वापिसी / लाल्टू
नौ वर्षों के बाद फिर गाँव लौटा है जसविंदर। कटे, पर लंबे बालों और लंबी दाढ़ी के साथ काले चश्मे ने पहले ही उसे बाहरी छाप दे रखी थी, ऊपर से टी शर्ट, पीली सी, और कार्डराय की पैंट ने तो बिल्कुल खुफिया ही बना दिया। वह गलियों से गुज़र रहा था और लोग उचक उचक कर झाँक रहे थे। एक जगह रुक कर उसने पूछा, “करम सिंह का घर किस ओर है ?”
“कौन सा करम सिंह ?”
”करम सिंह सिद्धू।”
”ओ अच्छा! अगला मोड़ छोड़कर आगे दाएँ मुड़ जाना ....,” फिर जरा रुककर अगले ने सवाल पूछा, “क्यों, तुम नैबा के बेटे तो नहीं?”
“जी नहीं, मैं उनके बड़े भाई करनैल सिंह का बेटा हूँ।"
“हां! मैं तो वैसे ही पूछ रहा था,“ जसविंदर को बड़ा अजीब लगा, किस तरह उस आदमी ने हाँ कहा, जैसे वह बिल्कुल उदासीन था। वह आदमी थोड़ी दूर जाते एक लड़के को देख अब पुकार रहा था, "ओए, इसे जरा ले जाना करम सिंह के घर।"
जसविंदर उस लड़के को पहचान न पाया। पर जगराज उसे पहचान गया था।
“पछाणा नहीं ... अरे पिछली दफा उस बंगाली लड़के के साथ आए थे .... मैं ही तुम्हें शहर छोड़ आया था जब तुम लौटे...!”
“....!” जसविंदर को नौ वर्ष पुरानी घटनाएँ हल्की सी याद आईं। उन दिनों यहाँ केवल सतही शांति न थी। राह चलते लोगों को संशय की नजरों से नहीं देखता था वह। उसकी उम्र भी कम थी । मन में गाँव के प्रति रोमांटिक एक भाव था। अब तो ज़रूरत पड़ने पर ही आया है वह और जब से दिल्ली से चला है मन में एक नया डर समाया हुआ है...क्या पता ..।
गाँव में आते ही उसके नथुनों में मिट्टी की पुरानी महक अचानक आ बैठी थी और वह बार बार खुद को सचेतन इसमें डुबो रहा था। उसे आश्चर्य भी हो रहा था कि जिस गाँव में फिर से लौटना उसने असंभव ही समझा था, अचानक यह आत्मीयता उसी गाँव की गलियों, दीवारों में उसे कैसे दिखने लगी। फिर उसे लगता यह महक महज़ इस गाँव की नहीं, बल्कि उसके पूर्वजों की है।
चाचा करम सिंह के घर उस वक्त केवल औरतें थीं; उसकी चाची और बहन गेबली। चाची ने पहचाना नहीं। उसने 'मत्था टेका' तो वह संशय की नज़रों से इस छोकरे की ओर ताकती रही। जब उसने अपना परिचय दिया तो वह आनंद से चीख पड़ी, “अरे हाँ पुत्त! तेरी चिट्ठी आई सी, असीं सोचदे ही सी कि हुण आया, हुण आया... हैं, तैं ए की शक्ल वणाई ऐ, मैत्थों पछाण्या न जाए !”
