वायदा-संस्कृति के युग में /गिरिराज शरण अग्रवाल
'इस बार राजा बेटा होली पर हम तुम्हें ऐसा बढि़या सूट बनाकर देंगे, ऐसा बढि़या कि जिसे देखकर तुम्हारी आँखें चकाचौंध हो जाएँगी।' हमने अपने इकलौते बेटे हंसराज की पीठ थपथपाते हुए उसे पूरे आत्मविश्वास के साथ वचन दिया। हमने देखा कि राजा बेटा की आँखों में भरोसे की एक अजीब-सी चमक आ गई है और वह बेचारा कल्पना में अपने आपको नए-नए सूट में सजा-बना देखकर साथियों पर रौब जमा रहा है। हमारी बात सुनी तो राजा बेटा ख़ुश होकर बोला-'क्यों पापा, सूट ही सूट या बूट भी?'
हमने देखा उसकी हवाई चप्पल की पट्टी अँगूठे और उँगली के बीच वाले सूराख़ से बाहर आने का प्रयास कर रही है। हमने झट से वायदा कर लिया कि सूट ही नहीं एक बढि़या-सा बूट भी। पिछले पचास वर्षों में हम कम-से-कम इतना तो सीख ही गए हैं कि वायदा-संस्कृति क्या होती है। सच-सच बताएँ तो हमें यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि संसार में अब तक जितनी भी संस्कृतियाँ प्रचलित हुई हैं, उनमें सबसे बढि़या वायदा-संस्कृति ही है और इन दिनों हमारे देश में इसका बोलबाला है। जनता इस वायदा-संस्कृति को लेकर शान के साथ जीती है और ख़ून के आँसू पीती है। वायदा-संस्कृति ही एकमात्र ऐसी संस्कृति है, जिसमें मनुष्य के पल्ले से तो कुछ जाता नहीं पर रंग हमेशा चोखा आता है। हम चूँकि पिछले पचास वर्षों के दौरान इस संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए थे और इसके गुणों से भली प्रकार परिचित हो चुके थे, इसलिए हमने न तो अपनी जेब देखने का कष्ट किया और न पर्स देखने का, झटपट वायदा कर लिया राजा बेटे से, नए सूट के साथ नए बूट का भी।
राजा बेटा अब कोई नादान बच्चा तो रहा नहीं है, जूनियर हाईस्कूल का विद्यार्थी है लेकिन जैसा कि आप जानते हैं कि वायदा-संस्कृति में तो अच्छे-अच्छे सयाने मुगालता खा जाते हैं और आप यह भी जानते ही हैं कि खाने की अब तक पैदा हुई सारी चीज़ों में मुगालता ही एक ऐसा स्वादिष्ट आहार है कि जिसे खाने के बाद आदमी को किसी और चीज़ की इच्छा नहीं रहती है। करोड़ों लोग पिछली आधी शताब्दी से मुगालता खा रहे हैं और निष्ठापूर्वक राष्ट्र की सेवा कर रहे हैं। मुगालता खाने-खिलाने के मामले में और तो कुछ नहीं, बस इतना देख लेना काफी है कि इसे खिलानेवाले अपनी कला में कितने दक्ष और खानेवाले इसे खाने के कितने इच्छुक हैं।
तो साहब हमने अपनी वर्तमान वायदा-संस्कृति के अनुसार मुगालते का चटपटा व्यंजन राजा बेटे के सामने पूरी ढिठाई के साथ परोसा, उसने खाया, ख़ुश हुआ और वह पहले से ज़्यादा हमारी सेवा करने लगा। यही हम चाहते भी थे।
रात में जैसे ही हम थके-हारे घर आते और भोजन करके अपनी ढीली खाट पर चित्त हो जाते, राजा बेटा एक आज्ञाकारी सेवक की भाँति आता और झूम-झूमकर हमारे पाँव दाबने शुरू कर देता। हम देखते कि गिरेबान के अंदर से उसकी बनियान अपने जगह-जगह से फट जाने का ऐलान कर रही है। कमीज़ बगलों के पास से दरक गई है, कफों की सीवन उधड़ गई है, पायजामा घुटनों के पास से घिस गया है। पर हम उसकी दुर्दशा को देखकर या तो आँखें मूँद लेते या अपनी राष्ट्रीय वायदा-संस्कृति पर चलते हुए अपने पहले के सौ बार दोहराए हुए वचन को एक बार फिर दोहरा देते।
'राजा बेटे चिंता न कर। अबके होली पर बहुत बढि़या सूट बनाकर देंगे तुझे।'
राजा बेटा सुनता तो स्वप्नलोक का भ्रमण करते हुए हमसे पूछता, 'पापा! सूट ही या बूट भी?'
