वादा निभाने फिर आऊगी सायोनारा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 15 मार्च 2011
शम्मी कपूर-सायरा बानो अभिनीत फिल्म 'जंगली' की अपार सफलता के साथ सिनेमा में रंग आ गया और इसके साथ आए अनेक परिवर्तन। राज कपूर ने 1947-१९६० तक अनेक सामाजिक प्रतिबद्धता वाली श्वेत-श्याम फिल्में रची थीं, परंतु कलर आते ही उन्होंने राधा और रंग के भरपूर उत्सव के लिए 'संगम' रची, जिसमें पहली बार दर्शकों को यूरोप की नयनाभिराम छवियां देखने को मिली। इसके बाद कलर का भरपूर लाभ उठाने के लिए फिल्मकार विदेश जाने लगे। कलर के आने से फिल्म निर्माण महंगा हो गया था, अत: निर्माता सुरक्षित खेलने के लिए कहानियों में मसाले, फूहड़ हास्य और विदेश की शूटिंग जोडऩे लगे और सिनेमा सामाजिक प्रतिबद्धता से दूर होता गया। हमारे कलर ब्लाइंड फिल्मकारों ने यथार्थ को श्वेत-श्याम और कलर को फंतासी मान लिया और यहीं से सिनेमा हकीकत कम, अफसाना ज्यादा हो गया।
बहरहाल इसी दौर में जापान की लुभावनी छवियों की खातिर अनेक फिल्में रची गईं, जैसे 'लव इन टोकियो', 'आंखें' इत्यादि। इसी दौर में मसाला मनोरंजन रचने वाले मोहन कुमार ने राजेंद्र्र कुमार और सायरा बानो के साथ हिरोशिमा पर अमेरिका द्वारा गिराए गए आणविक बम के प्रभावों पर फिल्म रची, जिसमें दिखाया गया कि किस प्रकार भारतीय डॉक्टर जापानी मरीजों का इलाज करते हुए स्वयं को पूरी तरह झोंक देता है। यह कहानी शांताराम की ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा लिखी 'डॉ. कोटनीस की अमर कहानी' की तर्ज पर रची गई थी। अंतर केवल यह था कि 'डॉ. कोटनीस...' सत्य कथा थी और मोहन कुमार की 'अमन' कोरा अफसाना थी। इस फिल्म के प्रांरभ में बर्टेंड रसैल का शांति संदेश देने का दृश्य था। आश्चर्य है कि महान लेखक ने एक भारतीय व्यावसायिक फिल्म के लिए समय निकाला।
बहरहाल जापान में फिल्माए गीतों के लिए संगीतकारों ने भारतीय मैलोडी में जापानी सुर मिलाने का प्रयास किया और गीतकारों ने भी जापानी शब्द डाले, जैसे शंकर-जयकिशन का 'सायोनारा सायोनारा, वादा निभाऊंगी सायोनारा, इठलाती और बलखाती कल फिर आऊंगी सायोनारा...'। हमारे संगीतकार किसी भी देश की पृष्ठभूमि पर फिल्म बने, वे उस देश की ध्वनियों को जानते हैं क्योंकि सारा समय वे विदेशी धुनों को सुनते रहे हैं। शंकर-जयकिशन नेे किशोर साहू की फिल्म 'मयूरपंख' के लिए बनाए गए गाने में फ्रेंच के जलम्बे का इस्तेमाल किया, परंतु उच्चारण अशुद्ध था। यह गीत किशोर साहू की किसी और फिल्म का भी हो सकता है और मनोहर श्याम जोशी ने 'कसप' में इसका जमकर उपयोग किया है। बहरहाल माला सिन्हा, आशा पारेख और सायरा बानो जापानी पोशाकें पहनकर खूब इठलाई हैं।
जापान में जैसे समुराई योद्धाओं की परंपरा पुरानी है, वैसे ही गीशा तवायफों की परंपरा भी पुरानी है और इस पर 'मैमॉयर्स ऑफ ए गीशा' नामक रोचक उपन्यास की रचना हुई है। गीशा संस्कृति पर हॉलीवुड में बहुत फिल्में बनी हैं और कुछ वर्ष पूर्व ही ऐसी एक फिल्म ऑस्कर से नवाजी गई थी। इस तवायफ परंपरा में युवा लड़कियों को लंबे समय तक प्रशिक्षण लेना पड़ता है और अपने स्पर्श से पुरुष की आत्मा तक के दर्द को हरने की कला सिखाई जाती है। उन्हें सिखाया जाता है कि पुरुष मन कितना लंपट होता है और उसकी वासना में इतिहास की वर्जनाएं छुपी होती हैं। एक जमाने में भारत में भी लखनऊ और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर तवायफों के प्रशिक्षण के लिए प्रसिद्ध रहे हैं।
आज जापान फिर जूझ रहा है, वह हमेशा युद्धरत रहा है। प्राकृतिक विपदाओं से मनुष्य के जूझते रहने के परिणाम स्वरूप ही देशों की सभ्यताएं उपजती हैं और राष्ट्रीय चरित्र का विकास होता है। आज जापान का दुख हमें महसूस करना चाहिए, क्योंकि उसके विनाश के प्रभाव से हम अछूते नहीं रह सकते। जेम्स केमरॉन की 'अवतार' में एक अन्य ग्रह पर कटते दरख्तों को देखकर कहा गया कि इनकी वेदना का प्रभाव धरती के दरख्तों पर भी पड़ेगा, तमाम दरख्तों में संवाद कायम है।