वापसी, जो संभव नहीं हो सकी / जयप्रकाश चौकसे
वापसी, जो संभव नहीं हो सकी
प्रकाशन तिथि : 20 जुलाई 2012
एचएमवी कंपनी में कार्यरत जिमी नरूला वार्डन रोड, मुंबई में मेरे पड़ोसी थे और राजेश खन्ना के अंतरंग मित्र थे। राजेश खन्ना, आरडी बर्मन और आनंद बक्शी ने कमाल की सफलता अर्जित की थी और रिकॉर्डिग कंपनी ने नरूला को उनके साथ बने रहने का आदेश दिया था। मैं उन दिनों सोनार फिल्म कंपनी का कार्यकारी निर्माता था।
कंपनी के कर्णधार जीएन शाह ने गुलशन नंदा के उपन्यास ‘वापसी’ के अधिकार खरीदे थे। मैं जिमी नरूला के साथ राजेश खन्ना के घर गया। अपनी ‘डेन’ में काका बत्तियां गुल करके अकेले बैठे थे। आशीर्वाद के एक ओर एक छोटे कमरे को काका ने अपनी ‘गुफा’ बनाया था। यहां उनका बार था। उस दिन मैंने नैराश्य में डूबे हुए शेर को देखा। वह अमिताभ बच्चन और सलीम-जावेद का दौर था। उन दिनों काका के पास दक्षिण भारत में बनने वाली एकमात्र फिल्म ‘अमरदीप’ थी। जिमी ने परिचय कराया और बत्ती जलानी चाही तो काका ने कहा कि फ्लैश बल्ब से चौंधियाई आंखों को अब अंधेरा अच्छा लगता है।
उन्हें लगा कि जाने कौन नया निर्माता कोई फिजूल-सी कहानी सुनाने आया है। ‘वापसी’ दो जुड़वां भाइयों की कहानी थी - एक भारत में मेजर है और दूसरा पाकिस्तान की फौज में अफसर है। भारतीय मेजर पकड़ा जाता है और चेहरे की समानता के कारण पाकिस्तान के अधिकारी अपने अफसर को उसके रूप में जासूसी के लिए भारत भेजते हैं, जहां यह मालूम होने पर कि विभाजन के समय अपने जुदा हुए भाई के घर वह आया है। उसका द्वंद्व अपनी भारतीय मां और पालन-पोषण करने वाले मुल्क के बीच है। गुलशन नंदा साहब ने ‘इम्पोस्टर’ नामक विदेशी माल उठाया था।
बहरहाल, जैसे ही मैं कहानी को मध्यांतर तक ले गया, नैराश्य में डूबा शेर उत्साहित हो गया। उसने रोशनी की, नया पैग बनाया और कहानी पूरी होते ही गले लग गया कि यह उसकी ‘वापसी’ वाली फिल्म है। उसके बाद काका ही मुझे राही मासूम रजा के घर ले गए और उन्हें संवाद लिखने के लिए आमंत्रित किया गया। निर्देशक सुरेन्दर मोहन की विनोद खन्ना अभिनीत ‘हत्यारा’ हिट हो चुकी थी।
काका ने ही राखी को पाकिस्तानी नायक की पत्नी की भूमिका के लिए अनुबंधित कराया और भारतीय फौजी की प्रेमिका की भूमिका के लिए जीनत अमान को चुना गया। उस दिन के बाद से काका ने इस फिल्म के लिए बहुत कुछ किया। उन्होंने राहुल देव बर्मन और निदा फाजली के साथ बैठकर चार मधुर सार्थक गीत रिकॉर्ड कराए। हमने चार महीने में फिल्म की १क् रीलें शूट कर लीं। कश्मीर में आयोजित शूटिंग के समय सुरेन्दर मोहन ने श्रीनगर से दूर एक लोकेशन चुना, जहां सूर्योदय के पहले राजेश-राखी पर रोमांटिक सीन करना था। कड़ाके की सर्दी में कैमरामैन जाल मिस्त्री लोकेशन पर तीन बजे पहुंच गए। राजेश इतने उत्साहित थे कि मेकअप सहित चार बजे पहुंचे। उस रात न वे सोए, न किसी को सोने दिया। इसी फिल्म के मुहूर्त से पहले अमजद खान सोनार के सुगनू जेठवानी से खफा हो गए थे।