जसविंदर अचानक ढीला सा हो गया। अचानक उसे महसूस हुआ कि अब तक वह किसी अंजान तनाव में फँसा हुआ था। चाची का स्नेह जैसे एक ऐतिहासिक आवाज़ थी जो उनके अन्दर गहराइयों को कहीं छू रही थी।
जब तक वह नहा चुका था, छोटा चाचा स्वरन सिंह आ चुका था। वह गुसलखाने स निकल बड़े कमरे की ओर जा रहा था तो आँगन में बँधी भैंस ने उसकी ओर सींगे हिलाईं। वह क्षण भर के लिए रुक गया। स्वरना ने हल्की हँसी के साथ कहा, “शहरी कपड़ों में तो बस इन्हें डाक्टर ही दिखते हैं।” फिर भैंस को संबोधित कर उसने कहा, ”कमलीए ! यह तो साड्डा बिंदर है ! इसने नीं सूआ लाणा तैनूं ...।” बाद में उसे पता चला था कि उस जैसे कपड़े पहन शहरों से पशु - चिकित्सक यहाँ आते हैं और भैंसें उनके सूओं (इंजेक्शनों) से घबराती हैं। उसने चाचा को सत् श्री अकाल की और दो चार औपचारिक बातों के बाद अन्दर चला गया।
दोपहर को वह खेत देखने गया। बाप दादों की ज़मीन उसके और भाइयों के बीच बँटते बँटते अब तीन किल्ले बच गई थी। हर साल भाई ही आते रहते थे जयपुर से। उसने कई दफा कहा था कि जिस ज़मीन को वो जोतते नहीं, उसको रखे रहने का अधिकार उन्हें नहीं था। भाई दुनियादार थे। उन्हें अगर ज़मीन छोड़नी थी तो गाँव का मकान तक बेच देने की ज़िद थी। यहीं जसविंदर को आपत्ति थी। उसके मन में एक भावुक आकांक्षा अकड़ कर बैठी थी कि कभी न कभी वह वापस आकर गाँव में बसेगा। पर कितना बड़ा विरोधाभास था उन सबमें। एक ओर पिछले नौ वर्षों में छः घंटों की दूरी पर दिल्ली शहर में रहते हुए वह यहाँ न आ पाया था और आज परिस्थितियों ने किस तरह उसे यहाँ लाकर खड़ा किया था। एक ओर हाल की घटनाओं से भाइयों को लगने लगा था कि शायद ज़मीन न ही बेचें तो अच्छा होगा, वहीं वह भी अपने शहर से घोर नफ़रत करने लगा था। उसका गाँव में आना महज़ एक असहाय इंसान की एक प्रतिक्रिया थी, जो परिस्थितियों की विकरालता से सबराकर सहज समाधान ढूँढने लगता है।
चाची ने गेबली को साथ गड्डे पर भेज दिया था। गेबली को इसलिए भेजा गया था कि उसे कोई तकलीफ न हो। दुनियादारी की इन बातों में उसे कोई रुचि नहीं थी। उसे मालूम था कि चाचा बस यही चाहते हैं कि ज़मीन का ठेका इस साल फिर उन्हें मिले। जसविंदर ने कभी ज़मीन की लिखा पढ़ी समझने की कोशिश भी नहीं की थी। खेत जाते वक्त गेबली से वह बातें करना चाहता था। उसके मन में कई सवाल थे। आखिर गाँव की एक औसत लड़की से फिर कब मुलाकात होगी !
गेबली ने ही अधिक बातें की। वह उसे बतलाती रही ...”यह नैब सिंह का खेत है... वह जो बेरी का बूटा है, उसके बाद अपने ताए माधे की ज़मीन है। इस बार मूंगफली बोई है उसने...।” वह बीच बीच में 'हूँ, हाँ' करता रहा। मन ही मन अपने सवालों को जमा करता जा रहा था। ...कैसे सपने होंगे गांव की इस मुटियार लड़की के ... क्या वह अपनी सगाई से खुश है... क्या वह ऐसे घर जाने में खुश है, जहाँ वह पहले कभी नहीं थी ...?
अप्रैल की धूप इतनी कड़ी तो न थी, फिर भी उसे लगा जैसे कहीं छाँव में बैठकर वह सारे दिन गेबली से बतियाता रहे। पर उसे मालूम है कि गेबली फुर्सत वाली लड़की नहीं है। उससे छूटते ही वह पचासों कामों में लगा जाएगी। उसे अपनी शादी के लिए रंगीन चादरें भी तो बुननी हैं फुल्कारी वाली ....।
खेत पहुँचे तो करम सिंह पहले से ही मौजूद था। उसने गेबली की ओर देखा और कहा, “स्वरना नहीं आया, तेरे को क्या पता इन शहरी साहबों की हिफ़ाजत कैसे करनी होती है...?
