वापसी / अमरेन्द्र
कुन्दन नें लैम्प के रौशनी एकदम हल्का करै के खयाली सें ही बत्ती केॅ नीचें करी देलेॅ छेलै, एतन्है नीचें कि ऊ रौशनी में लैम्प के खाली चिमनिये झलकी रहलोॅ छेलै। जाड़ा के दिन। जल्दिये साँझ उतरी ऐलोॅ छेलै। माघ-पूसोॅ के दिने की...होना केॅ आभी बजते की होतै? वैनें झुकी केॅ वहेॅ मटियैन्होॅ रौशनी में आपनोॅ कलाई के घड़ी देखलकै। छोॅ बजी रहलोॅ छेलै।
..."की अभियो सृष्टि आवेॅ पारै छेॅ?" ओकरोॅ मनोॅ में शंका उठलोॅ छेलै, मतर, तुरन्ते शंका केॅ समेटियो लेलेॅ छेलै, " कैन्हें नी, अभी समइये की होलोॅ छै। शहर में तेॅ होन्हौ केॅ आदमी रात भरी ऐत्हैं-जैत्हैं रहै छै, जाड़ा के दिन होलै तेॅ की, आठ-नौ बजेॅ तांय तेॅ आवा-जाही लागलोॅ रहतै...कखनियो आवेॅ सकै छै...नै आवै के कोय सवाले नै छै...
पता नै, ओकरोॅ मनोॅ में की बात उठलोॅ छेलै कि वैनें फेनू सें रौशनी तेज करी देलेॅ छेलै आरो कोठरी के चारो दिश नजर केॅ दौड़ैलेॅ छेलै। एक विद्वान के कोठरी जेना रहै छै, होने छेलै। वैं आपनोॅ बिछौना पर दू तीन किताबोॅ के साथें डायरी केॅ कुछ हेनोॅ ढंग सें राखी देलेॅ छेलै, जेकरा देखत्हैं कोय यही समझै कि ऊ अभी पढ़िये रहलोॅ छेलै जे ऊ आवी गेलै...सृष्टि के देलोॅ उपन्यास 'गुनाहों का देवता' टेबुल पर सामनाहै कुछ हेनोॅ ढंग सें राखलेॅ छेलै कि ऐत्हैं कोठरी के कोय चीजोॅ पर सबसें पहिलें नजर पड़ेॅ तेॅ वहेॅ किताबोॅ पर। है कहना मुश्किल छेलै कि किताबोॅ पर लाल रं के कौन खिललोॅ फूल धरलोॅ होलोॅ छेलै, जेकरा कुन्दन नें एक दाफी उठैनें छेलै आरो फेनू होनै केॅ किताबोॅ पर आहिस्ता सें राखी देलेॅ छेलै।
एक क्षण लेली वांही ऊ खाड़ोॅ रहलै, फेनू घुमी केॅ कोठरी के भिड़कलोॅ केबाड़ आपना दिश आहिस्ता सें खींचने छेलै। सूरज वाला प्रकाश एकदम खतम होय गेलोॅ छेलै आरो वै जग्घा पर सड़क के किनारी-किनारी खड़ा बिजली खंभा पर ट्यूब आरो बल्ब जगमगावेॅ लागलोॅ छेलै, जेकरोॅ रोशनी में कारोॅ शीशा नाँखी सड़क चमकी रहलोॅ छेलै। मोटर, स्कूटर बोहोॅ के रेत रँ सड़क पर बही रहलोॅ छेलै आरो सड़के के दोनों दिश आदमी के चीटी रं कतार। कुन्दन नें वहेॅ रोशनी में फेनू आपनोॅ घड़ी के सूई देखलेॅ छेलै--साढ़े छोॅ।
ओकरोॅ चेहरा पर शांति के एक भाव झलकी उठलै आरो केबड़ा केॅ फेनू वैन्हें भिड़कैतें हुएॅ टेबुल के एक दिश पड़लोॅ कुर्सी पर आवी केॅ बैठी रहलै "कहीं हेनोॅ नै हुएॅ कि सृष्टि बिना दस्तक देले अन्दर आवी जाय आरो ओकरोॅ सब परेशानी एक्के बारगी उजागर हो जाय" यही सोची वैनें बैठलेॅ-बैठलेॅ फेनू रास केॅ नीचें करी देलकै।
