वापस हृषीकेश / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जब हम लौटे तो बहुत तेज चले जैसा कि पहले कहा हैं। खाने-पीने के लिए इस बार हमने किसी भक्तजन की कतई परवाह नहीं की। सिर्फ सदरावत्ता या अन्न क्षेत्र में ही खा लेते। वह क्षेत्र दूर-दूर थे। इसलिए उसी हिसाब से हमें तेज चलना पड़ता था। जूता न पहनने और ज्यादा चलने का नतीजा हुआ कि हमारे दोनों पाँवों के तलवे छिल गए और लहू-लुहान हो गए। मगर करना क्या था?किसी प्रकार यात्रा तो पूरी करनी ही थी। जैसा कि बताया है, छ:-सात दिनों में ही प्राय: दो सौ मील की यात्रा करनी पड़ी! जो लोग लौटते हैं वह अलमोड़ा, काशीपुर के रास्ते से लौटते हैं। मगर हमें तो पुन: हृषीकेश आना था। अत: उस रास्ते हम नहीं गए। आखिर कार हृषीकेश आ ही गए। लेकिन बर्फानी हिस्से से आने के कारण हृषीकेश में लू मालूम पड़ती थी। जहाँ तक हमें याद है, ज्येष्ठ का महीना शुरू ही हुआ था। क्योंकि अक्षय तृतीया के कई रोज़ बाद तो हम चले ही थे और रास्ते में हफ्ते भर लगा। इस प्रकार सन 1908 ई. के जून में हम आ गए। प्राय: इसी समय गत वर्ष (आषाढ़) में काशी से रवाना हुए थे। एक वर्ष के भीतर ही हमने पैदल ही न जाने कितना फासला तय कर लिया और कितना अमूल्य अनुभव प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं। योगी के मिलने और योगाभ्यास करने की हमारी आशा पर पानी भी फिर गया। हम उससे एक प्रकार से निराश हो गए। यों कह सकते हैं कि हमारे संन्यासी जीवन के प्राय: एक वर्ष के बीतते-न-बीतते उसका पूर्व खंड खत्म होने को आया और थोड़े ही दिन के बाद मध्य खंड शुरू हुआ।