वह शर्म से झेंप उठा। चुपचाप आगे की ओर बढ़ गया। करमे ने सुखसांद पूछी और कहा, "वह देखो जो दूर तक गेहूँ की फसल दीखती है, यह सब तुम लोगों की अपनी ज़मीन थी। फिर नैबे ने कुछ बेच दी नशे में .... अब इधर तीन किल्ले ही रह गई ।”
जसविंदर को मन ही मन हँसी आई। उसने सोचा - इंसान कैसा अनोखा जानवर है। मिट्टी और फसल से किस कदर जुड़ जाता है। खून बहाता रहता है और फिर कोई पीढ़ी अचानक न ही मानो किसी महासमुद्र में बह जाती है कहीं और इतिहास की लहरों में ...और शायद वही लहरें फिर कभी लौट आती हैं उसी किनारे .... नहीं तो आज जो उसके अन्दर पीढ़ियों की एक आवाज़ गूँज रही है - 'देखो, यह ज़मीन तुम्हारे खून से जुड़ी है ; इस ज़मीन पर जुते हल, यहाँ बही पसीने की बूँदें, यहाँ हुए इश्क और बलात्कार, इन सबकी पैदाइश हो तुम -' इस आवाज़ से कैसे वह कभी टूट चुका था और फिर कैसे यह आवाज़ वापस आई है उस तक ....।
सारा दिन खेत में ही गुज़र गया। घर से एक फ्लास्क में चाय लेकर स्वरना भी आ पहुँचा था। वह सुबह सुबह शहर निकल गया था। खेती का सामान चाहिए था और बिजली का सामान भी। जसविंदर ने बतलाया था कि मास्टर प्लग और एक्टेंशन वायर मिल जाएँ तो वह उसकी थ्रेसर मशीन के पास ही ट्रांजिस्टर सेट का कनेक्सन लगा देगा और फिर उसे बार बार बैटरी नहीं खरीदनी पड़ेगी। नौ साल पहले जब जसविंदर आया था, तब यहाँ बिजली आए साल भर भी नहीं हुआ था और अब दस सालों में लोग इस कदर बिजली के आदी हो गए हैं जैसे युगों से बत्ती, पंखों का उपयोग कर रहें हों।
स्वरना और करम घन्टों उसे खेती के बारे में समझाते रहे। वह सिर हिलाता आधी चेतना से उनकी बातें सुन राह था। बीच बीच में टोक कर कृषि के बारे में दो चार वैज्ञानिक सवाल पूछ लेता। फिर कभी वह खयालों में खो जाता। वह सोचता कि काश वह इतने पैसे इकट्ठे कर पाता कि बाप दादों का मकान गाँव में फिर से खड़ा कर लेता तो शायद बीच बीच में यहाँ आ पाता। शहर की कृत्रिम ज़िंदगी से अलग यहां लोगों से घुलमिल पाता। और काम भी यहाँ करने को कोई कम नहीं। और कुछ नहीं तो पिछले कुछ वर्षों में आए बदलावों का अध्ययन ही करता। शायद गुरूद्वारा अधिकारियों से कहकर एक पुस्तकालय खुलवा सकता ... कितना कुछ करने को पड़ा है। पर उसकी इतनी हैसियत ही कहाँ कि बाप दादों के पुराने मकान की वह मरम्मत करवा सके। गेबली ने सुबह दो बार पूछा था कि घर देखने चलना है या नहीं। वह केवल आसमान की ओर देखता इतना ही कह पाया था, “हाँ, वक्त निकाल कर वहाँ भी जाना तो पड़ेगा।”