हम तुरंत वायदा करते, 'अकेला सूट ही नहीं बेटे, साथ में बूट भी।' इतना सुनते ही उसकी उँगलियाँ हमारी पिंडलियों को और बढि़या ढंग से दबाने लगतीं। वायदा-संस्कृति की सबसे बड़ी ख़ूबी ही यह है कि वह जनता को अधिक-से-अधिक सेवा की और नेता को अधिक-से-अधिक मेवा खाने की प्रेरणा देती है। हमारा राजा बेटा भी आख़िर जनता ही था ना।
होली आई तो हम भूल ही गए कि हमने राजा बेटे से कोई वायदा किया था, सूट का और बूट का। बेटे ने याद दिलाया-
'पापा! वह सूट और बूट?'
हम आपको बता दें कि वायदा-संस्कृति में रचे-मँजे लोग वायदा पूरा न करने पर लज्जित होना ठीक इसी प्रकार छोड़ देते हैं जैसे मंच पर बार-बार हूट होनेवाला कवि श्रोताओं की ओर ध्यान देना छोड़ देता है। वायदा तोडक़र लज्जित होनेवाले वायदा-संस्कृति के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं। यह तो इस संस्कृति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। राष्ट्र को आगे बढ़ाना और वायदा-संस्कृति को समृद्ध करना है तो ऐसे तत्त्वों से चौकस रहना होगा।
हाँ तो जैसे ही होली का पर्व निकट आया, राजा बेटा बोला, 'पापा वह सूट और बूट?'
हमने कहा, 'सचमुच कि झूठ-मूठ!'
'सचमुच।' राजा बेटे ने तान लगाई.
हमने देखा कि बेटे की कमीज़ का कालर अपनी जगह छोड़ गया था। परंतु हमने उसकी ओर से आँख बचाते हुए उत्तर दिया, 'इस होली पर नहीं बेटे अगली होली पर।'
'अगली होली पर क्यों?' राजा बेटे ने मचलकर पूछा हमसे।
हमने कहा, 'बेटे यह कोई अंतिम होली थोड़ी है तुम्हारे-हमारे जीवन की। आगे भी होली आएँगी, एक नहीं अनेक होलियाँ आएँगी। जान है तो जहान है। अगली बार हम तुम्हें इससे बढि़या सूट बनाकर देंगे, जैसा कि इस बार बनाते। सूट ही नहीं बूट भी और साथ में सैर-सपाटे की छूट भी। अबकी होली पर तुम हमें थोड़ी छूट दो, अगली होली पर।'
'अगली होली पर?' राजा बेटे ने हमारे शब्दों को अपने प्रश्न का रूप देकर पूछा, हमसे। हमने हाथों-हाथ उत्तर दिया-'अगली होली पर हम तुम्हें सचमुच का राजा बना देंगे बेटे।'
'वह कैसे?' राजा बेटा ख़ुश होकर बोला।
'जादू की छड़ी से।' हमने उत्तर दिया।
'लेकिन जादू की छड़ी आपके पास आएगी कहाँ से?' राजा बेटे ने फिर एक चिंता भरा सवाल उडे़ल दिया, हमारे कानों में। पर हम भी कोई कम घाघ नहीं थे। हाथों-हाथ उत्तर दिया-'विदेश से।'
राजा बेटा निरुत्तर रह गया। अगले दिन हमने देखा कि राजा बेटे की माँ समय-समय पर जमा किए हुए जेब ख़र्च के पैसों से कुर्ते-पायजामे का कपड़ा ले आई है। यह देखकर हमारी जान में जान आई. यह सिद्धांत तो हम जानते ही हैं कि सूखी रोटी और फटी लँगोटी जब तक बाक़ी रहती है, वायदा-संस्कृति का विकास बड़े ठाठ से होता रहता है। इसलिए राजा बेटों के लिए सूखी रोटी और फटी लँगोटी की व्यवस्था होती रहनी चाहिए.