वहेॅ मटियैलोॅ रौशनी में आय हठाते ओकरा ऊ दिन याद आवी गेलै, जेकरा ई बीचोॅ में वैं कभियो यादो नै करलकै, याद करै के ज़रूरते नै पड़लोॅ छेलै। पाँच-छोॅ महीना, पाँच-छोॅ दिन नाँखी गुजरी गेलोॅ छेलै। हों, पाँच महीना सें बेसी नै होलोॅ होतै, जबेॅ सें कुन्दन नें सृष्टि केॅ पढ़ाना शुरू करलेॅ छेलै। सृष्टि के बाबूजी धरमचंद शहर के नामी वकील। जेहनोॅ शान-शौकत, होन्है केॅ शालीनतौ में बढ़लोॅ-चढ़लोॅ। कोॅन घरोॅ में, एक दिनोॅ में एक दाफी, धरमचंद के चर्चा नै होय जाय। कोॅन हेनोॅ घरोॅ के माय-बाबू नै होतै, जे आपनोॅ बच्चा केॅ सृष्टि हेनोॅ सुशील आरो पढ़लोॅ-लिखलोॅ होय के उपदेश मौका मिलत्हैं नै देतें होतै। ई कम बड़ोॅ बात नै छेलै कि हेनोॅ घरोॅ में कुन्दन केॅ पढ़ावै के काम मिली गेलोॅ छेलै, वहू में सृष्टि केॅ, जेकरोॅ बारे में कॉलेज सें लै केॅ मुहल्ला तक में हल्ला छेलै कि एकरोॅ सम्मुख तेॅ प्रोफेसरो के घिग्घी बंधलोॅ रहै छै--नै जानेॅ, कखनी की पूछी देॅ। साईन्स के विद्यार्थी छेली सृष्टि, बस जरा-सा कहीं कुछ समझै में ओकरा दिक्कत हुऐ तेॅ हिन्दी के नया किसिम के कविता। ई सब बात वैनें विमलेन्दु सें सुनलेॅ छेलै। नै तेॅ एत्तेॅ बड़ोॅ शहर में की छेकै--केकरा मालूम। फुर्सत कहाँ छै, केकरौ। विमलेन्दु, जे ओकरोॅ पितियैतोॅ भाय, जे खुद्दे सहायक होय के साथे सृष्टि केॅ पढ़य्यो के काम करै छेलै, नें ही बतैलेॅ छेलै--सृष्टि के पढ़ाय लेली एकटा टीचर ठिक्को करलोॅ गेलोॅ छेलै। कोय शक नै--खूब विद्वान छेलै। खाली हिन्दिये के नै, जेहनोॅ लच्छेदार हिन्दी, होन्है, आचारशास्त्रा आरो राजनीति के. धरमचंद तेॅ गदगद छेलै ऊ टीचर पावी केॅ, मतरकि सृष्टिये नाखुश। आबेॅ, जबेॅ कि सृष्टिये नाखुश छेलै तेॅ ऊ टीचर ऊ घरोॅ में टिकै पारतियै कत्तेॅ? बात ई छेकै कि सृष्टि छै ज़रा खुल्ला मिजाज के लड़की, कोय बातोॅ के चर्चा केकरौ सें करी दिएॅ पारेॅ, पंडितो सें प्रेम के चर्चा धर्मविज्ञान नाँखी करेॅ पारेॅ। बस यहेॅ होलोॅ छेलै--एक दिन, सृष्टि पूछी देलकै--गुरूजी आपनें कभियो केकरौ सें प्रेम करलेॅ छियै? ...टीचर तेॅ सुन्तहै आग होय गेलोॅ छै, जेना गंगा नहाय लेॅ जैतै कोय पुजारी पर कोय अंडा फोड़ी देलेॅ रहेॅ। हुनकोॅ समुच्चा नीतिशास्त्रा नंगोटा बान्ही केॅ खाड़ोॅ होय गेलोॅ छेला आरो फुंफकारलेॅ जे घरोॅ से बाहर भेलै तेॅ दोबारा नै ऐलै, महीनबारियो लैलेॅ नै ऐलै, जबकि महीना पूरै में एक दिन आरो बची रहलोॅ छेलै। धरमचंद नें ओकरोॅ खोज खबर भी लैलेॅ चाहने छेलै, मतरकि सृष्टि मना करी देलेॅ छेलै। ठीक दसे दिन बाद हिन्दिये पढ़ाय वास्तें कुन्दन केॅ ऊ घरोॅ में बुलैलोॅ गेलोॅ छेलै। बुलैलोॅ की गेलोॅ छेलै, ई कहोॅ कि विमलेन्दु नें ओकरोॅ हिन्दी-ज्ञान के एत्हैं पुल बाँधी देलेॅ छेलै कि दुसरे दिन सृष्टि केॅ पढ़ाय लेलोॅ बुलाय लेलोॅ गेलोॅ छेलै। नै बुलाय के कोय सवाले नै छेलै, विमलेन्दु ऊ घरोॅ के एन्हे विश्वासी पात्र छेलै, जेकरोॅ बात केॅ टारवोॅ धरमचंद केॅ भी मुश्किल लागै।
