वाणी / मृदुल कीर्ति

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वाचं वदत भद्रया (अथर्ववेद ३-३०-३)
सदा कल्याणकारी मधुर वाणी बोलो।

जिह्वायाम अग्रे मधु मे (अथर्ववेद १- ३४- ३२)
मेरी जिह्वा के अग्र भाग में मधु हो।

मानव की वाणी का सम्बन्ध द्यु लोक से होता है। द्युलोक का सम्बन्ध मानव के चित्त से होता है। चित्त का सम्बन्ध अहंकार से और अहंकार का सम्बन्ध बुद्धि से होता है। बुद्धि का मन से और मन का सम्बन्ध वाणी से होकर वाक्य रूप धारण कर लेता है। चित्त में जैसे संस्कार होते है उसी के अनुसार शब्दों की रचना द्युलोक से इस मानव शरीर में होने लगती है जैसे भाव होते हैं, उन्हीं में सिक्त होकर शब्द निकलते हैं और तदनुसार प्रभाव डालते हैं। दुर्भाव में डूबे शब्द जहरीले हो जाते हैं और विषदंश का काम करके सारी शारीरिक और मानसिक प्रणाली को जहरीला करते हैं। सद्भाव में डूबे शब्द अमृत का काम करते हैं अतः वाणी के तीनों रूप; वचांशु, उपांशु और मनांशु; रस, माधुर्य और सत्य सिक्त होकर अमृत का संचार करें। प्रभु मुझे वाणी का माधुर्य दो।

द्यु लोक से मानव शरीर तक वाणी को आते-आते महत सूक्ष्म और बृहत यात्रा का संविधान प्रकृति से संरचित है, जिसे पार करके ही मानव अपने चित्त के संस्कारों के अनुसार ही बोल पाता है , या भावों को स्वर दे पाता है। जिसका पसारा नीचे स्थावर तक और ऊपर ब्रह्म तक है। अर्थात जिस महत सूक्ष्म यात्रा को पार करके वाणी हम तक आती है वैसे ही वापस लौट कर भी जाती है। क्योंकि नाद ब्रह्म है, जिसका नाश नहीं होता। जैसे किसी कुएं या घाटी में बोला हुआ वाक्य उसकी दीवारों से टकरा कर लौट कर आता है, जो बोला जाता है वही लौट कर सुना जाता है। कुएं की दीवारों से इस तथ्य का परीक्षण का ही विस्तृत रूप है कि --जो हम बोलते हैं वह आकाश में जाता है और हम तक पुनः आता है। हम तत्क्षण और प्रत्यक्ष तथ्य के आदी है तो ये विलक्षण सत्य हमें समझ में नहीं आते क्योंकि हम तत्कालदर्शी हैं।

आकाश की तन्मात्रा ध्वनि है जिसका कभी नाश नहीं होता --नाद ब्रह्म है।

एक और प्रमुख तत्व कि सृष्टि के आदि में केवल नाद ही था, शब्द बाद की संरचना है।

अतः

वाणी --आपके अंतस का परिचय है। आपकी चिंतन वृत्ति का दर्पण है। वाणी ब्रह्म के नाद तत्व की सम्प्रेष्णा है। भाषा आपकी प्रवृति को उजागर करती है।

स्वर --आपके भावों के आवेग और प्रवाह से प्रभावित होते हैं।

स्व ---का अर्थ है अपना।

र--का अर्थ है प्रवाह

वाणी का धर्म सत्य का उच्चारण है।

अर्थात जो आपके अंतस में है, वाणी उसी की बाहरी सत्य अभिव्यक्ति है। वाणी को अंतस का दर्पण भी कह सकते है।

मीठी वाणी, मधुर वचन, अमिय वचन

वाणी का माधुर्य अमृत के समान है--इससे अधिक महत्तम तुलना वाणी के माधुर्य की नहीं हो सकती। तुलसी कृत रामायण में अमिय वचन बहुत ही बार आया है। 'अमिय वचन बोले रघुराई '

तुलसी मीठे वचन सों, सुख उपजत चहुँ ओर।
वशीकरण यह मन्त्र है , तज दे वचन कठोर। ---तुलसी दास

