वामपक्ष का मेल / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
मैं अपने इस जीवन-संघर्ष की गाथा को पूरा करने के पहले एक जरूरी बात कह देना चाहता हूँ, जिसमें मैंने बहुत दिलचस्पी ली और अंत में ऊब कर जिसे छोड़ा, वामपक्षी मित्रा प्राय: कहा करते थे कि यदि आप चाहें तो वामपक्षीय दलों का परस्पर मेल हो सकता है। मगर मैं इसमें पड़ता न था। परंतु जब त्रिपुरी के बाद पड़ा तो देखा कि इस मेल काविरोधहोने लगा। जो सबसे समझदार थे वही ऐसा करते थे! लेकिन सन 1939 के जून में बंबई में जब फारवर्ड ब्लॉक की पहली कॉन्फ्रेंस हुई तो श्री नरीमान आदि ने मुझसे पूछा कि कोई कॉन्फ्रेंस वामपक्षियों की की जाए? मैंने हाँ, कहा। बंबई जाने पर सद्भाव प्रदर्शनार्थ वहाँ गया भी और बोला भी। उसके बाद सभी वामपक्षीय दलों की बैठक सुभाष बाबू के डेरे में हुई। कई दिन की कोशिश के बाद आखिर मेल हुआ और संयुक्त वामपक्ष कमिटी (Left Consolidation committee) भी बनी। उसमें सभी दलों के प्रतिनिधि रहे। मैं और प्रो. रंगा किसी दल के न होने के कारण किसान-सभा के ही समझकर उसमें रखे गए। बंबई में उस कमिटी का काम खूब चला। बराबर बैठकें हुईं और आल इंडिया कांग्रेस कमिटी में किस प्रस्ताव पर क्या किया जाए, कौन क्या बोले, क्या संशोधान लाएँ और कौन से प्रस्ताव लाएजाएआदि बाएँ तय हुईं।
उसी समय आल इंडिया कांग्रेस कमिटी में वर्किंग कमिटी के प्रस्ताव आए कि बिना प्रांतीय कांग्रेस की आज्ञा के कोई सत्याग्रह न करे और न प्रांतीय कमिटियाँ मंत्रियों के रास्ते में दिक्कतें डालें। सीधा अर्थ था बिहार का किसान सत्याग्रह बंद करने का और कांग्रेस को मंत्रियों के अधीन करके वैधानिकता की छाप उस पर लगाने का। हम सबों ने दोनों का विरोध करना तय किया। बहुत साथी बोले। सुभाष भी बोले। मैंने साफ कहा कि मैं इसे मान नहीं सकता। आप साफ कहिए कि हम कांग्रेस से निकल जाए। यह द्रविड़ प्राणायाम क्यों? इसके बाद मैं बंबई से चला आया।
मगर वामपक्ष कमिटी ने तय किया कि 9 जुलाई को भारत भर में इन दो प्रस्तावों का विरोध हो। बस, यहीं से फिर गड़बड़ी हुई। रायसाहब का दल तो 9 जुलाई को ही उस कमिटी से अलग हुआ। दूसरे दल अलग तो न हुए। मगर 9 जुलाई को विरोध दिवस बहुतों ने न मनाया। हमने तो पटने में जम के मनाया। उसके बाद सुभाष बाबू कांग्रेस की चुनी कमिटियों से निकाले गए। फिर भी देखा कि समाजवादी लोग ढीले पड़ रहे हैं। प्रांतों में कुछ न किया गया।
फिर कलकत्ते में उस कमिटी की बैठक हुई जिसमें सभी दलवाले थे। लेकिन वे लोग उस कमिटी से डर रहे थे ऐसा अंदाज लगा। वहीं राष्ट्रीय-संग्राम सप्ताह मनाने का तय पाया। मगर मैंने बहुत दर्द के साथ देखा कि हमारे बड़े-से-बड़े समाजवादी पटने में बैठे रहे और मेरे लाख कहने पर भी उनने 31 अगस्त से 6 सितंबर तक एक दिन भी उस सप्ताह में मीटिंग तक न की। मुझे बड़ी तकलीफ हुई। पीछे तो बिहार कांग्रेस ने मुझे भी कांग्रेस से अलग कर दिया, क्योंकि मैं सत्याग्रह चलाता ही रहा। रोका नहीं।
यूरोपीय युध्द छिड़ने पर अक्टूबर में नागपुर में साम्राज्यविरोधी सम्मेलन सभी दलवालों से पूछ कर हुआ। मगर समाजवादी उसमें न आए। हालाँकि मैंने श्री जयप्रकाश बाबू से पहले ही पूछ लिया था। मुझे खेद हुआ। फिर 11-12 अक्टूबर को हम सभी लखनऊ में मिले। मगर देखा कि समाजवादी अपनी डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग ही बनाएँगे। मैं उन्हें समझा कर हार गया। वहाँ से बिहार में लौटा और अन्य समाजवादी साथियों से बातें कीं। वे राजी हुए कि खुशी-खुशी मिल कर लड़ें। फिर भी न जानें क्यों बात कह के भी चुप्पी साध ली! बस, 7वीं नवंबर को मैंने एक लंबा पत्र सबों को लिख कर सबों से नाता तोड़ लिया। पत्र में इसके सभी कारण दिए गए हैं।