आरो सचमुचे में कहला मुताबिके कुन्दन नंे वहाँ आपनोॅ हिन्दी-ज्ञान के अद्भुत परिचय देलेॅ छेलै। पहिलें तेॅ ऊ काफी धुकचुकैलोॅ छेलै, मतरकि वहाँ पहुँची केॅ ओकरा लागलै--बेकारे वैं रात भरी पढ़ाय के रियाज करतें रहलै आरो दुकान जाय केॅ नया-नया किताब उलटाय के जहमत उठैलकै। जबेॅ रियाजे करलेॅ छेलै आरो किताब केॅ उलटैले छेलै, तेॅ हौ सब सृष्टि के सामना में राखै सें चुकलो नै छेलै। आइना नाँखी घूमी जाय छै कुन्दन के सामना सें सब बितलोॅ बात। औसतन लड़की सें कुछ उच्चोॅ कद, नै कारी, नै गोरी--नै मोटी, नै पतरी--छरहरी, जै पर पंजाबी कुरता आरो पजामा। कुर्ता पर ऊपर सें लै केॅ नीचेॅ तक राजस्थानी काम। आँख सें लै केॅ सौंसे देह में अदभुत चंचलता आरो बोली? बोली तेॅ देहात के कोय जनानी रं मुक्त, पीपर गाछी सें छनी केॅ ऐतें जेठ के हवा, ...कुन्दन सृष्टि सें कुछ पुछतियै, एकरोॅ पहिलें सृष्टियैं कहलेॅ छेलै--पढ़ाय सीधे वहाँ सें शुरू होतै, जहाँ पहिलकोॅ गुरु जी छोड़ी गेलोॅ छै, यानी स्त्राी के प्रति कवि के भोगवादी दृष्टि--विषय ई छेलै कि साहित्य में नारी के सौन्दर्य के बढ़ी-चढ़ी केॅ चित्रण की पुरुष के भोगवादी दृष्टि के सबूत नै छेकै आरो कि स्त्राी के थोड़ोॅ टा भी हँसी केॅ बोलबोॅ, बनी-ठनी केॅ रहबोॅ पुरुष वास्तें ई बात के प्रमाण नै बनी जाय छै कि ऊ स्त्राी के पुरुष लेॅ रसमय निमंत्रण छेकै?
कुन्दन नें बड़ोॅ शांत स्वरोॅ में समझैनें छेलै कि देह के सौन्दर्य, चाहे स्त्राी के रहेॅ कि पुरुष के, ऊ आखरी सौन्दर्य नै हुएॅ पारेॅ। सौन्दर्य तेॅ अनन्त विचार के चेतना छेकै, जेकरा मोटा-मोटी आदर्श के बोध कहलोॅ जावेॅ सकै छै। घंटा भरी कुन्दन देह आरो प्रेम पर बोलत्हैं रही गेलोॅ छेलै। सृष्टि तेॅ दंग छेवे करलै, धरमचंद भी दंग छेलै, जे औसाराहै पर एक कुर्सी बिछाय केॅ बैठी रहलोॅ छेलै। हेना केॅ देखाय के तेॅ यही दिखाय रहलोॅ छेलै कि हुनी फाइल केॅ समझै में व्यस्त छै, मतरकि हुनकोॅ ध्यान कुन्दने के बातोॅ पर छेलै। शैत आभी आरो देर वैं पढ़ैतियै, मजकि बीचे में धरमचंद नें कुन्दन केॅ बोलाय लेलेॅ छेलै आरो सामना के कुर्सी पर हाथ पकड़ी केॅ बैठतें हुएॅ सीधे पूछलेॅ छेलै, "की आरो कहीं ट्यूशन चलै छै?"
"नै" बड़ा संक्षिप्त-रँ उत्तर वैनें देलेॅ छेलै।
"कहाँ पर डेरा राखलेॅ छौ?"