लौटते वक्त वह फिर अकेला गेबली के साथ लौटा। इस बार उसने गेबली से बहुत कुछ पूछने की हिम्मत की। एक बात जिस पर दिल्ली में भी विवाद करता रहता है, उसने पूछा कि गेबली के नाम ज़मीन का हिस्सा नहीं दिया जाना ठीक है या नहीं। गेबली हँस पड़ी और बहुत भोलेपन से उसने कहा, “बिंदरे, लड़कियों को तो ज़मीन बिल्कुल नहीं देनी चाहिए।” वह बुरी तरह हताश हो गया। थोड़ी देर उसने गेबली को अपने अधिकारों के बारे में समझाने की कोशिश की। पर गाँव की लड़की गाँव के व्यावहारिक दस्तूरों को ही समझती है। मन ही वह सांस्कृतिक आंदोलनों की ज़रूरत पर बहस करता रहा।
दूसरे दिन करम चाचा उसे साथ लेकर मुर्गा लाने गया। वे एक के बाद एक कई घर घूमते रहे जहाँ मुर्गे पाले जाते हैं। हर जगह लोगों ने साफ मना कर दिया कि मुर्गा वे नहीं देंगे। अंत में सरपंच के घर जाकर उसके भाई को साथ लेकर वे हरदयाल बाजीगर के घर आए। जब करमे ने काफी देर तक उसे समझाया कि करनैले का बेटा आया है और किसी को पता तक न चलेगा कि उसने मुर्गा बेचा है, तो वह माना। पर उसने काटने से मना कर दिया। जसविंदर ने सुना तो था कि खालिस्तानियों ने पोल्ट्री व ठेकों पर आतंक मचा रखा है, पर इसका कोई वास्तविक प्रभाव भी है, यह उसने सोचा न था। उसे शर्म, क्षोभ, कई भाव एक साथ तड़पाते रहे। बाद में जब उसने करमे से पूछा कि इसकी कोई सच्ची वजह भी है तो करमा झुंझला कर बोल उठा, “ऐवें ही सब अफवाहें फैला देते हैं। गाँव के सीधे लोग डर जाते हैं। कल किसी मूर्ख ने कह दिया कि एक नंगे सिर सिंघणी का किसी सरदार ने सिर उड़ा दिया। अब बोल बिंदरे, क्या मिलता है लोगों को ऐसी अफवाहें फैला कर ?”
उस दिन सुबह से वह उदास था। सुबह सुबह वह अपना टूटा हुआ मकान देख आया था। घर तो क्या देखा - बस पुरानी यादों को जीना भर था। दादी की कोठरी में अभी भी उनका पलंग पड़ा था। वह जब भी उस पलंग पर दादी के साथ सोता था, सुबह ज़मीन पर गिर पड़ता। फिर उसी छोटी अलमारी में उसकी बचपन की किताबें अभी तक पड़ी थीं। पड़ोसियों से मिला। भानो ताई तो रो ही पड़ीं - “वे तू किड्डा बड्डा हो गया...।” सब उसे बार बार कहते कि अब वह यहीं आ कर बस जाए। और वह भी जैसे अनचाहे ही मन में योजनाएँ बनाने लग गया था कि कैसे यहाँ कम से कम हफ्ते में दो दिन तो गुजार ही सकता है। शायद यहाँ बच्चों के लिए पुस्तकालय खुलवा सकता है या कोई पत्रिकाओं की दूकान ही खोल सकता है। शायद ... इन्हीं खायलों के साथ ही कहीं वह इस सच्चाई से वाकिफ था कि उसकी ये तमन्नाएँ बस दो तीन दिनों की ही हैं। वापस जब वह दिल्ली लौटेगा, वह सब कुछ भूल जायेगा और उसी शहरी ज़िंदगी की मार काट में जुट जाएगा, जिसमें जीते जीते उसने कई ज़िंदगियाँ गुज़ार दी हैं।
उसके चिंतन पर परिस्थितियों का प्रभाव गहरा पड़ा था। पहली दफा उसने गाँव के हिंदू आवासियों के बारे में सवाल पूछे थे; पहले खुद से, फिर अपने चाचाओं से। उसे यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि गाँव में एक 'माता' का मंदिर भी है और दूर दूर से हिंदू वहाँ 'श्रद्धा' से आते हैं। उस दिन शाम से ही ढोल की आवाज़ें आ रही थीं और करम चाचा ने कहा भी, ”यह जो आवाज़ आ रही है, यह मंदिर में पूजा की है ....।” फिर उसने रुककर जैसे जसविंदर के खयालों को भापते हुए कहा था, ”चिंता न कर बिंदरा, इस गांव में सब ठीक है। यहाँ क्या क्या नहीं हुआ। कैसे कैसे लोगों पर विपदाएँ आईं, गाँव वालों ने सबकी रक्षा की।”