कुर्ता-पायजामा सिलकर आया तो राजा बेटा संतुष्ट मुद्रा में बोला, 'क्यों पापा! अगली होली पर बढि़या सूट और नया बूट पक्का।'
'एकदम पक्का, सौ प्रतिशत पक्का।' हमने अपनी वायदा-संस्कृति का निर्वाह करते हुए राजा बेटे को उत्तर दिया।
हमने देखा, वह संतुष्ट है और हमारे आश्वासन पर विश्वास कर रहा है।
कमाल तो यही है भाई अपनी वायदा-संस्कृति का। इसके प्रभाव से हर बवाल टल जाता है। हमने राजा बेटे को और ज़्यादा ख़ुश करने के लिए प्यार से उसकी पीठ सहलाई और अपनी वायदा-संस्कृति पर निष्ठापूर्वक अमल करते हुए बोले-'आनेवाली होली पर राजा बेटे हम तुम्हें बढि़या सूट और नया बूट ही ख़रीदकर नहीं देंगे, नियमित रूप से तुम्हारा जेब-ख़र्च भी बाँध देंगे। जेब-ख़र्च मिलेगा तो तुम्हारी दरिद्रता दूर होगी, निर्भरता दूर होगी, तुम पास-पड़ोस में सिर ऊँचा उठाकर चल सकोगे।'
राजा बेटे ने हमारी बात सुनी तो उसकी बाछें खिल गइंर्। वह फिर स्वप्न-लोक का भ्रमण करने और अकड़-अकडक़र चलने का रिहर्सल करने लगा।
हमने देखा कि वह हमारी सेवा में पहले से भी ज़्यादा परिश्रम करने लगा है। हम दफ़्तर से आते तो पलक झपकते ही हमारे सामने उपस्थित हो जाता। हम पानी पीकर ताज़ा-दम हो गए होते तो वह किचन में अपनी माता जी द्वारा बनाई गई चाय का कप लेकर तुरंत हमारी सेवा में उपस्थित हो जाता। घर में पहननेवाले कपड़े और जूते लाकर रखता। रात हो जाती और हम भोजन करके लेटने के लिए खाट पर पसर जाते तो राजा बेटा हमारे पाँव दबाने बैठ जाता। पाँव दबाते-दबाते हमसे पूछता-'क्यों पापा? कितने दिन शेष रह गए हैं होली के?'
हम कहते, 'होली के नहीं बेटे, यों कहो ख़ाली झोली भरने के. समय तो बिजली के पंख लगाकर उड़नेवाला पंछी है बेटे। बस अब होली आई और अब झोली भरी तुम्हारी।'
एक-एक करके दिन बीते। अगली होली फिर आ गई. पर हमें कोई चिंता नहीं हुई. हम नहीं घबराए कि राजा बेटा फिर सूट और बूट माँगेगा। वायदा-संस्कृति की तो ख़ूबी ही यह है कि इसका भंडार कभी समाप्त नहीं होता है।
होली आई तो राजा बेटे ने याद दिलाया हमें, 'पापा, वह सूट और बूट!'