"तिलकामांझी में।"
"ठीक छै। होना केॅ ई कोठरी देखी रहलोॅ छौ नी, एकरोॅ दरवाजा सड़क दिश खुलै छै आरो खिड़की ऐंगना दिश। ई हमरे कोठरी छेकै। जों तोरोॅ मोॅन करौं कि हम्में यहाँ रहौं, तेॅ कोठरी खोलवाय देभौं। कोय दिक्कत नै होत्हौं, कोठरिये में सब कुछ के व्यवस्था छै।"
"बाबू जी, ठिक्के तेॅ कही रहलोॅ छौं।" सृष्टि नें हुलसी केॅ कहलेॅ छेलै।
मतरकि कुन्दन नें ई बातोॅ पर कोय जवाब नै देलेॅ छेलै। एकदम्मे चुप बैठी रहलोॅ छेलै। ओकरोॅ चुप्पिये देखी केॅ नै तेॅ धरमचंद नें बात केॅ आगू बढ़ैलेॅ छेलै, नै तेॅ सृष्टिये नें। बात केॅ बदलै के खयालोॅ सें ही हुनी कहलेॅ छेलै--अभी प्रेम पर जे विचार राखलोॅ--वहेॅ ठीक छै, हम्मूं मानै छियै कि प्रेम शरीर केॅ बान्है वास्तें औजारे खाली नै छेकै, ई मन के मुक्ती के भी मार्ग छेकै, जेकरोॅ श्रेष्ठ परिणति त्याग में होय छै, प्रेम खाली शरीरे के नै, मनो के परिभाषा होय छै...होना केॅ नया विचार आयकोॅ आदमी केॅ ज़्यादा बान्है वाला छै--कही केॅ हुनी निर्मल हँसी-हँसी देलेॅ छेलै।
कुन्दन केॅ एक-एक बात याद छै। पाँच-छोॅ महीना बितल्है सें की होय छै। याद रहै के तेॅ आदमी केॅ बचपन के बातो याद रही जाय छै। बाते-बात में एक दिन धरमचंद नें ओकरा बतैलेॅ छेलै--सृष्टि के संकेते पर हुनी ई कोठरी केॅ खोलवैनें छेलै आरो आपनोॅ रुचिये मुताबिक सृष्टि नें ऊ कोठरी के सामान हिन्नें-हुन्नें करी केॅ सजैलेॅ छेलै, जेकरे कारण आफिस रँ लगै वाला ऊ कमरा ड्रायंग रूम में बदली गेलोॅ छेलै। कोठरी सें नेता जी आरो गाँधी के तस्वीर तेॅ नै उठवैनें छेलै, मजकि जोॅन दीवाल पर खाली ठाकुर प्रसाद के कलैण्डर टंगलोॅ छेलै, ओकरा हटवाय केॅ वहाँ शकुन्तला के एक बड़ोॅ रँ पेंटिंग टांगी देलेॅ छेलै, जे वैं आपनोॅ कोठरी सें निकाली आनलेॅ छेलै। माय के कोठरियो सें नरगिस के पोटेªट लानी केॅ ऊ वहेॅ दीवाल पर टांगी देलेॅ छेलै। धरमचंद जी सें वैं जानलेॅ छेलै कि सब परिवर्तन के बादो गाँधी आरो नेता जी के तस्वीर केॅ जरियो टा नै छूलेॅ छेलै। ई दोनों तस्वीर के जानकारी देतें हुनी बीचे में कहलेॅ छेलै--जोॅन दिन ई दोनों तस्वीर घरोॅ में ऐलोॅ छेलै, ऊ दिन लागलोॅ छेलै कि तस्वीर नै, दोनों के ही आगमन घरोॅ में होलोॅ रहेॅ। सृष्टि वास्तें तेॅ दोनों--गुरूदेव; बिना मूड़ी झुकैनें बाहर नै जावेॅ पारेॅ छै, ई दू तस्वीर नै छेकै, सृष्टि के शील आरो दृढ़ता के चिह्न छेकै, जे वैनें ई घरोॅ सें पैलेॅ छै, जेकरा छोड़ी केॅ ऊ जीयै नै पारेॅ। यहेॅ कारण वैं तस्वीर नै हटैलकै। हम्में जबेॅ ई परिवर्तन पर कहलियै--"वाह, की हुलिया बदली केॅ राखी देल्हौ तोहें--नेताजी आरो गांधी साथें, शकुन्तला-नरगिस। अजीब टेस्ट छै नया पीढ़ी के. वन्दे मातरम केॅ भी पोप सांग बनाय केॅ ही गावै के शौक।" तेॅ सृष्टि हमरोॅ बातोॅ पर जानै छौ, की कहलकै! कहलकै, "मजकि यै में खराबिये की छै बाबू जी, आबेॅ दू आँख मिललोॅ छै, तेॅ दोनों आँखी सें ही दुनिया केॅ देखना चाहियोॅ। एक आँख मुनी केॅ देखला सें आदमी खाली आपने सूरत नै बिगाड़ी लेतै, देखवइयो केॅ ऊ केन्होॅ लागतै, ई तेॅ सोचले जावेॅ पारेॅ ...आबेॅ तोंही देखौ नी।" आरो ई कही केॅ सृष्टि नें एक आँख मुनी केॅ हमरा देखलेॅ छेलै तेॅ हम्मू खिलखिलाय केॅ रही गेलियै आरो हँसत्है-हँसत्हैं कहलियै, "तोरा सें बात करै में पार पैवोॅ मुश्किल। होना केॅ कोठरी केॅ देखै लायक बनाय देलोॅ छै ज़रूर...