उन लोगों ने 'घर की निकाली' खास दारू पीनी शुरू की थी। जसविंदर सावधानी से पी रहा था। उसे मालूम था कि ये लोग उसे बेहोश तक कर डालेंगे अगर उसने जरा सी ढील की। करमा कहते जा रहा था, ”अरे, यहाँ कितने नक्सली हो गये। वह अपणा मित्त का भाँजा, उसके लिए तो पुलिस वालों ने उनका घर ही जला देना था। पूरा गाँव ही 'कट्ठा हो गया था उनकी रक्षा के लिए ...जबकि हम जाटों को मालूम है कि साले नक्सली हमारी ज़मीनें छीन लेना चाहते हैं।
बात इस ओर आ गई तो जसविंदर जरा परेशान होने लगा। उसे वामपंथियों से सहानुभूति थी और जैसे उनके बचाव में ही बोल पड़ा, ”नहीं चाचा,, जमींदारों में भी कुछ छोटे और कुछ बड़े होते हैं...।”
बीच में ही करमा हँस पड़ा, “मैंने जानकर यह बात छेड़ी थी। मुझे लगा कि तू कामरेडों का बंदा हैं। तू बड़ा समझदार है बेटा। पर हमें नहीं समझ आता,क्या होगा हम लोगों का, बुरे दिन आ रहे हैं....।”
जसविंदर चौंक पड़ा। गाँव वाले भी कैसे अजीब होते हैं। जैसा चाहो वैसा बोल देंगे। फिर भी उसने गंभीरता से पूछा, “आपको कैसा लगता है, क्या सैंतालीस की तरह कुछ होने वाला है ?”
“नहीं, अब लोग वैसे नहीं बेटा। अब तो लोगों में काफी समझ आ गई है। पर लड़के तो लड़के ही होते हैं। खासकर बड़े जमींदारों के लड़के तो होते ही हैं शैतान, जब मर्जी बंदूक उठा ली और लोगों को धमकाने निकल पड़े।"
काफी रात तक वे बातें करते रहे। स्वरना बीच बीच में बोलता। खाना खा चुकने के घंटे भर बाद गेबली उसके लिए दूध का ग्लास ले आई और बड़े प्यार से उसने पूछा, “बीरा, तुम कल ही क्यों जा रहे हो, रह जाओ न कुछ दिन और?”
जसविंदर को लगा जैसे वह सचमुच न जा पाएगा। उसने हँसकर कहा, “अब देख तू पीछे पड़ जाएगी तो मैं कैसे जा पाऊँगा।”
“मैं तो दरवाज़े पर लाठी खड़ी हो जाऊँगी। जाने न दूगी।”
“अब देख उस दिन खेत से लौटते देख लिया था सिंघों ने कि तू नंगे सिर मेरे साथ जा रही थी। अब तो वे मुझे खदेड़ कर ही छोड़ेंगे।” पूरी बात कह चुकने के बाद जसविंदर को लगा कि वह भद्दा मज़ाक कर गया। जसविंदर को यह अहसास थोड़ी देर तंग करता रहा। साथ ही उसे वह लड़की याद आ गई, जिसे उसने मोगे शहर में बस से उतरते वक्त देखा था। वह चुस्त शहरी लड़की जीन्स पहने कितनी आधुनिक लग रही थी और वहाँ से कुछ ही मीलों दूर इस गाँव में संस्कृति के बन्धन कितने पुराने हैं। उसके अवचेतन मन में वह शहरी लड़की बार बार उभरती और उसकी प्रत्यक्ष स्वच्छंदता को वह गेबली और गाँव की अन्य लड़कियों पर बार बार थोपना चाहता।