काका ने ही उन्हें मनाया था। निर्माण के दौरान जब भी मैं काका के पास मेहनताना लेकर गया, उन्होंने मना कर दिया। उनका कहना था कि फिल्म पर खर्च करो, मेहनताना प्रदर्शन के समय देना। बोनी कपूर के पिता सुरेन्दर कपूर के लिए काका ने चार लाख तय किए थे, परंतु प्रदर्शन तक उनका मेहनताना बाजार भाव से १क् लाख हो गया था, परंतु उन्होंने चार लाख ही लिए। काका ने पैसे की कभी परवाह नहीं की।
एक रात शूटिंग के बाद मैंने काका की ‘डेन’ में रुकने से इनकार किया और उनके इसरार पर बताना पड़ा कि कल शादी की सालगिरह है और मेरी पत्नी बाहर इंतजार कर रही है। वे स्वयं बाहर गए, मेरी पत्नी ऊषा को लेकर आए और जश्न वहीं शुरू हो गया। अलसभोर में विदा लेते वक्त उन्होंने सोने की अशर्फी दी। दरअसल काका का अवचेतन पढ़ना कठिन था। वे एक दुरूह आदमी थे। उनके मन में निरंतर एक युद्ध चलता रहता था। वे बहुत ही शक-सुबहा करने वाले व्यक्ति थे और उनकी पसंद और नापसंद के बीच एक अभेद्य दीवार थी। अपनी पसंद के व्यक्ति के लिए वे कुछ भी कर सकते थे और नापसंद के प्रति उनकी नफरत का अंत नहीं था।
एक रात मैंने उन्हें अपनी ‘आनंद’ के लिए मिली ट्रॉफी से अंतरंग बात करते सुना है। उसी दिन मैंने जाना कि शिखर दिनों की तालियां उनके मन में अनवरत गूंजती थीं। सोनार कंपनी के मालिकों के बीच आपसी कलह और लागोस में उनके व्यापार के चौपट होने के कारण ‘वापसी’ बारह रील बनकर रुक गई। काका उन्हें उनकी पूरी लागत देकर फिल्म खरीदना और पूरी करना चाहते थे, परंतु उनके कानूनी पचड़ों में यह संभव नहीं हुआ। काका की ‘वापसी’ नहीं होनी थी। भारत-पाक के बिछड़े हुए भाई कैसे मिल सकते थे?
वर्षो बाद मैं दिल्ली में सांसद काका के निवास पर गया था। उन्होंने सरकारी सेवकों को नहीं लेकर मुंबई से अपने पुराने सेवक बुलाए थे और बंगले में साज-श्रंगार स्वयं के पैसे से किया था। उन्हें बतौर सांसद जो धन मिलता था, उससे दुगना स्वयं खर्च करते थे। गोयाकि ऐसे सांसद भी होते थे, जिन्होंने प्रश्न पूछने की रिश्वत नहीं ली। काका ने वहां भी अपनी ‘डेन’ बनाई थी। शेर कहीं भी रहे, वह अपनी ‘डेन’ बनाता है।
आज हम अपने चारों ओर रंगे सियार और गीदड़ देखते हैं। बिना धन लिए कोई एक दिन की शूटिंग के लिए घर से बाहर कदम नहीं रखता। काका दिलेर और दयावान थे। अब जंगल में ही शेरों की संख्या घट गई है और शहर में कोई शेर नहीं है, सब दुनियादार कारोबारी सफल लोग रहते हैं। काका को मैंने उनकी असफलता के दौर में देखा है और उन्होंने गरिमा नहीं खोई थी।