बस जरा-सा बदलाव के ज़रूरत छाैं...ई कुन्दन वाला कुर्सी नी छेकै, एकरा ऊ दिश करी दौ।" जानै छौ वै पर सृष्टि तुनकी केॅ कहलकै, "नै बाबू जी, नै, गुरूजी आरनी के माथोॅ होन्है केॅ नीतिशास्त्रा के सेन्ट्रल लाइब्रेरी बनलोॅ रहै छै। सड़ै सें बचाय लेली ई व्यवस्था करलोॅ गेलोॅ छै।" कहतें-कहतें सृष्टियो के ठोरोॅ पर मुस्कान फैली गेलोॅ छेलै आरो हम्में तेॅ तखनी एकदम सें खुली केॅ हँसी पड़लियै। हसत्हैं-हँसत्हैं हुनी यहो कही देलेॅ छेलै, "हम्में तेॅ समझै छियै कि ई परिवर्त्तन सृष्टि नें यै लेली करलेॅ छै कि तोहें यही रहोॅ। विमलेन्दु तेॅ रहिये रहलोॅ छै।"
कुन्दन के आँखी में ऊ सब दिरिश घुमी आवै छै...वैनें साइकिल वाँही दिवाल सें सटाय केॅ खाड़ोॅ करलेॅ छेलै आरो कोठरी दिश मुड़ी गेलोॅ छेलै...
"आय सें याँही पढ़ाय-लिखाय चलतै" अभी कोठरी में हम्में ढुकलोॅ नै होवै कि आपनोॅ कुर्सी पर बैठली सृष्टि नें खड़ा होतें कहलेॅ छेलै आरो सामना के कुर्सी दिश ईशारा करलेॅ छेलै। मंत्रमुग्ध नाँखी हम्में वहेॅ कुर्सी पर बैठी रहलियै।
"तेॅ गुरु जी, आपनें केॅ मालूम छै कि कल बात केॅ कहाँ पर छोड़ी देलेॅ छेलियै आपनें।" सृष्टि नें गुरु जी पर कुछ विशेष बल देतें ही पुछलेॅ छेलै।
" बेशक, उर्वशी के शंका के समाधान में छेलै पुरूरवा। पंक्ति छेलै,
दृष्टि का जो पेय, वह रक्त का भोजन नहीं है
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है।
"मजकि तोहरा पुरूरवा के हेनोॅ बात कुछ अटपटैलोॅ रँ नै लागै छौं, जों नै, तेॅ उर्वशी रक्त के भाषा पढ़ै लेॅ कैन्हें कहतियै। ठिक्के तेॅ रक्त दिमाग सें ज़्यादा बली होय छै, की तोरा हेनोॅ नै लागै छौं। हमरा तेॅ यही लागै छै, लहू के सामना में बुद्धि के कोय बोॅल नै चलै छै। जों हेनोॅ नै होतियै तेॅ कण्व हेनोॅ ऋषि के आश्रम के बीच पली-बढ़ी केॅ भी शकुन्तला के विवेक केना बही जैतियै।"
तखनी अकबकैलोॅ बस हम्में एतन्हैं कहलेॅ छेलियै, "लहू के हेनोॅ पुकार नैतिक नै मानलोॅ जावेॅ सकेॅ।"
"मजकि, गुरु जी, तोहें है तेॅ बतावोॅ कि सीमोन द बोउवार आजीवन अविवाहित सार्त्रा के साथें रहलै, जेकरा सें प्रभावित होय केॅ अज्ञेय हेनोॅ कथाकारो 'नदी के द्वीप' उपन्यास लिखै छै; तोहें ई सम्बंध में की कहै लेॅ चाहवौ।"
"सृष्टि, बहस के कोय अंत नै हुएॅ पारेॅ। मतरकि तोहें जोन सीमोन द बोउवार आरो सार्त्रा के बात करी रहलोॅ छौ, हुनकोॅ बारे में तोरा यहौ मालूम होतौं कि बोउवार सार्त्रा सें पहिलें जोन प्रेमी केॅ चाहै छेलै, ऊ ओकरा सें ब्याहो करैलेॅ चाहै छेलै, मतरकि असमये में प्रेमी के मृत्यु नंे ओकरोॅ मनोॅ केॅ झकझारी देलकै आरो एकरै प्रतिक्रिया हुएॅ पारेॅ कि बोउवार केॅ शादिये सें नफरत होय गेलोॅ छेलै, शैत यहेॅ कारण छेलै कि सार्त्रा जबेॅ बोउवार के जीवन में ऐलै आरो वहंू ओकरा सें बीहा के प्रस्ताव राखलकै, तेॅ वैनें इनकार करी देलेॅ छेलै। सीमोन द बोउवार आपनोॅ जिनगी भर आपनोॅ प्रेमी मैर्लोपोन्ती केॅ नै भूलेॅ पारलेॅ छेलै" तखनी कहतें-कहतें हम्में एकबारगिये चुप होय गेलोॅ छेलियै आरो हमरा सें कहीं ज़्यादा गंभीर होय गेलोॅ छेलै सृष्टि।