रात को पलंग पर लेटे वह काफी देर तक सोचता रहा। नशे में आँखें भारी हो चुकी थीं। धुंधले आकाश में तारे ही तारे थे। धुंधलेपन में भी उसे स्पष्ट लग रहा था कि ऐसा साफ आस्मां दिल्ली में उसने कभी नहीं देखा। अचानक उसे अपनी ज़िन्दगी बड़ी तुच्छ सी लगी। फिर उसे वही विचार आ घेरने लगे कि उसे यहीं रह जाना चाहिए। सोने के पहले उसने करम चाचा से कह दिया था कि सुबह वे ट्रैक्टर में उसे बस स्टाप तक छोड़ आएँ। वह संशय में पड़ा रहा। फिर जैसे झटके में आ कर सोचा, 'यह किस भुलावे में फँसता जा रहा हूँ मैं ! मैं यहाँ कैसे रह सकता हूँ। माई गाड, मुझे कल ही भागना पड़ेगा।'
सुबह सूरज उगने से पहले ही वह तैयार हो चुका था। गुरूद्वारे के लाउडस्पीकर से कोई खोई हुई रात पर जुम्ले कस रहा था और फिर शबद कीर्तन होने लगा था।
जब ट्रैक्टर पर चढ़ वह चलने लगा तो आधा मुहल्ला इकट्ठा हो गया। करम चाचा ने कहा, “देख विंदर, तुझ पर लोगों को इतना गुमान है कि सारे इस तड़के चले आए तुझे विदा करने।”
फिर धीरे धीरे वह गाँव पीछे छूट गया। बस में चढ़ने के बाद से ही उसके मन में फिर से आंतक की वह धारा बहने लगी जो दिल्ली से यहाँ आते उसे सहनी पड़ी थी। उसे लगा कि बस की यह यात्रा जैसे किसी युद्धक्षेत्र की यात्रा है। किसी भी वक्त कुछ भी हो सकता है।
मोगे में आकर दिल्ली की बस पकड़नी थी। पहली बस के टाइम के अनुसार वह लेट था। इतनी सुबह अब दूकानें नहीं खुलतीं, इसलिए उसे पता तक नहीं चला कि वह बस आई भी या नहीं। घंटे भर दूसरी बस के लिए इंतजार करना था। आसपास लोग अखबार पढ़ते और टिप्पणी करते जा रहे थे। कहाँ कितनी मौतें हुईं। पंजाब तो जल चुका, वगैरह। उसे लगा लोग यह सब कह रहे हैं इन क्षणों के आतंक को छिपाने के लिए; जैसे ऐसा कहते रहने पर आतंक के देवता खुश हो जाएँगे और उन पर कहर न बरसाएँगे।
वह पाषाणयुग का एक इंसान एक जंगल में खड़ा। और कहीं से भी एक शेर या कोई विषैला साँप उसे निगल जाने के लिए सामने आ जाए। गहरा एक अवसाद, ग्लानि।
घण्टे भर तक जब बस न आई तो दो चार लोग कहने लगे कि लुधियाना में गोली चली है, इसलिए बसें डाइवर्ट हो गई हैं। उसी तरह काफी देर तक बातचीत चलती रही। बीच में सैनिक वाहनों का एक कानवाय गुज़रा। लोग आधुनिक प्रक्षेपास्त्रों से युक्त गाड़ियाँ देख रहे थे, टिप्पणियाँ कर रहे थे। पूरे माहौल में एक अजीब सा बनावटीपन, तनाव भरा पर हास्यास्पद सा कुछ था। जसविंदर खयालों में खोया हुआ था कि पास खड़ा एक व्यक्ति बोल उठा, “अब तो हो गई छुट्टी, देखते हैं कोई ट्रेन मिले तो ...।”
जसविंदर धीरे धीरे वापस लौटने को लोकल बस स्टाप की ओर बढ़ा। गेबली का प्रसन्न चेहरा उसकी आँखों के सामने तैरने लगा। उसने सोचा वह कितनी खुश होगी और कहेगी कि वह हमेशा के लिए वहीं रह जाए। पर उसे पता था कि वह कल सुबह फिर बस पकड़ने के लिए लौटेगा।