मीठे वचनों की अपार शक्ति का कितने ही धर्म गर्न्थों में विवरण है। सत्य बहुधा कडुवा होता है। सुभाषितानी में 'सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात ' सत्य भी प्रिय और मधुर होना चाहिए।

वाणी के दर्शन में कायिक,वाचिक और मानसिक तीनों तरह की हिंसा के प्रति सतर्क और संवेदित होने का ज्ञान हैं।

कटु वचन

साधु सत्कृति साधुमेव , भजते नीचोअपि नीचम जनं, यः यस्य प्रकृतिः स्वाभाव जनिता , केनापि न त्यज्यते।

अर्थात

नीम ना मीठो होय, सींच चाहें गुण घी से।
छूटत नाहीं सुभाव, चाहें जायेंगें जी से।

तप्त अंगारे वचन के रूप में,
कांच पिघला ज्यों कथन के रूप में।

कटु वचन कई जन्मों तक पीछा करते है। इसके संस्कार विषम और इतने गहरे होते हैं कि इस जन्म के साथ-साथ आगामी जन्म में भी इसके दुष्परिणाम होते हैं। कटु शब्द कितने हिंसक, मारक और अभिशापित होते हैं कि जब भी कुटिल वचन याद आते हैं तो सुनने वाले के मन की बार-बार नए सिरे से हत्या होती है। द्रौपदी के य़े शब्द कि 'अंधे के अंधे ही संतान होती है' यही कटु वचन दुर्योधन को बार-बार सालते रहे, जो कुरुक्षेत्र तक ले गय़े।

ना जाते कुरुक्षेत्र में, कुरु पांडव के वीर,
नहीं बींधती द्रौपदी, यदि कटु वचन के तीर।

कटु वचन बोलने वाला अपने ह्रदय की तलछट में जमी कटुता को कठोर, कुटिल और कड़वे शब्दों में बाहर निकालता है। एक बार कह कर मन नहीं भरता तो बार-बार दोहरा कर तृप्ति पाने की चेष्टा करता है क्योंकि वह अपनी ही तृप्ति और सुख के लिए अपशब्द बोल रहा है। उसकी तृप्ति का स्तर अब कटु वचन ही हो गए हैं। जीव का अहं, आवेग, क्रोध और आक्रोश कुछ भी अनर्गल वाणी से अन्यों के चित्त में उतार देता है।

ना होते य़े कोर्ट कचहरी, ना बँटते खलिहान।
ना होती यदि जगत में य़े विष भरी जबान।

दिमाग के तंत्रों में विषैले वचन चिपक से जाते हैं। जो बार-बार व्यक्ति की सारी संरचना पर अधिकार करते हुए पूरे व्यक्तित्व को बिगाड़ देते हैं। हाव-भाव स्वर,वाणी सब ही तो विकारी हो जाते हैं। यदि जीभ में जहर घुला हो तो कष्ट,क्लेश और कलह कभी कम नहीं होंगें।

चुभन से जगा हो जो व्यक्तित्व उसका
पता कुछ नहीं है, किधर चल पडेगा।
ये ध्रुव, बन कर या तो गगन में जड़ेगा
कुरुक्षेत्र में या तो जाकर लडेगा।

नष्ट ह्रदय, भ्रष्ट मन, क्लिष्ट चित के मूढ़ जन, चिति और वाणी के गूढ़ रहस्य को क्या जानें। निंदा आलस्य, निद्रा, अहंकार इनके प्रिय विषय हैं क्योंकि निंदा अपवित्र मन की उपज है। कटु वचन और भाषा का अर्थ हृदय के तलछट में पावन भाव नहीं हैं। किसी साधु से मेरा स्वयं का कठोर और अहंकार की भाषा का अनुभव है। उनके लिए कबीर कहते हैं--

साधु भये तो क्या भये, जो नहीं बोल बिचार
हने पराई आतमा, जीभ लिए तलवार। ---कबीर

दुष्टन के मुख बाबड़ी, निकसत वचन भुजंग,
ताकी औषधि मौन है, विष नहीं व्यापत अंग।

अतः

बोल ना कड़वे बोलिए, हिया-जिया फट जात,
मीठी वाणी बोल मन, फटे जिया जुड़ जात।