फेनू उर्वशी काव्य के पन्ना उलटतें-पुलटतें ही हम्में कहलेॅ छेलियै, " तबेॅ स्त्राी में पुरुष सें कहीं ज्यादे खतरा सें खेलै के साहस होय छै, बोउवार के ही बात नै छै, उर्वशियो अविवाहिते रही केॅ पुरूरवा केॅ पुत्र दिएॅ सकै छै...तखनी नै जानौं, मनोॅ में की सोचतें हुएॅ किताब केॅ मोड़ी एक दिश राखी देलेॅ छेलियै। सृष्टिं कुछ जवाब नै देलेॅ छेलै। ओकरोॅ आँख कुछ देर लेली हमरोॅ आँख पर गड़ी केॅ रही गेलोॅ छेलै, जेना कि हमरो। कुछ क्षण लेली हेने होय गेलोॅ छेलै, जेना हौ सन्नाटा में आरो कोय होतियै तेॅ आसानी सें दोनों के दिलोॅ के धड़कन सुनी लेतियै। हठाते हमरा दोनों के नजर झुकी गेलोॅ छेलै। जेना, दोनों दू कठपुतली रहेॅ, जे एक्के इशारा पर एक्के रं नाँचतेॅ-बैठतें रहेॅ...
कुन्दन केॅ एक-एक बात याद छै। छोटोॅ-छोटोॅ बात याद आवी रहलोॅ छै, जेकरा पर वैं कभियो ध्याने नै देलोॅ छेलै--एक दाफी सृष्टि नें कागज के मटर नाँखी गुल्ली बनैलेॅ छेलै आरो फेनू टेबुल पर राखी तर्जनी सें यै रँ उड़ैलेॅ छेलै कि ऊ हमरोॅ छाती सें टकरैतें ओकरे पास लौटी गेलोॅ छेलै, जेकरा वैनें फेनू होनै केॅ उड़ैलेॅ छेलै, जे दुसरोॅ दाफी हमरोॅ बालो सें टकरैतें दूर छिटकी गेलोॅ छेलै। जबेॅ हम्में कहलियै, ई की रँ के बचकाना हरकत छेकै? ...यै पर वैं कहलेॅ छेलै, "यै में परेशान होय के कोय बाते नै छै। फ्रायड बाबा कहै छै कि आदमी के अन्दर गन्दगिये भरलोॅ छै आरो डार्बिन बाबा कहै छै कि आदमी बन्दर के विकास छेकै, तेॅ आचरजे की, जांे हमरोॅ हरकत तोरा बन्दर नाँखी लागौं आरो गन्दौ।" एतना कही ऊ मुस्कैलोॅ छेली।
"आरो तोरा मालूम होना चाहियोॅ कि मार्क्स बाबा ई कहलेॅ छै कि मनुष्य आपनोॅ आस-पास के परिस्थिति के निर्माता होय छै आरो ओकरोॅ भोक्तो..." पता नै हमरोॅ बात केॅ की लेलेॅ छेलै जेकि हठाते चुप होय गेलोॅ छेलै आरो तबेॅ सृष्टि तीन दिन तांय हेने खामोश बनलोॅ रहलै कि नै कहेॅ पारौं। बात धरमचंद जी तक पहुँची गेलोॅ छेलै। ऊ दिन हमरोॅ केन्होॅ हाल होय गेलोॅ छेलै...हुनी ऐलोॅ छेलै आरो कहलेॅ छेलै--कुन्दन, की बात होय गेलोॅ छै कि सृष्टि आय कल घर में चुप-चुप रहै छै, नै तोरोॅ कोय बड़ाय, नै कोय शिकायत। आखिर मामला की छेकै...आबेॅ मामला की बतैलोॅ जैतियै हुनका, बस कही देलियै--पढ़ै में मोॅन नै लगावै छै, यही में कुछ कही देलियै तेॅ ई नारजगी छै...हमरोॅ बात सुनिये केॅ हुनी हाँसी पड़लोॅ छेलै। कहलेॅ छेलै--यै में हमरोॅ वकिलाय काम नै करेॅ पारेॅ। आपसे में मुद्य और मुद्दालय समझौता करी लौ, तेॅ अच्छा।
ई बीचोॅ में सृष्टि नें टेबुल के नीचें हाथ करी नै जानौं कखनी तेॅ कागज के बड़ोॅ रँ गुल्ली बनाय लेलेॅ छेलै आरो धरमचंद जी के जैत्हैं गुल्ली केॅ टेबुल पर राखी, विचलका अंगुली केॅ बुढ़वा सें टिकाय केॅ जे रँ उड़ैलेॅ छेलै कि ऊ गर्दन सें टकरैतें सीधे गंजी में जाय केॅ फँसी गेलोॅ छेलै। विचलित होय उठलियै, तेॅ सृष्टि बच्चे नाँखी ताली बजैतें खिलखिलाय पड़लोॅ छेलै। हमरा दिश से बेखबर। तखनी हम्में कत्तेॅ तेजी सें ऊ गुल्ली गंजी सें नकाललेॅ छलियै आरो टेबुले पर राखी ठीक होन्है केॅ उड़ैलेॅ छेलियै, जेनाकि वैनें आरो जबेॅ गुल्ली होन्है केॅ ओकरोॅ गर्दन सें टकरैतें ओढ़नी में फँसी गेलोॅ छेलै तेॅ हँसतें-हँसतें वैं कहलेॅ छेलै--"निशाना बाँधै छौ?"
