त्रिकर्मा थे। यह बात तो ग्रन्थ में ही सिद्ध की गई है। इसीलिए वाटधान का अर्थ नीलकण्ठ स्वयमेव कहते हैं कि ‘वाटधान शब्द में व्यधिकरण बहुव्रीहि समास है और वाट शब्द का अर्थ क्षेत्र रक्षा के लिए बनी खाई या वृत्ति और 'धाना' का अर्थ है नई बनी हुई। यह बात विश्‍वकोश में लिखी है। तदनुसार जिन देशों या देशवासी ब्राह्मणों के पास अन्नवाले खेतों के रक्षार्थ नई-नई खाइयाँ बनी थीं वही वाटधान कहलाए - वाटा: क्षेत्रादि वृत्तायस्तासां धाना अभिनवोद्भेदो येषामितिव्यधिकरणोबहुव्रीहि:, सस्यादिसंपन्नेक्षेत्रादि वृत्तिमन्त इत्यर्थ:। वाटो वृत्तौ च मागरें चेति, धाना भृष्टयवे प्रोक्‍ता धान्याऽकेभिनवोदि्भदीतिविश्‍व:।’ इससे सिद्ध है कि वाटधान देश के रहने के कारण ही ब्राह्मण वाटधान कहे गए और वे पवित्र एवं कुलीन ब्राह्मण थे, न कि पतितों के वंशज। वे तो कोई दूसरे ही होंगे जिनका पता लगाना वैसा ही कठिन है जैसा भूर्जकंटक, पुष्पधा आदि का।