हमने निस्संकोच मुद्रा में बेटे को उत्तर दिया, 'बूट और सूट तुमसे बड़ा थोड़ी है बेटे, सर्वोच्च तो तुम्हीं हो। तुम होगे तो एक नहीं हज़ार सूट तुम्हारे लिए. बस थोड़ी-सी प्रतीक्षा और कर लो।'
'कब तक?' राजा बेटा बोला।
हमने फिर अपनी वायदा-संस्कृति का सहारा लिया, 'बेटे, हमने अपना कार्यक्रम थोड़ा चेंज कर दिया है! एक अदद सूट में क्या रखा है? हो तो इतना कुछ हो कि इस समय तुम उसका अनुमान भी न लगा सको।'
'लेकिन कार्यक्रम तो बताइए पापा?' राजा बेटे ने हमसे पूछा।
हमने निर्लज्ज होकर उत्तर दिया, 'कुछ होलियाँ और बीत जाने दो राजा बेटे! तुम जवान हो जाओगे तो हम बहुत ठाठ और शान के साथ तुम्हारा विवाह करेंगे। एक दो नहीं, दर्जनों सूट बनाकर देंगे, सोने का मुकुट रखेंगे तुम्हारे सिर पर। ससुराल ऐसी ढूँढक़र देंगे कि तुम्हारी पाँचों उँगलियाँ घी में रहें और सिर कढ़ाई में।'
हमारे द्वारा बरसाई गई आश्वासनों की इस झड़ी पर राजा बेटे ने ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजाइंर्। हमें लगा कि हमारी गौरवपूर्ण वायदा-संस्कृति का जादू बेटे के सिर चढक़र बोल रहा है।
इस बार फिर वही हुआ जो पिछली कई होलियों से होता चला आ रहा था। यानी राजा बेटे की अम्मा जी ने पैसा-पैसा करके जोड़ी गई रकम से अपने लाड़ले को कुर्ता-पायजामा ला दिया। एक सस्ती-सी हवाई चप्पल ख़रीद दी। माँ ने उसका तन ढका, हमने उसकी आँखों में सपने बाँधे। बात आई-गई हो गई.
अगली बार होली आते-आते बेटा और सयाना हो गया। बोला, 'दूल्हा बनने और सिर पर सोने का मुकुट रखने का समय तो अभी बहुत दूर है पापा, इस बार होली पर सूट नहीं तो बूट ही दिला दीजिए. चप्पल टूट गई है मेरी।'
हम पर भारी संकट आ गया था। पर जिंदाबाद हमारी वायदा-संस्कृति। इस बार फिर हमें बचा ले गई. हमने राजा बेटे से वायदा किया, 'चिंता न करो, होली में अभी दस दिन का समय शेष है। रंग से एक दिन पूर्व तुम्हारे लिए बढि़या बूट आ जाएगा।'
हमने देखा, राजा बेटा ख़ुश होकर ज़ोर-ज़ोर से आँखें झपका रहा है। अगले नौ दिन उसने और भी जमकर हमारी सेवा की।
'धीरे-धीरे रंग का दिन आया, पर बूट नहीं।'
राजा बेटा मचल पड़ा। बोला, 'मुझे तो अब यह लगता है पापा कि न कभी बूट आएगा न सूट।'
'आएगा क्यों नहीं बेटे, ज़रूर आएगा।' हमने फिर अपनी वायदा-संस्कृति से काम लेने की कोशिश की। लेकिन बेटा हमारी बात काटकर बोला, 'नहीं पापा, सूट और बूट कभी नहीं आएगा। माँ बचत के पैसों से कुर्ता-पायजामा और चप्पल ही ख़रीदती रहेगी जीवन-भर। आप नहीं रहेंगे तो मुझे भी यही करना होगा शायद।'
'क्या?' हमने निर्लज्ज होकर पूछा।
बोला, 'मैं भी अपने राजा बेटे को ऐसे ही आश्वासन दूँगा और मेरा राजा बेटा अपने राजा बेटे को, यह क्रम तो शायद चलता ही रहेगा पापा!'
बड़ी ही ख़तरनाक बात कह गया था हंसराज। पर हम शर्मिंदा नहीं हुए. 'जैसा राजा, वैसी प्रजा, यह कहावत तो तुमने सुनी ही है बेटे। तुम विश्वास करो, अबकी होली पर तुम्हारे लिए बढि़या सूट और बढि़या बूट लाकर देंगे हम।'
राजा बेटा कुछ बोला नहीं। हम समझ गए कि आश्वासन देना जैसे हमारी वायदा-संस्कृति की अद्भुत देन है, वैसे ही आश्वासनों पर विश्वास करना राजा बेटों की मजबूरी और मजबूरी का लाभ जो नहीं उठाता वह मूर्ख है और जहाँ तक हमारा सवाल है हम मूर्ख बना तो सकते हैं, बन नहीं सकते।
हमने देखा, राजा बेटा आश्वासनों की पोटली लिए हमारी वायदा-संस्कृति को चार चाँद लगाने, बाहर जाने के लिए उठ खड़ा हुआ था। -0-