सृष्टि के ऊ मुक्त हँसी के तुलना हमरोॅ पास कुछ नै छै--कुन्दन नें मने-मन सोचलेॅ छेलै--सेमर के रूई सें भी ज़्यादा गुदगुदोॅ, मुलायम आरो उजरोॅ; जेकरा देखी ऊ केन्होॅ मुग्ध होय उठलोॅ छेलै--जेना नद्दी सें वैनें पनसोखा उठतें देखलेॅ रहेॅ...
कुन्दन के आँख अपने आप बंद होय गेलै, जेना ऊ क्षण केॅ दोबारा देखैलेॅ चाहतें रहेॅ। आँख बन्द होलै तेॅ ओकरा यहो खयाल ऐलै, "गुनाहों का देवता" ओकरोॅ सिलेवस में तेॅ नै छै, फेनू कैन्हें सृष्टि नंे जिद्द करलेॅ छेलै कि अगला हफ्ता सें यहेॅ उपन्यास पर व्याख्यान होतै। उपन्यास थमैतें हमरा सें कहलेॅ छेलै, "गुरू जी, जों उपन्यास पढ़ियो चुकलोॅ छौ, तहियो पढ़ी केॅ ऐइयोॅ। मनोॅ में ढेरे सवाल छै, जे पूछना छै।" घोॅर लौटला पर वैनें पढ़ै के ख्याल सें उपन्यास उलटैनें छेलै। पन्ना उलटैतें एक चित्र देखलेॅ छेलै--किताब के पन्ने पर बनैलोॅ--एक ठूंठ छै, ठूंठ के फुनगी पर एक फूल आरो ठूंठ के आधोॅ भाग एक ठो विशाल अजगर के जबड़ा में फंसलोॅ। कुन्दन नें गौर सें देखलेॅ छेलै, ऊ छपलोॅ फोटो नै छेलै--हाथ सें बनैलोॅ गेलोॅ छेलै आरो चित्र के एक कोना में लिखलोॅ छेलै--सृष्टि। ओकरा आचरज होलोॅ छेलै--किताब के हर पाँच पन्ना के बाद वहेॅ चित्र बनैलोॅ गेलोॅ छेलै--छोटोॅ-बड़ोॅ आकारोॅ में। कै दाफी मोॅन होलोॅ छेलै--एकरोॅ माने सृष्टिये संे पूछी लै, मतरकि हेनोॅ नै करेॅ पारलेॅ छेलै।
बितलोॅ बातोॅ सें कटी केॅ कुन्दन नें सोचलकै--की हमरोॅ चिट्ठी ओकरोॅ सब सवालोॅ के उत्तर नै छेकै, ई सोचत्हैं, ओकरा एक झटका रँ लागलै आरो ऊ उठी बैठलै। फर्श पर चहलकदमी करेॅ लागलै। ओकरोॅ दिल अजीबे नाँखी धड़केॅ लागलोॅ छेलै, कभी तेॅ लागै, ऊ एकदम रुकी गेलोॅ रहेॅ आरो कखनियो-कखनियो एकदम तेज, जेना, छाती नै, भांती धुक-धुक करतें रहेॅ।
ओकरा ई बातोॅ के खयाले नै छेलै कि कोठरी में कजरोटी के कालिख रं अन्हार पसरी गेलोॅ छेलै। लैम्प दिश देखलकै, तहियो ओकरोॅ मोॅन होलै--कोय रौशनी नै करौं, हेने अन्हार रहेॅ दियै, मतर नै, जांे सृष्टि आविये जाय। ई बात मनोॅ में ऐत्हैं ऊ फेनू चौंकी पड़लै, जेना दरवाजा पर कोय दस्तक देलेॅ रहेॅ। वैनें घुमी केॅ देखलकै। मतर, हेनोॅ कुछुवे बात नै छेलै, कोय दस्तक देलेॅ होतियै तेॅ उत्तर नै पावी केॅ फेनू नै देतियै, केबड़ो तेॅ होन्हे भिड़कलोॅ छै। कुन्दन नें हुड़का छूवी केॅ देखलेॅ छेलै--कही वै भूलोॅ सें लगाय तेॅ नै देलेॅ छै; नै हुड़को खुल्ले छै। ओकर्है भरम होलै। वैनें खिड़की दिश देखलकै, वहू खुल्ला। कि तभिये ओकरोॅ मनोॅ में ऐलै--कोठरी में रौशनी नै देखी हुएॅ सकै छेॅ, सृष्टि लौटियो जावेॅ पारेॅ...मतर, है कि ज़रूरी छै कि सृष्टि आविये जैतै? ...जों नै आवै छै, तेॅ एकरोॅ मतलब होय छै कि कल सें हमरोॅ वहाँ जाना बन्द। ...अच्छा नै करलियै, हमरा हेना केॅ चिट्ठी ओकरोॅ हाथोॅ में थमाय केॅ नै आना छेलै। खोली केॅ पढ़लेॅ होतै तेॅ की-की सोचलेॅ होतै...मतर नै, सृष्टि, हमरा सें जे नै कहेॅ पारी रहलोॅ छेलै; वहेॅ तेॅ हम्मंे ऊ चिट्ठी में लिखलेॅ छियै। आबेॅ सब फैसला सृष्टि के हाथोॅ में छै। आरो ई हुऐ नै पारेॅ कि ऊ नै आवेॅ। ...कै दिन सें ओकरोॅ चुप-चुप बनी केॅ रहवौ--जानेॅ कत्तेॅ-कत्तेॅ बात कहै लेॅ चाहतेॅ रहेॅ, जेकरा वैं आपनोॅ बंद ठोर आरो कभी-कभी बंद आँखी सें कहै छेलै। हमरोॅ चिट्ठी ओकरोॅ शंका के निदान छेकै...आखिर बिना संदर्भे के वै कैन्हें ई पूछी बैठलोॅ छेलै--कुन्दन, उर्वशी की ठिक्के में पुरूरवा के पुकार पर स्वर्ग सें दौड़ी केॅ धरती पर आवी गेलोॅ होतै? आरो हमरोॅ ई कहला पर, "सिद्ध करना छाैं की?" ऊ की रँ कठुआय केॅ रही गेलोॅ छेलै...नै हम्में कुछुओ ग़लत नै लिखलेॅ छियै, ऊ सृष्टि के मनोॅ के बात छेकै...
कि तखनिये भिड़कलोॅ केबाड़ खुललै। केवाड़ केॅ हौलें सें पीछू करलोॅ गेलोॅ छेलै। सृष्टि केॅ देखत्हैं, कुन्दन आगिन पर चढ़लोॅ दूध नाँखी उफनाय उठलै। जेना कोय गुफा में खजाना के द्वार मिली गेलोॅ रहेॅ ओकरा। मुँहोॅ सें निकललै, "सृष्टि! हमरा पूरा विश्वास छेलै, तोहें हमरोॅ पुकार पर ज़रूर ऐवौ, तोहें रुकै नै पारौ...अरे, द्वारिये पर कैन्हें छौ, भीतर आवोॅ..." कुन्दन नें दोनों हाथ बढ़ैलेॅ छेलै।
"नै कुन्दन, नै।" फेनू सृष्टिं नें चिट्ठी केॅ कुन्दन के हाथोॅ में थमैतें कहलेॅ छेलै, "ई तोरोॅ चिट्ठी होन्है केॅ बंद छौं, जेना तोहें देलेॅ छेलौ। शैत एकरा खोलै के हमरा कोय ज़रूरते नै छेलै। हमरा तुरत लौटना छै, बाबूजी के लौटै सें पहिल्हैं।" एतना कही सृष्टि दरवाजा के दोनों फाटक केॅ फेनू सें भिड़कैलेॅ छेलै आरो सड़क पर उतरी ऐलोॅ छेलै। बदहवास बनलोॅ कुन्दन नें खिड़की सें ही सड़क के रौशनी में देखलेॅ छेलै--एक छाया धीरें-धीरें लम्बा होलोॅ छै, जे ओकरोॅ खिड़की पर फैली केॅ हठाते खतम होय गेलोॅ छेलै।